गर इक अरसा बीत जाने के बाद भी इक छूटे शहर की सुबहें आपको याद आएं और वे आपके कांधे बैठ हौले हौले मुस्कुराएं,गर उस शहर की दोपहरें बेचैन करने लगें और उन दोपहरों की धूप आपके साथ खिलखिलाए,गर उस शहर की शामें आपको सुकून से भर देती हों और आपके साथ हाथ में हाथ डालकर जब तब चहलकदमी करने लगती हो तो समझना चाहिए कि आप उस शहर के इश्क़ में थे।
शहर छूटने के बहुत बहुत दिन बाद भी उसकी सड़कें आवारागर्दी करने को आवाजें देती हो, उसकी गलियां विस्मय से भर देती हों और अपने साथ चहलकदमी करने को बुलाती हो,उस शहर के बाजारों की आवाजें कानों में रस घोलती सी लगती हों,तो समझिए कि अभी भी शहर के इश्क़ में हैं।
उस शहर का कोई एक दिन उसे छोड़ देने के बाद भी ताज़गी से भर देता हो और कोई रात मन को आर्द्र कर जाती हो,गर उसकी बारिशें रोमान से भर देती हों और सरसराती हवाएं कानों में संगीत सी घुलती जाती हों,गर उस शहर की रोशनी आपकी खुशियों की चमक बढ़ा देती हो और उस शहर के अंधेरे आपके दुखों के छिपने की पनाहगाह बन जाते हों तो यकीन करना ही होता है कि आप अब भी शहर की मोहब्बत की गिरफ्त में हैं।
अब जिस समय एक छूटे हुए शहर इलाहाबाद में आए जन सैलाब की खबरें आ रही हैं,मन में यादों का एक और सैलाब आया हुआ है। पर यादों का ये सैलाब इलाहाबाद की ओर से नहीं,छूटे शहर देहरादून की ओर से आया है। एक ऐसा सैलाब जो मन को लगातार अतीत में धकेले जा रहा है।
कुछ शहरों के बारे में आपको उन शहरों में रहते हुए नहीं,उसके छूट जाने के बाद पता चलता है कि वे आपके भीतर किस कदर धंस गए थे और आप उनके भीतर। दरअसल वे एक दूजे के भीतर इतने चुपके से प्रवेश करते हैं कि अहसास ही नहीं होने पाता। और फिर छूटने के क्रम में कितना कुछ कोई शहर हमारे साथ हो लेता है और कितना कुछ अपना हम उस शहर के हवाले कर आते हैं।
और शहर छूटने कितने कितने ही दिनों बाद जब किसी एक दिन आप खुद को ढूंढते हैं,तब पता चलता है कि 'कितना आप' तो आपके के पास हैं ही नहीं। 'कितना आप' उस शहर में छूट गए हो। और अब कितना कुछ ऐसा है जो उस शहर का आपके भीतर भीतर चला आया है। उस 'छूटे आप' से बने रिक्त को भरने के लिए। तब पता चलता है कि आप कदर उस शहर की मोहब्बत में गिरफ्त में थे।
साल बीत जाने पर भी 'इश्क़ का शहर देहरादून' ऐसे ही यादों पर सवार हो आता है। आखिर भला वो कौन कमबख्त होता होगा जो इस शहर की मोहब्बत में ना पड़ जाता होगा। पांच साल का वक़्फ़ा भले ही बहुत ज्यादा ना होता हो पर इतना जरूर होता है कि आप उस शहर में जीने लगें। उस शहर को जीने लगें।
देहरादून 'द सिटी ऑफ लव' के दो रूप मन और दिमाग पर अभी भी तारी हैं। एक, सुकून से भर भर देने वाला आम,लीची और बासमती की खुशबू से महकता गमकता खूबसूरत शहर। दूजा, बेजा बोझ और उसके दबाव से जूझता शहर।
पहली बार ये शहर किसी सुकोमल, कमनीय राजकुमार सा लगा था। एक ऐसा शहर जिसे मौसम की मार से बचाने के लिए चारों ओर पहाड़ियों ने दुशाला ओढ़ा रखा है। एक शहर जिसे घनी धूप से बचाने को गहरी हरियाली ने उसके सिर पर छावा कर दिया हो। जिसके शीश पर मसूरी मुकुट सी शोभायमान होती। मानो धान के हरे खेत उसके लिबास बन जाते और रसीले आप और लीची उस लिबास पर टंके सितारे। राजपुर सड़क गले में पड़े हार सी तो रिस्पना उसकी कमर पर लटकी करधनी और वे एलीट संस्थाएं मसलन भारतीय सैन्य अकादमी, फ़ॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट, डील, सर्वे कार्यालय उसके गले में शोभते तमगे।
लेकिन कुछ तो ऐसा है इस शहर में कि तमाम कमियों के बावजूद इससे मोहब्बत कम नहीं होती बल्कि बढ़ती जाती है। निश्चय ही इस पर ईश्वर की नेमत है। तभी तो गुरु रामराय ने इस धरती को अपना डेरा बनाया होगा। इसके चारों और की पहाड़ियों पर स्थानीय महासू देवता का निवास है। बारिशों के बाद इन पहाड़ियों के नीले रंग को देखिए तो लगेगा कि इसके वाशिंदों के गलतियों के विष को पीकर इतनी तो नेमत बख्श ही दी है कि इस जगह से आदमी को मोहब्बत हो जाए।
और फिर क्या ही खूबसूरत विडंबना है कि दो एक दूसरे से एकदम विपरीत एहसासों के द्वैत में जीता है ये शहर। प्रेम और युद्ध के द्वैत में। ये द्वैत कितने शहरों के हिस्से आता होगा।
इस शहर का विशेषण है 'सिटी ऑफ लव' यानी मोहब्बत का शहर। कैसे और क्योंकर मिला होगा इस शहर को ये नाम। शायद इसीलिए ना कि ये इतना खूबसूरत है कि हर कोई इसके प्रेम में पड़ जाता होगा। सच है ना। और प्रेम के इसी शहर में सैन्य विद्या का दुनिया का सबसे मकबूल संस्थान है भारतीय सैन्य अकादमी। जो नौजवान स्नातकों को युद्ध विद्या और युद्ध रणनीति में निष्णात करता है। इस शहर के हर कोने में सैनिकों का वास है। इस शहर में ही प्रीमियर रक्षा अनुसंधान एवं विकास संस्थान है। इस शहर में ही युद्ध में गोरखा वीरता का अमर स्मारक ' खलंगा युद्ध स्मारक' है और यहीं पर 'वार मेमोरियल' भी है। और इसी शहर में कलिंग युद्ध से बेजार हुए शांति और प्रेम के अमर शासक अशोक का कलसी स्तंभ भी है। प्रेम और युद्ध दो विपरीत भावों के साथ जीता कोई और शहर कहां मिलेगा।
और फिर शहर में एक दिल भी तो धड़कता है। आखिर इंसान तो इसी में रहते हैं और शहर उन्हीं में तो जीता है। ये जो इस शहर को मोहब्बत के शहर का तमगा मिला है उन्हीं के कारण है। वे प्रेम से भरे हैं। आत्मीयता से भरे हैं। उल्लास और उत्साह से भरे हैं। वे अब भी इस शहर में विश्वास करते हैं और इससे प्यार करते हैं। वे ही उसमें जान फूंकते हैं। वे ही उसकी प्राण वायु हैं। उसकी धड़कन हैं। सच तो ये है कि ये शहर शरीर से कितना भी जर्जर हो जाए, आत्मा तो ज़िंदादिल बनी रहेगी क्योंकि इसके रहवासी जो जिंदादिल है।
शहर भी कोई बेजान शय तो नहीं। ये भी तो वैसे ही जीता है जैसे आदमी। उसी तरह सांसे लेता है और अपना जीवन जीता है। ये भी जवां होता है, बूढ़ा होता है और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। नहीं तो क्या वजह हो सकती है कि बीती सदी के नब्बे के दशक वाला एक खूबसूरत राजकुमार सा शहर अगली सदी के दो दशक बाद ही हांफता खांसता अधेड़ सा लगने लगता है। समय के साथ कितना बदल जाता है शहर कि तीस बरस के अंतराल पर एक ही शहर दो शहर से लगने लगते हैं। कितने मुख्तलिफ। कितने अजनबी। एक दूसरे से कितने अलहदा।
क्या ही दुख भरी दास्तां है इस शहर की कि तीस साल बाद जब उस शहर से दूसरी मुलाकात हुई तो एक ऐसा उदास,विकल और अपने ही बोझ से झुका सा हांफता सा नजर आया । क्या ही दुख है कि एक खूबसूरत,स्वप्न सरीखा शहर कैसे धीरे धीरे अपनी मृत्यु की और बढ़ रहा था।
एक शहर जिसे कुदरत ने बेइंतहा प्राकृतिक सौंदर्य की नेमतों से बक्शा हो,उसे उसी कुदरत के सबसे स्वार्थी नुमाइंदे मनुष्य ने कुरूप बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस शहर के विकास के लिए जिस खास सौंदर्य बोध की जरूरत थी वैसा शायद ही किसी नगर नियोजक व्यक्ति या संस्था के पास रहा हो। नहीं तो क्या ही कारण रहा कि अनियमित और अनियंत्रित अनियोजित रूप से विकसित होती कालोनियां इसकी खूबसूरती के बदनुमा दाग बन गईं।
निर्मल जल से भरी नहरों और नदियों वाले इस शहर को बजबजाते नालों वाले शहर में तब्दील होना मानो इस शहर की नियति में था। नहरें सड़कों में तब्दील हो गईं और खूबसूरत नदियां बिंदाल और रिस्पना गंदे नालों में।
इस शहर की इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि जिस शहर में एक दो नहीं बल्कि आधा दर्जन प्रीमियर और विश्व प्रसिद्धि संस्थाएं प्रकृति और पृथ्वी का अध्ययन करने और उसके संरक्षण के लिए हो, वहां प्रकृति का सबसे निर्दयता और निर्ममता से दोहन किया जा रहा है। इन संस्थानों में वन अनुसंधान संस्थान,भारतीय वन्य जीव संस्थान,राष्ट्रीय वन अकादमी,वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान शुमार हैं। इन सब के होने के बावजूद विकास के नाम पर जिस तरह से वनों और पेड़ों का कटान हो रहा है और नगर के प्राकृतिक सौंदर्य को नष्ट किया जा रहा है,इससे दुखद और क्या बात हो सकता है। सहस्त्रधारा रोड पर चौड़ीकरण के नाम पर हजारों पेड़ काट दिए गए हैं। एक्सप्रेस वे के नाम पर दो सौ साल तक के पुराने और बहुमूल्य सागौन के पेड़ काट डाले गए और अब अभी हाल में खलंगा क्षेत्र में हजारों पेड़ काटने की योजना। दरअसल पेड़ों का ये कटान शहर के सौंदर्य भर को नष्ट कर देना बाहर नहीं है बल्कि उसकी आबोहवा को दूषित कर देना और सांस लेने को और दुष्कर कर देना भी है। ये एक शहर के लिबास को उतार कर उसे अनावृत कर देना है।
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इस शहर को तिल तिल मरते देख एक बार फिर तो ज्ञानरंजन याद आते हैं और उनका कथन याद आता है कि 'बाज शहर अपनी मृत्यु में भी खूबसूरत हो सकता है।' देहरादून एक ऐसा ही शहर है। जो अपनी मृत्यु के बाद भी खूबसूरत ही रहेगा।