Wednesday, 27 September 2023

अफ्रीका के धावक

 

ये 24 सितंबर 2023 का दिन था। दुनिया के तमाम हिस्सों में अलग-अलग देश और खिलाड़ी खेलों में अपना परचम लहरा रहे थे या उसका प्रयास कर रहे थे। 

हांगजू में एशियाई खेलों के पहले ही दिन 12 स्वर्ण पदक जीतकर चीन एशिया में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर रहा था और भारत 5 पदक जीतकर अपने को उभरती खेल शक्ति के रूप में स्थापित करने का प्रयास कर रहा था।

उधर एशिया कप जीतने के बाद भारत पहले दो एकदिवसीय मैचों में ऑस्ट्रेलिया को लगभग रौंद कर क्रिकेट के तीनों फॉरमेट में सिरमौर होने दुंदुभी बजा रहा था।

इंग्लैंड में प्रीमियर लीग में मेनचेस्टर सिटी नॉटिंघम फारेस्ट को 2-0 से हराकर शीर्ष पर थी और पिछले साल अपने ट्रेबल का औचित्य सिद्ध कर रही थी।

जबकि फ्रांस में फुटबॉल के ही दूसरे रूप रग्बी में विश्व की 20 सर्वश्रेष्ठ टीमें विश्व खिताब जीतने के लिए होड़ कर रही थीं।

और

और ऐन उसी दिन बर्लिन जर्मनी में अफ्रीका के धावक अपने पैरों की कलम और पसीने की स्याही से खेलों के मैराथन दौड़ वाले पन्ने पर नया इतिहास लिख रहे थे।

 पुरुष वर्ग में केन्या के 38 वर्षीय एलिउद किपचोगे बर्लिन मैराथन पांचवी बार जीत रहे थे और  इथियोपिया के महान धावक हैले गब्रेसिलासी के चार बार जीत के रिकॉर्ड को तोड़ रहे थे। साल 2022 में यहीं बर्लिन में किपचोगे ने 02 घंटे 01 मिनट और 09 सेकंड  का विश्व रिकॉर्ड बनाया था। 5 फुट 4 इंच लंबाई और 54 किलोग्राम वजन वाला 38 साल का ये दुबला पतला धावक मैराथन का महानतम धावक है जिसने 11 से ज़्यादा मैराथन जीती हैं। वे पिछले दो ओलंपिक में मैराथन जीत चुके हैं और पेरिस में जीतकर ओलंपिक मैराथन जीत की तिकड़ी बनाना उनका सपना है। 


वे दुनिया के एकमात्र ऐसे मैराथन धावक हैं जिन्होंने 2 घंटे का बैरियर तोड़कर पूरी दुनिया को आश्चर्य में डाल दिया था। साल 2019 में विएना में उन्होंने मैराथन  01 घंटे 59 मिनट और 03 सेकंड में पूरी की। हालांकि तकनीकी कारणों से इस समय को मान्यता नहीं मिली।

किपचोगे की ये असाधारण उपलब्धि उन्हें बैनिस्टर जैसे महान एथलीट के समकक्ष रखती है। याद कीजिए रोजर बैनिस्टर को जिन्होंने एक मील की दौड़ 1954 में पहली बार 4 मिनट से कम समय में पूरी कर दुनिया को अचंभित कर दिया था।


लेकिन किपचोगे की रिकॉर्ड पांचवीं बार बर्लिन मैराथन जीत भी नेपथ्य में चली जाए तो सोच सकते हैं कि निश्चित ही कुछ बहुत बड़ा हुआ होगा। उस दिन सच में बहुत बड़ा हुआ था और ये कमाल किया था इथियोपिया की मैराथन धाविका तिजिस्त आसेफा ने। वे बर्लिन में अपने कॅरियर की  तीसरी मैराथन दौड़ रहीं थीं। यहाँ उन्होंने 2 घंटे 11 मिनट और 53 सेकंड का नया विश्व रिकॉर्ड बनाया। उन्होंने 2019 में ब्रिजिड कोसेगे के पुराने रिकॉर्ड  को 02 मिनट और 11 सेकंड से बेहतर किया और साथ ही 02 घंटे 12 मिनट के असंभव से बैरियर को भी तोड़ा। कमाल की बात ये है 37 किलोमीटर तक उनकी गति पुरुष मैराथन विजेता किपचोगे से केवल 03 सेकंड प्रति  किलोमीटर कम थी।

 यहां उल्लेखनीय बात ये भी है कि पुरुष और  महिला मैराथन दौड़ के समय में अंतर अब लगभग दस मिनट का रहा गया है। 1900 के आसपास ये अंतर लगभग 90 मिनट का था।

कमाल की बात तो ये भी है कि महिला पुरुष दोनों वर्गों में पहले आठ स्थान पर केन्या,इथियोपिया और तंजानिया के धावक थे। अगर कहीं से भी हिटलर की आत्मा इस दौड़ को देख रही होगी तो उसके 'आर्यन श्रेष्ठता के सिद्धांत' को एक बार फिर कलर्ड लोगों द्वारा ध्वस्त होते देख जार जार रो रही होगी।

क्या ही अद्भुत दृश्य होते हैं वे जहां कि लगभग बिना मांस मज्जा के काले चमड़ी वाले पसीने से सराबोर अफ्रीकी धावकों के शरीर सूर्य की रोशनी में काले संगमरमर से चमक रहे होते हैं। उनके शरीर में भले ही सुविधाओं और संपन्नता के मांस का अभाव हो, पर अभावों और गरीबी की आग में तपी और साहस, हिम्मत और कड़ी मेहनत के हथौड़ों के प्रहारों से बनी वज्र सी हड्डियां उनके शरीर में विद्यमान होती हैं। जो उन्हें संघर्ष करने का होंसला देती हैं और उन्हें अजेय बना देती हैं।

अफ्रीका के इन काले चमड़ी वाले खिलाड़ियों को  और विशेष रूप से लंबी दौड़ के धावकों को ध्यान से देखिए। ये दौड़े उनके लिए जीने मरने का प्रश्न होती हैं। जीत जीवन और हार मृत्यु। जीत सुनहरे भविष्य  का आश्वासन और हार बीते नारकीय जीवन की बाध्यता। उनकी आंखों में झांकिए। उसमें जीतने की अदम्य लालसा के अलावा और कुछ नहीं दिखाई देगा।

आखिर उनमें संघर्ष का ये जज़्बा और हौंसला आता कहां से है। निश्चित ही ये उनके परिवेश से ही आता होगा। वे दुनिया की सबसे कठिन और दुरूह भौगोलिक परिवेश से आते हैं। वे प्राकृतिक संसाधन जो उनके लिए होने चाहिए, पश्चिम की बहुराष्ट्रीय कंपनी के लालच की भेंट चढ़ जाते हैं और उनके हिस्से आते हैं बचे खुचे संसाधनों पर अधिकार जमाने के लिए सबसे भयानक,कठिन और कभी ना खत्म होने वाले गृह युद्ध और उसके परिणामस्वरूप घोर गरीबी और अभावों भरा जीवन। ऐसे में उनके भीतर अदम्य जिजीविषा पैदा होती है और उससे पैदा होता है कड़ा संघर्ष करने हौंसला और कभी ना हार मानने का जज़्बा।

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और हां कुछ कुछ यही हौंसला और जज़्बा तीसरी दुनिया के देशों के खिलाड़ियों में भी होता है जो निम्न मध्यम वर्ग से आते हैं। ये दूसरी बात है वे अफ्रीका के इन खिलाड़ियों से संघर्ष में पिछड़ जाते हैं।

तो अफ्रीकी देशों के मध्यम और लंबी दूरी के धावकों के हौंसलों और अद्भुत सफलता को सलाम करना तो बनता हैं ना।



Thursday, 21 September 2023

जेंटलमैन गेम क्रिकेट



 क्रिकेट अब जेंटलमैन गेम रह गया है या नहीं, इस पर बहस की जा सकती है। लेकिन 1983 में जब भारत ने पहली बार विश्व कप जीता, तो निश्चित ही उस समय ये जेंटलमैन गेम रहा होगा। उस समय एक अम्पायर टेलेंडर को बाउंसर फेंकने पर बॉलर को डांट सकता था। जाने माने पत्रकार और ब्रॉडकास्टर रेहान फज़ल बीबीसी डॉट कॉम में अपने एक लेख में भारत और वेस्टइंडीज के बीच खेले गए फाइनल मैच की एक घटना का जिक्र करते हैं-

'तेज़ गेंदबाज़ मैल्कम मार्शल किरमानी और बलविंदर सिंह संधु की साझेदारी से इतने खिसिया गए कि उन्होंने नंबर 11 खिलाड़ी संधू को बाउंसर फेंका जो उनके हेलमेट से टकराया। संधू को दिन में तारे नज़र आ गए। अंपायर डिकी बर्ड ने मार्शल को टेलएंडर पर बाउंसर फेंकने के लिए बुरी तरह डाँटा. उन्होंने मार्शल से ये भी कहा कि तुम संधू से माफ़ी माँगो।

मार्शल उनके पास आकर बोले, ‘मैन आई डिड नॉट मीन टु हर्ट यू. आईएम सॉरी.’(मेरा मतलब तुम्हें घायल करने का नहीं था. मुझे माफ़ कर दो).

संधू बोले, ‘मैल्कम, डू यू थिंक माई ब्रेन इज़ इन माई हेड, नो इट इज़ इन माई नी.’(मैल्कम क्या तुम समझते हो, मेरा दिमाग़ मेरे सिर में है? नहीं ये मेरे घुटनों में है)।

ये सुनते ही मार्शल को हँसी आ गई और माहौल हल्का हो गया।'

रअसल खेल मैदान में केवल प्रतिद्वंदिता ही नहीं होती बल्कि दोस्ताना माहौल भी साथ साथ चलता  है। सिर्फ तनाव ही व्याप्त नहीं रहता बल्कि सहजता और जीवंतता भी व्याप्ति है।

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च तो ये है खेल जीवन का ही एक हिस्सा है और खेल मैदान में सिर्फ खेल और प्रतिद्वंदिता ही नहीं रहती बल्कि जीवन भी साथ साथ चलता है।



खेल भावना


 

यूं देखा जाए तो रविवार की रात विश्व एथलेटिक्स प्रतियोगिता की जैवलिन थ्रो स्पर्धा का फाइनल भारत और पाकिस्तान के बीच फाइनल भी था। ये भारत के नीरज चोपड़ा और पाकिस्तान के अरशद नदीम के बीच स्पर्धा थी। इस स्पर्धा में नीरज ने स्वर्ण और नदीम ने रजत जीता। यहां यह बात ध्यान देने वाली है कि नदीम बेहद प्रतिभावान हैं और उनका व्यक्तिगत सर्वश्रेष्ठ 90+ मीटर है जो नीरज के व्यक्तिगत सर्वश्रेष्ठ से अधिक है।

लेकिन क्या ही कमाल है कि बेलग्रेड के नेशनल एथलेटिक्स सेंटर पर  क्रिकेट और हॉकी की स्पर्धाओं के उन्मादी माहौल के बरक्स सहयोग,अपनेपन और प्यार के खूबसूरत दृश्य थे। फाइनल थ्रो के बाद वे दोनों प्यार से गले मिले और एक दूसरे के प्रति सम्मान प्रदर्शित किया। उसके बाद जब फोटो सेशन में नदीम बिना राष्ट्रीय झंडे के अलग खड़े थे,तब नीरज उन्हें अपने साथ लेकर आए और फोटो सेशन पूरा किया। इससे पहले टोक्यो ओलंपिक में नीरज के जैवलिन से नदीम अभ्यास कर रहे थे।

क्या ये कारण है कि सामूहिकता और भीड़ ही उन्माद पैदा करती है जबकि एक अकेला व्यक्ति अधिक विवेकशील होता है। इसीलिए टीम खेल और उनके समर्थक उन्माद फैलाते हैं,जबकि व्यक्तिगत प्रतियोगिताओं में उस तरह का उन्माद नहीं होता। या फिर एथलेटिक्स जैसे खेलों में जहां विश्व स्तर पर भारत और पाक का कम या बहुत कम प्रतिनिधित्व होता है, वहां वो अकेलेपन का भाव आपस में एक जुड़ाव पैदा करता है। या फिर हर व्यक्ति का एक अलग मानसिक गठन होता है जो उसके परिवेश और परिवार से आता है।

नीरज इस जीत के बाद भारत के महानतम एथलीट कहे जा सकते हैं। और इसलिए उनमें  एक 'एटीट्यूड'पैदा हो सकता है। लेकिन ऐसा है नहीं। वे बेहद विनम्र,ज़मीन से जुड़े फोकस्ड खिलाड़ी हैं। जब उनसे पूछा गया कि क्या वे गोट (आल टाइम ग्रेटेस्ट एथलीट) हैं तो उन्होंने बेहद विनम्रता से कहा 'मुझे नहीं लगता कि मैं महानतम खिलाड़ी हूं। हमेशा कुछ ना कुछ कसर रह जाती है। अभी और ज्यादा इम्प्रूवमेंट करने हैं और काफ़ी कुछ करना है। फिलहाल उसी पर फ़ोकस करूंगा।'

आईपीएल के सट्टेबाजी के चार पैसे आने पर जहां नए से नया क्रिकेटर भी सीना खोले,गले में मोटी मोटी चैन, अंगुलियों में अंगूठी,हाथों में कड़े और पूरे शरीर पर टैटू खुदवाए दंभी 'छक्का छैला' बना फिरता है,वहीं नीरज चोपड़ा जैसे खिलाड़ी अपनी एक सफलता के बाद अपने अगले लक्ष्य की और नज़र गड़ाए होते हैं। 

दरअसल महान व्यक्तित्व ऐसे ही विनम्र, सरल और प्यार से भरे होते हैं। नीरज भी ऐसे ही हैं। वे चैंपियन हैं, खिलाड़ी भी और व्यक्ति भी।

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नीरज को मोहब्बत पहुंचे।



एथलेटिक्स



 दरअसल यही असली भारत है और असली खेल हैं। जिस समय क्रिकेटर धोनी और कोहली अमीर खिलाड़ियों की सूची में शुमार हो रहे थे,ठीक उसी समय कुछ नॉन सेलिब्रिटी खिलाड़ी हमें गर्व करने के कई मौके दे रहे थे। 

एच एस प्रनॉय विश्व नं एक विक्टर एक्सेलसन को हराकर विश्व बैडमिंटन प्रतियोगिता के सेमीफ़ाइनल में पहुंचकर कांस्य पदक पक्का कर रहे थे, तो प्रज्ञान नंदा विश्व नं दो हिकारू नाकामुरा और विश्व नं तीन खिलाड़ी फैबियानो कारूआना को हराकर विश्व शतरंज प्रतियोगिता के फाइनल में पहुंच कर उपविजेता बन रहे थे।

और फिर कल रात बुडापेस्ट हंगरी में नीरज चोपड़ा 88.17 मीटर की भाले की उड़ान के साथ भारत के सार्वकालिक महानतम एथलीट ही नहीं बल्कि भारत के महानतम खिलाड़ियों में शुमार हो रहे थे।

विश्व एथलेटिक्स में भाला फेंक में नीरज स्वर्ण पदक जीतकर ओलंपिक स्वर्ण के साथ अपना डबल पूरा कर भारतीय खेल जगत के आसमान में जो स्वर्णिम आभा बिखेर रहे थे, उस आभा को निःसंदेह 4×400 मीटर में पांचवां स्थान प्राप्त कर मो अनस,अमोज जैकब,मो अजमल और राजेश रमेश और चमकदार बना रहे थे। 

वे पदक भले ही ना जीत पाएं हो,वे हमारे दिलों को रोशन कर रहे थे और भारतीय एथलेटिक्स के लिए संभावनाओं के नए द्वार भी खोल रहे थे।

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बिला शक ये प्रदर्शन  आश्वस्तकारी हैं। शानदार प्रदर्शन के लिए खिलाड़ियों को बधाई।



Saturday, 5 August 2023

पत्थरों में बदलते शहरों की कोमल दास्तां



रअसल किसी शहर में रहना और किसी शहर में जीना दो मुख्तलिफ बातें हैं। जब आप किसी शहर को जी रहे होते हैं या उसमें जी रहे होते हैं,तो वो शहर अपनी संपूर्णता में आपके भीतर कहीं गहरे पैंठ जाता है। उसकी स्मृतियां आपके भीतर कहीं गहरे धंस जाती हैं। हमेशा के लिए आपके भीतर महफूज़ हो जाती हैं। और जब फिर कभी पलट कर उस शहर को आप देखते हैं,तो वो शहर आपको दिखाई ही नहीं देता। वो इस कदर बदल गया होता है कि पहचान में ही नहीं आता। शहर गतिमान होता है और हमारी स्मृतियां जड़। शहर किसी का इंतज़ार नहीं करता। किसी के लिए रुकता नहीं। शहर स्मृतियों से बहुत आगे निकल जाते हैं।

ये दीगर बात है कि उनकी गति क्या होती है और ये गति उन्हें कहां ले जाती है। अधिकांश शहर कांक्रीट के जंगल के ब्लैक हॉल की तरफ बढ़ गए होते हैं, जिनमें समा कर उन्हें अंततः अपना अस्तित्व ही खो देना है। जाने माने लेखक जितेंद्र भाटिया कुछ ऐसा ही लक्षित करते हैं और अपनी सद्य प्रकाशित पुस्तक 'कांक्रीट के जंगल में गुम होते शहर'में बयां करते हैं।

संभावना प्रकाशन से प्रकाशित इस किताब में जितेंद्र भाटिया ने कुल पांच शहरों-लाहौर,चेन्नई,जयपुर,मुम्बई और कोलकाता के बारे में लिखा है। ये वो शहर हैं जिनमें वे जिये और जिनको उन्होंने जिया। जिन शहरों ने उन्हें गढ़ा। जिन शहरों में उनके जीवन की निर्मिति हुई।कुल चौदह अध्यायों में फैली पुस्तक के एक-एक अध्याय में चेन्नई और लाहौर, दो अध्याय में जयपुर,चार में मुम्बई और छह अध्यायों में कोलकाता को समाहित किया है। जिस विस्तार से शहरों का वर्णन उन्होंने किया है,उसी क्रम में उनके वर्णन की सांद्रता और संवेदना का विस्तार होता गया है। ज़ाहिर सी बात है कि कोलकाता उनके दिल के सबसे करीब है और इसीलिए सबसे ज़्यादा विस्तार से और सघन संवेदना से उन्होंने कोलकाता का वर्णन किया भी है।

नमें से लाहौर शहर उनका अनदेखा शहर था जिसे उन्होंने अपने परिवार के बड़ों की आंखों और अनुभवों से देखा था। ये उनके पूर्वजों का शहर था जिसके प्रति वे एक प्रकार के रोमान से भरे हैं और उसी तरह वर्णित करते हैं। चेन्नई में वे कम रहे और वो कम विस्तार भी पाता है। शेष तीन शहर- जयपुर,मुम्बई और कोलकाता उनकी संवेदना से गहरे जुड़े हैं और अपने वर्णन में उतना ही विस्तार पाते हैं।

र सब शहरों के वर्णन में एक बात कॉमन है,वो है शहर का इतिहास। वे हर शहर की स्थापना से लेकर वर्तमान तक का एक प्रामाणिक इतिहास प्रस्तुत करते हैं। वे भले ही विस्तार में नहीं जाते लेकिन उनकी दृष्टि और लेखन बहुत साफ है। मुम्बई और कोलकाता के फ़िल्म इतिहास पर तो उन्होंने बहुत ही शानदार लिखा है। मुम्बई के फ़िल्म इतिहास के एक चैप्टर में मूक फिल्मों तथा दूसरे में बोलती फिल्मों के बारे में बेहतरीन लिखा है और उतना ही बेहतरीन कोलकाता के फ़िल्म इतिहास पर। ऋत्विक घटक,मृणाल सेन और सत्यजीत रे पर उनका लिखा इस किताब का श्रेष्ठ और सबसे सरस हिस्से हैं। 

स किताब में शहरों का वृतांत भी है,इतिहास भी है और लेखक की आत्मकथा भी। इसमें निबंधों की वैचारिकता भी है और कहानी की किस्सागोई  भी। छोटे फॉन्ट में छपी 332 पृष्ठों की ये पुस्तक पढ़े जाने के लिए खासे समय के निवेश की मांग करती है। पर जितेंद्र भाटिया फिक्शन लेखक हैं। वे किस्सागोई जानते हैं और इसीलिए एक रोचकता पूरे समय बनी रहती है और आप एक सांस में उसे पढ़ भी जाते हैं।

स पुस्तक में जो कमी लगती है,वो है इसमें शहर के बदलाव को,उनके कांक्रीट के जंगल में तब्दील होने को उस विस्तार से रेखांकित नहीं किया गया है जिस हिसाब से पुस्तक के शीर्षक के अनुरूप होना चाहिए था। ऐसे विवरण विरल है और सांकेतिक है। दूसरे,फ्रूफ की कमी खलती है यहां तक कि कई जगह तो सन भी गलत छपी हैं।

लेकिन कुल मिलकर एक बेहतरीन और पठनीय पुस्तक है। पुस्तक की भूमिका में प्रियंवद लिखते हैं-

               "स किताब का शीर्षक ही मुनादी करता है कि इस नए और तेजी से बदलते दौर में ये पांच शहर धीरे धीरे अपनी पहचान,अपना इतिहास,अपना पुराना वजूद खो रहे है। कांक्रीट के जंगल इन शहरों की पुरानी इमारतों,खंडहरों,गलियों,बाजारों,थियेटर,सिनेमाहाल को तेजी से निगलकर,प्लाटिक के खिलौनों के घरों की तरह बेजान,यकरंग और बेहिस बना रहे हैं। जिनका आसमान तेजी से छोटा होता जा रहा है।.....एक से दिखते ये शहर किसी मशीन के खाँचे में ढलाई करके निकाले गए उत्पाद की तरह दिखते हैं। इनमें अब पुरानी, कुशादा इमारतें,चौड़ा,बड़ा नीला आकाश, मृत्यु का खामोश गीत गाते कब्रिस्तान,नदी के सुकून,चांदनी रातों और सुनहरी धूपों के वितान नहीं दिखते छत,मुंडेर,बरामदा,आँगन,दुछत्ती,जाल,गोलंबर,कोठा,जीना नहीं दिखता।"

रअसल विकास की अंधी दौड़ से मरते शहर,कोमल सौंदर्य से पत्थर में तब्दील होते शहर का जो दुःख-दर्द जितेंद्र भाटिया का है,वोही प्रियंवद का है, और वो ही शहर में जीने वाले लाखों संवेदनशील आम लोगों का है, जिसको जितेंद्र भाटिया अपनी किताब में रच रहे होते हैं।

Sunday, 30 July 2023

हरजीत सिंह:मुझसे फिर मिल

 



         र शहर का एक साहित्यिक आभामंडल होता है। उस आभामंडल में तमाम सितारे होते हैं जो आंखों को चकाचौंध से भर देते हैं। लेकिन जब आप उस चकाचौंध को पार कर कुछ गहरे जाते हैं तो कुछ मद्धिम शीतल प्रकाश लिए ऐसे सितारे होते हैं जो आत्मा को दीप्त कर देते है। विस्मय से भर देते हैं। प्रेम और करुणा से सराबोर कर देते हैं

  देहरादून की अदबी जमात के प्रमुख सितारों की चकाचोंध  के पार भी दो ऐसे ही  सितारों का एक युग्म है जिसका प्रकाश आंखों को नहीं बल्कि दिल को प्रकाशमान करता है। ये युग्म  अवधेश और हरजीत का है। 

देहरादूनी अदबी जमात की हंसी के बीच किसी बच्चे की किलकारी गर आपको सुनाई दे तो आप समझ जाइए ये हरजीत है। उस जमात से कोई संगीत की उदास सी धुन सुनाई दे तो समझ लीजिए ये हरजीत है। उस जमात की सदा में कोई सदा दोस्त की सी लगे तो समझो वो हरजीत है।

कोई भी शास्त्रीय  गायन तानपुरे के बिना कहां पूरा होता है। कितना ही सिद्धहस्त गायक क्यों ना हो। तानपुरा गायक को वे अवकाश देता है जो उसकी लय को बनाए रखने के लिए सबसे जरूरी होते हैं। वो गैप्स को,अंतरालों को भरता है। वो बिना लाइमलाइट में आए महत्वपूर्ण काम करता है। दरअसल हरजीत देहरादून के साहित्यिक जमात के संगीत का तानपुरा है।

रजीत की कहानी आपको विस्मित भी करती है और करुणा से भर देती है। पेशे से  बढ़ईगिरी करने वाला ये शायर बहुमुखी प्रतिभा का धनी था। अभावों के बीच भी वो उम्दा शेर कहता,खूबसूरत कैलीग्राफी करता, बेहतरीन कोलाज बनाता,कमाल की फोटोग्राफी करता। वो शास्त्रीय संगीता का दीवाना था और फक्कड़ यायावर। जितना अधिक भटकाव उसके स्वभाव में था, उसकी शायरी उतनी ही सधी हुई थी।


म जानते हैं भारतीय किस कदर उत्सवधर्मी होते हैं। अभावों से उपजा दुख इस कदर उनकी रगों में बहता है कि वे दुखों को भी सेलिब्रेट करने लग जाते हैं। क्या वजह है कि उजली पूर्णिमा के साथ अंधेरी अमावस्या का भी उसी उत्साह से उत्सव मनाते हैं। हरजीत भी ऐसा ही था। दुनियादारी के पेचोखम से नावाफ़िक वो अपने अभावों का सुखों की तरह ही उत्सव मनाता। टूटी छत से चिड़िया को घर के अंदर आते देख वो कहता है-


"आई चिड़िया तो मैंने जाना/

मेरे कमरे में आसमान भी था"। 


ससे ज़्यादा आशा और उम्मीदों से भरा हरजीत के अलावा कौन हो सकता था।

सके भीतर एक बच्चे सा साफ शफ्फाक मन वास करता। तभी तो वो कठोर काष्ठ को सजीव खिलौनों का रूप दे देता। वो कहता-


"गेंद, गोली,गुलेल के दिन थे/

दिन अगर थे तो खेल के दिन थे"।


वो प्रेम से भरा रहता। जब वो प्रेम से उमगता तो कहता- 


"हम तुझे इतना प्यार करते हैं/

हम तेरी फ़िक्र ही नहीं करते"


से साथ पसंद था। दोस्ती पसंद थी। जिसको उसकी दोस्ती नसीब हुई वो कितने खुशकिस्मत थे। वो एक जगह लिखता है-


"आप हमसे मिलें तो ज़मी पर मिलें

ये तकल्लुफ़ की दुनिया मचानों की है"


क ऐसा ही दोस्त है नवीन कुमार नैथानी। वो युग्म में एक तीसरा आयाम जोड़ता है। वो अवधेश और हरजीत के साथ मिलकर दोस्ती की त्रयी बनाता है। कभी उससे मिलिए और हरजीत का ज़िक्र भर कर दीजिए। उसकी आंखों में हर्ष और विषाद एक साथ उतर आते हैं। वो किस्सों पर किस्से कहे जाता है। वो बताता है हरजीत विचारधाराओं के पचड़े में कभी नहीं पड़ा। एक बार जब उसकी ग़ज़लों को वाम सिद्ध किया जाने लगा तो उसने अपनी वही रचनाएं धर्मयुग में छपवाकर उसका प्रतिवाद किया। 

गर हरजीत की दोस्ती के चलते उसके दोस्त खुशनसीब थे तो हरजीत भी कम खुशनसीब कहां था। उसे ऐसे दोस्त मिले जो उसके जाने के बाद भी उसे हमेशा दिल में बसाए हैं। उनकी एक दोस्त हैं तेजी ग्रोवर। उन्होंने हरजीत के सारे दोस्तों को,उसके चाहने वालों को एकत्रित किया। फिर उन सबसे हरजीत की यादों को, उसके लिखे को बटोर कर एक किताब की शक्ल दे दी।  नाम है 'मुझसे फिर मिल'।

रअसल ये हरजीत को उसके चाहने वालों से,नए पाठकों से और दुनिया जहान से मिलवाने का सच्चा सा उपक्रम है। उसकी यादों को जिलाए रखने का एक बेहद संजीदा प्रयास है।

समें हरजीत के दो पूर्व प्रकाशित संग्रह 'ये पेड़ हरे हैं' और 'एक पुल' के अलावा एक अप्रकाशित संग्रह 'खेल' और तमाम अप्रकाशित गज़लें शामिल की गई। इसके अलावा उनके कई दोस्तों व अन्य लोगों के हरजीत के बारे आत्मीय उद्गार हैं और दो आलेख भी। 

नमें से एक शानदार संस्मरणात्मक आलेख सुप्रसिद्द चित्रकार लेखक जगजीत निशात का है 'हरजीत और उसका 'हरजीत' बनना'। इसमें निशात हरजीत को हरजीत बनाने के प्रक्रिया की पड़ताल ही नहीं करते बल्कि देहरादून के उसके समकालीन सांस्कृतिक माहौल को भी बखूबी उद्घाटित करते चलते हैं। 

क और संस्मरणात्मक आलेख ज्ञान प्रकाश विवेक का है। ये आलेख बहुत ही मार्मिक बन पड़ा है। वे लिखते हैं- 'हरजीत से मिलना किसी बहुत अच्छे मौसम से मिलने जैसा था.वह खुद किसी पेड़ जैसा था-किसी दरख़्त जैसा..... एक ऐसा दरख़्त,जिसके पत्तों पर आसमान आराम कर रहा हो,जिसकी शाखों में ज़िंदगी के संघर्ष  जुड़े हों और जड़ों में कई जोड़ी पांव हों जो उसमें आवारगी और घुमक्कड़ी का अहसास पैदा करते हों.... उसमें बेचैनियों की खुशबू थी,जज़्बात की तरलता थी। उसे अपने सबसे विकट समय में भी मुस्कुराते देखना चकित करता था"। 

वो अपने समय का बेहतरीन ग़ज़लकार था जो बेहद संवेदनशील और संवेगों से भरा था और ग़ज़ल के क्षेत्र में नया मुहावरा गढ़ रहा था। ज्ञान प्रकाश आगे लिखते हैं "हिंदी ग़ज़ल  के कूड़े में अपनी अलग पहचान कराने वाला संवेदनशील,मैच्योर और समझदार ग़ज़लकार था।"

रजीत का प्रकृति से अद्भुत जुड़ाव था। उसके पहले ही संग्रह का नाम 'ये हरे पेड़ हैं' है। वो लिखता है-


"कश्तियाँ डूब भी जाएं तो मरने वालों में

होश जब तक रहे साहिल का गुमाँ रहता है

ये हरे पेड़ हैं इनको ना जलाओ लोगों

इनके जलाने से बहुत रोज़ धुंआ रहता है"


क जगह वो लिखता है-


"हरी ज़मीन पे तूने इमारतें बो दी

मिलेगी ताज़ा हवा पत्थरों में कहाँ"


या फिर


"ज़िंदा चेहरे भी बदल जाते हैं तस्वीरों में

पेड़ मरते हैं तो ढल जाते हैं शहतीरों में"


र फिर ऐसे हरे पेड़ के शैदाई को प्रकाशन संस्थान  संभावना प्रकाशन की इससे खूबसूरत श्रद्धांजलि और क्या हो सकती है कि इस किताब को छापने में उसने पेड़ों को नष्ट नहीं किया। किताब को गन्ने की खोई से बने कागज़ पर छापा।

ब देहरादून में महसूस होने वाला सबसे बड़ा मलाल और कमी उस महबूब शायर से ना मिल पाना है। लेकिन आप उसे यहां महसूस कर सकते हैं। यहां के साहित्यिक माहौल में वो एक अहसास सा उपस्थित रहता है।

 र ये भी कि मेरे तईं देहरादून की तमाम पहचानों में एक बड़ी पहचान हरजीत भी है। उसको जानने के बाद जब भी देहरादून जाएंगे उसकी याद तो आएगी ही और होठों बरबस गुनगुना उठेंगे कि-


"ढूंढते फिरते हैं हम उस शख़्स का पता

जिससे हों इस शहर के माहौल की बातें बहुत।"


और हरजीत आपके कानों में आकर चुपके से कहेगा -


"सोचता हूँ कहां गए वो दोनों

मेरी साइकिल वो मेरा देहरादून"




Thursday, 20 July 2023

टेनिस:एक युग का अवसान/एक युग का आगाज़



              बात 2022 की लाल मिट्टी पर खेली जाने वाली मेड्रिड ओपन प्रतियोगिता की है। इसमें एक 19 साल का नौजवान जर्मनी के एलेक्जेंडर ज्वेरेव को हराकर प्रतियोगिता जीत रहा था। क्वार्टर फाइनल में उसने राफेल नडाल को और सेमीफाइनल में नोवाक जोकोविच को हराया था।

 टेनिस इतिहास में इससे ख़ूबसूरत और क्या हो सकता था कि एक टीनएजर राफा और नोवाक को हराकर ये प्रतियोगिता जीत रहा था।

ये टीनएजर कोई और नहीं स्पेन का कार्लोस अलकराज था।

रअसल ये जीत एक नए उगते सूरज की मानिंद थी। जिसका नरम मुलायम प्रकाश बरगद के पेड़ों की घनी छाया को चीरकर टेनिस के नए भविष्य का संकेत दे रहा था। वो टीनएजर बता रहा था कि वो एक ऐसा महत्वाकांक्षी और सक्षम बिरवा है कि वट वृक्ष सरीखे नोवाक और राफा के अनुभव और काबिलियत की सघन छाया के नीचे भी सरवाइव कर सकता है। 

सके चार महीने बाद फ्लशिंग मीडोज के आर्थर ऐश स्टेडियम पर कैस्पर रड को हराकर अपना पहला यूएन ओपन ग्रैंड स्लैम जीतकर वो टीनएजर अपने पॉइंट को प्रूव कर रहा था। पूरा स्टेडियम 'ओले ओले ओले कार्लोस' से गूंज रहा था। ये टेनिस का भविष्य का थीम सांग बनने जा रहा था।

र विंबलडन तक आते आते उस बिरवे का कद काफी बढ़ गया था। अब वो अपना आकार बनाने लगा था। उसकी जड़ें ज़मीन में कुछ और गहरे धंस रहीं थीं। सुबह का नरम मुलायम सूरज आसमान में और ऊपर हो आया था। उसका प्रकाश अब इतना तेज हो गया था कि दुनिया की आंखे चौंधियाने लगी थीं।

विम्बलडन 2023 का फाइनल उम्मीद के अनुरूप   नोवाक और उस अलकराज के बीच ही खेला ही गया। 

ये मैच केवल एक फाइनल मैच भर नहीं था,बल्कि ये विरुद्धों का द्वंद था। ये दो अलग व्यक्तित्व,दो अलग खेल शैलियों,दो अलग समयों के बीच का द्वंद्व भी था। यहां अनुभव जोश के मुकाबिल था। नया पुराने के सामने था। ये अपने अपने अस्तित्व की रक्षा का मसला था। पुराना अपनी जड़ें और मजबूती से जमाए रखने की कोशिश में था और नया था कि पुराने को उखाड़ फेंकना चाहता  था।

मैदान पर पहले नंबर दो नोवाक आए और उनके पीछे नंबर एक अलकराज। 35 साल के नोवाक का अनुभवी चेहरा बाल सुलभ मुस्कुराहट से चमक रहा था,तो बीस साल के युवा अलकराज का बालसुलभ चेहरा विश्वास और गंभीरता से प्रदीप्त था। 

नोवाक साल की पहली दो ग्रैंड स्लैम प्रतियोगिता जीतकर यहां आए थे।उनके हिस्से अब तक कुल 23 ग्रैंड स्लैम आ चुकी थीं। ये उनकी सबसे प्रिय और अनुकूल सतह थी। वे अनुभव का टोकरा अपने साथ लिए थे। वे यहां 07 बार जीत चुके थे। इसके विपरीत अलकराज की ये पसंदीदा सतह नहीं थी। लेकिन वे नंबर एक टेनिस खिलाड़ी का तमगा अपने सीने से लगाए थे। जोश उनमें हिलोरें ले रहा था और प्रतिभा उनमें कूट कूट कर भरी थी।

मुकाबला शुरू हुआ। नोवाक ने शानदार शुरुआत की। पहला सेट 6-1 से अपने नाम किया। लगा ये मैच नोवाक के लिए 'केक वॉक' होने जा रहा है। वे संख्या 24 की तरफ दौड़ते दिखे। लेकिन कार्लोस की यही काबिलियत है कि वे कोई भी दबाव अपने ऊपर बनने नहीं देते। फिर चाहे ग्रैंड स्लैम फाइनल खेलने का दबाव हो या सामने नोवाक सरीखा कोई लीजेंड हो। अगले सेट में ज़ोरदार संघर्ष हुआ। टाईब्रेक अंततः अलकराज ने  8-6 से जीत लिया। अब मैच में जान आ गयी थी। नोवाक यहां थोड़े थके दिखे और अगला सेट वे आसानी  से 1-6 से हार गए। अब लगा कि मैच एकतरफा कार्लोस के पक्ष में हो चला है। तभी नोवाक अपनी फॉर्म में लौट आए और अगला सेट 6-3 से जीत कर मैच अत्यधिक रोमांचक बना दिया। अंतिम और निर्णायक सेट में नोवाक के दूसरे सर्विस गेम में कार्लोस ने नोवाक की सर्विस ब्रेक की। गुस्से में  आकर नोवाक ने नेट पोल पर मारकर अपना रैकेट तोड़ दिया। दरअसल नोवाक उसी समय हार गए थे। ये उनकी निराशा थी। मन ही मन हार जाने का संकेत। वही हुआ भी। अलकराज ने अंततः सेट 6-4 से जीतकर कैरियर का दूसरा ग्रैंड स्लैम अपने नाम कर लिया।

ये फाइनल कितना संघर्षपूर्ण और इंटेंस था,इसे इस बात से समझा जा सकता है कि तीसरे सेट का चौथा गेम लगभग 26 मिनट चला जिसमें कुल 13 ड्यूस हुए और 32 पॉइंट बने। नोवाक की सर्विस गेम को अलकराज ने जीता। ये मैच लगभग 5 घंटे तक चला। नोवाक के 166 के मुकाबले अलकराज ने कुल 168 अंक जीते। इस बात से भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि मैच कितना करीबी था और संघर्षपूर्ण भी।

स मैच में शानदार टेनिस खेला गया। बुलेट की तेजी सी सर्विस,शानदार ग्राउंड स्ट्रोक्, एंगुलर फोरहैंड स्ट्रोक्स,वॉली,ड्राप शॉट्स,बैक हैंड स्लैश,क्या कुछ नहीं था इस मैच में।

ये एक ऐसा मैच था जिसे दो पीढ़ियों की टकराहट के सबसे शानदार उदाहरण के रूप में हमेशा याद रखा जाएगा।

2003 से लेकर 2022 तक के 20 साल के सफर में विम्बलडन का खिताब 'फेबुलस फोर' के अलावा कोई और नहीं जीत सका था। ये अलकराज ही हैं जिसने 20 सालों के 'फेबुलस फोर'के विम्बलडन पर उनके वर्चस्व को समाप्त किया। 

जो भी हो जोकोविच अपनी हार में भी ग्रेसफुल थे। उन्होंने मैच पश्चात ऑन कोर्ट इंटरव्यू में अलकराज की खूब तारीफ की। उन्होंने कहा 20 साल की उम्र में दबाव झेलने की उनकी ताकत सराहनीय है। और क्रोशियन कोच इवान लूबिसिक की उस बात की ताईद भी की कि अलकराज में स्वयं उनके यानी नोवाक,फेडरर और राफा की खूबियों का मिश्रण है।

 पिछले सालों में 'फेबुलस फोर' ने, या कहें कि 'बिग थ्री' ने इतनी शानदार टेनिस  खेली  कि उन्होंने ज्वेरेव, सितसिपास,थिएम,मेदवेदेव जैसे खिलाड़ियों की पूरी एक पीढ़ी को लगभग खत्म कर दिया। उन्हें अपनी छाया से बाहर आने ही नहीं दिया। लेकिन उसके बाद की पीढ़ी के खिलाड़ियों-कैस्पर रड,रुन, बेरेटिनी,आगर अलिसिमे  से पार पा पाना मुश्किल होगा। हालांकि अभी भी नोवाक की फिटनेस शानदार है। उनमें बहुत टेनिस बाकी है। उन्हें अभी खारिज़ कतई नहीं किया जा सकता।

ये अलकराज की स्वप्न सरीखी यात्रा पूरी दुनिया अपनी खुली आँखों से देख रही है। ऐसी ना जाने कितनी स्वप्निल सफलताएं अभी उनके हाथ आने वाली हैं ये तो भविष्य ही बताएगा।

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भी तो बस कार्लोस अलकराज को उनके दूसरे ग्रैंड स्लैम की बधाई।


अफ्रीका के धावक

  ये 24 सितंबर 2023 का दिन था। दुनिया के तमाम हिस्सों में अलग-अलग देश और खिलाड़ी खेलों में अपना परचम लहरा रहे थे या उसका प्रयास कर रहे थे।  ...