प्रो हेरंब चतुर्वेदी जाने माने इतिहासकार हैं और लेखन के क्षेत्र में अति सक्रिय हैं। हाल के वर्षों में इतिहास और इतिहासेतर विषयों पर उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।
2013 में उनकी एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी 'दास्तान मुग़ल महिलाओं की'। इसे नया ज्ञानोदय और बीबीसी ने उस साल की सबसे चर्चित पुस्तकों में शामिल किया था। ये पुस्तक अपने कथ्य में इस दृष्टि से विशिष्ट थी कि ये मुग़ल राजपरिवार की कम चर्चित महिलाओं पर केंद्रित थी। ऐसे मध्यकालीन समाज में जब महिलाओं की स्थिति किसी 'ऑब्जेक्ट' से इतर कुछ नहीं हो और मुग़ल इतिहास में भी जिन महिलाओं का नाम मुग़ल नामावली को पूरा करने भर के लिए शामिल किया जाता रहा हो,इस पुस्तक में उसी काल की छह ऐसी ही बहुत कम चर्चित या अचर्चित महिलाओं के मुग़ल इतिहास में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप को रेखांकित करने का प्रयास किया गया था। कहन की दृष्टि से ये इसलिए अलग थी कि ये इतिहास का शुष्क इतिवृत्तात्मक वर्णन ना होकर कथा कहानी के रूप में बहुत ही रोचक और सरस बयान थी।
अब इसी विषय पर उनकी एक और पुस्तक आयी है 'जहाँआरा:एक ख़्वाब एक हक़ीक़त'। एक तरह से इसे पहली पुस्तक का विस्तार माना जाना चाहिए। इस पुस्तक में भी उन्होंने एक अन्य मुग़ल महिला 'जहाँआरा' के अपने समय, इतिहास और व्यक्तियों के जीवन में उसके हस्तक्षेप और उसकी भूमिका को रेखांकित करने का प्रयास किया है। भिन्नता केवल आकार की दृष्टि से है। जहां पहली पुस्तक के 183 पृष्ठों में छह कहानियों में छह मुग़ल महिलाओं का ज़िंदगीनामा है,वहाँ इस पुस्तक के 308 पृष्ठों में केवल एक मुग़ल महिला का आत्मकथ्य शैली में औपन्यासिक रोज़नामचा।
ये स्वाभाविक और ज़रूरी भी था। मुग़ल बादशाह शाहजहां की बेटी और दारा शिकोह व औरंगजेब की बहन जहाँआरा का कृतित्व और व्यक्तित्व है ही इतना विराट कि किसी कहानी/अध्याय में वो समा ही नहीं सकता था। उसे एक औपन्यासिक कृति की ही ज़रूरत थी जिसे प्रो चतुर्वेदी ने पूरा किया।
जहाँआरा अपनी नानी और बादशाह जहांगीर की सबसे प्रिय बेग़म नूरजहां के बाद मुग़ल इतिहास की दूसरी सबसे प्रभावशाली महिला हैं। लेकिन वो अपनी नानी नूरजहां से कहीं अधिक पढ़ी लिखी,समझदार,विचारवान और शालीन व्यक्तित्व की स्वामिनी हैं। नूरजहां ने मुग़ल इतिहास को बहुत गहरे से प्रभावित किया, लेकिन उसका ये प्रभाव मुख्यतः राजनीतिक और नकारात्मक है। इसके विपरीत जहाँआरा ने अपने समय के हर क्षेत्र में दखल दिया और सकारात्मक रूप से प्रभावित किया। और इस दृष्टि से वो नूरजहां से भी ज़्यादा प्रभावी और बड़ा व्यक्तित्व दिख पड़ती हैं। वो नेपथ्य में रहकर अपनी भूमिका का निर्वहन करती हैं और अपने समय की ना केवल राजनीति में बल्कि समाज,अर्थ,साहित्य और संस्कृति सभी क्षेत्रों में समान रूप से सकारात्मक हस्तक्षेप करती हैं।
उनकी केवल दर्शन और सूफीवाद में ही रुचि नहीं है,बल्कि साहित्य, इतिहास, चिकित्सा, गणित, राजनीति सभी विषयों में गति है। वो मल्लिका के रूप में ना केवल हरम का प्रबंधन करती हैं बल्कि राजनीति में भी हस्तक्षेप करती हैं। उन्हें एक तरफ मुग़ल राजवंश की उसकी प्रतिष्ठा का ख़्याल है तो दूसरी तरफ अपनी रियाया,अपने अधीनस्थों और अपने परिवार की परवाह भी है। वो जितना अध्ययन में डूबती हैं,उतनी ही प्रकृति के साहचर्य में जाती हैं। वो जितनी रुचि बाग बगीचों और नहरों के निर्माण में लेती हैं उतनी ही स्थापत्य में भी। ये कमाल ही है कि हरम और राज दरबार के लौकिक षडयंत्रकारी शुष्क जीवन के बीच भी वो अपने भीतर आध्यात्मिक और नैतिकता की नमी को बनाये रखती हैं। अपनी पुस्तक में प्रो चतुर्वेदी मध्यकालीन समय की ऐसी गरिमामय मुग़ल शहज़ादी जहाँआरा के बेहद खूबसूरत व्यक्तित्व का खूबसूरत चित्र अपनी कलम से उकेरते हैं।
ऐतिहासिक कथ्य को कहने की अपनी दिक्कतें हैं। जब ऐतिहासिक तथ्यों पर ज़ोर दिया जाता है तो कथ्य शुष्क और इतिवृत्तात्मक होता जाता है और कहन पर ज़ोर दिया जाता है तो ऐतिहासिक तथ्य से समझौता करना पड़ता है। तमाम ऐतिहासिक कृतियों में ऐतिहासिक तथ्यों को गलत रूप के प्रस्तुत किया गया है। इससे भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है। ऐतिहासिक कृति को पढ़ते हुए चाहे आप जितना सजग रहें कि आप इतिहास नहीं साहित्यिक कृति पढ़ रहे हैं, पर अवचेतन में इतिहास हावी रहता है और आपके दिमाग में एक गलत इतिहास की निर्मिति होती ही है।
लेकिन प्रो चतुर्वेदी एक मंजे हुए इतिहासकार तो हैं ही, एक हुनरमंद कवि भी हैं। भाषा पर उनकी गज़ब की पकड़ है। उनकी भाषा में बहते पानी की गति है और गज़ब का लालित्य भी। इसीलिए उन्हें अपने कहन में रोचकता के लिए ऐतिहासिक तथ्यों से समझौते की ज़रूरत नहीं पड़ती। वो खुद ब खूब चली आती है। वे लिख इतिहास ही रहे होते हैं। शोधपरक प्रामाणिक इतिहास। लेकिन वे इसे कविता में लिख रहे होते हैं। दरअसल जब हम उनकी ऐतिहासिक कृति को पढ़ रहे होते हैं तो इतिहास को कविता के माध्यम से पढ़ रहे होते हैं। और ये भी कि हम व्यक्ति और घटनाओं के रूप में नीरस इतिवृत नहीं पढ़ रहे होते बल्कि व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण और घटनाओं की निर्मिति के पीछे की परिस्थितियों का गंभीर विश्लेषण पढ़ रहे होते हैं।
जहाँआरा अपनी रियाया और विशेष तौर पर किसानों के हितों का ध्यान रखने की बात करती हैं। वो इस बात का उल्लेख करती है कि अकबर सहित तमाम बादशाह समय समय पर किसानों के हितों से संबंधित आदेश जारी करते रहे हैं। पुस्तक के 157 पृष्ठ पर उल्लिखित इस संदर्भ का उल्लेख आदरणीय असगर वज़ाहत साहब ने किया है और इसे अभी हाल के किसान आंदोलन से जोड़ते हुए वे कहते हैं कि तब और अब के शासकों की सोच में किसान हित को लेकर कितना अन्तर है। दरअसल ये अंतर सोच का नहीं बल्कि कथनी और करनी का है। किसान हित की बात प्राचीन काल से होती आयी है। लेकिन इस संबंध में धरातल पर शायद ही कभी कुछ हुआ हो। किसान आत्महत्या के लिए हमेशा मजबूर होते आये हैं। कल भी आज भी। इसी पुस्तक में एक जगह संदर्भ है कि जहाँआरा अपनी प्रिय सेविका फिदा के कहने पर कश्मीर की अपनी जागीर के किसानों का लगान किसानों की परेशानी को देखते हुए 50 फीसद से 40 फीसद कर देती हैं। इसके अलावा किसानों को अपने जागीरदारों को जो समय समय पर अन्य कर और नज़राने देने पड़ते,वे अलग से। विचारणीय प्रश्न ये है कि 50 फीसद लगान के बाद किसान कितना सुखी हो सकता था। सारे अध्ययन अभी तक यही बताते हैं किसी भी काल में किसान सुखी नहीं थे। यानि कथनी और करनी का अंतर हर काल में रहा है,जो आज तक जारी है।
मानव की मूल प्रवृति और विचार हर युग में एक से होते हैं। एक संदर्भ आता है कि जहाँआरा स्वयं अपना समुद्री व्यापार शुरू करती हैं। इसके लिए वो अपनी बचत और साथ ही अपनी परिचारिकाओं की बचत का निवेश अपने इस व्यापार में लाभ के लिए करती हैं। इससे लाभ होता है और हरम की बाकी दासियाँ और महिलाएं भी इससे प्रेरित होकर अपनी बचत को व्यापार में निवेशित करने को उद्धत होती हैं। यानि बचत, निवेश और लाभ की प्रवृति हर काल और स्थान पर समान हैं। जहाँआरा ना केवल अपना व्यापार शुरू करती हैं बल्कि उसके लिए एक पानी का जहाज 'साहिबी' का निर्माण भी करवाती हैं। हम आज के समय में तमाम सफल 'महिला उद्यमियों' की बात करते हैं। मध्यकाल में भी सफल महिला उद्यमी हुआ करती थीं।
इस पुस्तक की शुरुआत भी 'दास्तान...'की तरह शुष्क सी होती है। उस पुस्तक में ये शुष्कता कथ्य की भौगोलिक पृष्ठभूमि के कारण होती है तो यहां पर कथ्य की भूमिका तैयार करने की ज़रूरत से। इस पुस्तक के कुछ पृष्ठ उस भूमिका के निर्माण हेतु तत्कालीन समय और परिस्थितियों के वर्णन में खर्च होते हैं जिसमें जहाँआरा जैसे व्यक्तित्व का आविर्भाव होता है। लेकिन जैसे जहाँआरा का व्यक्तित्व परिदृश्य पर नमूदार होता हैं और उनके आत्मकथ्य शब्दों में पृष्ठ पर अवतरित होने लगते हैं,शुष्क इतिवृत कविता में तब्दील होता जाता है।
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'जहाँआरा:एक ख्वाब एक हक़ीक़त'दरअसल ख्वाब के हक़ीक़त में तब्दील होने के बजाय हक़ीक़त के ख्वाब में बदल जाने की बात है। ये इतिहास की किताब से शुरू होकर महाकाव्य में बदल जाने की बात है।
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दरअसल ये किताब जहाँआरा के बहुमुखी व्यक्तित्व के अलग अलग पहलुओं की खूबसूरत गज़लों का एक निहायत संजीदा दीवान है। ये एक व्यक्ति के चरित्र को समझने का प्रयास भर नहीं है बल्कि उसके माध्यम से तत्कालीन इतिहास,राजनीति,समाज और जीवन को समझने की युक्ति भी है।