Friday 14 February 2020



कल विश्व रेडियो दिवस था। सोशल मीडिया पर दिन भर बधाई और शुभकामनाओं का लंबा सिलसिला चला। अखबारों से लेकर सोशल मीडिया तक पर रेडियो को लेकर तमाम आलेख भी पढ़ने को मिले जिनमें अनुज स्कन्द शुक्ल द्वारा कई बरस पहले टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा गया आलेख और मित्र अनुराग शुक्ल की पिछले साल लिखी गयी मुख पुस्तिका पोस्ट विशेष उल्लेखनीय है। इस साल रेडियो को लेकर जो माहौल बना वो बहुत ज़्यादा नॉस्टैल्जिक कर देने वाला था। एक ऐसे समय में जब अक्सर ये सुनना पड़ता है कि 'अब रेडियो कौन सुनता है' या 'रेडियो अब खत्म होने वाला है', ये माहौल आश्वस्तकारी ही नहीं था बल्कि रेडियो के साथ बीते और बिताए समय और उसके प्यार में पड़ जाने वाले समय को फिर फिर जीने का और उसे कहने सुनने का समय भी है। दरअसल ये स्पेनिश  रेडियो अकादमी को और उसके उस अनुरोध को ही याद करने का समय नहीं है जो 2010 में उसके द्वारा किया गया था और जिसके कारण अंततः 13 फरवरी को यूनेस्को द्वारा विश्व रेडियो घोषित किया गया बल्कि ये उन दो वैज्ञानिकों हेनरिख हर्ट्ज और मारकोनी को याद करने का समय भी है जिसके कारण रेडियो जैसे जादू के पिटारे का बन पाना संभव हुआ। जिसे अंततः संचार का सबसे लोकप्रिय,सस्ता और दुनिया की लगभग पूरी आबादी तक पहुंच बनाने वाला साधन बन जाना था।

 हमारी पीढ़ी और हमसे पहली पीढियों के लोगों में शायद ही कोई ऐसा होगा जो रेडियो का दीवाना ना हो, उसके प्यार में ना पड़ा हो और जिसने रेडियो को जिया ना हो। और ऐसा ना होता तो क्यों नहीं होता! आखिर उन्होंने रेडियो के सुनहरा दौर जो देखा है,उसकी बादशाहत सी शान के साक्षी रहे हैं,उसके सखा रहे हैं,उसके प्रेमी रहे हैं।

दरअसल ये वो समय था जब घर में खूबसूरत से बड़े बॉक्स के आकार वाले रेडियो का होना स्टेटस का प्रतीक होता था। जब रेडियो लोगों के लिविंग एरिया की सबसे वांछित वस्तु हुआ करता था और जिसे बड़े करीने से कपड़े से ढककर सजावटी आइटम की तरह रखा जाता था। जिसे छूने की हर किसी को इज़ाज़त नहीं होती थी और बच्चों को तो बलकुल भी नहीं। और बच्चों के लिए वो एक ऐसी अचरज भरी जादुई सी चीज होती थी जिसे देखकर बच्चे ये सोचते कि इसमें से आवाज़ कहां से आती है,क्या कोई इसके अंदर होता है। बच्चे जो उसकी नॉब को मौका मिलते ही उसी तरह उमेठने की फिराक में रहते जैसे उनके खुद के कान उमेठे जाते। आखिर वो ऐसा ही सोच सकते थे क्योंकि वे उस पीढ़ी के बच्चे जो ठहरे जिनका एक्सपोजर आज की पीढ़ी के बच्चों की तरह नहीं था जो पैदा होते ही मोबाइल चलाना सीख जाते हैं। ये रेडियो का वो समय हुआ करता था जब बेहतर रिसेप्शन पाने के लिए एक जालीदार एंटीना कमरे के एक कोने से दूसरे कोने तक बांधा जाता था। ये उन दिनों की बात है जब  रेडियो में वैक्यूम ट्यूब या वैक्यूम बल्ब का प्रयोग होता था जिसके कारण ये इतने बड़े हुआ करते थे। ये वो समय था जब उसे सुनने के लिए पैसे खर्च करने पड़ते थे। लाइसेन्स फीस जमा करानी होती थी। शहर के मेन पोस्ट ऑफिस से एक पासबुक नुमा एक किताब मिलती थी जिसे लेकर हर महीने पोस्ट आफिस जाना पड़ता था और काउंटर पर बैठा बाबू पर्पल कलर का एक विशेष टिकट उस पर चेंपता जिस पर एक बच्चा और एक ट्रांसमीटर बना होता। उस पर बने बच्चे में खुद का अक्स दिखाई पड़ता। ये वो टिकट था जो मन में डाक टिकटों के प्रति एक विशेष आकर्षण पैदा कर देता था कि आगे चलकर भरी दुपहरी से लेकर शाम तक तमाम दफ्तरों के कूड़े को डाक टिकट इकट्ठे करने के लिए खंगालने में मशगूल रहते। और वक्त ज़रूरत पड़ने पर या मौका मिलने पर दूसरों के घरों से ऐसे टिकट चुराने के अवसर की फिराक़ में भी रहते ताकि स्टाम्प के ख़ज़ाने में बढ़ोतरी हो सके। लाइसेंस फीस जमा करने के लिए मां बाप ये कहकर भेजते कि लाइसेंस फीस जमा ना होने से रेडियो का लाइसेंस रद्द हो जाएगा और रेडियो सुनने को नहीं मिलेगा और बच्चे रेडियो सुनने के लालच में पोस्ट ऑफिस की लाइन में खड़े रहते। और फिर भला हो सिलिकॉन ट्रांजिस्टर्स के आने का जिनके आने से पोर्टेबल ट्रांजिस्टर सेट ने रेडियो का स्थान ले लिया। अब ये ट्रांज़िस्टर सर्वव्यापी होने लगे जो सायकलों से लेकर हलों तक पर दिखाई देने लगे। अब एटलस या हरक्यूलिस साईकल , मुस्कुराते बच्चे की तस्वीर वाले मर्फी या बुश के ट्रांज़िस्टर और एचएमटी की घड़ियां दहेज के सबसे हॉट आइटम हो चले थे।

और हां आप ये मत सोचिए कि रेडियो को सुनने के शौक को उत्पन्न करने के लिए किसी ट्रेनिंग की आवश्यकता होती होगी। दरअसल ये संस्कार तो आपको अपने माता पिता या परिवार से परम्परा में यों ही मिलते थे। याद है बचपन के दिन जब पढ़ने के लिए बाप सर्दियों की अलसुबह चार बजे कान पकड़ कर उठा दिया करते थे और खुद पता नहीं कहां कहां से स्टेशन ढूंढकर फिल्मी गाने लगा दिया करते थे। और बच्चे पढ़ने के लिए नहीं बल्कि गाने सुनने के लोभ में पढ़ने का ढोंग करते रहते और पूरा ध्यान और कान रेडियो की तरफ रहते जिससे धीमी आवाज़ में गाने कानों में पड़ते रहें। दरअसल यही तो वो समय होता था जब बच्चों में रेडियो सुनने के संस्कार पड़ते।

दरअसल ये वो समय था जब हिंदुस्तान में आकाशवाणी से ज़्यादा लोकप्रिय रेडियो सिलोन हुआ करता था जिसमें सुबह सात या साढ़े सात बजे बहुत पुराने गाने और आठ बजे नई फिल्मों के गानों का कार्यक्रम प्रसारित होता। और रेडियो सिलोन की बढ़ती लोकप्रियता के कारण आकाशवाणी को भी एक नया चैनल 'विविध भारती' शुरू करना पड़ा था। ये वो समय था जब अपनी आवाज़ के दम पर लोग लीजेंड बन जाते थे। ये बिनाका गीतमाला की अद्भुत लोकप्रियता का समय हुआ करता था। ये अमीन सयानी की आवाज़ के जादुई असर का समय था। ये तबस्सुम की खनकती आवाज़ का समय था। ये अमीन सयानी के मुकाबिल महाजन की भारी भरकम आवाज के लोकप्रिय होने का समय था। ये देवकी नंदन पांडेय, विनोद कश्यप,रामानंद सिंह और इंदु वाही जैसे वाचकों की साफ शफ्फाक धीर गंभीर जादुई आवाज़ में समाचार प्रसारण का समय था। ये मर्विन डिमेलो और जसदेव सिंह की अद्भुत कमेंट्री का समय था जिसने क्रिकेट जैसे एलीट खेल को बेतरह लोकप्रिय कर दिया था और कमेंट्री के नए मानदंड स्थापित किये थे और आगे चलकर स्कन्द गुप्त,सुशील दोषी जैसे तमाम कमेंटेटर्स की पूरी जमात का आगमन हुआ। रेडियो कमेंट्री के लोगों पर अभूतपूर्व प्रभाव का अंदाज़ा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता  1975 में कुआलालंपुर में विश्व कप हॉकी के फाइनल में भारत की जीत या फिर 1983 में ज़िम्बाब्वे के विरुद्ध 17 रन पर पांच विकेट गंवाने के बाद  कपिल देव की आतिशी 175 रनों की पारी या फाइनल में वेस्टइंडीज के विरुद्ध जीत दर्ज़ कर पहली बार विश्व कप जीतने लेने की जो हूबहू स्मृति आज भी दिमाग में अंकित हैं वैसी टीवी पर देखी  हालिया अनेक बड़ी जीत भी नहीं हैं। वो समय था जब हवामहल पर प्रसारित होने वाले नाटक मनोरंजन के क्षेत्र में नए मानक तय कर रहे थे। ये वो समय था जब बीबीसी भारत में लोकप्रियता के झंडे गाड़ रहा था और विशेष रूप से सामयिक घटनाचक्र पर आधारित कार्यक्रम बेहद लोकप्रिय हो रहे थे। कैलाश बुधवार,रमा पांडेय,मधुकर उपाध्याय से लेकर राजनारायण बिसारिया और नीलाभ तक की अपनी फैन फॉलोइंग थी। ये वो समय था जब ठीक आठ बजे रेडियो कश्मीर से 'वादी की आवाज़' कार्यक्रम के दो स्टॉक करेक्टर मुंशी जी की  धीर गंभीर और निक्की की चुलबुली आवाज़ और उनके बीच की होने वाली नोक झोंक के माँ बाबा दीवाने हुआ करते थे और उन्हें सुनने के लिए वे कोई भी काम छोड़ सकते थे। ये वो समय था जब हर रेडियो स्टेशन पर दो चार ऐसे स्टॉक करेक्टर होते और श्रोताओं के बीच उनकी लोकप्रियता और उनके प्रति दीवानगी चरम पर  पर होती। ये वो समय था जब एटा के सहावर टाउन से लेकर बिहार के झुमरी तिलैया तक तमाम अनजाने और छोटे छोटे कस्बे और शहर श्रोताओं की दीवानगी के कारण देश भर में ही नहीं पूरे संसार में पहचान बना रहे थे। ये श्रोता संघों के बनने और उनके विस्तार का दौर था। ये गांवों की चौपालों पर किसानों के  खेतों से शाम को थके मांदे लौटकर रागनियों को सुनने औरउन पर झूमने का समय था। ये  वो समय था जिसने शास्त्रीय संगीत को संरक्षण प्रदान कर लोकप्रिय बनाया और तमाम महान कलाकार दिए। ये वो समय था जब हिंदी के सभी नामचीन साहित्यकार रेडियो में प्रोड्यूसर के रूप में काम करते थे और रेडियो की अनेक विधाओं और फॉर्मेट को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया था।

दरअसल ये रेडियो का समय था और ये रेडियो था जो आपकी आत्मा तक पहुंचता था और उसे छूता था। ये रेडियो था जो सीधे आपके दिल से जुड़ता था। ये रेडियो था जो  संचार का ऐसा माध्यम था जिसके और सुनने वाले के बीच में कोई भौतिक उपादान व्यवधान उत्पन्न नहीं कर सकता था और दिल ओ दिमाग को अपने जादुई प्रभाव से मैसमेराइज़ कर देता था। ये कुछ कुछ ऐसा रूहानी सा माध्यम था जिससे आप सिर्फ और सिर्फ प्यार कर सकते थे और उसके प्यार में हमेशा के लिए पड़े रह जाते थे। ये रेडियो ही तो था जिसके प्यार में एक बार पड़कर कोई मुक्ति की उससे जुदाई की उससे अलगाव की कोई राह,कोई उपाय हो ही नहीं सकता था।

और ये तो और भी अद्भुत था जिसके प्यार में आप  पैड गए थे, बिना किसी प्रयास के अनायास ही उसका अभिन्न अंग बन गए थे। जीवन में इससे बड़ा चमत्कार शायद संभव नहीं था और ना अब है।
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लव यू रेडियो।


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