अपनी बात इलाहाबाद की एक स्टोरी से शुरू करता हूँ। वहां एक शख़्स हुआ करते थे डॉ यू के मिश्र। वे आबकारी विभाग में उच्चाधिकारी थे। लेकिन जिस वजह से मैं उनका उल्लेख कर रहा हूँ वो उनकी दूसरी पहचान के कारण कर रहा हूँ। दरअसल वे एक उम्दा जिम्नास्ट भी थे। वे थे तो बहुत छोटे कद के। लेकिन उनके सपने बहुत बड़े थे। उनके दो सपने थे। दो लक्ष्य थे। एक, स्वस्थ भारत का। दो,भारत को ओलंपिक में जिम्नास्टिक का पदक दिलाने का।
ये उनका केवल सपना भर नहीं था,बल्कि इसे हकीकत में बदलने का उन्होंने हर संभव प्रयास किया। शुरुआत उन्होंने मिर्जापुर से की। वहां उन्होंने एक जिम की स्थापना की। लेकिन ये उनके सपने को पूरा करने के लिए पर्याप्त ना था। तो 1989 में उन्होंने इलाहाबाद के बॉयज हाई स्कूल में एक जिम्नास्टिक अकादमी की स्थापना की। ये उनका अपना निजी प्रयास था। इसके लिए उन्होंने हर उस जगह से एयरबस व्यक्ति व संस्था से सहायता ली जहां से ये संभव थी। उन्होंने अपनी उस अकादमी में अच्छे से अच्छे जिम्नास्टिक उपकरण और कोच लाने का प्रयास किया। सफल भी हुए। उन्होंने रूस तक के कोच बुलाए। अनेक राष्ट्रीय और एक दो अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं का आयोजन भी कराया। जब हाई स्कूल वाला जिम्नेजियम छोटा पड़ने लगा,तो झलवा में एक बड़ा जिम्नेजियम भी बनाया। कुछ बेहतरीन परिणाम भी आए। भारत के सर्वश्रेठ पुरुष जिम्नास्ट में से एक आशीष कुमार उनकी अकादमी की ही देन है जिन्होंने भारत के लिए पहला अंतरराष्ट्रीय जिम्नास्टिक पदक 2010 के कॉमनवेल्थ खेलों में जीता था। इसके अलावा मयंक श्रीवास्तव ,रोहित जायसवाल , दीपांशु,साहू और विवेक मिश्र जैसे कुछ बेहतरीन जिम्नास्ट उनकी अकादमी ने दिए।
लेकिन व्यक्तिगत प्रयासों की सीमाएं, धन की कमी, वैयक्तिक महत्वाकांक्षा और सबसे ऊपर खेल और खेल संघों की राजनीति के चलते ये अकादमी एक समय के बाद अपनी चमक खोने लगी और ओलंपिक गोल्ड तो क्या कोई भी पदक लाने का सपना सपना बनकर रह गया। अब उस अकादमी की और डॉ मिश्रा की क्या स्थिति है,नहीं पता। लेकिन उनका ये प्रयास भारत में खेलों के उठान और उसे गति देने का एक उम्दा व्यक्तिगत प्रयास था, भले ही उसके वांछित परिणाम ना रहे हों।
दरअसल इस अकादमी की और डॉ मिश्रा की याद इसलिए आई कि देश की सबसे सफल और बेहतरीन जिम्नास्ट और डॉ यू के मिश्र के सपने के सबसे करीब से होकर लौटी जिम्नास्ट दीपा करमाकर ने 31 साल की उम्र में बीत सोमवार को सक्रिय स्पर्धात्मक जिम्नास्टिक को अलविदा कह दिया।
दीपा करमाकर डॉ मिश्र की अकादमी से कोई ताअल्लुक नहीं रखतीं हैं। लेकिन वे देश की एकमात्र महिला जिम्नास्ट हैं जिन्होंने 2016 के रियो ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व किया और डॉ मिश्र के सपने के करीब पहुंची।
बिला शक दीपा देश की सर्वश्रेष्ठ जिम्नास्ट हैं जिन्होंने अपने करियर में सत्तर से भी अधिक पदक जीते हैं जिसमें एशियन चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक भी शामिल है। ऐसा करने वाली वे पहली भारतीय जिम्नास्ट हैं।
असफलताएं कही भी हो और कैसी भी हो कभी भी वांछित नहीं होती। लेकिन कुछ असफलताएं अवांछित होकर इतनी प्रभावशाली होती हैं कि वे व्यक्ति की कीर्ति को अमरत्व ना भी दें तो अविस्मरणीय अवश्य बना देती हैं। भारतीय खेल इतिहास में मिल्खा सिंह और पी टी उषा न्यूनतम अंतर से पदक ना पा पाने की वजह से जाने जाते हैं। दीपा करमाकर को भी कम से कम उस समय तक उनकी उस असफलता के लिए बहुत शिद्दत से याद किया जाएगा जब तक ओलंपिक में जिम्नास्टिक में कोई भारतीय जिम्नास्ट पदक नहीं जीत लेता। 2016 के रियो ओलंपिक में वे मात्र .15 अंक के अंतर से कांस्य पदक पाने से चूक गयी थीं। यहां वॉल्ट की व्यक्तिगत स्पर्धा में स्विट्ज़रलैंड की गुलिया स्टैन ग्रूबेर के 15.216 के मुकाबले दीपा ने 15.066 अंक प्राप्त किए और कांस्य पदक से चूककर चौथे स्थान पर रही थीं। इस स्पर्धा का स्वर्ण पदक विश्वविख्यात जिम्नास्ट सिमोन बाइल्स ने जीता था।
दीपा करमाकर को भारतीय खेल इतिहास में दो कारणों से याद रखा जाना चाहिए और रखा जाएगा।
एक, उन्होंने जिम्नास्टिक और विशेष तौर पर महिला स्पर्धा में भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। उन्होंने ग्लासगो में 2014 राष्ट्रमंडल खेलों में कांस्य पदक जीता तो इन खेलों में पदक जीतने वाली वे पहली भारतीय महिला जिमनास्ट बनीं। उन्होंने एशियाई चैंपियनशिप में भी कांस्य जीता तो वे पहली भारतीय जिम्नास्ट थीं। उसके बाद 2015 विश्व चैंपियनशिप में पाँचवाँ स्थान हासिल किया तो ऐसा करने वाली भी वे पहली भारतीय जिम्नास्ट बनीं। ओलंपिक में प्रतिस्पर्धा करने वाली पहली भारतीय महिला जिमनास्ट भी वे ही हैं और इस स्पर्धा के फाइनल में पहुंचने वाली भी। किसी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय जिमनास्ट भी वे ही बनीं, जब उन्होंने 2018 में तुर्की के मर्सिन में एफआईजी आर्टिस्टिक जिमनास्टिक्स वर्ल्ड चैलेंज कप की वॉल्ट स्पर्धा में पहला स्थान हासिल किया।
दो,उन्होंने ये उपलब्धियां तमाम प्रसिद्ध भारतीय एथलीटों की तरह विपरीत परिस्थितियों और कठिनाइयों के बीच से उनसे लड़ते,जूझते हुए प्राप्त कीं। उन्होंने 6 साल की उम्र में जिम्नास्टिक शुरू की। लेकिन उनका बेसिक पोस्चर ही जिम्नास्टिक के लिए ठीक नहीं था। उनके तलुए फ्लैट थे जो दौड़ने या एक्सरसाइज के उपयुक्त नहीं माने जाते। यहां तक कि सेना और पुलिस में भी फ्लैट पैरों वालों को भर्ती नहीं किया जाता। ये उनके सामने पहली बड़ी चुनौती थी। लेकिन उनके कोच विशेश्वर नंदी और सीमा नंदी ने उन पर अतिरिक्त काम किया और इस कमी से पार पाया। दूसरे, शुरुआत में खुद दीपा की जिम्नास्तिक में रुचि नहीं थी। वे अपनेनपीता की इच्छा के लिए इस खेल में आईं। लेकिन कहते हैं ना जब सफलता का स्वाद मूंह लग जाए तो भूख बढ़ती जाती है। दीपा के साथ भी ऐसा ही हुआ। जब 2008 में जलपाईगुड़ी में आयोजित जूनियर चैंपियनशिप में स्वर्ण जीता तो वे इसमें गहरी रुचि लेने लगीं। उसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा। तब से अब तक वे अपने करियर में कुल 77 पदक जीत चुकी हैं जिसमें 67 स्वर्ण पदक हैं।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनके जैसा प्रदर्शन करने के लिए वर्षों की कड़ी मेहनत और लगन की जरूरत होती है और साथ ही बहुत ही आधुनिक और उच्च स्तर की सुविधाओं की और आधारभूत ढांचे की भी। लेकिन उनके पास इसमें से कुछ भी नहीं था। उनके सामने अब सबसे बड़ी चुनौती ही बेहतरीन प्रशिक्षण और सुविधाओं की थीं। वे भारत के सुदूरवर्ती एक छोटे से शहर अगरतल्ला से थीं। उस समय तक देश में जिम्नास्टिक खेल की कोई समृद्ध परंपरा या इतिहास नहीं था और ना ही विश्व स्तरीय सुविधाएं उपलब्ध थीं। इसीलिए इलाहाबाद में डॉ मिश्र का काम इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण है जिसका जिक्र ऊपर किया गया है। वे जिस जिमनेजियम में अभ्यास करती थीं,वो बहुत ही बेसिक सुविधाओं वाला था। टिन शेड वाला। जहां मानसून के दौरान ना केवल बाढ़ के पानी की समस्या से जूझना होता बल्कि चूहों और कोकरोचों के प्रकोप का भी सामना करना होता। आप समझ सकते हैं किन परिस्थितियों में विश्व स्तरीय प्रदर्शन करने वाला एक जिमनास्ट तैयार हो रहा था। इसी वजह से दीपा की उपलब्धियां खास मानी जानी चाहिए।
एक तीसरी वजह से भी उनकी उपलब्धि विशेष है और वो है उनकी प्रोदुनोव वाल्ट पर विशेषज्ञता। कठिनाई और खतरे के कारण इसे 'वाल्ट ऑफ डेथ' की संज्ञा दी जाती है। इसकी कठिनाई को इस बात से समझा जा सकता है कि अब तक विश्व भर में कुल पांच जिमनास्ट हैं जिन्होंने इसमें दक्षता हासिल की है और प्रोदुनोवा वाल्ट पर सफल लैंडिंग की है। और वे उन पांच में से एक हैं। रियो ओलंपिक के फाइनल में वे इसी वजह से पहुंच सकी थीं कि उन्होंने प्रोदुनोवा वाल्ट पर परफॉर्म करना चुना था। इसमें कठिनाई के अधिक अंक मिलते हैं।
दीपा करमाकर की खेल यात्रा इस बात की पुष्टि करती है कि कोई भी शून्य से शिखर पर पहुंच सकता हैं बशर्ते व्यक्ति में दृढ़ संकल्प,कठिन परिश्रम और कभी भी हार ना मानने का जज़्बा हो। बहुत ही साधारण परिवार से आने और बहुत ही साधारण व बेसिक उपकरणों की उपलब्धता तथा शारीरिक दोष के बावजूद विश्व स्तरीय प्रदर्शन ये कहता है कि उनकी उपलब्धियां जितनी दिखती हैं उससे कहीं अधिक बड़ी और महत्वपूर्ण हैं। निसंदेह ये उपलब्धियां और उनका जीवन भविष्य के जिम्नास्टों के लिए प्रेरणादायी साबित होगा। भारतीय जिम्नास्टिक्स में उन्होंने बड़ा मुकाम हासिल किया है जिसे भर पाना कठिन होगा।
दीपा के संघर्ष को,परिश्रम को और उपलब्धियों को सलाम।