Sunday 23 February 2020

ये समाज और मानव मन की यात्राएं हैं



किसी जगह की यात्रा या किसी स्थान पर रहवास के तमाम कारण हो सकते हैं। निश्चित ही अधिकतर मौज मस्ती या कार्यवृति की अनिवार्यता के कारण  ही होता है। लेकिन जब ये यात्राएं और रहवास इन स्थूल कारणों से आगे बढ़कर एक व्यापक दृष्टिकोण और सरोकारों से प्रेरित होती हैं तो ये यात्राएं और रहवास वहां की संस्कृति और समाज को समझने बूझने का सबब बनते हैं। उस समाज की निर्मिति और मानसिकता को समझने का कारक होते हैं। और उसके माध्यम से मानव मन के भीतर और स्वयं के भीतर की यात्रा करने  रहने की कोशिश होती है।

ओमा शर्मा की यात्राएं और उनके रहवास इन्हीं वृहत्तर परिप्रेक्ष्य के वायस हैं। इसकी परिणति एक पुस्तक के रूप में होती है-'अन्तरयात्राएं वाया वियना'। लेकिन ये पुस्तक केवल वियना या ऑस्ट्रिया तक सीमित नहीं है। इसका भूगोल  कहीं ज़्यादा विस्तार लिए है।  हां इसके आयतन का एक बड़ा हिस्सा वियना घेरे है। 192 पृष्ठों में से 88 पृष्ठ  लेखक के प्रिय साहित्यकार स्टीफेन स्वाइग का शहर वियना ही घेरे है। 

ऑस्ट्रिया के महान साहित्यकार स्टीफेन स्वाइग(1881-1942) ओमा शर्मा के सबसे प्रिय और पसंदीदा साहित्यकार हैं। उन्होंने ना केवल उनकी जीवनी बल्कि उनकी कहानियों तथा अन्य पुस्तकों का अनुवाद किया है। स्वाइग का अधिकांश समय वियना में बीता। इसलिए ओमा शर्मा उनसे जुड़ी जगहों और चीजों को देखने के बहाने वियना की यात्रा करते हैं और उस यात्रा के बारे में लिखते हैं। यहां कई उपकथाओं से मिलकर एक कथा बनती है। दरअसल स्वाइग के व्यक्तिगत और लेखकीय जीवन और उनसे जुड़े स्थलों की कथा तो नेपथ्य में चलती है। इसके ऊपर कई उपकथाएं चलती जाती हैं। एक उपकथा स्वाइग की जीवनी की है जिसे वे बार बार उद्धृत करते चलते हैं। एक उपकथा यूरोप के उन महान कलाकारों और साहित्यकारों से बनती है जिनकी महान कृतियां अब वियना की सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा हैं और जिनसे स्वाइग को खोजने के क्रम में ओमा की मुठभेड़ होती है और फिर उस कृति और रचनाकार से एकाकार होते हैं। इसमें अंतोनियो कनोवा हैं,रेम्ब्रां हैं, टीशियस हैं,वेरोनीस हैं,पीटर ब्रुगेल हैं,बाल्जाक हैं,दोस्तोवस्की हैं,वेरहारन हैं,फ्रायड, मोज़ार्ट,बीथोवीन हैं। एक उपकथा वियना की सांस्कृतिक विरासत की,विश्व प्रसिद्ध संग्रहालयों की, बर्गथिएटर की,मारिया टेरेसा की भी है।

दरअसल इस किताब में एक तरफ वियना या कहें यूरोप है और दूसरी तरफ भारत। वे आस्ट्रिया के अलावा स्विट्ज़रलैंड भी जाते हैं और टॉलस्टॉय के बहाने रूस भी। स्विट्जरलैंड का वर्णन करते
 हुए वे  लिखते हैं '....जहाँ दुख-दर्द,संघर्ष-शोषण,जात-पात,रंगभेद या लैंगिक झमेले हैरत करने की हद तक नदारद हों,वहाँ किसी लेखक-कलाकार की प्रेरणाएं और बेचैनियाँ कैसी उड़ान भरती होंगी..।' और शायद यही कारण है कि जब जब वे भारत में -असम,गुजरात, पश्चिमी उत्तर प्रदेश या मुम्बई आते हैं,वे विवरण कहीं ज़्यादा सरस, करुणा से भरे और मार्मिक बन पड़े हैं। यहाँ देश काल समाज प्रमुखता से है व्यक्ति पृष्ठभूमि में। इसके विपरीत वियना और योरुप में व्यक्ति प्रमुख हैं और समाज पृष्ठभूमि में है। यूरोप के विवरण आपके दिमाग को मथते हैं तो भारत के विवरण दिल को,मन को छूते हैं,द्रवित करते हैं। निसंदेह ओमा जिस समाज को देखते महसूसते हैं और जिस तरह के चित्र उनके मन में बनते हैं वैसे ही कागज़ पर उतर आए हैं।

कुल मिलाकर ये एक रोचक पुस्तक है जो आपके अनुभव को और समृद्ध करती है। 
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आपको बहुत साधुवाद ओमा शर्मा

Friday 21 February 2020

'एक आसमां पर हम दो चाँद आधे हैं'


'एक आसमां पर हम दो चाँद आधे हैं'
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'तुझमें गुनगुनाते हैं, तुममें मुस्कुराते हैं
 खुद को तेरे पास ही छोड़ आते हैं।'

ये ज़िन्दगी विरुद्धों का द्वंद है, विरुद्धों का सामंजस्य है।  तन्हाई भी है तो साथ भी है। ग़म भी हैं तो दवा भी है। ख़्याल भी हैं हक़ीक़त भी है। खालीपन भी है भराव भी। सवाल हैं और उनके जवाब भी हैं। उलझनें भी हैं सुलझने भी। अधूरेपन का अहसास है तो पूर्णता की अनुभूति भी। राज़ भी हैं और हमराज़ भी। रास्ते है और मंज़िलें भी। और ज़िन्दगी के इस स्याह-सुफेद कैनवास में ये  प्रेम ही है जो हलचलों के अद्भुत  रंगों से इसे भर भर देता है। ये प्रेम का आना है कि बसंत का आगमन और  पतझड़ का जाना है। कि सन्नाटों में सदाएँ सुनाई देना है। कि अकेलेपन का महफिलों में बदल जाना है। कि खामोशियों का संगीत से भर जाना है।
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कि कलम से बूंद बूंद रिसती भावनाएं जब साज़ों को भिगो देती हैं तो गीलेपन के अहसास से साज़ों से भावनाओं का ज्वार उठता है जिसे सधे पगे सुर साधकर प्रेम के दरिया में तब्दील कर देते हैं।
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कि शकील आज़मी की कलम से निकले शब्द शब्द भावनाओं के रंग से  ज़िन्दगी के कैनवास पर ऐसी खूबसूरत तस्वीर बनती हैं जिसमें चिरंतन अपने साज़ों की कूँची के खूबसूरत स्ट्रोकों से रूह डाल देते हैं और महालक्ष्मी अय्यर अपनी मखमली सी खनकती आवाज के जादू से शहद को  भावनाओं के रंग में घोल देती हैं तो असीम आनंद की ऐसी  अनुभूति होती है कि लब बोल उठते हैं
'एक साथ तेरा हो तो
 सौ मंज़िलें हो'
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(ज़िन्दगी के बहाव में कुछ गीत छूट जाते है।पर जब मिलते है तो साया बन जाते हैं)
#1920 ईविल रिटर्न्स
#बॉलीवुड_गीत_7


Sunday 16 February 2020


हमारे यहां गांव में खीर फीकी बनती है। बाद में  उसके ऊपर मीठे(शक्कर या बूरे) की एक लेयर जमाई जाती है और तब उसे खाते हैं। इसी तरह दूध कच्चे मीठे के साथ पिया जाता है। या तो शक्कर (चीनी नहीं) घोलकर या फिर गुड़ के साथ। गुड़ की चाय भी पी जाती है। लेकिन चाय अलग से गुड़ के साथ पिए जाते कभी नहीं देखा सुना जैसा कि सुप्रसिद्ध लेखक मनोहर श्याम जोशी पिया करते करते थे।

 प्रभात रंजन की पुस्तक 'पालतू बोहेमियन:मनोहर श्याम जोशी एक याद' में जोशी जी बार बार गुड़ के साथ चाय पीते हुए आते है,गाने में किसी टेक की तरह। पिछले 11 महीने में ये पहली किताब है जो खत्म हुई है और वो भी एक सिटिंग में। प्रभात रंजन निसंदेह एक शानदार किस्सागो हैं और 'कोठागोई'की तरह ये किताब भी इसकी ताईद करती है।

प्रभात रंजन ने जोशी जी को काफी करीब से देखा है और बहुत ही आत्मीयता से उन पर लिखा है। हालांकि ये 135 पन्नों की बहुत बड़ी किताब नहीं है लेकिन फिर भी जोशी जी के साथ साथ खुद प्रभात रंजन के बारे में बहुत जानने समझने को मिलता है। साथ ही टीवी और सिनेमा की दुनिया के भीतर की एक तस्वीर भी। ये पुस्तक उत्सुकता जगाती है तथा इस पर और भी विस्तार से लिखे जाने की मांग भी करती है क्योंकि उन्होंने उस समय को बारीकी से देखा सुना है जब टीवी संक्रमण के दौर से गुज़र रहा था। दूरदर्शन की मोनोपॉली खत्म हो रही थी और प्राइवेट टीवी आकार ले रहा था। 
इस पुस्तक में लिखने पढ़ने के इतने अधिक सूत्र हैं कि आप इसे दिग्दर्शिका के रूप में अपने पास रख सकते हैं। तमाम लेखकों और किताबों के बहुमूल्य  संदर्भ जो हैं।  बाकी लिखना सीखने के गुरुमंत्र तो इसमें हैं ही। पुष्पेश पंत का लंबा संस्मरणात्मक लेख प्रस्तावना के रूप में आपके लिए 'लुभाव' (बोनस) है ही। 
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ये अंतरंग यादों की खूबसूरत दुनिया है।

Friday 14 February 2020



कल विश्व रेडियो दिवस था। सोशल मीडिया पर दिन भर बधाई और शुभकामनाओं का लंबा सिलसिला चला। अखबारों से लेकर सोशल मीडिया तक पर रेडियो को लेकर तमाम आलेख भी पढ़ने को मिले जिनमें अनुज स्कन्द शुक्ल द्वारा कई बरस पहले टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा गया आलेख और मित्र अनुराग शुक्ल की पिछले साल लिखी गयी मुख पुस्तिका पोस्ट विशेष उल्लेखनीय है। इस साल रेडियो को लेकर जो माहौल बना वो बहुत ज़्यादा नॉस्टैल्जिक कर देने वाला था। एक ऐसे समय में जब अक्सर ये सुनना पड़ता है कि 'अब रेडियो कौन सुनता है' या 'रेडियो अब खत्म होने वाला है', ये माहौल आश्वस्तकारी ही नहीं था बल्कि रेडियो के साथ बीते और बिताए समय और उसके प्यार में पड़ जाने वाले समय को फिर फिर जीने का और उसे कहने सुनने का समय भी है। दरअसल ये स्पेनिश  रेडियो अकादमी को और उसके उस अनुरोध को ही याद करने का समय नहीं है जो 2010 में उसके द्वारा किया गया था और जिसके कारण अंततः 13 फरवरी को यूनेस्को द्वारा विश्व रेडियो घोषित किया गया बल्कि ये उन दो वैज्ञानिकों हेनरिख हर्ट्ज और मारकोनी को याद करने का समय भी है जिसके कारण रेडियो जैसे जादू के पिटारे का बन पाना संभव हुआ। जिसे अंततः संचार का सबसे लोकप्रिय,सस्ता और दुनिया की लगभग पूरी आबादी तक पहुंच बनाने वाला साधन बन जाना था।

 हमारी पीढ़ी और हमसे पहली पीढियों के लोगों में शायद ही कोई ऐसा होगा जो रेडियो का दीवाना ना हो, उसके प्यार में ना पड़ा हो और जिसने रेडियो को जिया ना हो। और ऐसा ना होता तो क्यों नहीं होता! आखिर उन्होंने रेडियो के सुनहरा दौर जो देखा है,उसकी बादशाहत सी शान के साक्षी रहे हैं,उसके सखा रहे हैं,उसके प्रेमी रहे हैं।

दरअसल ये वो समय था जब घर में खूबसूरत से बड़े बॉक्स के आकार वाले रेडियो का होना स्टेटस का प्रतीक होता था। जब रेडियो लोगों के लिविंग एरिया की सबसे वांछित वस्तु हुआ करता था और जिसे बड़े करीने से कपड़े से ढककर सजावटी आइटम की तरह रखा जाता था। जिसे छूने की हर किसी को इज़ाज़त नहीं होती थी और बच्चों को तो बलकुल भी नहीं। और बच्चों के लिए वो एक ऐसी अचरज भरी जादुई सी चीज होती थी जिसे देखकर बच्चे ये सोचते कि इसमें से आवाज़ कहां से आती है,क्या कोई इसके अंदर होता है। बच्चे जो उसकी नॉब को मौका मिलते ही उसी तरह उमेठने की फिराक में रहते जैसे उनके खुद के कान उमेठे जाते। आखिर वो ऐसा ही सोच सकते थे क्योंकि वे उस पीढ़ी के बच्चे जो ठहरे जिनका एक्सपोजर आज की पीढ़ी के बच्चों की तरह नहीं था जो पैदा होते ही मोबाइल चलाना सीख जाते हैं। ये रेडियो का वो समय हुआ करता था जब बेहतर रिसेप्शन पाने के लिए एक जालीदार एंटीना कमरे के एक कोने से दूसरे कोने तक बांधा जाता था। ये उन दिनों की बात है जब  रेडियो में वैक्यूम ट्यूब या वैक्यूम बल्ब का प्रयोग होता था जिसके कारण ये इतने बड़े हुआ करते थे। ये वो समय था जब उसे सुनने के लिए पैसे खर्च करने पड़ते थे। लाइसेन्स फीस जमा करानी होती थी। शहर के मेन पोस्ट ऑफिस से एक पासबुक नुमा एक किताब मिलती थी जिसे लेकर हर महीने पोस्ट आफिस जाना पड़ता था और काउंटर पर बैठा बाबू पर्पल कलर का एक विशेष टिकट उस पर चेंपता जिस पर एक बच्चा और एक ट्रांसमीटर बना होता। उस पर बने बच्चे में खुद का अक्स दिखाई पड़ता। ये वो टिकट था जो मन में डाक टिकटों के प्रति एक विशेष आकर्षण पैदा कर देता था कि आगे चलकर भरी दुपहरी से लेकर शाम तक तमाम दफ्तरों के कूड़े को डाक टिकट इकट्ठे करने के लिए खंगालने में मशगूल रहते। और वक्त ज़रूरत पड़ने पर या मौका मिलने पर दूसरों के घरों से ऐसे टिकट चुराने के अवसर की फिराक़ में भी रहते ताकि स्टाम्प के ख़ज़ाने में बढ़ोतरी हो सके। लाइसेंस फीस जमा करने के लिए मां बाप ये कहकर भेजते कि लाइसेंस फीस जमा ना होने से रेडियो का लाइसेंस रद्द हो जाएगा और रेडियो सुनने को नहीं मिलेगा और बच्चे रेडियो सुनने के लालच में पोस्ट ऑफिस की लाइन में खड़े रहते। और फिर भला हो सिलिकॉन ट्रांजिस्टर्स के आने का जिनके आने से पोर्टेबल ट्रांजिस्टर सेट ने रेडियो का स्थान ले लिया। अब ये ट्रांज़िस्टर सर्वव्यापी होने लगे जो सायकलों से लेकर हलों तक पर दिखाई देने लगे। अब एटलस या हरक्यूलिस साईकल , मुस्कुराते बच्चे की तस्वीर वाले मर्फी या बुश के ट्रांज़िस्टर और एचएमटी की घड़ियां दहेज के सबसे हॉट आइटम हो चले थे।

और हां आप ये मत सोचिए कि रेडियो को सुनने के शौक को उत्पन्न करने के लिए किसी ट्रेनिंग की आवश्यकता होती होगी। दरअसल ये संस्कार तो आपको अपने माता पिता या परिवार से परम्परा में यों ही मिलते थे। याद है बचपन के दिन जब पढ़ने के लिए बाप सर्दियों की अलसुबह चार बजे कान पकड़ कर उठा दिया करते थे और खुद पता नहीं कहां कहां से स्टेशन ढूंढकर फिल्मी गाने लगा दिया करते थे। और बच्चे पढ़ने के लिए नहीं बल्कि गाने सुनने के लोभ में पढ़ने का ढोंग करते रहते और पूरा ध्यान और कान रेडियो की तरफ रहते जिससे धीमी आवाज़ में गाने कानों में पड़ते रहें। दरअसल यही तो वो समय होता था जब बच्चों में रेडियो सुनने के संस्कार पड़ते।

दरअसल ये वो समय था जब हिंदुस्तान में आकाशवाणी से ज़्यादा लोकप्रिय रेडियो सिलोन हुआ करता था जिसमें सुबह सात या साढ़े सात बजे बहुत पुराने गाने और आठ बजे नई फिल्मों के गानों का कार्यक्रम प्रसारित होता। और रेडियो सिलोन की बढ़ती लोकप्रियता के कारण आकाशवाणी को भी एक नया चैनल 'विविध भारती' शुरू करना पड़ा था। ये वो समय था जब अपनी आवाज़ के दम पर लोग लीजेंड बन जाते थे। ये बिनाका गीतमाला की अद्भुत लोकप्रियता का समय हुआ करता था। ये अमीन सयानी की आवाज़ के जादुई असर का समय था। ये तबस्सुम की खनकती आवाज़ का समय था। ये अमीन सयानी के मुकाबिल महाजन की भारी भरकम आवाज के लोकप्रिय होने का समय था। ये देवकी नंदन पांडेय, विनोद कश्यप,रामानंद सिंह और इंदु वाही जैसे वाचकों की साफ शफ्फाक धीर गंभीर जादुई आवाज़ में समाचार प्रसारण का समय था। ये मर्विन डिमेलो और जसदेव सिंह की अद्भुत कमेंट्री का समय था जिसने क्रिकेट जैसे एलीट खेल को बेतरह लोकप्रिय कर दिया था और कमेंट्री के नए मानदंड स्थापित किये थे और आगे चलकर स्कन्द गुप्त,सुशील दोषी जैसे तमाम कमेंटेटर्स की पूरी जमात का आगमन हुआ। रेडियो कमेंट्री के लोगों पर अभूतपूर्व प्रभाव का अंदाज़ा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता  1975 में कुआलालंपुर में विश्व कप हॉकी के फाइनल में भारत की जीत या फिर 1983 में ज़िम्बाब्वे के विरुद्ध 17 रन पर पांच विकेट गंवाने के बाद  कपिल देव की आतिशी 175 रनों की पारी या फाइनल में वेस्टइंडीज के विरुद्ध जीत दर्ज़ कर पहली बार विश्व कप जीतने लेने की जो हूबहू स्मृति आज भी दिमाग में अंकित हैं वैसी टीवी पर देखी  हालिया अनेक बड़ी जीत भी नहीं हैं। वो समय था जब हवामहल पर प्रसारित होने वाले नाटक मनोरंजन के क्षेत्र में नए मानक तय कर रहे थे। ये वो समय था जब बीबीसी भारत में लोकप्रियता के झंडे गाड़ रहा था और विशेष रूप से सामयिक घटनाचक्र पर आधारित कार्यक्रम बेहद लोकप्रिय हो रहे थे। कैलाश बुधवार,रमा पांडेय,मधुकर उपाध्याय से लेकर राजनारायण बिसारिया और नीलाभ तक की अपनी फैन फॉलोइंग थी। ये वो समय था जब ठीक आठ बजे रेडियो कश्मीर से 'वादी की आवाज़' कार्यक्रम के दो स्टॉक करेक्टर मुंशी जी की  धीर गंभीर और निक्की की चुलबुली आवाज़ और उनके बीच की होने वाली नोक झोंक के माँ बाबा दीवाने हुआ करते थे और उन्हें सुनने के लिए वे कोई भी काम छोड़ सकते थे। ये वो समय था जब हर रेडियो स्टेशन पर दो चार ऐसे स्टॉक करेक्टर होते और श्रोताओं के बीच उनकी लोकप्रियता और उनके प्रति दीवानगी चरम पर  पर होती। ये वो समय था जब एटा के सहावर टाउन से लेकर बिहार के झुमरी तिलैया तक तमाम अनजाने और छोटे छोटे कस्बे और शहर श्रोताओं की दीवानगी के कारण देश भर में ही नहीं पूरे संसार में पहचान बना रहे थे। ये श्रोता संघों के बनने और उनके विस्तार का दौर था। ये गांवों की चौपालों पर किसानों के  खेतों से शाम को थके मांदे लौटकर रागनियों को सुनने औरउन पर झूमने का समय था। ये  वो समय था जिसने शास्त्रीय संगीत को संरक्षण प्रदान कर लोकप्रिय बनाया और तमाम महान कलाकार दिए। ये वो समय था जब हिंदी के सभी नामचीन साहित्यकार रेडियो में प्रोड्यूसर के रूप में काम करते थे और रेडियो की अनेक विधाओं और फॉर्मेट को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया था।

दरअसल ये रेडियो का समय था और ये रेडियो था जो आपकी आत्मा तक पहुंचता था और उसे छूता था। ये रेडियो था जो सीधे आपके दिल से जुड़ता था। ये रेडियो था जो  संचार का ऐसा माध्यम था जिसके और सुनने वाले के बीच में कोई भौतिक उपादान व्यवधान उत्पन्न नहीं कर सकता था और दिल ओ दिमाग को अपने जादुई प्रभाव से मैसमेराइज़ कर देता था। ये कुछ कुछ ऐसा रूहानी सा माध्यम था जिससे आप सिर्फ और सिर्फ प्यार कर सकते थे और उसके प्यार में हमेशा के लिए पड़े रह जाते थे। ये रेडियो ही तो था जिसके प्यार में एक बार पड़कर कोई मुक्ति की उससे जुदाई की उससे अलगाव की कोई राह,कोई उपाय हो ही नहीं सकता था।

और ये तो और भी अद्भुत था जिसके प्यार में आप  पैड गए थे, बिना किसी प्रयास के अनायास ही उसका अभिन्न अंग बन गए थे। जीवन में इससे बड़ा चमत्कार शायद संभव नहीं था और ना अब है।
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लव यू रेडियो।


Tuesday 4 February 2020

जोश पर अनुभव की जीत


यह निश्चित है कि इतवार यानी 2 फरवरी को मेलबोर्न पार्क के रॉड लेवर सेन्टर कोर्ट में उपस्थित 37 हज़ार से ज़्यादा दर्शक विक्टोरिया के जंगलों में लगी आग से उत्पन्न अतिरिक्त गर्मी को ही महसूस नहीं कर रहे थे बल्कि नीले रंग के सिंथेटिक कोर्ट पर ऑस्ट्रेलियन ओपन के फाइनल में नोवाक जोकोविच और डोमिनिक थिएम के बीच चल रहे ज़ोरदार संघर्ष से उत्पन्न ताप को भी महसूस कर रहे होंगे. दरअसल यह फाइनल केवल दो खिलाड़ियों के बीच का संघर्ष भर नहीं था बल्कि ये नए और पुराने के बीच का द्वंद्व भी था. यह नए का पुराने को विस्थापित कर ख़ुद को स्थापित करने का संघर्ष था तो ये पुराने का नए को नई ज़मीन तोड़ने से रोकने का संघर्ष भी था. यह अनुभव और युवा जोश का संघर्ष भी था. निसंदेह प्रतिबद्धता दोनों ओर थी और इसीलिए संघर्ष बहुत ही ज़ोरदार हुआ जो चार घंटे चला. अंततः अनुभव ने एक बार फिर युवा जोश को मात दी. नोवाक ने थिएम को 5 सेटों में 6-4, 4-6, 2-6, 6-3 और 6-4 से हरा दिया.
यह नोवाक का आठवां ऑस्ट्रेलियन ओपन और कुल मिलाकर सत्रहवाँ ग्रैंड स्लैम खिताब था. अब वे राफा के 19 ग्रैंड स्लैम खिताब से दो और फेडरर के 20 से केवल तीन खिताब पीछे हैं. थिएम का यह तीसरा ग्रैंड स्लैम फ़ाइनल था और दुर्भाग्य से उन्हें तीनों में हार का सामना करना पड़ा. इससे पहले वे 2018 और 2019 के फ्रेंच ओपन में राफा से हार गए थे.
हारने के बाद अपनी ख़ूबसूरत स्पीच में थिएम नोवाक को जीत की बधाई देते हुए उनकी इस जीत को अद्भुत बता रहे थे.उन्होंने कहा कि ‘इन सालों में आप (नोवाक) और आपकी टीम जो कुछ कर रही वो अविश्वसनीय है.’ नि:संदेह ऐसा ही है. यहां वे आठवीं बार जीत रहे थे. जिस तरह रोलां गैरों की लाल बजरी के बेताज बादशाह राफा हैं, ठीक उसी तरह नीली कृत्रिम सतह के नोवाक बेताज बादशाह हैं. राफा ने फ्रेंच ओपन 12 बार जीता तो नोवाक भी यहां आठ बार जीत चुके हैं. वे यहां कभी भी फ़ाइनल में नहीं हारे हैं. इस बार की यह जीत इसलिए भी उल्लेखनीय है कि वे दो के मुकाबले एक सेट से पीछे थे और इस स्कोर पर वे कभी भी फ़ाइनल में जीते नहीं थे. पर रॉड लेवर एरीना उनकी पसंदीदा सतह है. वो नीली सतह जो उन्हें बेतरह रास आती है. इस नीले रंग से उनके खेल कौशल में सागर सी गहराई आती है और उनका खेल आसमान सी ऊंचाई को प्राप्त होता है.
थिएम यहीं नहीं रुकते. वे अपनी स्पीच में आगे कहते हैं कि ‘मैं सोचता हूं कि आप(नोवाक) और दो अन्य खिलाड़ी(फेडरर और राफेल नडाल) ने पुरुष टेनिस को अनंत ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया है और मुझे गर्व है और मैं ख़ुश हूं कि मैं इस समय और इस कालखंड में प्रतिस्पर्धा के योग्य हूं.’ नि:संदेह यह उनके लिए गर्व की बात होगी. इस समय फेडरर 38 साल के और राफा 35 साल के हैं. और मई में नोवाक 33 साल के हो जाएंगे. पिछले 13 ग्रैंड स्लैम खिताब इन तीनों ने जीते हैं. यानी पिछले तीन साल से इन तीनों के अलावा कोई और ग्रैंड स्लैम नहीं जीत पाया है. यहां उल्लेखनीय ये भी है कि पिछले 67 ग्रैंड स्लैम ख़िताबों में से 56 इन तीनों ने जीते हैं. यह अद्भुत है,अविश्वसनीय है. थिएम,ज्वेरेव,सिटसिपास, मेदवेदेव,रुबलेव और किर्गियोस जैसे युवा खिलाड़ी लगातार हाथ पैर मार रहे हैं पर इन तीनों से पार नहीं पा पा रहे हैं.
इस फ़ाइनल मैच की शुरुआत नोवाक ने शानदार तरीके से की. पहला सेट 6-4 से जीत लिया. लेकिन दूसरे सेट में 4-4 के स्कोर के बाद नोवाक लय खो बैठे. थिएम के बेसलाइन से शक्तिशाली फोरहैंड ग्राउंड स्ट्रोक्स का नोवाक के पास कोई जवाब नहीं था. और अगले दो सेट आसानी से 6-4 और 6-2 से गवां बैठे. अब लगने लगा था कि इस बार रॉड लेवर कोर्ट पर एक नए चैंपियन का उदय होने वाला है. लेकिन अनुभव बड़ी चीज़ होती है, यह नोवाक ने एक बार फिर सिद्ध किया. उन्होंने पिछली सात जीतों के सारे अनुभव झोंक दिए. सर्व और वॉली के आक्रामक खेल से थिएम के मजबूत रक्षण को ही भंग नहीं किया बल्कि उनके जोश और उत्साह को भी भंग कर दिया. और अंतिम दो सेट 6-3 और 6-2 से जीतकर एक नया इतिहास रच दिया.
नि:संदेह यह फाइनल 2018 के फेडरर और राफा के बीच हुए क्लासिक फाइनल की ऊंचाइयों को नहीं छू सका पर इतना तो तय है ही कि इसने नोवाक को एक नई ऊंचाई पर पहुंचा दिया. यह वो ऊंचाई है जहां से वे राफा और फेडरर के और करीब आ गए हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि तीन महान खिलाड़ियों के बीच की ग्रैंड स्लैम ख़िताबों की होड़ और सार्वकालिक महान खिलाड़ी बनने की इन तीनों की प्रतिस्पर्धा और रोचक हो गई है.
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फिलहाल नोवाक को इस जीत की बहुत बधाई.



Sunday 2 February 2020

लम्हे जो समय के बहाव में छूट गए_2

उसका बचपन एक छोटे से कस्बेनुमा शहर में बीता था। वहीं उसकी आरंभिक पढ़ाई लिखाई हुई थी। उसने अभी अभी टीन ऐज पार करके युवावस्था में बस कदम ही रखा था। ऐसे ही अभी अभी उसने उस छोटे से शहर से एक बड़े शहर में प्रवेश किया। यहां पर उसने एक  नामी गिरामी विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए दाखिला जो लिया था। जैसे जैसे उसके जीवन मे चीजों का आकार बढ़ रहा था, मसलन शिक्षा,उम्र या उसके रिहायशी शहर का आकार,वैसे वैसे उसकी आँखों में सपने बढ़ रहे थे। सतरंगी सपने। सपने उसके भविष्य के , उसके अपने जीवन के , प्यार के , परिवार के , खुशियों के , खुशहाली के। उसकी बड़ी बड़ी आँखें सपनों से उसी तरह लबालब भरीं रहतीं जैसे सावन के बादलों में पानी। अक्सर जीवन की रूक्ष वास्तविकताओं की गर्मी से वे सपने आंखों से बारिश की तरह बह जाते। कुछ दिन आंखें बिन सपने सूनी सूनी सी रहतीं। पर जल्द ही उम्मीदों की ऊष्मा से संघनित हों बूंद बूंद सपने फिर फिर आंखों में जमा होते जाते।

आंखों में सपनों के जमा होने और बहते जाने की इस लुका छिपी के बीच उसकी आँखों में वो सपने सी समा गई थी।उसने सोचा 'अरे!ये तो वही प्रोफेसर साहब की बेटी है जिससे उसके घर मिला था।' एक हफ्ते पहले की ही तो बात है।जब वो इस अजनबी शहर में अकेली जान आया था तो उन प्रोफेसर साहब के नाम एक चिठ्ठी लाया था।और जब उनके घर पहुंचा तो यही तो मिली थी। कितना अपनापन था। हां ये बात और थी कि प्रोफेसर साहब ने इतने रूखे ढंग से बात की थी कि वो दोबारा उनके यहां जाने की सोच भी नहीं सकता था। उस दिन उसे अपने डिपार्टमेंट में देखकर उसे अच्छा लगा था। जैसे ही दोनों की आंखें चार हुई उसके भीतर ही भीतर कुछ पिघलने लगा था।  अचानक वो गायब हो गई थी। पर उम्मीद गायब नहीं हुई थी। अगले दिन आने की उम्मीद। उसकी उम्मीद उसकी आँखों की उम्मीद से मुखर हुई थी। वो फिर आई। वो फिर फिर आती रही,दोनों की नज़रें मिलती रही। उसके भीतर ही भीतर बहुत कुछ सुलगता जाता और पिघलता जाता। पर बाहर कुछ बुझाई ना देता। मौन खुल ना पाता। भीतर के भाव शब्दों का आकार तो लेते पर ध्वनि ना बन पाते।

आखिर हर चीज की एक हद तो होती ही है ना। उसकी आँखों की आस कब नाउम्मीदी में बदल गयी इसका भान उसे उस दिन हुआ जब उसने उसकी आँखों में निराशा का गीलापन देखा था। मौन से बनी दूरी आस को मिलने वाली ध्वनि खत्म कर सकती थी तो निराशा से आकार लेते शब्दों को मिली ध्वनि मौन से बने पुल को हमेशा के लिए तोड़ सकता था। आस हार गई। नाउम्मीदी जीत गई ।उसे ध्वनि मिल गई। उसने मायूसी से कहा था 'अब फिर कभी यहां लौट कर नहीं आऊंगी।' उसकी आँखों के कोर कातरता के गीलेपन से भीग भीग जाते थे। उस क्षण उन दोनों की आखों ने एक दूसरे को देखा था। उसे लगा कि उसकी सांसे थम जाएंगी। समय की बहती धारा में वो क्षण  उसकी आत्मा पर पत्थर बन कर जड़ हो गया था। 
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लम्हे जो समय के बहाव में छूट गए_2







ये हार भारतीय क्रिकेट का 'माराकांजो' है।

आप चाहे जितना कहें कि खेल खेल होते हैं और खेल में हार जीत लगी रहती है। इसमें खुशी कैसी और ग़म कैसा। लेकिन सच ये हैं कि अपनी टीम की जीत आपको ...