Thursday 31 December 2020

विदा_साल_2020_1

 

स्मृतियां दृश्य होती हैं। दृश्य जितने पास होते हैं उतने ही स्पष्ट और ज़्यादा स्पेस घेरने वाले होते हैं। समय जैसे जैसे उन्हें दूर लेता जाता है, दृश्य धुंधले और छोटे होते जाते हैं और अंततः अनंत में विलीन हो जाते हैं। लेकिन कुछ दृश्यों के साथ ध्वनि भी होती है। दृश्य भले ही धुंधले या विलीन हो जाएं पर ध्वनियां मद्धिम नहीं पड़ती। वे समय की सीमाओं से टकरा बार बार लौटती हैं। वे अनुगूंजें हमेशा सुनाई पड़ती हैं। ये दीगर बात है उनमें से कुछ अनुगूंज संगीत सी मधुर,रेशम सी मुलायम,कपास सी छुईमुई,ओस सी पवित्र होती हैं तो कुछ सांझ सी उदास,रात सी निष्ठुर,अट्टाहास सी भयानक होती हैं।

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Thursday 3 December 2020

जाना गोल्डन किड का



फुटबॉल खेल का पूरा इतिहास दो देवता तुल्य खिलाड़ियों के बीच का इतिहास है जो एक से शुरू होकर  दूसरे पर आकर रुका हुआ है। इसका प्राचीनतम छोर ब्राजील के पेले से शुरू होता है और अर्जेंटीना के लियोनेस मेस्सी पर आकर रुकता है। ये दोनों फुटबॉल के देवता है, लीजेंड हैं और मिथक हैं। लेकिन क्या मानव सभ्यता का इतिहास बिना मानव के लिखा जा सकता है? नहीं ना! देवताओं का हो या मनुष्यों का- इतिहास किसी का भी लिखा जाए उसके केंद्र में होगा आदमी ही जो अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद  सीना तान कर शान से सिर ऊंचा करके खड़ा होगा। फुटबॉल इतिहास के दो सिरों-पेले और मेसी के बीच अपनी तमाम कमजोरियों और अवगुणों के साथ एक मानुस-माराडोना सीना ताने खड़ा है जो सीना ठोक कर फुटबॉल के देवताओं को चुनौती देता है और कहता है आप चाहे जितने बड़े देवता हो जाओ, पर फुटबॉल खेल का,उसके इतिहास का केंद्रीय बिंदु मैं ही रहूंगा। दरअसल डिएगो आरमाण्डा माराडोना फुटबॉल के महान देवताओं के बीच एक असाधारण मानुस सरीखा है। जिसने 60 साल की उम्र में कल इस फानी दुनिया को अलविदा क्या कहा कि पूरा खेल जगत खालीपन के अहसास के गहरे समंदर में डूब गया।

1986 के विश्व कप में इंग्लैंड के खिलाफ क्वार्टर फाइनल मैच के बाद प्रसिद्ध फ्रेंच अखबार ला एक्विपे ने माराडोना को 'आधा देवदूत,आधा दानव'(half angel, half devil) के रूप में व्याख्यायित किया था। दरअसल ये उसके अदभुत खेल कौशल के साथ साथ उसकी  स्वभावगत कमजोरियों की और संकेत था। वो एक अद्भुत खिलाड़ी था; सार्वकालिक महान खिलाड़ियों में एक; अद्भुत खेल कौशल और चातुर्य से युक्त ऐसा खिलाड़ी जिसने एक बार नहीं तीन तीन बार गोल करने या बचाने में हाथ का प्रयोग किया हो,जो व्यक्तिगत जीवन में मादक पदार्थों के सेवन का व्यसनी हो और अपनी कृत्यों से कई बार शर्मसार भी कर देता हो। पर क्या ही कमाल है उसके पास  अद्भुत खिलाड़ी होने का एक ऐसा आभामंडल था जिसके प्रकाश की चकाचौंध में उसके जीवन की कालिख, उसका अंधेरा विलीन हो जाता था। लोगों पर उसके खेल का जादू सर चढ़ कर बोलता था। 

सच में वो फुटबॉल का जादूगर था। फुटबॉल का ध्यानचंद। वो सर्वश्रेष्ठ ड्रिबलर जो था। जब वो ड्रिबल करता तो द्रुत में क्लासिक नृत्य करता प्रतीत होता। गेंद उसकी चेरी प्रतीत होती और उसकी थाप पर झूमती प्रतीत होती। जब गेंद को लेकर आगे बढ़ता तो वो 'वन मैन आर्मी'होता था जिसके विरुद्ध विपक्षी हिंसक समूह के रूप में एकजुट हो जाते। पर वो था कि अपने अद्भुत खेल रणकौशल और खेल चातुर्य से लय और गति का एक ऐसा मनमोहक जाल फैलाता कि उसके सम्मोहन से  मंत्रमुग्ध हुए विपक्षी खिलाड़ी खेत होते जाते और वो किसी विजेता सा अपने लक्ष्य गोलपोस्ट पर खड़ा मुस्कुराता और गेंद गोलपोस्ट के अंदर चैन की सांस लेती। 

गेंद और उसके एक जोड़ी पैरों की कमाल की जुगलबंदी थी। वे एक दूसरे के प्रेम में थे। मानो वे एक दूसरे का बिछोह सहन ही नहीं कर पाते। गेंद जब देखो उन पैरों को चूमने आ जाती। इस प्रेम का एक और कोण था-वे मैदान जहां वे एक जोड़ी पैर जाते। दरअसल वे मैदान भी उसके प्यार में पड़ जाते।  मैदान उन पैरों को गति प्रदान करते तो गेंद उस गति में लय भर देती। धरती गेंद को बार बार उन पैरों से अलगाती और गेंद उन पर न्योछावर हो हो जाती। जहां वे पैर जाते वहां दो टीमों  के संघर्ष से अलहदा उस मैदान,गेंद और पैरों की त्रिकोणीय जुगलबंदी का एक अदभुत संगीत निसृत होता रहता जो देखने वालों को मदहोश करता रहता।

वो केवल 5 फुट 5 इंच का छोटे कद का खिलाड़ी था। उसका छोटा कद उसका बैलेंस बनाने में बहुत सहायक होता और वो बहुत ही तीव्र गति से गेंद पर पूरे नियंत्रण के साथ ड्रिबल कर पाता था। उसका कद ही छोटा था पर खेल उतना ही ऊंचा। वो फुटबॉल का डॉन ब्रैडमैन था,सचिन तेंदुलकर था और सुनील गावस्कर भी। जो जादू डॉन,सचिन या गावस्कर अपने बल्ले से रचते वो माराडोना अपने पैरों से रचता। 

वो 10 नंबर की जर्सी पहनता था। पेले और मेस्सी भी 10 नंबर की पहनते हैं। माने वो फुटबॉल का अतीत भी था,वर्तमान भी और भविष्य भी। सचिन भी 10 नम्बर की जर्सी पहनता था। ध्यान से देखिए ये सारे  अपनी प्रतिभा से उत्कृष्टता का एक कोमल संसार रचते। किसी कविता की तरह। ला डेसिमा की तरह। क्या ही संयोग है ना कि स्पेनिश कविता में भी 10 पंक्तियों का स्टेन्ज़ा होता है। वो फुटबॉल का जॉन मैकनरो भी था। उसी की तरह बिगड़ैल चैंपियन।

1986 के विश्व कप का इंग्लैंड के विरुद्ध क्वार्टर फाइनल का मैच उसके व्यक्तित्व का मानो आईना हो,उसके जीवन का शाहकार हो। उस मैच में उसने दो गोल दागे। पहला गोल उसने हाथ से किया। ये एक फ़ाउल था पर उस समय पकड़ में नहीं आया। बाद में उसने इसे 'हैंड ऑफ गॉड'कहा। लेकिन इस गोल के ठीक पांच मिनट बाद एक गोल किया। ये अदभुत गोल था। फुटबॉल खेल के कौशल का सर्वश्रेष्ठ निदर्शन। जिसे बाद में सदी का सर्वश्रेष्ठ गोल माना गया। उसने अपने हाफ में गेंद ली और इंग्लैंड के पांच खिलाड़ियों को मात देते हुए गोल किया। यहां तक कि गोलकीपर सेल्टन भी उसके पीछे रह गया था जब वो गेंद गोलपोस्ट के भीतर भेज रहा था। एक बेईमानी से नियम विरुद्ध और दूसरा असाधारण खेल कौशल से। ऐसे ही दो विरुद्धों से उसका जीवन बना था। एक खिलाड़ी के रूप में वो लेटिन अमेरिकी फुटबॉल की पेले और मेस्सी के बीच की कड़ी और फुटबॉल परंपरा और दीवानेपन का प्रतिनिधि खिलाड़ी ही नहीं है बल्कि उन दोनों के साथ उस महाद्वीप के फुटबॉल की महान प्रतिभाओं की त्रयी भी बनाता है। आप फुटबॉल के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों के लिए विश्व भर की परिकरामा कीजिए आ फिर  गणेश परिक्रमा की तरह केवल इन तीनों की। परिणाम एक ही होना है। लेटिन अमेरिका की सबसे बड़ी चंद पहचान आखिर क्या हैं साम्यवाद, फुटबॉल, कलात्मकता, मादक द्रव्य और आमजन का जीवन संघर्ष ही ना। तो लेटिन अमेरिका का माराडोना से बड़ा प्रतिनिधि चरित्र और क्या हो सकता है।  

माराडोना संघर्षों को जीता था। उसका जीवन ही संघर्षों से गढ़ा हुआ था। उसे अपने भीतर के  चारित्रिक विरुद्धों से ही संघर्ष नहीं करना था बल्कि  गरीबी और अभावों से ही लड़ना था। शायद संघर्ष उसकी नियति थी। उसे मैदान में भी सबसे कठिन और बहुत ही रफ टेकलिंग का सामना करना पड़ा। उसके विरुद्ध विपक्षी डिफेंडर उस पर टूट पड़ते। पर वो संघर्षों से तपा था। कोई भी ताप से झुलस नहीं सकता था। संघर्ष उसके जीवन की नियति थी तो क्लासिक प्रतिद्वंद्विताएँ उसके खेल जीवन की थाती थीं। फिर वो चाहे अर्जेंटीना की 'सुपर क्लासिको' हो,स्पेन की 'एल क्लासिको'हो या डर्बी डी इटेलिया की 'डर्बी डेल सोल' प्रतिद्वंदिता। उसने 16 साल की उम्र में 16 नम्बर की जर्सी से अपने प्रोफेशनल खेल की शुरुआत की अर्जेंटीनो जूनियर्स से। पर उसका सपना बोका जूनियर्स था। पूरा 1981 में हुआ। बोका से पहला सुपरक्लासिको मैच रिवर प्लेट के खिलाफ उसी साल 10 अप्रैल को खेला। पहले ही मैच में 3-0 से जीत हुई जिसमें एक गोल माराडोना का था। ये शुरुआत भर थी। 1982 के विश्व कप के बाद वो बार्सिलोना का हिस्सा हो गया तो बोका और रिवर प्लेट,बार्सिलोना और रियाल मेड्रिड में तब्दील हो गए। बस अगर कुछ नहीं बदला तो माराडोना का खेल। उसके खेल का जादू प्रतिद्वंदी प्रशंसकों पर भी इस कदर छा गया कि मेड्रिड समर्थकों से तारीफ पाने वाला पहला खिलाड़ी बन गया।  1984 में स्पेन से इटली आया नेपल्स में तो ये बार्सिलोना और मेड्रिड की प्रतिद्वंदिता अब नेपोली बनाम रोमा में तब्दील हो गयी। पर श्रेष्ठता माराडोना की टीम की ही बनी रही। उसने सेरी ए का नेपोली को सिरमौर बना दिया। यहां उसने नेपोली को ही चरम पर नहीं पहुंचाया बल्कि ये खुद माराडोना का भी सर्वश्रेष्ठ समय था।

वो सार्वकालिक फुटबॉल खिलाड़ी की फीफा वोटिंग में कई बार पेले के बाद दूसरे नंबर पर आया। पर बिना किसी संदेह के वो विश्व कप फुटबॉल का सार्वकालिक सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी था। 1986 का विश्वकप इसका प्रमाण है। 1986 में उसने अर्जेंटीना को चैंपियन बनाया। ये उसने अपने दम पर किया। ये टीम से ज़्यादा उसकी अकेले की, उसकी प्रतिभा,उसकी योग्यता की जीत थी। ये उसका अदभुत प्रदर्शन था। उसने इस प्रतियोगिता में 5 गोल और 5 असिस्ट की और हर मैच में पूरे समय खेला। ये साधारण मानव का एक असाधारण खिलाड़ी के रूप में असाधारण प्रदर्शन था। 

दरअसल  माराडोना का होना केवल एक महान खिलाड़ी का होना भर नहीं था,बल्कि फुटबॉल खेल की उत्कृष्टता का होना था। उसका होना प्रेरणा का अजस्र स्रोत होना था। उसका होना फुटबॉल के जादुई संसार का होना था। उसका होना फुटबॉल की मुहब्बत में डूब डूब जाना था। वो था तो फुटबॉल थी,फुटबॉल का खेल था,उसका संसार था,उसका खुमार था। अब वो नहीं है तो क्या ये सब ना होगा। होगा,ज़रूर होगा। किसी के जाने से दुनिया थोड़े ही ना रुक जाती है। पर यकीन मानिए वैसा बिल्कुल नहीं होगा जैसा उसके होने पर होता था।

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अलविदा 'एल पिबे डी ओरो'

Monday 12 October 2020

इनक्रेडिबल राफा

 खबर :

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फिलिप कार्टियर मैदान पर आज स्पेन के राफेल नडाल ने सर्बिया के नोवाक जोकोविच को 6-0,6-2,7-5 से हराकर फ्रेंच ओपन के पुरुष एकल का खिताब जीत लिया। ये उनका रिकॉर्ड 13वां फ्रेंच ओपन खिताब था। उन्होंने कुल 20 ग्रैंड स्लैम खिताब जीत कर  रोजर फेडरर की बराबरी कर ली है।

प्रतिक्रिया :

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असाधारण,अविश्वसनीय, अद्भुत,बेजोड़,किंग ऑफ क्ले, आदि आदि आदि आदि।

विश्लेषण :

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आज राफा फ्रेंच ओपन के पुरुष एकल फाइनल मैच के तीसरे सेट में 6-5 के स्कोर पर 12वें गेम में चैंपियनशिप के लिए सर्व कर रहे थे। उन्होंने पहले तीन अंक जीते। अब उनके पास तीन चैंपियनशिप अंक थे। उसके बाद उन्होंने शानदार ऐस लगाया और घुटनों के बल बैठ गए। ये अद्भुत जीत का शानदार समापन था। वे टेनिस इतिहास में अपना नाम दर्ज़ करा चुके थे। वे एक ऐसा  कार्य कर चुके थे जो अब 'ना भूतो ना भविष्यति' की श्रेणी में आ चुका है।

याद कीजिए 1973 में एक फ़िल्म आई थी 'बारूद'। उसमें एक गीत था 'समुंदर समुंदर, यहां से वहां तक,ये मौजों की चादर बिछी आसमान तक, मेरे मेहरबां,मेरी हद है कहाँ तक,कहाँ तक।' इन पंक्तियों को राफेल नडाल की जीत से जोड़कर देखिए और उनसे पूछिए कि रोलां गैरों के इस समुंदर में उनकी जीत की हद है कहां तक,कहां तक। और इसका एक ही जवाब मिलेगा रोलां गैरों का पूरा समंदर ही उनकी जीत की हद है। 

आप उनकी जीत के लिए चाहे किसी भी विशेषण का प्रयोग कर लें,पर वो अपर्याप्त लगेगा। 2005 में फिलिप कार्टियर कोर्ट पर 19 साल की उम्र में उन्होंने पहली जीत हासिल की थी। और आज 2020 तक 15 सालों में 13वीं जीत। 13 फाइनल और 13 जीत। कुल मिलाकर रोलां गैरों में 100वीं जीत और क्ले कोर्ट पर 60 खिताब। वे 'किंग ऑफ क्ले'यूं ही थोड़े ही कहलाते हैं। पर क्या ये विशेषण उनकी महत्ता को सही अर्थों में अभिव्यक्ति देता है। शायद नहीं ना। 

प्राचीन भारतीय राज्य व्यवस्था में चक्रवर्ती सम्राट की संकल्पना है जो अपनी संप्रभुता सिद्ध करने के लिए प्रतिवर्ष अश्वमेध यज्ञ करता। अब इस रूपक को नडाल की जीत के  संदर्भ में देखिए। रोलां गैरों नडाल का अपना साम्राज्य है जिस पर प्रभुसत्ता सिद्ध करने के लिए वे साल दर साल आते और अपने खेल का अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न करते हैं। तमाम छोटे बड़े राजा से लेकर सम्राट तक मस्केटियर ट्रॉफी रूपी अश्व को पकड़ने का असफल प्रयास करते। नडाल के अद्भुत खेल के प्रताप के आगे हर किसी की आभा फीकी पड़ जाती। दरअसल वे 'क्ले के चक्रवर्ती सम्राट' हैं।

और अगर किसी को इस बारे में कोई संदेह हो तो इस साल की प्रतियोगिता में उनके खेल पर एक नज़र भर डाल लें। बिना कोई सेट खोए ग्रैंड स्लैम खिताब जीतने का ये कारनामा टेनिस इतिहास में सिर्फ चौथी बार हुआ है। 34 साल की उम्र में राफेल ने 19 साल के जोश और ताकत से लबरेज सिनर से लेकर 33 साल के अनुभवी, विश्व के नम्बर एक खिलाड़ी चैंपियन खिलाड़ी नोवाक तक को बहुत ही आसान से और कन्विनसिंगली हराया। 

आज तो वे गज़ब की फॉर्म में थे। एक सच्चे चैंपियन की तरह। आत्मविश्वास और उत्साह से लबरेज। पूरे मैच में एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि वे चैंपियन नहीं बनेंगे,बल्कि कहें तो पूरी प्रतियोगिता में। यूं तो आज दोनों ही खिलाड़ी जीतकर नया इतिहास बनाने को बेताब थे। अगर नोवाक जीतते तो ओपन इरा में वे पहले ऐसे खिलाड़ी होते जिसने चारों ग्रैंड स्लैम कम से कम दो बार जीते हों। और उनके ग्रैंड स्लैम की संख्या 18 हो जाती और वे नडाल और फेडरर के और करीब आकर गोट(सार्वकालिक महान खिलाड़ी) की रेस को ओर करीबी और रोचक बना देते। तो दूसरे ओर नडाल जीतते तो कोई एक प्रतियोगिता 13 बार जीतकर एक असाधारण रिकॉर्ड बनाते और अपनी ग्रैंड स्लैम की संख्या फेडरर के बराबर 20 तक पहुंचा देते। सफलता नडाल के हाथ लगी।

मैच का पहला ही गेम ड्यूस में गया और नोवाक की सर्विस ब्रेक हुई। अगला गेम भी ड्यूस में गया और राफेल ने तीन ब्रेक पॉइंट बचाए और 2-0 की बढ़त ले ली। अपनी सर्विस बचाते हुए नोवाक की अगली दोनों सर्विस भी ब्रेक की और पहला सेट 6-0 से जीतकर बताया कि क्ले के असली चैंपियन वे ही हैं और ये भी कि यहां फाइनल में उनका अजेय रहने का रिकॉर्ड बरकरार ही रहना है। हांलांकि  6-0 के स्कोर से ये नहीं समझना चाहिए कि राफा बहुत आसानी से जीते। दरअसल इसमें जोरदार संघर्ष हुआ और सेट कुल 45 मिनट में समाप्त हुआ। औसतन साढ़े सात मिनट प्रति गेम समय लगा। नोवाक अच्छा खेल रहे थे लेकिन एक तो राफा आज अपने सर्वश्रेष्ठ रंग में थे तो दूसरी और नोवाक ने अनफोर्स्ड एरर (बेजा गलतियां) बहुत ज़्यादा की। अगले सेट की भी कहानी पहले जैसे ही रही और दो सर्विस ब्रेक के साथ  नडाल ने दूसरा सेट भी 6-2 से जीत लिया। और जब तीसरे सेट में दूसरी सर्विस ब्रेक कर 3-1 की बढ़त ले ली तो लगा नडाल की जीत की अब औपचारिकता बाकी है। तभी नोवाक कुछ रंग में आए और ना केवल अपनी सर्विस बचाई बल्कि नडाल की सर्विस ब्रेक कर 3-3 की बराबरी की। अब लगा मैच अभी बाकी है। पर  5-5 के स्कोर पर नडाल ने फिर नोवाक की सर्विस ब्रेक की और 6-5 चैंपियनशिप के लिए चैंपियन की तरह सर्विस की और शानदार ऐस से मैच समाप्त किया।

आज नडाल अपनी शानदार फॉर्म में थे। उन्होंने जिस शानदार खेल की शुरुआत पहले दौर के मैच में इ. गेरासिमोव को हराकर की थी,वो आज चरम पर था। वे आत्मविश्वास से भरे थे। उन्होंने न्यूनतम बेजा गलती की। उनकी कोर्ट की कवरेज अविश्वसनीय थी। हर बॉल तक आसानी से पहुंच जाते और असाधारण  रिटर्न्स कर बार बार नोवाक को हैरत में डाल देते। यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि इस बार परिस्थितियां नडाल के प्रतिकूल थीं। एक तो खचाखच दर्शकों से भरे स्टैंड्स नहीं थे। दूसरे इस बार ये प्रतियोगिता मई-जून के बजाय अक्टूबर में हो रही थी जब ठंडा काफी ज्यादा होती है। ऊपर से इस बार नई गेंद का इस्तेमाल किया गया जो पहले की तुलना में थोड़ी भारी थीं। भारी मौसम और भारी गेंद से गेंद का स्पिन होना बहुत कठिन था और ये बात राफेल के प्रतिकूल जा रही थी और इसीलिए गेंद बदलने पर प्रारंभ में ही राफा ने अप्रसन्नता ज़ाहिर  कर दी थी। लेकिन वो चैंपियन ही क्या जो विपरीत परिस्थितियों में खेल को एक अलग स्तर पर ना ले जाए। नडाल ऐसे ही चैंपियन खिलाड़ी हैं। उनकी आज कोर्ट कवरेज तो असाधारण थी ही। साथ ही उन्होंने शानदार ड्राप शॉट खेले और टॉपस्पिन लॉब शॉट भी खेले जिससे ना केवल उन्हें अपनी पोजीशन में आने का अतिरिक्त समय मिलता बल्कि नोवाक को रिटर्न करने में भी परेशानी होती। उन्होंने आज शानदार फोरहैंड वॉली लगाई। उन्हें बैकहैंड पर आई गेंद को भी फोरहैंड की  पोजीशन में आकर विनर लगाते देखना दर्शनीय था। 

निसन्देह आज वे अपने सर्वश्रेठ रंग में थे। आखिर जब वे इस लाल मिट्टी पर खेलने आते हैं तो क्या हो जाता है उन्हें। दरअसल वे इस प्रायद्वीप में बचपन से रहे हैं,पले हैं,बढ़े हैं और इसी मिट्टी पर खेलते हुए बड़े हुए हैं। इसका ज़र्रा ज़र्रा उनके कदमों की आहट पहचानता है, वे राफा के  पसीने की खुशबू से सुवासित हो उठते हैं। वे राफा के कदमों में बिछ बिछ जाते हैं और उनके कदमों को अद्भुत गति देते हैं। और फिर वे इतने गतिशील और लयबद्ध हो जाते हैं कि लगता है वे अपने रैकेट और बॉल से खेल नहीं रहे हैं बल्कि कोई कविता रच रहे हैं। स्पेनिश भाषा में कविता की एक फॉर्म है 'डेसिमा' जिसे 16वीं सदी के महान स्पेनिश लेखक और संगीतकार विंसेंट एस्पिनल ने विकसित किया था। इसमें 10 पंक्तियों के स्टेन्ज़ा होते हैं। अपनी जीत से लिखी जा रही 'डेसिमा' (कविता) का पहला स्टेन्ज़ा उन्होंने 2017 में वारविन्का को हराकर 10वां फ्रेंच ओपन खिताब जीतकर पूरा किया था और आज 13वें  फ्रेंच ओपन के साथ 20वां  ग्रैंड स्लैम जीत कर अपनी डेसिमा (कविता ) का दूसरा स्टेन्ज़ा पूरा किया है।

यहां पर याद कीजिये रियाल मेड्रिड फ़ुटबाल क्लब के दसवें यूरोपियन कप को जीतने के उसके ऑब्सेशन को कि 'ला डेसिमा' फ्रेज़ उसके इस ऑब्सेशन का समनार्थी बन गया था। उसने यूरोपियन कप जिसे अब चैम्पियंस लीग के नाम से जाना जाता है,नौवीं बार 2002 में जीता था। उसके बाद उसे 12 सालों तक प्रतीक्षा करनी पडी थी। तब जाकर 2014 में रियाल मेड्रिड की टीम अपना दसवां खिताब जीत सकी थी। लेकिन नडाल ने तो लगभग इस अवधि में दो 'ला डेसिमा' रच दिए।

      दरअसल आज नडाल के रूप में एक महान स्पेनिश खिलाड़ी कोर्ट के भीतर एक  एकतरफ़ा फाइनल मैच में बाल और रैकेट से लाल मिट्टी पर शानदार डेसिमा की रचना कर दुनिया को सुना रहा था जिसे खुद उनका प्रतिद्वंदी भी मंत्र मुग्ध सा सुन और देख रहा था ।

 और ,और इस तरह राफा था कि टेनिस जगत का एक असाधारण इतिहास लिख रहा था।  

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राफा को 20वां ग्रैंड स्लैम बहुत मुबारक हो



नई चैंपियन:इगा स्वियातेक

 


इन दिनों पेरिस के रोलां गैरों में ये कमाल का विरोधाभास दर्ज हो रहा है। कल 11 अक्टूबर को पुरुष वर्ग में दो सबसे उम्रदराज़ खिलाड़ी तमाम युवा खिलाड़ियों के जोश और उत्साह को अपने अनुभव के सबक सिखाते हुए और उम्र को धता बताते हुए एक नया इतिहास रचने को तैयार हैं। कल के फाइनल में 34 साल के राफेल नडाल 33 साल के नोवाक जोकोविच के मुकाबिल होंगे। तो वहीं महिला वर्ग में बढ़ती उम्र के तमाम अनुभव को धूल धूसरित करते हुए  युवा जोश और टेलेंट सफलता की नई इबारत लिख रहा था। और दो युवा फाइनल में एक दूसरे के मुकाबिल थीं।

आज महिला वर्ग के फाइनल में गैर वरीयता प्राप्त पोलैंड की 19 वर्षीया इगा स्वियातेक और चौथी वरीयता प्राप्त व इस साल की ऑस्ट्रेलियाई ओपन विजेता अमेरिका की 21 वर्षीया सोफिया केनिन आमने सामने थीं। और इस मुकाबले में टीनएजर स्वियातेक,केनिन को 6-4, 6-1 से हराकर नई चैंपियन बन गईं।

ये भी कमाल का संयोग है कि स्वियातेक,केनिन को हराकर एक इतिहास की पुनरावृति कर रही थीं। लगभग चार साल पहले 2016 में स्वियातेक 15 वर्ष की हुई ही थीं और जूनियर फ्रेंच ओपन में पहली बार भाग ले रही थीं। तब तीसरे राउंड में केनिन उनके सामने थीं और उन्होंने केनिन को 6-4 और 7-5 से हराया था। तब से लेकर अब तक सीन नदी में बहुत पानी बह चुका है। स्वियातेक 2018 का जूनियर विम्बलडन का खिताब जीत चुकी थीं तो केनिन इसी साल के आरंभ में ना केवल ऑस्ट्रेलियाई ओपन जीतकर अपना ग्रैंड स्लैम की जीत का खाता खोल चुकी थीं बल्कि वे विश्व रैंकिंग में 6ठे स्थान पर थीं और यहां पर उन्हें चौथी वरीयता प्राप्त हुई थी। अगर कुछ नहीं बदला तो सिर्फ मैच का परिणाम नहीं बदला। एक बार फिर स्वियातेक जीतीं और ये जीत कुछ और आसान व एकतरफा हो गयी।

स्वियातेक की ये जीत उन्हें यूं ही नही मिल गयी। उन्होंने पहले ही मैच से अपने दमदार खेल से सभी हतप्रभ किया और बहुत आसान व एकतरफा जीत हासिल कीं। उन्होंने फाइनल से पहले के 6 मैचों में बिना कोई सेट खोए केवल 23 गेम हारे। उन्होंने किसी एक मैच में अधिकतम 5 गेम हारे। यहां तक की फाइनल में भी कुल 5 गेम ही हारे। वे चौथे राउंड में 2018 की विजेता और इस बार की संभावित विजेता सिमोन हालेप के विरुद्ध खेल रहीं थीं। उन्होंने अपने पावरफुल खेल से हालेप को 6-1 और 6-2 से हराया तो खेल जानकारों को उनमें इस प्रतियोगिता की संभावित विजेता नज़र आने लगी थी और उन्होंने इसे साबित भी किया।

केनिन ने जब सेमीफाइनल में क्वितोवा को 6-4 और 7-5 से हराकर फाइनल में प्रवेश किया तो एक संघर्षपूर्ण फाइनल की उम्मीद की जा थी। लेकिन स्वियातेक ने अपने शानदार खेल और कुछ हद तक केनिन की थाई की चोट ने इसे एकतरफा बना दिया। स्वियातेक ने मैच के दूसरे ही गेम में केनिन कई पहली ही सर्विस ब्रेक कर 3-0 की बढ़त बना ली। लेकिन केनिन ने वापसी कर स्वियातेक की सर्विस ब्रेक की और स्कोर 4-4 की बराबरी पर ले आई। लेकिन उसके बाद एक सर्विस और गवां बैठी और सेट भी 6-4 से। ये एक संघर्षपूर्ण सेट था जो 53 मिनट तक चला। लेकिन दूसरा सेट एन्टी क्लाइमैक्स साबित हुआ। जब 2-1 से केनिन पीछे थी तो उन्हें थाई की चोट की वजह से मेडिकल टाइमआउट लेना पड़ा और जब मेडिकल सहायता लेकर वापस लौटी तो अपनी लय खो चुकी थीं। अब स्वियातेक की जीत महज एक औपचारिकता रह गयी थी। स्वियातेक ने दो सर्विस ब्रेक के साथ अगले चार गेम जीतकर सेट और चैंपियनशिप जीत ली। उन्होंने  अंतिम 3 में से दो गेम शून्य से जीते और अंतिम तीन गेम में केनिन केवल दो अंक ही जीत सकीं। ये सेट केवल 27 मिनट में खत्म हो गया जिसमें लगभग 8 मिनट मेडिकल टाइम आउट के थे।


इस पूरी प्रतियोगिता के दौरान और विशेष रूप से चौथे राउंड में हालेप के खिलाफ जिस तरह का शानदार खेल उन्होंने दिखाया उसमें सेरेना विलियम्स के खेल की झलक  देखने को मिली। शानदार सर्विस,शक्तिशाली फोरहैंड डाउन द लाइन और क्रोसकोर्ट वॉली,खूबसूरत नेट ड्रॉप्स,एफर्टलेस कोर्ट कवरेज में सेरेना के से लगते हैं। उनके खेल की एक कमाल बात ये है कि वे अपने स्ट्रोक्स और विशेष रूप से नेट पर बहुत ही लेट खेलती हैं और इससे उन्हें अपने प्रतिद्वंदी को रॉंग फुट पर पकड़ने में और डॉज देने में आसानी होती है। उन्होंने हालेप को और फाइनल में केनिन को बार बार रॉन्ग फुट पर पकड़ा। कमाल की बात ये है कि शारीरिक रूप से वे आज के पावरफुल खेल की आइकॉन मज़बूत शरीर वाली खिलाड़ियों के उलट बहुत कमनीय और नाजुक सी लगती हैं। उनके खेल में अगर सेरेना की झलक दिखती है तो वे अपने चेहरे की मासूमियत से मार्टिना हिंगिस की याद दिलाती हैं। वे इलीट खेल की इलीट प्रतिनिधि सी लगती हैं और वे प्रॉफेशनल खेल से ज़्यादा एमेच्योर खेल की प्रतिनिधि खिलाड़ी प्रतीत होती हैं। वे नवरातिलोवा के पावरफुल खेल से पहले के क्रिस एवर्ट और स्टेफी ग्राफ के समय की याद दिलाती है।

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दरअसल वे आज के पावरफुल खेल की प्रचंड झुलसती धूप में ताजी हवा का झोंका सी है।

इगा स्वियातेक को पहली ग्रैंड स्लैम जीत मुबारक।

Friday 25 September 2020

अलविदा प्रोफेसर डीनो!

 



पूर्व ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट खिलाड़ी डीन मर्विन जोंस उर्फ प्रोफेसर डीनो ने 59 साल की उम्र में आज इस संसार को अलविदा कह दिया। एकदम अचानक से। मानो अचानक से लोगों को चकित करना उनका शगल हो। याद कीजिए ऑस्ट्रेलिया टीम का 1994 का दक्षिण अफ्रीका का दौरा। आठ मैचों की सीरीज में ऑस्ट्रेलिया 3 मैचों के मुकाबले चार मैचों से पीछे थी। आखिरी मैच में डीन जोन्स को टीम में नहीं चुना गया। और इस सीरीज का सातवां मैच उनके करियर का अंतिम मैच सिद्ध हुआ। उन्होंने सफेद गेंद की अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट को अचानक से अलविदा कह इसी तरह दुनिया को चौंका दिया था।

यूं तो वे लाल गेंद से भी कम नहीं खेले। उन्होंने कुल 52 टेस्ट मैच खेले। पर वे सफेद गेंद के चैंपियन खिलाड़ी थे। वे उन खिलाड़ियों में शुमार हैं जिन्होंने अस्सी के दशक में सफेद गेंद के एकदिनी क्रिकेट की सूरत को बदल दिया। आजकल क्रिकेट खिलाड़ी मैदान में जो रंगीन चश्मा पहनते हैं वो दरअसल उनकी ही देन है। वे बहुत आक्रामक खिलाड़ी थे। गेंद पर ताबड़तोड़ प्रहार,विकेटों के बीच तीव्र गति से दौड़ और मैदान में शानदार फील्डिंग के लिए जाने जाते हैं। ऐसा करने वाले वे चुनिंदा प्रारंभिक खिलाड़ियों में से थे। वे 1989 से 1992 तक लगातार चार साल सफेद गेंद के नंबर एक खिलाड़ी रहे।
विक्टोरिया के कोबर्ग में 23 मार्च 1961 को जन्मे दांए हाथ के बल्लेबाज और ऑफ स्पिनर डीन जोन्स ने अपने अंतरराष्ट्रीय कैरियर का प्रारंभ एकदिनी क्रिकेट से जनवरी 1984 में पाकिस्तान के खिलाफ किया और कुछ ही दिन बाद मार्च 1984 में वेस्टइंडीज के विरुद्ध टेस्ट मैच में। टेस्ट मैच में कैरियर का समापन श्रीलंका के खिलाफ सितंबर 1992 में और एकदिनी क्रिकेट में दो साल बाद अप्रैल 1994 में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ। इस तरह 11 साल के अंतरराष्ट्रीय कैरियर के दौरान उन्होंने 52 टेस्ट मैच खेले जिनमें 11 शतक और 14 अर्द्ध शतकों की सहायता से 3631 रन बनाए और एक विकेट भी लिया। जबकि एकदिनी क्रिकेट में 164 मैचों में 7 शतक और 46 अर्द्ध शतकों की सहायता से 44.61 की औसत से 6068 रन बनाए और 3 विकेट भी लिए। टेस्ट मैच में उन्होंने दो शानदार मैराथन पारियों के लिए हमेशा याद किए जाएंगे। 1986 में चेन्नई में भारत के विरुद्ध अनिर्णीत मैच में भीषण गर्मी और उमस भरे वातावरण में 210 रनों की पारी और 1989 में एडिलेड में वेस्टइंडीज के विरुद्ध 216 रनों की कैरियर बेस्ट पारी।
खेल से सन्यास लेने के बाद उन्होंने कोचिंग और कमेंट्री में हाथ आजमाया। और कमेंट्री में तो उन्होंने बहुत नाम कमाया। वे इस समय भी मुम्बई में स्टार स्पोर्ट्स के लिए आईपीएल की ऑफ ट्यूब कमेंट्री के लिए ही थे। वे अपनी खरी खरी बातों के लिए जाने जाते थे। शायद इसीलिए वे अक्सर विवादों में रहते। वे दो विवादों के लिए बेहद चर्चित रहे। 1993 में वेस्टइंडीज के विरुद्ध सिडनी में कर्टली एम्ब्रोस से उन्होंने सफेद रिस्ट बैंड उतारने के लिए बोला। इससे क्रुद्ध होकर एम्ब्रोस ने पूरी सीरीज में जबरदस्त गेंदबाजी की। उस मैच में उन्होंने 32 रन पर 5 विकेट लिए। अगले एडिलेड मैच में 10 विकेट और आखरी पर्थ मैच में प्रसिद्ध स्पैल किया जिसमें 1 रन देकर सात विकेट लिए। इसके बाद 2006 में कमेंट्री करते हुए दक्षिण अफ़्रीकी बल्लेबाज़ हाशिम अमला को आतंकवादी कहने के कारण उनकी बहुत आलोचना हुई।
जो भी हो वे एक दिनी क्रिकेट के अपने समय के सबसे शानदार खिलाड़ी के रूप में, सफेद बॉल क्रिकेट में नए ट्रेंड्स लाने वाले खिलाड़ी के रूप में और एक शानदार व बिंदास कमेंटेटर के रूप में हमेशा याद किये जायेंगे।
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अलविदा प्रोफेसर डीनो!



Tuesday 15 September 2020

नए के आगमन आहट

 



बात अगस्त 2017 की है। ग्लासगो के एमिरेट्स एरीना में बैडमिंटन विश्व कप का फाइनल भारत की पीवी सिंधु और जापान की नोजोमी ओकुहारा के बीच खेला गया था। इस मैच में नोजोमी ने सिंधु को 21-19,20-22,22-20 से हरा दिया। लेकिन जो भी ये मैच देख रहा था उसे लगा था कि इसमें कोई हारा तो है ही नहीं,निर्णय हुआ ही कहाँ कि कौन श्रेष्ठ तो फिर ये ख़त्म क्यों हो गया,क्यों दो खिलाड़ी हाथ मिलाते हुए मैदान से विदा ले रहे हैं,एक मुस्कुराते चहरे और शहद से मीठे पानी से डबडबाई आँखों के साथ तो दूसरा उदास चहरे और खारे पानी में डूबी आँखें लिए। सच में,कुछ मैचों में कोई हारता नहीं है। ऐसे में या तो दोनों खिलाड़ी जीतते हैं या फिर खेल जीतता है।

बीते रविवार को फ्लशिंग मीडोज़ में बिली जीन किंग टेनिस सेंटर के आर्थर ऐश सेन्टर कोर्ट में यूएस ओपन 2020 के पुरुष एकल के फाइनल में 27 साल के ऑस्ट्रिया के डोमिनिक थियम ने जर्मनी के 23 वर्षीय अलेक्जेंडर ज्वेरेव को 2-6,4-6,6-4,6-3,7-6(8-6)से हरा कर अपना पहला ग्रैंड स्लैम जीत लिया। चार घंटे चार मिनट की हाड़तोड़ मेहनत के बाद दोनों की ही आंखों में पानी था। फर्क सिर्फ जीत की मिठास और हार के खारेपन का था। और जिसने ग्लासगो के बाद ये मैच देखा होगा उसने यही सोचा होगा ऐसे हार-जीत थोड़े ही ना होती है। और ऐसा दर्शक क्या खुद थियम भी बिल्कुल ऐसा ही सोच रहे थे। मैच पश्चात वक्तव्य में उन्होंने कहा 'काश दो विजेताओं का प्रावधान होता। दोनों ही जीत के हकदार थे।' दरअसल ये शानदार मैच उन लोगों के लिए एक झलक है जो यह बात जानना चाहते हैं कि 'अद्भुत तिकड़ी '(फेडरर,नडाल,जोकोविच) के बाद का विश्व टेनिस का परिदृश्य कैसा होगा।
एक स्पोर्ट्स न्यूज़ पोर्टल ने लिखा 1990 के बाद जन्मे खिलाड़ी द्वारा जीता गया ये पहला ग्रैंड स्लैम है। ये बताता है कि यह कितनी बड़ी बात है। दरअसल 21वीं शताब्दी के पहले दो दशकों का और विशेष रूप से पिछले 15 वर्षों का विश्व टेनिस का पुरुषों का इतिहास केवल तीन खिलाड़ियों-फेडरर,नडाल और जोकोविच के रैकेट से लिखा गया है। इनको विस्थापित करने खिलाड़ी आए और चले गए पर ये तीनों चट्टान की तरह जमे रहे। समय और उम्र से बेपरवाह कालजयी। इस समय फेडरर 39 साल के, राफा 34 साल के और नोवाक 33 साल के हैं। इस यूएस ओपन से पहले के 13 ग्रैंड स्लैम खिताब इन तीनों ने जीते हैं. यानी पिछले तीन साल से इन तीनों के अलावा कोई और ग्रैंड स्लैम नहीं जीत पाया है. यहां उल्लेखनीय ये भी है कि पिछले 67 ग्रैंड स्लैम ख़िताबों में से 56 इन तीनों ने जीते हैं. यह अद्भुत है,अविश्वसनीय है. थिएम,ज्वेरेव,सिटसिपास, मेदवेदेव,रुबलेव और किर्गियोस जैसे युवा खिलाड़ी लगातार हाथ पैर मार रहे हैं,छटपटा रहे हैं, पर इन तीनों से पार नहीं पा पा रहे हैं। यहां उल्लेखनीय यह भी है कि फेडरर ने अपना पहला ग्रैंड स्लैम केवल 22वें साल में,नडाल ने 19वें साल में और जोकोविच ने 21वें साल में जीत लिया था।
इस साल यूएस ओपन में फेडरर ने अपने घुटने के आपरेशन के कारण और नडाल ने कोरोना के चलते सुरक्षा कारणों से भाग नहीं लिया और ये लगभग तय माना जा रहा था कि जोकोविच के लिए यह वॉक ओवर जैसा है जो इसे जीतकर अपने ग्रैंड स्लैम खिताबों की संख्या 18 तक पहुंचा देंगे और ग्रैंड स्लैम की रेस को कड़ा और रोचक कर देंगे। पर नियति को यह मंज़ूर नहीं था। नहीं तो जोकोविच यूं प्रतियोगिता से बाहर ना होते। प्री क्वार्टर फाइनल में वे अनजाने में लाइन जज को गेंद मार बैठे और डिसक्वालिफाई हो गए। अब युवा खिलाड़ियों के लिए प्रतियोगिता पूरी तरह खुल गयी थी। कोई भी बाजी मार सकता था। बाज़ी मारी अलेक्जेंडर ज्वेरेव और डॉमिनिक थियम ने और दोनों फाइनल में पहुंचे।
जोकोविच के प्रतियोगिता से बाहर हो जाने के बाद युवा खिलाड़ियों का संघर्ष अलग स्तर पर पहुंच गया जिसका चरम फाइनल था। इससे पहले थियम तीन ग्रैंड स्लैम फाइनल खेलकर हार चुके थे,दो बार फ्रेंच ओपन में नडाल से और इस साल ऑस्ट्रेलिया ओपन में एक मैराथन मैच में जोकोविच से। थियम के पास ना केवल तीन ग्रैंड स्लैम फाइनल का अनुभव था बल्कि इस प्रतियोगिता में अब तक उनका शानदार खेल रिकॉर्ड भी था। वे अभी तक खेले गए 6 मैचों में केवल एक सेट हारे थे और उनके खेल में एक निरंतरता और स्थायित्व (consistency)था। दूसरी और ज्वेरेव का यह पहला ग्रैंड स्लैम था। शानदार सर्विस,पावरफुल और नियंत्रित बैकहैंड शॉट और लंबी रैली के लिए जाने जाने वाले 6फ़ीट 6इंच लंबे ज्वेरेव के खेल में खासा अस्थायित्व है। वे पैचेज में बहुत अच्छा खेलते हैं तो बहुत खराब भी। इसे उनके इस प्रतियोगिता में फाइनल तक के सफर को देखकर अच्छी तरह से समझा जा सकता है।
रविवार को अपने पहले ग्रैंड स्लैम फाइनल में अपनी बेहतर सर्विस के बूते ज्वेरेव ने शानदार शुरुआत की। पहला सेट 6-1 से और दूसरा 6-4 से जीत लिया। लगा उनका जितना महज़ औपचारिकता है। पर ऐसा था नहीं। जब स्कोर दूसरे सेट में 5-1 ज्वेरेव के पक्ष में था तब थियम ने वापसी की हालांकि उनकी वापसी देर से हुई और वे दूसरा सेट 4-6 से हार गए। लेकिन वे लय पा चुके थे और अगले दो सेट थियम ने 6-4 और 6-3 से जीत लिए। अब लगा थियम की जीत जाएंगे। पर असली संघर्ष अब होना था। एक बार फिर बढ़त ज्वेरेव ने लेली 5-3 से। और चैंपियनशिप के लिए सर्व कर रहे थे। लेकिन वे दबाव में अपनी सर्विस बरकरार नहीं रख सके। थियम ने सर्विस ब्रेक की और सेट अंततः टाईब्रेक में पहुंचा। दरअसल यहां ज्वेरेव की सर्विस भर ब्रेक नहीं हुई थी उनका सपना भी ब्रेक हुआ था और मंज़िल तक के सफर पर ब्रेक भी लगा था। थियम ने टाईब्रेक 8-6 से जीतकर ना केवल अपना पहला ग्रैंड स्लैम जीता बल्कि यूएस ओपन को एक नया चैंपियन दिया। यूएस ओपन को 2014 में क्रोशिया के मारिन सिलिच के 6 साल बाद थिएम के रूप में एक नया चैंपियन मिल रहा था।
तो क्या डोमिनिक थियम की इस जीत को टेनिस इतिहास में एक नए युग की शुरुआत मानी जाए, नए युग की दस्तक,उसकी आहट। जाने माने वरिष्ठ खेल पत्रकार मैथ्यू फुटरमैन लिखते है 'टेनिस में कभी कभी ऐसे अप्रत्याशित चैंपियन आते हैं,विशेष रूप से दो युगों के बीच के संक्रमण काल में जब महान खिलाड़ियों के एक समूह का अवसान हो रहा होता है और नए खिलाड़ियों के दूसरे समूह का उदय होना बाकी होता है। ऐसे में जो खिलाड़ी एक बार ग्रैंड स्लैम जीत लेता है वो दोबारा कभी नहीं जीत पाता। 2002 में ऑस्ट्रेलियन ओपन स्वीडन के थॉमस जॉनसन ने जीता था जब आंद्रे अगासी अवसान की ओर थे और फेडरर का आगमन नहीं हुआ था,नडाल के क्ले के बादशाह बनने से एकदम पहले अर्जेंटीना के गस्टोन गौडीओ ने फ्रेंच ओपन जीता था,फेडरर के लगातार 5 बार चैंपियन बनने से एकदम पहले 2001 में गोरान इवनोसेविच और 2002 में लेटिन हेविट ने विंबलडन जीता था और फेडरर द्वारा लगातार 5 बार जीतने से एकदम पहले 2003 में एंडी रोडिक ने यूएस ओपन जीता था। तो यह (थियम की जीत)नए के आगमन का प्रतीक भी हो सकती है और एक असामान्य वर्ष में फेडरर,नडाल व जोकोविच की अनुपस्थिति से उपजा महज एक संयोग भी। ये डोमिनिक थिएम बताएंगे।'
लेकिन निकट भविष्य में कुछ बदलेगा ,ऐसा लगता नहीं। 39 साल की उम्र में भी फेडरर युवाओं की तरह खेल रहे हैं। उनका सन्यास लेने का कोई मन अभी नहीं है। वे भले ही जोकोविच और नडाल को नहीं हरा पा रहे हो पर अभी भी नए खिलाड़ियों के लिए उनसे पार पा पाना टेढ़ी खीर साबित हो रहा है और वे किसी भी उदीयमान खिलाड़ी की पार्टी खराब करने का माद्दा रखते हैं। अगले दो ग्रैंड स्लैम हैं इस महीने के अंत में होने वाला फ्रेंच ओपन और जनवरी में ऑस्ट्रेलियन ओपन। इस समय नडाल लाल बजरी के बेताज बादशाह हैं और जोकोविच नीली सतह पर अजेय लगते हैं। ये दोनों प्रतियोगिता बहुत कुछ तय करेंगी टेनिस का आसन्न भविष्य।
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फिलहाल तो इंतज़ार कीजिए और नए चैंपियन को बधाई दीजिए। तो हमारी भी बहुत बधाई डोमिनिक थिएम को।

Tuesday 25 August 2020

बहुत दूर,इतना पास क्यों होता है



आज यात्रा वृतांत 'बहुत दूर,कितना दूर होता है' खत्म किया है। अभी भी यात्रा के सम्मोहन में हूँ कि यात्राएं ऐसी भी होती हैं। अपनी रवानी में इतनी कोमल मुलायम मखमली सी और बनावट में थोड़ी थोड़ी खुरदुरी सी। एक साथ धूप छांह सी। कभी खुशियां बिखेरती तो कभी उदासी फैलाती। यात्रा निपट अकेले यात्री की। यात्रा जितनी आदमी के बनाए भौतिक अवशेषों को देखने की,उससे कहीं ज़्यादा बजरिये मानव मन उसके बनाए समाज के भीतर झांकने की। यात्रा जितनी बाहर की है,उतनी ही यात्रा अपने भीतर की। यात्रा जितना दृश्य को देखती चलती है उससे कहीं ज़्यादा अदृश्य को व्यक्त करती हुई।
ये यात्रा भावनाओं और विचारों का ऐसा संगम है जिसमें भावनाएं तीव्र गति से बहाती ले जाती हैं और विचार हैं कि आपको बार बार थम जाने को कहते हैं,ठहर कर सोचने को मजबूर करते हैं।
यात्रा ऐसी जिसमें मुलाकात होती है खूबसूरत लोगों से कि ये यात्रा किन्ही जगहों की यात्रा भर ना रहकर ज़िन्दगी का सफर बन जाती है। जिसमें सुख भी हैं,दुःख भी हैं। थोड़ी बेचैनी है तो सुकूँ भी है। यात्रा जिसमें एक ओर लंदन है,पेरिस है,शैलों सु सोन(chalon sur saone) है,मेकन(मैकॉन) है,लीयोन है,एनेसी(annecy) है,शमोनी(chamonix )है, जिनेवा है,बासेल है तो दूसरी ओर ज़िंदगी को खोजती कैथरीन है,यारों का यार बेनुआ है,अपने सपनों को पूरा करने की जद्दोजहद में लगा तारिक है,असफल प्रेमी एलेक्स है,दो खूबसूरत बच्चों का जिम्मेदार पिता निकोलस है,आंखों में प्यार के सपने सजाए युवा एक और निकोलस है,अनुभवी प्यारी दोस्त जंग हे है,अकेलेपन से जूझती मार्टीना है और अपना मुक्ताकाश खोजती ली वान है। दुनिया में जितनी खूबसूरत जगहें है,उतने ही कमाल के लोग भी हैं और ये सब मिलकर इस बात का अहसास दिलाते हैं कि अभी भी दुनिया में बहुत कुछ ऐसा है जिससे दुनिया में उम्मीद है,दुनिया खूबसूरत है।
यात्रा में आप सिर्फ बाहर की दुनिया भर ही नहीं देखते बल्कि अपने भीतर की दुनिया को देखते बूझते बहुत दूर निकल जाते हो। आपको पता चलता है दुनिया बाहर की हो,भीतर की हो,उसे देखने, उसे बुझने बहुत दूर तलक जाना पड़ता है इतनी दूर कि दिल पूछ बैठता है आखिर 'बहुत दूर कितना दूर होता है',लेकिन जब यात्रा खत्म होती तो दिल एक आह के साथ कह उठता है 'बहुत दूर इतने पास क्यूं होता है'।
दरअसल इस मौसम में ये यात्रा करते हुए जितना बाहर से शरीर बारिश के पानी से भीगता है उतना ही अंतर्मन शब्दों से भीग भीग जाता है।
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थोड़ी सी आह, थोड़ी सी वाह के साथ
ओह
Manav Kaul
तो ये तुम हो।

Thursday 20 August 2020

सुरेश रैना



         सुरेश रैना लीजेंड नहीं थे। बावजूद इसके वे अपने होने भर से मन मष्तिष्क पर उपस्थिति दर्ज़ कराते थे और छाए रहते थे। इसके लिए उन्हें किसी लीजेंड की तरह परफॉर्मेंस की ज़रूरत नहीं थी। दरअसल श्रेष्ठ क्षेत्ररक्षक ऐसे ही होते हैं। वे रॉबिन सिंह,मो.कैफ और युवराज की परंपरा के खिलाड़ी ठहरते हैं। गेंद और बल्ले के परफॉर्मेंस तो उनकी पहले से उपस्थिति के रंग को गाढ़ा भर करते थे।

         उनमें कमाल का विरोधाभास था। वे शतक से टेस्ट क्रिकेट का आगाज़ करते हैं और शून्य से समापन। वे 11 बार 'मैन ऑफ द मैच'बनते हैं,पर अनचीन्हे रह जाते हैं। वे भारी शरीर के होने के बावज़ूद गज़ब के फुर्तीले और शानदार क्षेत्ररक्षक थे। अपनी कोमल सी मुस्कुराहट के साथ बहुत ही सौम्य नज़र आते थे, लेकिन बेहद आक्रामक बल्लेबाज़ थे। और और वे छोटे से शहर से निकलते हैं और दुनिया के दिलों पर राज करते हैं

        मैदान में आंखें उन्हें खोजेंगी,पर वो नहीं होंगे। पर यही विधि का विधान है।

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गुड बाय रैना।




Monday 17 August 2020

अस्सी के दशक के क्रिकेट प्रेमियों का हीरो

 

           क्रिकेट खिलाड़ी और उत्तरप्रदेश सरकार में मंत्री चेतन चौहान का कल गुड़गांव के एक अस्पताल में निधन हो गया। वे 73 वर्ष के थे और कोरोना से संक्रमित थे। धोनी और रैना की अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से सन्यास की घोषणा से एक दिन पहले ही क्रिकेट जगत में जो हलचल मची थी उसे मानो चेतन चौहान की मृत्यु से फैली उदासी की चादर ने ढक कर शांत कर दिया हो। निसन्देह उनकी मृत्यु हृदय विदारक है।

              सितंबर 1969 में न्यूज़ीलैंड के विरुद्ध अपना टेस्ट कॅरियर शुरू करके 2017 में उत्तर प्रदेश सरकार में दोबारा मंत्री बनने की इस यात्रा में चेतन चौहान ने  कई किरदार निबाहे। वे राजनेता थे,खेल प्रशासक थे,चयनकर्ता थे और टीम मैनेजर भी थे। बावज़ूद इन सब के सब से ऊपर उनकी पहचान एक क्रिकेटर की और एक ओपनर बल्लेबाज़ की थी। दरअसल ये उनका क्रिकेटर ही था जिसने बाकी क्षेत्रों में उनकी पहचान बनाने की बुनियाद रखी। 

                 चेतन चौहान ने कुल 40 टेस्ट मैच खेले। देखने में ये आंकड़ा बहुत बड़ा नहीं लगता। लेकिन जिस समय वे खेल रहे थे जब क्रिकेट सीजन मात्र 6 महीने का होता और कुछ ही टेस्ट मैच या सीरीज सीजन भर में होतीं, ये आंकड़ा एक ठीक ठाक वजन वाला है। 40 टेस्ट मैचों का चेतन चौहान का ये खेल सफर कहीं से भी चकाचौंध या ग्लैमर भरा नहीं लगता। जिसने अपने कॅरियर के 40 मैचों में एक भी शतक ना बनाया हो उसके बारे में क्या कहा जा सकता है! इतना घटना विहीन और लो प्रोफाइल वाला कॅरियर कुछ कहने सुनने का स्पेस देता है भला!

                   लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता। कई बार घटना विहीन जीवन ही बताता है कि ऐसे जीवन के निर्माण में भी कितनी घटनाओं का योगदान होता है। वो जीवन भी कितनी संघर्षपूर्ण स्थितियों से निर्मित होता है। जैसे कभी कभी मौन सबसे ज़्यादा मुखर होता है। और कभी कभी लो प्रोफाइल भी इतना ऊंचा होता है कि आप उसकी ऊंचाई का अंदाजा भी नहीं लगा सकते। दरअसल चौहान के खेल और खेल में उनके योगदान को उन परिस्थितियों के संदर्भ में देखना चाहिए जिसमें वे खेल रहे थे।

                    चेतन चौहान का खेल कॅरियर पुणे से शुरू हुआ 1966-67 के सीजन में जब उनका चयन रोहिंटन बेरिया कप के लिए पुणे विश्वविद्यालय की टीम में हुआ और उसी वर्ष विज्जी ट्रॉफी के लिए पश्चिम क्षेत्र की टीम वे चुने गए। ये दोनों ही अंतर विश्विद्यालयी प्रतियोगिता थीं और उस समय उनकी बहुत प्रतिष्ठा थी क्योंकि इन्हें राष्ट्रीय टीम का प्रवेश द्वार माना जाता था। गावस्कर,बेदी जैसे तमाम बड़े खिलाड़ी यहीं से भारतीय टीम में शामिल हुए थे। 1967 के सीजन में इन दोनों प्रतियोगिताओं में और विशेष रूप से विज्जी ट्रॉफी में शानदार प्रदर्शन के कारण 1968 में महाराष्ट्र की रणजी टीम में शामिल कर लिया गया।  चौहान ने विज्जी ट्रॉफी में उस साल उत्तर क्षेत्र के खिलाफ 103 और फाइनल में दक्षिण क्षेत्र के विरुद्ध 88 और 63 रन बनाए थे। दक्षिण क्षेत्र के खिलाफ मैच में उनके ओपनर पार्टनर गावस्कर थे जिनके साथ उन्हें आगे चलकर एक दशक तक 40 टेस्ट मैचों में ओपनिंग करनी थी। 1968 में उनका चयन रणजी के साथ साथ दिलीप ट्रॉफी के लिए पश्चिम क्षेत्र की टीम में भी हो गया। इसके फाइनल में दक्षिण क्षेत्र की टीम के विरुद्ध 103 रन बनाए। यहां उल्लेखनीय है ये रन उन्होंने 5 टेस्ट गेंदबाजों के विरुद्ध बनाए थे। फलतः उनका चयन भारतीय टेस्ट टीम में हो गया और अपना पहला टेस्ट 25 सितंबर 1969 को बॉम्बे में न्यूजीलैंड के खिलाफ खेला। लेकिन वे कुछ खास नहीं कर पाए और दो टेस्ट मैच के बाद उन्हें टीम से बाहर कर दिया गया। उसी सीजन में इन्हें एक बार फिर ऑस्ट्रेलिया के विरुद्ध खेलने के लिए टीम में चुना गया। वे इस बार भी अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाए और एक बार टीम से निकाले गए तो अगले तीन साल टीम में वापसी नहीं कर पाए। लेकिन घरेलू क्रिकेट में धूम मचाते रहे। 1972-73 में रणजी में सर्वाधिक रन बनाने में दूसरे नंबर पर थे। इस कारण एक बार फिर वापसी की  इंग्लैंड के विरुद्ध। इस बार भी असफल रहे और इस बार अगले 5 सालों के लिए राष्ट्रीय टीम से बनवास मिला। इस बीच 1975 में वे दिल्ली चले आये और दिल्ली की टीम से खेलने लगे। घरेलू क्रिकेट में उनका अच्छा प्रदर्शन जारी रहा। 1976-77और 1977-78 के सीजन में शानदार प्रदर्शन के कारण 1977-78 के ऑस्ट्रेलिया दौरे पर उन्हें फिर से भारतीय टीम में जगह मिली।  1977-78 से 1981  तक का कालखंड उनके खेल जीवन का सबसे सफल समय था। उन्होंने अपना आखिरी टेस्ट मैच भी न्यूज़ीलैंड के विरुद्ध 1981 में खेला। इस प्रकार उन्होंने 40 टेस्ट मैचों में 16 अर्धशतकों की मदद से 31.7 की औसत से  2084 रन बनाए।जबकि प्रथम श्रेणी के 179 मैचों में 40.22 की औसत से 11143  रन बनाए।

                 अगर ये आंकड़े देखें तो आपको बहुत औसत लगेंगे। लेकिन दोस्तों अक्सर आंकड़े बहुत भ्रामक होते हैं। वे अक्सर सही तस्वीर प्रस्तुत नहीं करते। दरअसल उनके खेल जीवन के रोमांच और रोमांस को वे लोग ही समझ और महसूस कर सकते हैं जिन्होंने टीवी के आने से पहले रेडियो कमेंट्री से क्रिकेट के रोमांच का आनंद लिया है।

                      वे एक इंडिजुअल के रूप में भले ही साधारण लगें लेकिन वे एक सफल और शानदार जोड़ीदार थे। वे दुनिया के महानतम ओपनर बल्लेबाजों में से एक गावस्कर के सबसे बड़े जोड़ीदार थे और दोनों मिलकर सहवाग और गंभीर से पहले  भारत की सबसे सफल ओपनिंग जोड़ी बनाते थे। इस जोड़ी ने 59 पारियों में 3010 बनाए जो एक रिकॉर्ड था और जिसे बाद में सहवाग गंभीर की जोड़ी ने तोड़ा। उन्होंने ये रन 53.75 की औसत से बनाए जिसमें 10 शतकीय साझेदारियां थीं। ये बात बताती है कि चौहान की और उनके खेल की क्या अहमियत थी। वे विकेट का एक सिरे थामे रहते और गेंद की चमक खत्म करते रहते और गावस्कर के लिए एक बड़े स्कोर का रास्ता बनाते। उनकी सबसे बड़ी साझेदारी 1979 में इंग्लैंड में ओवल पर  213 रन की थी जिसमें चौहान ने 80 रन बनाए। इस मैच में गावस्कर ने 221 रन बनाए थे।

                        इससे भी महत्वपूर्ण बात ये है कि उस समय भारतीय टीम दोयम दर्जे की टीम मानी जाती थी। और चौहान ने इंग्लैंड,वेस्ट इंडीज और ऑस्ट्रेलिया जैसी सर्वश्रेठ टीमों के खिलाफ ये प्रदर्शन किया था। ये प्रदर्शन इसलिए भी याद किया जाना चाहिए कि ये दौर क्रिकेट के सबसे खौफ़नाक बॉलिंग अटैक का था और चौहान का प्रदर्शन इसी अटैक के विरुद्ध किया गया था। इसमें अटैक में शामिल हैं सरफराज,रिचर्ड हेडली,थॉमसन,लिली,एंडी रॉबर्ट्स,होल्डर,बाथम। ये वो समय था जब बल्लेबाजों के लिए रक्षा उपकरणों का चलन शुरू नहीं हुआ था। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि चौहान का  साधारण सा प्रोफाइल भी कितने रोमांच और संघर्ष से भरा है।

                         इसमें कोई शक नहीं कि चौहान किसी बड़ी प्रतिभा के धनी नहीं थे। उनके पास सीमित स्ट्रोक्स थे। उनके खेल की सीमाएं थीं। लेकिन वे विकेट पर टिकना जानते थे। वे विकेट पर समय बिताना जानते थे। उन्होंने पहला टेस्ट रन बनाने में 25 मिनट का समय लिया था। वे अपनी सीमाएं जानते थे। लेकिन वे कभी भी अपना विकेट गंवाते नहीं थे। उसे बॉलर को मेहनत करते लेना पड़ता था,उसे कमाना पड़ता था।

                         उनका खेल इस बात का प्रमाण है कि सीमित प्रतिभा को अपनी कड़ी मेहनत,संघर्ष और दृढ़ संकल्प से तराशा जा सकता है और उसे चमकीले नगीने में बदला जा सकता है। दरअसल वे अस्सी के दशक के उन क्रिकेट प्रेमियों के हीरो थे जिन्होंने उनकी बैटिंग का लुत्फ अपने ट्रांजिस्टर और रेडियो सेट पर जसदेव सिंह,सुशील दोषी, मुरली मनोहर मंजुल, स्कन्द गुप्त जैसे कमेंटेटरों के  आंखों देखे हाल के साथ एक्सपर्ट चंदू सरवटे के कमेंट्स के माध्यम से उठाया था।

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विनम्र श्रद्धांजलि चेतन जी। आप हमेशा हमारे दिलों में रहोगे।



पसंद और नापसंद के बीच झूलता क्रिकेट हीरो



          अंततः भारतीय क्रिकेट की सबसे बड़ी जिज्ञासा का समाधान हुआ, सबसे ज़्यादा वांछित सवाल का जवाब मिला, और भारतीय क्रिकेट के सबसे चमकदार युग का पटाक्षेप हुआ. अपने आधिकारिक इंस्टाग्राम अकाउंट के ज़रिये ‘कैप्टन कूल’ ने सन्यास लेने की घोषणा की. धोनी चाहे कितने भी कूल हों लेकिन उनका सन्यास लेना भी इतना ‘कूल’ होगा, ये किसी ने सोचा नहीं था. पर वो धोनी ही क्या जो अपने फ़ैसलों से अपने चाहने वालों को चौंका न दें. आख़िर अपने खेल कॅरिअर के 16 सालों में खेल मैदान के भीतर और बाहर भी वे अपने फ़ैसलों से चौंकाते ही तो रहे हैं. तो विदाई भी ऐसी हुई तो क्या आश्चर्य!
       अगर भारतीय क्रिकेट इतिहास के चार सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों के नाम भारतीय क्रिकेट में उनके योगदान के लिए चुनने पड़े तो इनमें निसन्देह एक नाम महेंद्र सिंह धोनी का होगा. शेष तीन नाम ज़ाहिर है कि गावस्कर, कपिल और सचिन हैं.
         1983 में क्रिकेट विश्व कप में भारत की जीत भारतीय क्रिकेट इतिहास की ऐसी युगांतरकारी घटना है, जो उसके इतिहास को दो युगों में विभाजित करती है. 1983 से पहले के क्रिकेट का ‘एलीट काल’ और 1983 के बाद का क्रिकेट का ‘मास काल’. गावस्कर और कपिल इन दो कालों के सबसे बड़े प्रतिनिधि खिलाड़ी हैं. और इन दोनों की जगह कोई नहीं ले सकता. 83 से पहले का काल क्रिकेट का क्लासिक युग है. और गावस्कर से बड़ा खिलाड़ी कोई नहीं. विश्व की अब तक की सबसे ख़तरनाक गेंदबाजी के ख़िलाफ जिस तरह से टेस्ट क्रिकेट में पहली बार दस हज़ार से ज़्यादा रन बनाए, वो अविश्वसनीय था. ये गावस्कर ही थे, जिन्होंने भारतीय क्रिकेट को विश्व पटल पर एक नई पहचान देने का काम किया.

         '83 में विश्व कप जिताकर कपिल ने न केवल गावस्कर द्वारा बनाई गई पहचान को स्थापित किया बल्कि भारतीय क्रिकेट के विशिष्ट स्वरूप पीछे करके इसे जनसाधारण के खेल में बदल दिया. इसके बाद सचिन आते हैं. वे इस जनसाधारण के खेल को अपनी असाधारण व्यक्तिगत उपलब्धियों से खेल को लोगों के धर्म के रूप में स्थापित कर देते हैं. और वे ख़ुद भगवान के रूप में पूजे जाने लगते हैं. लेकिन अभी भी क्रिकेट इतिहास का चक्र पूरा नहीं हुआ था. अभी भी कुछ कमी सी थी. कुछ अधूरा था. कुछ था, जो छूट रहा था. वो थी खेल की बादशाहत. धोनी तीन-तीन विश्व ख़िताब भारत के लिए जीतते हैं और भारतीय क्रिकेट की बादशाहत क़ायम कर देते हैं. ये ऐसा काम था जो अभी तक कोई नहीं कर पाया था.

         इस तरह सचिन के बाद धोनी के अवदान के साथ भारतीय क्रिकेट का एक पूरा चक्र पूरा होता है. गावस्कर भारतीय क्रिकेट की विश्व पटल पर पहचान बनाते हैं, कपिल उस पहचान को स्थायित्व देकर उसे जनसाधारण के खेल में बदल देते हैं, सचिन खेल को धर्म में परिवर्तित कर देते हैं और धोनी विश्व पटल पर उसकी सर्वोच्चता स्थापित कर देते हैं.

     कपिल और गावस्कर के बाद सचिन और धोनी भारतीय क्रिकेट के स्वरूप को बदलने वाले सबसे बड़े कैटेलिस्ट थे. दोनों का भारतीय क्रिकेट को बड़ा पर अलग अवदान रहा. दरअसल सचिन क्रिकेट का कला पक्ष थे तो धोनी विज्ञान पक्ष. सचिन क्रिकेट की कविता थे तो धोनी निबंध थे. सचिन अंतरात्मा से थे तो धोनी शरीर से. सचिन जितने कोमल से थे तो धोनी उतने ही कठोर. सचिन बहुत वैयक्तिक थे और धोनी सामूहिक. सचिन किसी बन्द लिफाफ़े से थे और धोनी खुली किताब की तरह. दरअसल सचिन दिल थे और धोनी दिमाग. पर दोनों थे भारतीय क्रिकेट के शिखर पुरुष ही.

     धोनी 2004 में भारतीय क्रिकेट फ़्रेम में आते हैं और छा जाते हैं. धीरे-धीरे बाक़ी सब नेपथ्य में चले जाते हैं. वे अपनी प्रतिभा से लैंडस्केप को पोर्ट्रेट में बदल देते हैं. इस काल में वे इस पोर्ट्रेट का एकमात्र चेहरा बन जाते हैं. भारतीय क्रिकेट में सौरव ने जिस आक्रामकता का समावेश किया था, धोनी ने उसे चरम पर पहुंचा दिया था. धोनी अपने खेल से आगे बढ़कर दूसरों के लिए उदाहरण बनते थे. वे आगे बढ़कर ज़िम्मेदारी ख़ुद अपने कंधों पर लेते थे और तब बाक़ी लोगों से उम्मीद करते थे. वे एक शानदार विकेटकीपर थे, बेहतरीन आक्रामक बल्लेबाज़ और असाधारण लीडर. दरअसल उन्हें खेल की गहरी समझ थी. खेल की अपनी इसी असाधारण समझ के चलते वे खेल मैदान पर ऐसे निर्णय लेते, जिनसे अक्सर विशेषज्ञ चौंक जाते. लेकिन उनके निर्णय सही साबित होते. वे जोखिम भरे निर्णय लेते.

        दरअसल असाधारण उपलब्धियों के लिए ऐसे जोखिम लेने की दरकार होती है और उन्हें यह क़बूल था. ये धोनी ही थे जिन्होंने विपक्षी खिलाड़ियों की आंख में आंख डालना सिखाया. उनकी खेल की समझ, खेल में उनकी संलग्नता और खेल के उनके अद्भुत पर्यवेक्षण को इस बात से समझ जा सकता है कि डीआरएस (डिसीजन रिव्यु सिस्टम) को धोनी रिव्यु सिस्टम कहा जाने लगा था. उन्होंने भारतीय क्रिकेट को नए सिरे से संगठित किया. वे सबसे फिट खिलाड़ी थे. विकेटों के बीच उनकी रनिंग गजब थी. उन्होंने फील्डिंग पर विशेष ध्यान दिया. इसीलिए उन्होंने फिटनेस को टीम का मूलमंत्र बना दिया. इसी बिना पर उन्होंने सीनियर खिलाड़ियों को बाहर का रास्ता दिखाया और नए युवा खिलाड़ियों की जोश से लबरेज टीम बनाई.

        धोनी का अंतरराष्ट्रीय कॅरिअर दिसंबर 2004 में बांग्लादेश दौरे के लिए ओडीआई टीम में चयन के साथ शुरू होता है. हालांकि वे पहले ही मैच वे शून्य पर रन आउट हो जाते हैं, पर अपने पांचवें मैच में पाकिस्तान के खिलाफ 148 रनों की अविस्मरणीय पारी खेल कर स्थापित हो जाते हैं. 2005 में श्रीलंका के विरुद्ध उनका टेस्ट कॅरिअर शुरू होता है और 2006 में दक्षिण अफीका के विरुद्ध टी20 कॅरिअर. इसमें भी ओडीआई की तरह पहले मैच में शून्य पर आउट होते हैं. लेकिन 2007 में टी20 विश्व कप की कमान उन्हें सौंपी जाती है और विश्व कप जीत कर आते हैं. 2011 में 28 साल बाद ओडीआई आईसीसी विश्व कप जिताते हैं. ये जीत सचिन के लिए होती है. और 2013 में आईसीसी चैंपियनशिप. और ऐसा करने वाले एकमात्र कप्तान.

         निःसन्देह एक कप्तान के रूप में उनकी उपलब्धियां असाधारण हैं और एक खिलाड़ी के रूप में सराहनीय. उनकी कप्तानी में भारत ने 2007 में पहला टी ट्वेंटी विश्व कप (इंग्लैंड), 2011 में विश्व कप (भारत), 2013 में चैंपियन ट्रॉफी (दक्षिण अफ्रिका) जीती और 2009 में टेस्ट क्रिकेट में भारत को नंबर एक बनाया. वे भारत के सबसे सफल कप्तान हैं. उन्होंने 50 टेस्ट मैचों में कप्तानी की, जिसमे से 27 में जीत 17 में और 15 अनिर्णीत रहे,199 एक दिवसीय में से 110 में जीते और 74 हारे जबकि 72 टी ट्वेंटी मैचों में से 42 जीते और 28 हारे. उन्होंने कप्तान के रूप में एक दिवसीय मैचों में 54 की औसत और 86 की स्ट्राइक रेट से 6633 रन, टी ट्वेंटी में 122 की स्ट्राइक रेट से 1112 रन और टेस्ट क्रिकेट में 41 की औसत से 3454 रन बनाए हैं. अगर उनके पूरे कॅरिअर के आंकड़ों पर नज़र डाली जाए तो उन्होंने 90 टेस्ट मैच खेल जिसमें उन्होंने 38.1 की औसत से 4876 रन बनाए. 350 एक दिवसीय मैचों में 50.6 के औसत से 10773 रन और 98 टी20 मैचों में 37.6 के औसत से 1617 रन बनाए. विकेट के पीछे टेस्ट मैचों में 256 कैच,तीन रन आउट और 38 स्टंपिंग,एक दिवसीय मैचों में 322 कैच,22 रन आउट और 123 स्टंपिंग और टी20 मैचों में 57 कैच,8 रन आउट और 34स्टंपिंग कीं. ये आंकड़े उनकी सफलता की कहानी कहते हैं और यह बताने के लिए काफ़ी हैं कि वह एक बड़े खिलाड़ी और महान कप्तान भी हैं.

       लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि वे एक ऐसे खिलाड़ी हैं जो जितने अधिक पसंद किए जाते हैं उतने ही अधिक नापसंद. आखिर क्यों है ऐसा? मैं स्वयं उन्हें पसंद नहीं कर पाता. मैं यह कहने का जोख़िम उठाता हूँ कि धोनी मेरे पसंददीदा खिलाड़ी नहीं रहे और न ही मेरे लिए वे गावस्कर, कपिल या सचिन जैसे खेल आइकॉन रहे हैं. आख़िर आप इतने बड़े खिलाड़ी के मुरीद क्यों नहीं हो पाए? क्यों उस खिलाड़ी के फैन नहीं हो पाए? क्यों उस खिलाड़ी को नापसंद किया जाता है?

         दरअसल आप किसी खिलाड़ी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व से प्रभावित होते हैं. आप जब उसका अनुसरण करते हो तो केवल खेल के मैदान में ही नहीं उसके बाहर भी उसे देखते हो और खेल के मैदान में भी सिर्फ़ उसका खेल भर नहीं देखते हो बल्कि खेल से इतर उसकी गतिविधियों को भी उतनी सूक्ष्मता से देखते हो. 2004 में जब धोनी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर क्रिकेट में पदार्पण करते हैं तो कंधे तक फैले लंबे बालों की तरह स्वाभाविकता उनके व्यक्तित्व पर पसरी हुई दिखती थी. उस समय वे एक मध्यम दर्ज़े के शहर और निम्न-मध्यम वर्ग के परिवार के एक बहुत ही प्रतिभा वाले सच्चे, सरल, स्वाभाविक और उत्साही खिलाड़ी होते हैं. धीरे-धीरे उनका रूपांतरण होता है. वे एक नवोदित खिलाड़ी से बड़े खिलाड़ी बन जाते हैं. फिर 2007 में टीम की कमान उनके हाथ में आती है. क्रिकेट प्रबंधन से उनके बहुत मज़बूत सम्बन्ध बनते हैं. अब वे बहुत शक्तिशाली हो जाते हैं. वे सत्ता के केंद्र में होते हैं और खेल के सर्वेसर्वा बन जाते हैं.

         यहां केवल एक नवोदित खिलाड़ी का खेल के सबसे बड़े खिलाड़ी बनने का सफ़र ही पूरा नहीं होता बल्कि पूरे व्यक्तित्व का रूपांतरण भी साथ-साथ होता चलता है. वे जैसे-जैसे क़द में बड़े होते जाते हैं वैसे-वैसे उनके बाल छोटे होते चले जाते हैं और उसी अनुपात में उनकी सरलता, स्वाभाविकता, अल्हड़पन और सच्चाई भी कम होती चली जाती है. वे अब सरल नहीं रहते, जटिल हो जाते हैं, स्वाभाविक नहीं रहते कृत्रिमता उन पर हावी हो जाती है, वे हसंमुख और अल्हड़पन की जगह गंभीरता का आवरण ओढ़ लेते हैं, स्वाभाविक अभिमान अहंकार में बदल जाता है और एक साधारण आदमी अचानक से अभिजात वर्ग का प्रतिनिधि लगने लगता है. अभिजात्य उनके पूरे व्यक्तित्व पर पसर जाता है. उनके हाव भाव, चाल-ढाल हर चीज़ पर.

          अपनी सफलताओं और प्रबंधन के साथ संबंधों के बल पर सर्वेसर्वा बन जाते हैं. आदमी जैसे-जैसे सत्ता और ताक़त पाता जाता है वैसे-वैसे वो मन में अधिक और अधिक सशंकित होता जाता है और सबसे पहले उन लोगों को ख़त्म करने का प्रयास करता है जो उसके लिए यानी उसकी सत्ता के लिए ख़तरा हो सकते हैं. धोनी एक-एक करके सारे सीनियर खिलाड़ियों को बाहर का रास्ता दिखाते हैं चाहे वो गांगुली हों, लक्ष्मण हों, द्रविड़ हों, गंभीर हों, हरभजन हों, सहवाग हों या फिर सचिन ही क्यों न हों. इनमें से ज़्यादातर खिलाड़ी अपने खेल के कारण नहीं बल्कि धोनी की नापसंदगी के कारण ही हटे. वे इतने शक्तिशाली थे कि टीम में वो ही खेल सकता था जिसे वे चाहते. तभी तो रविन्द्र जडेजा जैसे औसत प्रतिभा वाले खिलाड़ी टीम में लगातार बने रहे और अमित मिश्र जैसे कई खिलाड़ी टीम में अंदर-बाहर होते रहे.

        जब मोहिंदर जैसे बड़े कद के चयनकर्ता उनके विरुद्ध हुए तो उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा. यहां पर पाकिस्तान के इमरान याद आते हैं. जिस समय उनके हाथ में पाकिस्तानी टीम की कमान थी, वे एकदम तानाशाह की तरह व्यवहार करते थे. यहां तक कि लोकल स्तर पर खेलते खिलाड़ी को देखते और राष्ट्रीय टीम में शामिल कर लेते. अपनी प्रतिभा के बल पर उन्होंने अपनी कप्तानी में पकिस्तान को विश्व कप जिताया और टीम को नई ऊंचाईयां भी दी लेकिन उन्होंने पाकिस्तानी क्रिकेट के ढांचे को ही नष्ट कर दिया कि उनके जाते ही पाकिस्तानी क्रिकेट रसातल में चला गया और आज तक नहीं उबर सका. थोड़ा ग़ौर करेंगे तो आप पाएंगे कि धोनी भी अक्सर इमरान की तरह व्यवहार करते प्रतीत होते हैं. गनीमत यह हुई कि भारतीय क्रिकेट का ढांचा इतना मज़बूत है कि नुकसान न के बराबर या बिलकुल नहीं हुआ.

            उनका यह व्यवहार केवल टीम के स्तर पर ही नहीं दीखता है बल्कि मैदान में भी दिखाई देता है. वे मैदान में अब एक तरह की कृत्रिम गंभीरता ओढ़े नज़र आने लगे. जैसे-जैसे वे सफल होते गए उनकी ‘कैप्टन कूल’ की छवि मज़बूत हो गई. ये सही है कि आज खेल भी बहुत कॉम्प्लिकेटेड हैं और प्रतिद्वंद्विंता बहुत ज़्यादा हो गयी है और ऐसे में किसी भी खिलाड़ी और विशेष रूप से कप्तान का ‘कूल’ होना बनता है. लेकिन कूल होने का मतलब इतना ही है कि विषम परिस्थितियों में भी खिलाड़ी धैर्य और संयम बनाये रखे और कठिन समय में शांत दिमाग से परिस्थितियों के अनुसार फ़ैसले ले सके. इसका ये मतलब यह कतई नहीं हो सकता कि आप जीत में उत्तेजित और उल्लसित न हों और हार में दुखी. खेल तो नाम ही जोश और जूनून का है. आप भावनाओं को काबू में रख ही नहीं सकते. आप मशीन नहीं हो न. आप भाव रहित यंत्रवत कैसे हो सकते हो? धोनी अक्सर जीत-हार के बाद निष्पृह से दिखाई देते हैं मानो जीत-हार का कोई असर उन पर हुआ ही न हो. क्या वे खेल नहीं रहे थे? क्या वे पैसा कमाने के लिए काम भर कर रहे थे?

          उनकी बैटिंग का अंदाज़ बड़ा अनाकर्षक था. उनका रक्षात्मक शॉट देखिये. वे सीना आगे निकाल कर पैरों पर झुकते हुए बड़े ही अजीबोगरीब ढंग से गेंद को धकेलते थे. ऐसे ही हेलीकॉप्टर शॉट कहीं से भी आकर्षक नहीं लगता. एक बात और, जब कोई बॉलर विकेट लेता है तो वह बैट्समैन की ओर एक ख़ास भाव से देखता है या कुछ हाव-भाव प्रकट करता है. ठीक उसी तरह से जब बल्लेबाज़ चौका या छक्के लगाता है तो या तो बॉलर की ओर देखता है या हाव-भाव प्रकट करता है जो बैट्समैन या बॉलर को चिढ़ाए और उसमें खीज़ पैदा करे. दरअसल ये हाव-भाव केवल अपनी योग्यता दिखाने के निमित्त मात्र नहीं होते बल्कि प्रकारान्तर से अपने विपक्षी की काबिलियत की स्वीकृति भी होती है. लेकिन धोनी चौके-छक्के लगाकर भी भावहीन बने रहते हैं, कोई प्रतिक्रिया नहीं देते, जैसे ये कोई बड़ी बात नहीं है. प्रकारान्तर से वे बॉलर की क़ाबिलियत को नकारते हैं. ऐसा करके वे एक ख़ास क़िस्म का अहंकार प्रदर्शित करते हैं. जैसे-जैसे उनका क़द बड़ा होता गया, वैसे-वैसे उनमें सरकाज़्म बढ़ता गया. आप उनकी प्रेस वार्ताएं देखिए. उनके जवाबों में हमेशा एक ख़ास क़िस्म का व्यंग्य लक्षित करेंगे. ये अपने को श्रेष्ठ मानने के अहंकार से उपजा था, जिसमें वे मीडिया को कुछ भी बताना ज़रूरी नहीं समझते थे.

             और अंत में एक बात और. वे आईपीएल में एक ऐसी टीम से जुड़े थे, जिसके मालिक सट्टेबाज़ी से जुड़े थे. ये सभी जानते कि किस तरह से मामले को थोड़े बहुत कार्यवाही करके रफ़ा-दफ़ा किया गया. एक टीम के मालिक इतने गहरे से सट्टेबाज़ी में संलिप्त हो और टीम के कप्तान को कोई जानकारी न हो, ऐसा संभव नहीं लगता वह भी जब उसके मालिक के साथ उनके आर्थिक हितों में साझेदारी हो. कुछ छींटे धोनी पर भी पड़े थे. हालांकि सीधे तौर पर उनकी भागीदारी का कोई सबूत नहीं मिला. लेकिन उस टीम के कप्तान के तौर पर भी और एक बड़े खिलाड़ी के तौर पर उनकी नैतिक ज़िम्मेदारी तो बनती ही है और इस मामले में उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभाई. आप जानते हैं कि इस तरह के आरोप किस तरह से आपकी छवि धूमिल करते हैं. इसका सबसे बड़ा उदाहरण अज़हरुद्दीन हैं. वे धोनी से बड़े खिलाड़ी थे और निःसंदेह उन्हीं की तरह सफल कप्तान भी. यही सब कारण हैं कि धोनी के सन्यास की घोषणा करने के बाद भी कुछ ख़ालीपन-सा नहीं लगा.

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इसके बावजूद धोनी निर्विवाद रूप से एक बेहतरीन एथलीट, क्रिकेट की असाधारण समझ और अंतर्दृष्टि रखने वाले और शानदार नेतृत्वकर्ता थे. यह भारतीय क्रिकेट के सबसे सफल और चमकदार युग की समाप्ति है. भविष्य में भारतीय क्रिकेट के लिए इससे बेहतर समय हो सकता है, ख़राब हो सकता है पर ऐसा तो बिल्कुल नहीं होगा.

गुड बाय धोनी!

Monday 10 August 2020

देहरादून प्रवास डायरी 04

 



किसी की ज़िंदगी में तीस साल का वक़्फ़ा बहुत होता है. एक तिहाई या उससे थोड़ी ज़्यादा ही ज़िन्दगी. लेकिन एक शहर के लिए इतना वक़्फ़ा क्या होता है? शायद कुछ भी तो नहीं!

लेकिन समय है कि बहुत तेज़ दौड़ रहा है और आदमियों के साथ ये शहर भी दौड़े चले जा रहे हैं.

यूं तो किसी भी जगह को कुछ समय बाद दोबारा देखोगे तो कुछ बदली-बदली-सी ही लगेगी. पर इसमें सारा दोष जगह या समय का नहीं बल्कि आपकी स्मृति का भी होता है जो इस क़दर स्थिर होती है कि ज़रा-सी टस से मस नहीं होती. और समय है कि भागा-भागा जाता है, रुकने का नाम नहीं लेता. और जगहें तो समय के साथ ही क़दमताल करती है. वे ठहरी हुई स्मृति से बहुत आगे जा चुकी होती हैं. सवाल बस इतना है कि आगे जाने की कोई सीमा या गति भी होती है या नहीं.

कोई शहर तीस सालों में इस क़दर बदल जाएगा, इसका ज़रा भी गुमान न था.

एक शहर देहरादून था. एक शहर देहरादून है. उफ्फ़ क्या हाल हो गया है?

समय एकदम याद नहीं है. अगर स्मृति पर ज़्यादा ज़ोर डाला जाए तो एकदम सही समय भी बताया जा सकता है. फिर भी इतना तय है यह पिछली शताब्दी के अंतिम दशक का पहला या दूसरा साल ही था. वे गर्मियों के दिन थे. तब इस शहर को पहली बार देखा था. दिल आ गया था. लगा था कि शहर हो तो ऐसा. कितना भाग्यशाली लगा था ये शहर. इस शहर पे प्यार तो आया था मगर ईर्ष्या भी हुई थी यहां के लोगों से. तब यही लगा था इस शहर में रहने वाले कितने क़िस्मत वाले होंगे.

तब इस शहर को देखकर यही लगा था उफ्फ़ ये शहर! ये शहर है या कोई सुकोमल, कमनीय, ख़ूबसूरत, अलसाया-सा राजकुमार… हाँ, कुछ ऐसा ही तो लगा था. यह पहली नज़र में प्यार हो जाने वाला मसला था. एक ऐसा शहर जिसे मौसम की मार से बचाने के लिए चारों ओर पहाड़ियों ने दुशाला ओढ़ा रखा है. गहरी हरी घनी हरियाली ने सूर्य देवता के कोप से बचाने के लिए उसके सिर पर छावा कर दिया हो. और वो पहाड़ों की रानी मसूरी उसके शीश पर मुकुट सी शोभायमान थी. और रात में उसकी जलती-बुझती बिजलियां उस मुकुट में चमकती मणियों से कम कुछ भी प्रतीत हो सकती थीं भला. चारो ओर फैले बासमती के धानी रंग के खेतों के वस्त्र उस राजकुमार पर कितने फबते थे. और-और वे सरस, रसीली लीची और गदराए आम के पेड़ उसके वसन पर टंके सितारे से ही तो होते थे. बासमती की वो महक उसकी जठराग्नि दीप्त करती और आम और लीची को मादक गंध उसकी क्षुधा को शांत. वो राजपुर वाली सड़क तो उसके गले में पड़ा खूबसूरत हार ही था न. और हाँ, याद आया वो रिस्पना उसकी कमर पर लटकी करधनी ही थी न. और वे एलीट संस्थाएं मसलन भारतीय सैन्य अकादमी, फ़ॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट, डील, सर्वे कार्यालय! उसके सीने पर शान से लहराते तमगे ही तो थे.

ऐसे रूप पर आदमी तो क्या देवता का दिल भी न डोल जाए तो क्या हो. आख़िर इंद्र देव उस पर यूं ही मेहरबां थोड़े ही हुए होंगे कि सूर्य ने शरारतन जब भी इस राजकुमार को परेशान करने की नीयत से ज़रा-सा ताप बढ़ाया नहीं कि इंद्र की आंखों से दुःख की बूंदें बह निकलती और तब तक बहती रहती जब तक सूर्य के ताप से राजकुमार को राहत न मिल जाती.

हो सकता है दोस्तो, मैं उस राजकुमार की डिटेलिंग में कुछ भूल रहा हूँ. आख़िर उसकी ख़ूबसूरती को परखने के लिए दो दिन का वक़्फ़ा ज़्यादा थोड़े ही होता है. अगर आपको कुछ याद हो या याद आए तो आप उसमें जोड़ लेना.

ये आपकी ख़ुशक़िस्मती होती है कि आपकी इच्छाएं पूर्ण होती हैं. लेकिन इच्छाओं के पूर्ण होने की समय के साथ एक संगति भी होनी चाहिए. समय बीत जाने पर इच्छाओं का पूर्ण होना इच्छाओं के अपूर्ण रह जाने से होने वाले दुःख से भी ज़्यादा मारक साबित होता है या हो सकता है.

इच्छा पूरी हुई. मन की मुराद गले आ लगी. यज्ञ भूमि से देवभूमि में वास करने का मौका मिला. तो दून घाटी आ लगे. इस बार घूमने थोड़े ही आए थे. अब तो हम ख़ुद को उनमें गिन रहे थे, जिनको हमने पिछली बार ख़ुशनसीब माना था.

दिल उस ख़ूबसूरत राजकुमार को लंबे अरसे बाद देखने को बेताब हो चला था.

ये क्या! शहर में घुसते ही दिल धक-धक करते-करते हौंकने लगा था. ढलती साँझ के वक़्त हल्की बूंदाबांदी में रेंगते ट्रैफिक शहर की उदासी को घनीभूत करके रात को कुछ ज़्यादा गाढ़ा बनाने की भूमिका तैयार करता लग रहा था. अनहोनी की आशंका मन में जन्मने लगी थी, जिसे सच साबित होना था.

सोचा तो ये था इन बीते तीस सालों में ये सुकोमल-सा राजकुमार कुछ और गबरू नौजवान हो गया होगा. लेकिन ये क्या! ये तो ज़िम्मेदारियों के बोझ से दबा जवानी में ही बुढ़ाते, हांफते, गिरते-पड़ते आम आदमी-सा दिखाई देने लगा था. ये उम्मीदों का एन्टी-क्लाईमेक्स था.

चारों ओर कुकुरमुत्तों की तरह बेतरतीब सी उगी कॉलोनियां ने उसके पेट के आयतन को असीमित रूप से बढ़ा दिया है कि अब पैदल चाल तो क्या ऑटो इंची टेप से नाप पाना दुष्कर हो चला है. अब वे धानी धान के खेत वाले वसन उसके इस सुरसा के मुख की तरह बढ़े शरीर को ढक पाने में कहां समर्थ हैं. वे तो अब उसके शरीर पर चिथड़े से ही लगते हैं. हरियाली सिरे से ग़ायब है. अब लीची और आम के साथ-साथ बाक़ी पेड़ भी कहाँ बचे? तभी वो अब गंजा दीखने लगा है. अब शायद उसे ‘बाल्ड इज़ ब्यूटीफुल’ की सूक्ति से तसल्ली मिल जाती रही होगी. चारों तरफ फैला अतिक्रमण उसके चेहरे पर बेतरतीब खिचड़ी दाढ़ी-सा आंखों को चुभता है. आम और लीची की वो मीठी ख़ुशबू अब नालियों और नालों ने सोख ली है. जगह-जगह भरा पानी कील मुहांसे के अवशेष गड्ढे से नज़र आते हैं. और वे एलीट संस्थाएं अब तमगों की जगह टाट पर रेशमी पैबंद सी लगती हैं.

ऐसा नहीं कि उसके रंग-रूप को बचाने की कोशिश न की गई हो. बार-बार हुई है. लेकिन जब जब कोशिश होती वो उसके चेहरे पर किसी थर्ड ग्रेड सैलून में हुए फूहड़ मेकओवर से ज़्यादा कुछ नहीं होता. रूप बदलने के लिए एकाध बार प्लास्टिक सर्जरी की कोशिश भी हुई पर उससे बेहतर होने के बजाय और कुरूप होकर बाहर निकाला.

उफ्फ़ राजकुमार का ये हाल कर डाला उसके दरबारियों ने. वह भी इतने कम समय में. यकीन ही नहीं होता. हक़ीक़त और इतनी अविश्वसनीय. कमाल है न!

अब आप जब भी उस ख़ूबसूरत राजकुमार को देखने आएंगे तो उसकी जगह आपको संसाधनों के अभाव और बेशुमार ज़िम्मेदारियों के बोझ के मारे लाचार अधेड़ से मुठभेड़ होगी.

तो दिल थाम कर आइए. कलेजा हाथ में लेकर आइए. हां, आप इससे कभी पहले नहीं मिले तब कैसे भी चलेगा.

लेकिन कमाल है कि वो ज़िंदा है. उसमें एक दिल धड़कता है. वो अब भी वैसे ही धक-धक करता है जैसे कभी पहले करता था. जानते हैं क्यूं. क्योंकि इसमें अभी भी लिक्खाड़ रहते हैं, कवि और शायर रहते हैं, कलाकार रहते हैं, और बहुत सारे मानुस भी रहते हैं. वे अब भी इसमें विश्वास करते हैं और इससे प्यार करते हैं. वे उसमें जान फूंकते हैं. वे उसकी प्राण वायु हैं. उसकी धड़कन हैं.

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आज भी यकीन होता है शहर शरीर से कितना भी जर्जर हो जाए, आत्मा तो ज़िंदादिल बनी रहेगी.

#देहरादून_प्रवास_डायरी_04

Monday 13 July 2020

यस,एवरीवन लाइव्स मैटर



जिस तरह शब्द अलग अलग संदभों में अलग अलग अर्थों में और कई बार तो बिल्कुल विपरीत अर्थों में आपके सामने खुलते हैं वैसे ही शारीरिक भंगिमाएं और जेस्चर भी अलग अलग समय पर अलग अलग भाव के साथ आपकी संवेदना को छूते हैं। 

अब देखिए ना आज जब इंग्लैंड के साउथम्प्टन के रोज़ बाउल स्टेडियम में लगभग चार महीने बाद इंग्लैंड और वेस्टइंडीज के बीच पहला टेस्ट मैच शुरू होने से पहले सभी खिलाड़ी 'ब्लैक लाइव्स मैटर' आंदोलन के समर्थन घुटनों के बल बैठ रहे थे तो वे किसी अन्याय के आगे झुक नहीं रहे थे बल्कि मानव मानव के बीच किसी भी तरह के भेदभाव के विरुद्ध अपना प्रतिवाद कर रहे थे और पीड़ितों के पक्ष को संबल प्रदान कर रहे थे।

जब क्रिकेट के टी20 प्रारूप और आईपीएल जैसी प्रतियोगिताओं के चलते आप उसके विशुद्ध कमोडिटी बनते देखकर उससे दूर होते जाते हैं,ये खूबसूरत तस्वीरें आश्वस्त करती हैं। 

इन तस्वीरों के साथ फिर से क्रिकेट की शुरुआत से सुंदर और क्या हो सकता था।

Sunday 5 July 2020

गाथा बैडमिंटन के 'सुपर डान' की



एक ऐसे समय में जब अपने पड़ोसी मुल्क के विरुद्ध भावनाएं बहुत तीव्र और विरोधी हों तो उससे संबंधित  किसी के बारे में भी लिखने के अपने खतरे हैं। लेकिन जब आप प्रेम में होते हैं,वो भी खेल के प्रेम में,तो उसके खिलाड़ियों के प्रेम में भी आप होते हैं और उनके लिए ऐसे खतरे उठाए जा सकते हैं।

तो आज बात बैडमिंटन के 'सुपर डान' लिन डान के बारे में।

लिन डान खेल के बाहर जिन चीजों के लिए जाने गए उनमें एक है उनके शरीर पर गुदे टैटू। 2012 के ओलंपिक के दौरान उनके शरीर के अलग अलग भागों पर 5 टैटू दीख रहे थे। उनके दाएं हाथ के ऊपरी भाग पर एक टैटू था 'until the end of world' यानि 'दुनिया के खत्म होने तक'। बाद में उसी वर्ष इसी नाम से उनकी आत्मकथा आई। शायद उन्हें ये पदबंध बहुत प्रिय था और वे ये अच्छी तरह समझते थे कि इस जीवन में स्थायी कुछ भी नहीं होता। यहां हर चीज़ नश्वर है जिसे अनिवार्यतः समाप्त होना है। फिर वो चाहे जीवन हो या खिलाड़ी का खेल जीवन हो। और ये भी कि इसके अंत तक इसे भरपूर जियो,शिद्दत से जियो और कुछ ऐसा करो जो इस जीवन के पार पहुंचे,इस नश्वरता से परे की चीज हो,जो जीवन के खत्म होने पर भी बची रह जाए। 

तो उनका खेल जीवन भी खत्म होना था। चार जुलाई को उन्होंने खेल को अलविदा कह दिया। इस घोषणा के साथ ही 2000 से 2020 तक का 20 वर्ष का अंतरराष्ट्रीय कॅरियर अपने अंजाम को प्राप्त हुआ। पिछले कुछ दिनों से अपनी बढ़ती उम्र और चोटों के चलते वे खेल के ढलान पर थे। हांलाकि वे 2020 में होने वाले टोक्यो ओलंपिक में भाग लेने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे थे। पर कोरोना के संकट चलते जब ये खेल एक साल के लिए टल गए तो उन्होंने खेल से सन्यास लेने का फैसला किया। इसका सीधा सा अर्थ है कि बैडमिंटन का जादूगर अब कभी भी बैडमिंटन के मंच पर नहीं दिखाई देगा। अब ना तो उसका जादू सरीखा खेल मैदान में देखा जा सकेगा और ना ही उसके द्वारा रैकेट और शटल कॉक से निर्मित संगीत कोर्ट के कंसर्ट में सुना जा सकेगा। पर इन 20 वर्षों को उन्होंने भरपूर जिया और उत्कृष्टता के नए पैमाने और निशान स्थापित किए। ये निशान खेल के शरीर पर समय के पार जाकर हमेशा के लिए चस्पां हो गए हैं जिसे आने वाली पीढ़ी हमेशा देखती रहेगी। इस दौरान उन्होंने इस खेल के संगीत के ऐसे उत्कृष्ट पैमाने बनाए जिनसे निसृत संगीत की गूंज आने वाली पीढ़ियों के कानों में गूंजती रहेंगी।

14 अक्टूबर 1983 में चीन के लोगियान,फुजियान में जन्मे लिन के माता-पिता चाहते थे कि वे  पियानो बजाना सीखे और संगीत में प्रशिक्षित हों। लेकिन लिन ने हाथ में पियानो के बजाय  बैडमिंटन का रैकेट थामा क्योंकि इस बालक को आगे चलकर पियानो के की-बोर्ड पर सात सुरों को साधने के बजाए स्मैशेज,प्लेसिंग, क्रोसकोर्ट,फोरहैंड, बैकहैंड जैसे  शॉट्स के सुरों को अपनी पावर और स्टेमिना की साधना से  रैकेट और शटलकॉक के वाद्ययंत्रों से जीत के कालजयी संगीत की रचना जो करनी थी। और निसन्देह उन्होंने जीत की जो बंदिशें रची उस तरह की बंदिशें रचना किसी और के लिए शायद ही संभव हो। उन्होंने 2008 और 02012 में दो ओलंपिक गोल्ड,2005 और 2006 के विश्व कप में गोल्ड, 2006,2007,2009,2011,2013 की विश्व चैंपियनशिप में गोल्ड सहित कुल 66 एकल खिताब जीते। उन्होंने अपने खेल कॅरियर में कुल 666 जीत हासिल की। वे खेल इतिहास के पहले और एकमात्र खिलाड़ी हैं जिन्होंने विश्व की सभी 9 बड़ी प्रतियोगिताएं- ओलंपिक,विश्व कप,विश्व चैंपियनशिप, थॉमस कप,सुदीरमन कप,एशियन गेम्स और एशियन चैंपियनशिप,सुपर सीरीज फाइनल्स और आल इंग्लैंड चैंपियनशिप जीतकर 28 वर्ष की उम्र में ही सुपर ग्रैंड स्लैम पूरा किया। इतना ही नहीं खेल के वे एकमात्र खिलाड़ी हैं जिन्होंने बैक टू बैक दो ओलंपिक गोल्ड जीते।

व्यक्ति स्वभावतः अतीतजीवी होता है। वो हमेशा अतीत की ओर ताकता है। उसका सर्वश्रेष्ठ अतीत में हो चुका होता है। अतीत की स्मृतियां उसके मानस पटल पर इतनी गहरी खुदी होती हैं जो भविष्य की किसी भी चकाचौंध से धुँधली नहीं होतीं। रूड़ी हार्तोनो का खेल जीवन 1979 के आसपास समाप्त होता है और लिएम स्वि किंग का 1986 के आसपास। ये बैडमिंटन के सार्वकालिक महानतम खिलाड़ियों में से हैं। इनके खेल के जादू की स्मृतियां मन में बहुत गाढ़ी थीं जो बचपन से युवावस्था के दौरान अपना आकार गढ़ रही थीं। इन दो महान खिलाड़ियों ने स्मृतियों का इतना बड़ा स्पेस घेर लिया था कि किसी और के लिए जगह नहीं बचती थी। इस खेल में उनके बाद कोई ऐसा जादूगर नहीं हुआ जो इसको रिप्लेस कर सके। लेकिन अजूबे होते हैं। आपका बेस्ट आपके अतीत के बजाय आपके वर्तमान में हो जाता है। लिन डान जो आता है। 2004 से 2012 का समय ऐसा है जब लिन अपने सर्वोच्च पर होते हैं। उसके खेल का सम्मोहन आपकी सारी स्मृतियों को ओवरपॉवर कर लेता है। आपकी स्मृतियों की इबारत को धुंधला कर देता है। रूडी हार्तोनो और लिएम स्वि किंग जैसे खेल के मिथक सरीखे पात्रों के स्पेस को सिकोड़ कर अगर कोई छोटा कर दे और अपने लिए एक बड़ा स्पेस बना ले तो आप समझ सकते हैं कि खिलाड़ी कितना बड़ा और शानदार है। लिन डान ऐसे ही खिलाड़ी हैं।

वे लेफ्टी थे। लेफ्टी के खेल में एक एलिगेंस होता है जो उसके खेल को बेहद दर्शनीय बना देता है। उस एलिगेंस के कारण उस खिलाड़ी को खेलते देखना एक ट्रीट होता है। वो एलिगेंस पावर की रुक्षता को एक लय प्रदान करती है। उसमें एक संगीत बहता सा प्रतीत होता है। आप उसके खेल के साथ बहे चले जाते हैं जैसे किसी नदी में उसके बहाव के साथ कोई तैराक। लिन के साथ भी ऐसा ही था। 

एक खिलाड़ी के रूप में पावर और स्टेमिना उनकी सबसे बड़ी ताकत थी। और लेफ्टी की एलिगेंस उनके खेल की एक लय बनाती थी। वे बेहद आक्रामक खिलाड़ी थे जो विपक्षी को अपने ताबड़तोड़ स्मैशेज से हतप्रभ कर देते थे। लेकिन उनके खेल की ये विशेषता भी थी और ताकत भी कि वे खेल को नियंत्रित करना जानते थे। वे आक्रामक खेल कर लगातार कई अंक अर्जित कर लेते और उसके बाद अचानक खेल के पेस को धीमा कर देते। उनका फुटवर्क और कोर्ट में मूवमेंट गजब का था। वे किसी भी स्थान से शटल को रिटर्न करने के बाद बहुत ही तीव्र गति से अपनी बेसिक पोजिशन पर लौट आते और विपक्षी के रिटर्न को फिर से आसानी से खेलने की पोजिशन में होते। खेल में जीत के लिए आपका नेट का खेल बहुत अच्छा होना चाहिए। वे नेट पर भी कमाल खेलते थे। वे नेट पर तेजी से आते और बहुत जल्द ही शटल को टैप कर अंक हासिल कर लेते। उनके खेल की एक बड़ी विशेषता उनके शॉट्स की गूढ़ता होती। उनके शॉट्स बेहद डिसेप्टिव होते थे। विपक्षी उनके शॉट्स की दिशा का अनुमान नहीं लगा सकते थे। वे एक निश्चित दिशा में शटल तक आते और अंतिम क्षण में अपने शॉट की दिशा बदल देते। दूसरी तरफ उनके अनुमान करने की अद्भुत क्षमता थी। वे विपक्षी का दिमाग पढ़ने में सक्षम थे। इसीलिए शटल पर उनकी पहुंच बहुत आसान होती और मनचाहे रिटर्न और प्लेसिंग में वे सक्षम होते। दरअसल 20×44 फ़ीट के बैडमिंटन कोर्ट में वे जब भी प्रवेश करते वो उनकी जागीर बन जाता जिसमें उनकी मर्जी से परिंदा(शटल कॉक)पर भी नहीं मार सकता था। वे अतिरिक्त ऊंचाई हासिल करने के लिए एक ऊंची जम्प लगाते और जोरदार स्मैशेज मारते। वे कहते थे 'हर ज़ोरदार पावरफुल छलांग जीत की महत्वाकांक्षा से भरी होती है'।

हर महान खिलाड़ी के खेल जीवन में कुछ महान प्रतिद्वंद्विताएँ होती हैं। दरअसल ये प्रतिद्वंद्विताएँ एक दूसरे के खेल को समृद्ध करती चलती है और ये दोनों मिलकर अंततः खेल को समृद्ध करती हैं। खेलों की कुछ महान प्रतिद्वंद्विताओं को देखिए।मुक्केबाजी में मोहम्मद अली बनाम जो फ्रैजियर,टेनिस में मार्टिना नवरातिलोवा बनाम क्रिस एवर्ट या फेडरर बनाम राफेल नडाल,गोल्फ में अर्नाल्ड पामर बनाम जैक निकलस या फिर बास्केटबॉल में लॉरी बर्ड बनाम मैजिक जॉनसन।ऐसी और भी हैं। व्यक्तिगत भी और दलगत भी। ठीक इसी तरह लिन डान और ली चोंग वेई की प्रतिद्वंदिता भी बैडमिंटन इतिहास की सबसे बड़ी और जग प्रसिद्ध प्रतिद्वंदिता थी जिसने ना केवल एक दूसरे के खेल को समृद्ध किया बल्कि खेल को भी समग्र रूप में। वे दोनों 40 बार एक दूसरे से भिड़े लेकिन 28 के मुकाबले 12 जीत से पलड़ा लिन का भारी रहा। इनमें से वे 22 बार फाइनल में और 15 बार सेमीफाइनल में खेले। लेकिन इस तीव्र प्रतिद्वंदिता के बावज़ूद उनमें कोई कटुता नहीं थी।वे एक दूसरे का मुकाबला करने के लिए लगातार अपने खेल अपनी नीतियों में परिवर्तन करते रहे और खेल को समृद्ध। लेकिन महत्वपूर्ण बात ये कि खेल मैदान की ये प्रतिद्वंद्विता व्यक्तिगत जीवन में नहीं आई। वे एक दूसरे का सम्मान करते थे। जब लिन ने अपने सन्यास की घोषणा की तो सबसे मार्मिक ट्वीट उनके सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी ली ने ही किया कि

'हम जानते थे कि ये दिन आएगा
हमारे ज़िन्दगी का एक भारी क्षण
आपने बहुत ही औदार्य से पर्दा गिराया है
आप वहां के राजा थे जहां हम गर्व से लड़े थे
आपकी ये विदाई की अंतिम लहरें 
शुष्क आंसुओं की खामोशी में
विलुप्त हो जाएंगी।'

और ये प्रतिद्वंदी ही अभी कुछ दिन पहले लिन के बारे में कहता है कि 'लिन डान लीजेंड है। उसके खिताब उसकी कहानी स्वयं कहते हैं। हमें उसका आदर करना ही पड़ेगा।'

निःसंदेह लिन डान हमारे समय के महानतम खिलाड़ी हैं। उनकी मैदान से विदाई उनके खेल से निर्मित जादुई उल्लासमय संगीत को एक उदास धुन में परिवर्तित कर देगी। उनके खेल जीवन की समाप्ति घोषणा दरअसल बैडमिंटन के सबसे चमकदार युग की समाप्ति की घोषणा है।
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खेल के मैदान से अलविदा बैडमिंटन के  'सुपर डान' लिन डान।

स्मृति शेष पिता

  "चले गए थे वे अकेले एक रहस्यमय जगत में जहां से आज तक लौटकर नहीं आया कोई वह शय्या अभी भी है वह सिरहाना अभी भी है मैं भी हूं तारों-भरे ...