प्रकाश पादुकोण भारत के ही नहीं दुनिया के महानतम बैडमिंटन खिलाड़ियों में शुमार होते हैं। सक्रिय खेल से रिटायर होने के बाद वे बेंगलुरु में अपनी बैडमिंटन अकादमी चलाते हैं। इन दिनों पेरिस ओलंपिक में बैडमिंटन टीम के साथ कोच की हैसियत से पेरिस में हैं।
कल लक्ष्य सेन के कांस्य पदक मैच हारने के बाद उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा कि
" अब समय आ गया है कि हमारे खिलाड़ी आगे बढ़ें और उम्मीद के मुताबिक जीत हासिल करें। सरकार और फेडरेशनों ने अपना काम किया है। खिलाड़ियों को जिम्मेदारी लेने और अपने आप से पूछने की जरूरत है कि क्या वो पर्याप्त प्रदर्शन कर रहे हैं। इन्हीं खिलाड़ियों ने अन्य टूर्नामेंटों में इन विरोधियों को हराया है, लेकिन ओलंपिक में हम अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पा रहे हैं।"
उनकी एक महान खिलाड़ी और एक कोच के रूप में उनका मान रखते हुए कहना है कि उनका बहुत ही कुंठा में दिया गया बयान है। ये बयान उन आम खेल प्रेमियों जैसा है जो टीम की एक जीत पर उन्हें सिर पर बैठा लेते हैं और एक हार पर उन्हीं खिलाड़ियों की जान लेने पर उतर आते हैं। कोई भी प्रोफेशनल कोच अपने खिलाड़ियों के खराब प्रदर्शन पर इस तरह का बयान नहीं ही दे सकता।
खैर,उनके बयान के परिप्रेक्ष्य में कुछ तथ्यों और प्रश्नों पर बिंदुवार विचार किया जाए।
एक, जब वे कहते हैं कि अपने प्रदर्शन की जिम्मेदारी खुद लेनी चाहिए। तो बताएं कि वे कौन से खिलाड़ी हैं जो अपने खराब प्रदर्शन के लिए दूसरों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं। क्या लक्ष्य सेन ने कहा या पी वी सिंधु ने कहा साइराज शेट्टी ने कहा। एक का भी नाम बताइए। यानी एक भी नहीं। कुछ खिलाड़ी बेहतर सुविधाओं की बात करते हैं। तो क्या ये बात गलत है? क्या आप वास्तव में उन्हें उस तरह की सुविधाएं दे रहे हैं जैसी सुविधाओं की उन्हें दरकार है? इस सवाल पर हमेशा ही एक बड़ा प्रश्न चिह्न लगा है और लगता रहेगा।
अगर खिलाड़ी अपने प्रदर्शन के लिए खुद के बजाए किसी और को दोषी नहीं ठहरा रहे हैं तो आपके कहने का आशय ये है कि खिलाड़ी ओलंपिक जैसे बड़े आयोजनों में अपना शत प्रतिशत नहीं देते। पदक जीतने के लिए अपनी जान नहीं लड़ा देते। अगर ऐसा है तो एक खिलाड़ी पर इससे बड़ा और कोई आरोप नहीं हो सकता। आप उसकी इंटेग्रिटी पर, उसकी खेल एथिक्स पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं। और इससे गंभीर बात भी कोई और नहीं हो सकती। क्या कोई खिलाड़ी ऐसा होता है जो खेल के इतने बड़े मंच पर जीत हासिल करने के लिए शत प्रतिशत नहीं देगा!
भारत में ज़्यादातर खेलों में अधिकांश खिलाड़ी बहुत ही साधारण पृष्ठभूमि से आते हैं। उनमें से भी बहुत सारे खिलाड़ी ग्रामीण पृष्टभूमि और किसान परिवार से आते हैं। उनके लिए खेलों में भाग लेना कोई शौक या मनोरंजन का बायस नहीं होता। ये खेल उनकी रोजी रोटी से जुड़े होते हैं। ये उनकी आजीविका से जुड़े होते हैं। दरअसल ये खेल उनके जीवन मरण का प्रश्न होता है। ये उनके अस्तित्व का प्रश्न है। वे खेल में श्रेष्ठता हासिल करने के लिए और पदक जीतने के लिए जान झोंक देते हैं। इसमें खुद वो खिलाड़ी ही शामिल नहीं होता बल्कि उसका पूरा परिवार उसको एक बड़ा खिलाड़ी बनाने में अपना सब कुछ झोंक देता है। आप ऐसे खिलाड़ियों की निष्ठा,उसके कमिटमेंट और इंटेग्रिटी पर सवाल आखिर कैसे उठा सकते हैं।
दो, आप कहते हो सरकार,खेल संघ और स्पोर्ट स्टाफ सब कुछ कर रहा है और इसलिए इन्हें जीतना चाहिए। यानी आप का मानना है कि सब कुछ करना जीतने की गारंटी होना है। इस हिसाब से तो बीसीसीआई क्रिकेटरों को सबसे ज़्यादा पैसा और सुविधाएं देता है। सिर्फ हिंदुस्तान में ही नहीं बल्कि पूरे क्रिकेटिंग विश्व में। लेकिन वे भी 13 साल बाद विश्व कप जीत सके हैं। आपके तर्क के हिसाब से तो उन्हें कभी हारना ही नहीं चाहिए। विकसित देश अपने खिलाड़ियों पर जितना ख़र्च करते हैं,उसका तो आप पासंग भी नहीं करते। क्या उनके खिलाड़ी कभी नहीं हारते।
तीन,आप कहते हो सरकार और संघ बहुत कर रहे हैं। आप बताएँ क्या बहुत कर ररहे हैं। अमेरिका अपनी महिला और पुरुष बास्केटबॉल टीम के ओलंपिक में रहने भर पर 15 मिलियन डॉलर खर्च करता है। आप कितना करते हो। आप ही के यहां बीसीसीआई ही खिलाड़ियों को कितना पेमेंट करते हैं। बाकी खेलों में खिलाड़ियों को उनका पासंग भी मिलता है क्या।
चार,आप कहते हो खेल संघ बहुत कुछ कर रहे हैं। इससे भद्दा और क्रूर मजाक तो हो ही नहीं सकता। भारत में खेल संघ कैसे हैं और खेल विकास के लिए कैसे काम करते हैं, इसके लिए एक कुश्ती महासंघ का उदाहरण ही पर्याप्त है। इन संघों की गुटबाजी कितनी ज़्यादा है ये किसी से छिपी नहीं है। इसमें सबसे ज़्यादा नुकसान खिलाड़ियों का होता है। उन्हें पता नहीं चलता वे किस गुट को अधिकृत माने किसको अनाधिकृत। ज़रा से गलत निर्णय से उनका पूरा खेल कैरियर चौपट हो जाता है। बिहार क्रिकेट संघ को सालों साल मान्यता नहीं मिली। वहां के क्रिकेटर के कहीं भी नहीं खेल पाते थे। कितना अन्याय उनके साथ हुआ। अंदाज़ा भी है आपको। उत्तराखंड के संघ को मान्यता नहीं मिली। उत्तराखंड के खिलाड़ी सिल्ली और दूसरे राज्यों में जाकर अपना भाग्य आजमाते थे। कितनी कठिनाइयां वहां के होनहार और युवा क्रिकेटरों ने उठाई। पता भी है आपको। ये हालत तो बीसीसीआई की है। बाकी के तो हालातों का तो कहना ही क्या। हर जिले में हर प्रदेश में खेल संघों के कितने गुट हैं। वे खेल से ज़्यादा अपने प्रभाव को बनाने में लगाते हैं। आप कहते हो खेल संघ काम कर रहे हैं।
पांच, केवल ओलंपिक में ही 117 खिलाड़ियों के साथ 150 के आप पास का कोचिंग और सपोर्टिंग स्टॉफ है। सरकार उन्हें भी भारी वेतन और भत्ते देती है। उसके बावजूद खिलाड़ी अपने व्यक्तिगत कोच ले जाना चाहते हैं। क्यों? आप जानते हैं सरकारी कोच जो बाहर भेजने के लिए चुने जाते हैं उन पर खिलाड़ी क्यों विश्वास नहीं करते। फिर उन आधिकारिक ऑफिसियल्स,कोचेज और सपोर्टिंग स्टाफ की क्या ज़िम्मेदारी है। क्या खिलाड़ियों के प्रदर्शन पर उनकी कोई जवाबदेही नहीं बनती है।
छह, आप कहते हो खिलाड़ी बाकी प्रतियोगिताओं में अच्छा करते हैं लेकिन ओलंपिक में हार जाते हैं। आप ये भी कहते हो कि वे जिन खिलाड़ियों को दूसरी जगह पर हराते हैं, उनसे यहां हार जाते हैं। यानी आप मानते हो वे खिलाड़ी काबिल हैं। उनमें योग्यता है। तो फिर क्या वे ओलंपिक में जानबूझ कर हार जाते हैं। नहीं ना। तो क्या वे अच्छा करने और पदक जीतने के अतिरिक्त दबाव में आ जाते हैं। अगर हां तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है। कौन उनकी मानसिक दृढ़ता के लिए कोचों की व्यवस्था करेगा। आपने कहा कि आप खिलाड़ियों की मानसिक दृढ़ता के लिए काम कर रहे हैं। फिर भी अगर खिलाड़ी मानसिक दृढ़ता की कमी से हारे तो आपकी क्या ज़िम्मेदारी बनती है।
सात,आपकी अपनी अकादमी है जिसे बहुत सारा सरकारी अनुदान भी मिलता होगा। इसमें आप खिलाड़ियों को प्रशिक्षित करने के लिए हज़ारों खिलाड़ियों से मोटी फीस वसूलते होंगे। आपकी अकादमी ने कितने पदक भारत को दिलाए। क्या एक अकादमी और इतने बड़े खिलाड़ी और कोच होने के कारण आप कोई ज़िम्मेदारी स्वीकार करते हैं।
और अंतिम, ये सब जानते हैं कि अब वैयक्तिक स्पर्धाओं में भी खिलाड़ी अकेला नहीं होता है। उसके साथ पूरी टीम होती है। खेल अरीना में ज़रूर खिलाड़ी अकेला होता है। लेकिन पूरी टीम उसके साथ होती है। जीत भी पूरी टीम की होती है और हार भी पूरी टीम की होती है। जब लक्ष्य जीत रहे थे तो पूरा देश आपकी तारीफ कर रहा था। आप खुशी से उसे स्वीकार कर रहे थे। आपने एक बार भी मीडिया में ये नहीं कहा कि नहीं ये जीत सिर्फ लक्ष्य की है। जीत भी पूरी टीम की होती है और हार भी पूरी टीम की हुई ना। और ज़िम्मेदारी भी पूरी टीम की हुई कि नहीं। ऐसा तो नहीं हो सकता ना कि जीते तो पूरी टीम की और हारे तो ज़िम्मेदारी खिलाड़ी की।
यानी मीठा मीठा आप गप्प करो और कडुआ कडुआ थू।
आप चाहे कितने बड़े खिलाड़ी हों लेकिन श्रीमान प्रकाश पादुकोण सर आपका बयान बहुत ही असंवेदनशील है और साथ ही खिलाड़ी की गरिमा,उसकी इंटेग्रिटी और कमिटमेंट के खिलाफ है।
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