Sunday 29 December 2019

मैरीकॉम बनाम निखत ज़रीन



हमारे जीवन के सद्भावना, मैत्री, प्रेम और सहयोग के सबसे खूबसूरत दृश्य खेल मैदानों से ही आते हैं। क्रिकेट में कतारबद्ध होकर एक दूसरे से हाथ मिलाते खिलाड़ी,बॉक्सिंग और कुश्ती में गले मिलते खिलाड़ी,  फुटबॉल में तो एक कदम और आगे जाकर अपनी जर्सियों की अदला बदली करते खिलाड़ी,यहां तक कि एथेलेटिक्स में भी विजेता को बधाई देते खिलाड़ी। खेल खत्म होने के बाद हाथ मिलाना और गले मिलना सबसे सामान्य लेकिन वांछित दृश्य हैं। खेल के दौरान खिलाड़ियों में, दर्शकों में, प्रशंसकों में प्रतिद्वंदिता और संघर्ष की जो भावना घनीभूत होती है और उसकी वजह से जिस तनाव की व्याप्ति होती है, उसे खत्म करने में या फिर कम से कम उसे कुछ हद तक तरल करने में ये दृश्य सहायक होते हैं। सही अर्थों में यही खेल की वो मूल भावना होती है जिसे हम खेल भावना के नाम से जानते हैं। लेकिन ज़रूरी नहीं हर बार ऐसा ही होता हो। कई बार स्थापित परंपराओं में विचलन होता है, भले ही वो वांछित हो या ना हो। कल राजधानी के इंदिरा  गांधी इंडोर स्टेडियम में एक बार फिर विचलन हुआ। एक बार खेल भावना फिर आहत हुई।

कल यहाँ चीन में होने वाली ओलंपिक क्वालीफाइंग प्रतियोगिता के लिए मुक्केबाजी के ट्रायल मुकाबले चल रहे थे। इन मुकाबलों में सबसे प्रतीक्षित और महत्वपूर्ण मुक़ाबला निसंदेह 51 किलोग्राम वर्ग के फाइनल का था जो दो बहुत ही प्रतिभावान मुक्केबाज़ों के बीच होना था। ये मुकाबला अनुभव का युवा जोश के बीच होना था।ये मुक़ाबला एम सी मेरी कॉम और निखत ज़रीन के बीच होना था।

एक तरफ 36 साल की वेटेरन मुक्केबाज मेरीकॉम थीं जिन्होंने अब तक भारत के लिए विश्व प्रतियोगिताओं में 6 स्वर्ण सहित 8 पदक जीते हैं ।ये विश्व रिकॉर्ड है। आज तक कोई भी मुक्केबाज़ विश्व मुक्केबाज़ी प्रतियोगिता में इतने पदक नहीं  जीत सका है। यहां तक कि मुक्केबाज़ी की नर्सरी और मुक्केबाजों की खदान कहे जाने वाले देश क्यूबा का कोई मुककबाज़ भी इतने पदक नहीं जीत सका है। इन पदकों के अलावा 2012 के ओलंपिक में कांसे का एक पदक,एशियाड में एक  स्वर्ण सहित दो पदक , एशियाई
मुक्केबाज़ी चैंपियनशिप में 5 स्वर्ण सहित 6 पदक  और कॉमनवेल्थ प्रतियोगिता में 1 स्वर्ण पदक जीता है। निसंदेह वे भारत की सबसे महान खिलाडियों में से एक हैं। ये उपलब्धियां इस तथ्य से और भी ज़्यादा चमकदार हो जाती हैं कि वे उत्तर पूर्व के निर्धन किसान परिवार से हैं। ज़िन्दगी के तमाम संघर्षों के बाद वे इस मुकाम पर पहुंची। सबसे बड़ी बात तो ये कि उन्होंने ये उपलब्धियां उस उम्र में  हासिल कीं जिस उम्र में  विवाह के बाद लड़कियां अपनी इच्छाओं को परिवार के लिए कुर्बान कर देती हैं, अपनी उम्मीदों को दादी नानी की तरह मन के ट्रंक की सबसे निचली तहों में किसी भूली बिसरी चीज़ की तरह संभाल कर रख देती है और महत्वाकांक्षाओं को घर के पिछले कमरे में किसी खूंटी पर पुराने कपड़ों की तरह उतार कर टांग देती हैं।

तो दूसरी तरफ युवा 23 साल की निखत ज़रीन थीं जो 2011 की जूनियर विश्व चैंपियन होने के अलावा इसी साल एशियाई बॉक्सिंग प्रतियोगिता में कांसे का पदक जीत चुकी हैं। वे एक ऐसे समाज से आती हैं जहां कई देशों में खेलना तो दूर स्टेडियम में खेल देखने की आज़ादी नहीं है, कई बार इस तरह के प्रतिबंधों का उल्लंघन करने पर सजाए मौत मुक़र्रर कर दी जाती है। कहीं अगर  खेलने की आज़ादी है भी तो सिर तक हिजाब  ढँकने के बाद। लेकिन ये भारतीय समाज और उनके परिवार की आज़ाद ख़्याली और उनकी खुशकिस्मती थी कि वे खेलों में अपने कॅरियर को आगे बढ़ा सकीं। नहीं तो भारत में भी उनके और सानिया मिर्ज़ा के अलावा और कितने नाम हैं जो गिनाए जा सकते हैं। पिछले दिनों जब अन्तर्राष्ट्रीय मुक्केबाज़ी संघ ने महिलाओं के लिए पोशाक पहनने के नियमों में कुछ ढील दी थी तो ज़रीन ने उम्मीद जताई थी कि अब अधिक लड़कियां बॉक्सिंग में आ सकेंगी।

दोनों ही खिलाड़ियों ने महिलाओं के सामने आने वाली मुश्किलों और बाधाओं को कुछ हद खुद झेला होगा और शिद्दत  से महसूसा होगा। उसके प्रति एक आक्रोश भी उनके मन के किसी कोने में ज़रूर ही पनपा होगा और उस आक्रोश को ही उन्होंने अपनी और अपने खेल की  ताकत बनाया होगा। जब भी वे दोनों रिंग में उतरती होंगी तो शायद उन्हें रिंग की वे रस्सियां बंधन नज़र आती होंगी जिन्हें तोड़ने को वे बेताब होती होंगी और ये बेताबी अपने विपक्षी पर जोरदार प्रहार करने की प्रेरणा देती होगी।

पर कल जब वे दोनों रिंग में उतरीं तो शायद जीत के लिए वो आक्रोश और ज़ज़्बा नहीं बल्कि उनके वे 'अहम' उन्हें परिचालित कर रहे होंगे जो पिछले कुछ महीनों के घटनाक्रम  से उपजे थे। तभी ये मुक़ाबला उन ऊंचाइयों  पर नही पहुंच पाया जहां उसे पहुंचना चाहिए था। और शायद इसीलिए ये बॉक्सिंग से ज़्यादा रेसलिंग का मुकाबला होने वाला था। दरअसल हुआ ये था कि कुछ माह पूर्व भारतीय मुक्केबाज़ी संघ ने 51 किलोग्रामम वर्ग में मेरीकॉम के पिछले प्रदर्शन के आधार पर ट्रायल से छूट देकर सीधे चयन कर लिया था। ज़रीन इसी फ्लाईवेट कैटेगरी में खेलती हैं और उन्होंने उनको ट्रायल से छूट देने पर आपत्ति दर्ज कराई। इससे दोनों के बीच रिंग से बाहर तनातनी हो गई। अंततः भारतीय मुक्केबाज़ी संघ मेरीकॉम को भी ट्रायल में शामिल करने का निर्णय किया। उम्मीद के मुताबिक दोनों के बीच फाइनल हुआ जिसमें मेरीकॉम ने ज़रीन को 9-1 अंकों से हरा दिया।

निसंदेह ये मुक़ाबला जीतकर मेरीकॉम ने ट्रायल से छूट के औचित्य को सिद्ध  किया। 36 साल की उम्रमें उनका  ये हौसला और जज़्बा तथा जीत का के ज़ुनून ही उन्हें  विशिष्ट बनाता है। लेकिन इस मुकाबले के दौरान रिंग के अंदर-बाहर जो कुछ हुआ वो कतई वांछित ना था। मुक़ाबला खत्म होने के बाद जब ज़रीन ने परंपरा के अनुसार हाथ मिलाना चाहा तो मेरीकॉम ने हाथ मिलाने से इनकार कर दिया। मेरीकॉम एक बहुत ही परिपक्व खिलाड़ी हैं। मुझे लगता है उन्हें अपनी जूनियर खिलाड़ी के समक्ष अपना बड़प्पन दिखाना चाहिए था भले ही ज़रीन से कितनी भी शिकायतें क्यों ना हों। हाथ मिलाना वो न्यूनतम शिष्टाचार है जिसे दोनों खिलाड़ियों को निभाना चाहिए होता है। ऐसी घटनाओं से केवल खिलाड़ियों के कद पर ही असर नहीं पड़ता,बल्कि प्रशंसक आहत होते हैं,खेल आहत होता हैं,खेल की मूल भावना आहत होती है। उम्मीद की जानी चाहिए कि ये घटना अपवाद भर होगी और इनकी पुनरावृति नहीं ही होगी।











लम्हे जो समय के बहाव में छूट गए

समय ज़िन्दगी से ठीक वैसे ही फिसलता जाता है जैसे मुट्ठी से रेत।आप चाहे जितना भी रोकने का प्रयत्न करें वो अनवरत अबाध गति से बहता जाता है,रोके नही रुकता। लेकिन बहाव कितना भी तेज हो, कितना भी शक्तिशाली हो,उस बहाव से कुछ अंश छूट ही जाते हैं। जैसे मुट्ठी से सारा रेत फिसल जाने के बाद भी हथेली पर रेत के कुछ चमकीले कण रह जाते हैं और वे छुटाए नहीं छूटते, ठीक वैसे ही आदमी के जीवन से समय के फिसलते जाने के बावजूद समय से टूटकर उसके कुछ टुकड़े आत्मा से चिपक जाते हैं। ये ऐसे क्षण होते हैं जो  बिताए नहीं बीतते और नगण्य होने के बावज़ूद आपके अस्तित्व में सफेद,स्याह और ग्रे रंग भरते रहते हैं,वे स्मृतियों के बियाबान में  जुगनुओं की तरह चमकते रहते हैं।

Friday 27 December 2019

फुटबॉल का वो सुनहरा तीर



अभी हाल ही में अर्जेंटीना के एक खेल टीवी चैनल के साक्षात्कार में अर्जेंटीना के डिएगो माराडोना से जब फुटबॉल के सार्वकालिक महानतम खिलाड़ी के बारे में पूछा गया तो वे अपने देशवासी लियोनेस मेस्सी और ब्राज़ील के पेले के साथ स्वयं को भी धता बताते हुए अर्जेंटीना के ही एक अन्य महान खिलाड़ी अल्फ्रेडो डि स्टेफानो का नाम ले रहे थे। उन्होंने कहा कि 'डि स्टेफानो सर्वश्रेष्ठ था। वो किसी भी अन्य खिलाड़ी से बेहतर था,यहां तक की मुझसे भी।' पेले या फिर मेस्सी के समर्थक इस बात से इत्तेफ़ाक़ भले ही ना रखें,पर फुटबॉल के तमाम जानकार माराडोना के इस कथन की ताईद करते मिलेंगे। इंग्लैंड के महान खिलाड़ी बॉबी चार्लटन ने 1957 में रियाल मेड्रिड के गृह मैदान बेर्नाबु में स्टैंड से इस खिलाड़ी को खेलते हुए  देखा था जिसे बाद में उन्होंने शब्दों में बयां किया कि मैं सोच रहा था 'कौन है ये खिलाड़ी,(वो) गोलकीपर से बॉल कलेक्ट करता है,फुल बैक खिलाड़ियों को निर्देश देता है,मैदान में जहां कहीं भी होता है बॉल लेने की स्थिति में होता है। आप मैदान में हो रही हर गतिविधि पर उसका प्रभाव लक्षित कर सकते हो..... मैंने ऐसा कंप्लीट आज तक नहीं देखा.....आप उस पर से नज़र नहीं हटा सकते।' दरअसल ये 'कंप्लीट' शब्द ही है जो स्टेफानो के इस खेल के महानतम आल राउंडर खिलाड़ी होने की एकदम सही व्याख्या करता है क्योंकि बॉबी कह रहे हैं कि वे गोलकीपर से बॉल कलेक्ट करते हैं और फुल बैक खिलाड़ियों को निर्देश देते हैं,जबकी वे सेन्टर फारवर्ड थे।

वे बहुत ही नफीस और ज़हीन खिलाड़ी थे।कभी उनके वीडियो देखिये कितनी रवानगी और प्यार से बॉल को सहलाते हुए धीरे से बॉल को पुश करते और बॉल गोल पोस्ट के भीतर नेट में झूल जाती। वे ऊर्जा के अजस्र स्रोत थे। स्टेमिना का उनमें अक्षय भंडार था। वे मैदान में हर जगह मौज़ूद होते थे। उनके बारे में रियाल मेड्रिड लीजेंड मिगुएल मुनोज़ कहते हैं 'डि स्टिफानो के बारे में सबसे बढ़िया बात ये है कि जब वो आपकी टीम में होते हैं तो आपके पास हर पोजीशन पर दो खिलाड़ी होते हैं।' यही डि स्टिफानो की ख़ासियत थी कि वो हर पोजीशन पर खेल सकते थे और खेलते भी थे।वे 'टोटल' खिलाड़ी थे।उस समय जब कोई खिलाड़ी अपनी पोजीशन को छोड़कर दूसरी पोजीशन पर खेलने की सोच भी नही सकता था,तब वे बीच मैदान में हर पोजीशन पर खेलते थे। भले ही उन्हें 'टोटल फुटबॉल' का व्याख्याता या अग्रगामी ना माना जाता हो पर वे थे वही  जिसके दम पर आगे चलकर 70 के दशक में रिनुस मिचेल और योहान क्रुयफ़ के नेतृत्व में नीदरलैंड की टीम को अपनाना था और इसे अपनाकर 1974 में फुटबॉल विश्व कप फाइनल्स के फाइनल तक पहुंची थी। वे शानदार ड्रिब्लिंग करते थे और इतनी तीव्रता से गोल की तरफ बढ़ते थे कि उन्हें 'सुनहरा तीर' कहा जाने लगा। सुनहरा इसलिए कि उनके बाल सुनहरे थे। वे मैदान के हर कोने में दिखाई देते। सच में,वे बहती हवा से थे जो मैदान के सारे स्पेस को खुद की उपस्थिति से भर देना चाहते थे  मानो उसके ज़र्रे ज़र्रे से गले लग जाना चाहते हों,घास के एक एक तिनके को छू कर महसूसना चाहते हों। वे ज़्यादा से ज़्यादा बॉल के पास पहुंचना चाहते मानो वे बॉल की परछाईं बनाना चाहते हों या फिर बॉल के आशिक भंवरे की तरह हर समय उसका पीछा कर रहे हों। बॉल के पीछे पीछे। जहां बॉल वहां स्टेफानो।

उनकी कीर्ति,उनकी महानता दो वजहों से  हैं। एक,मैदान में उनकी मौज़ूदगी और खेल पर उनका प्रभाव। वे आला दर्ज़े के फारवर्ड तो थे ही। उन्होंने 1944 से 1966 तक के 22 साल के करियर में 1090 मैचों में 789 गोल किये। इनमें से यूरोपियन कप के 59 मैचों में 49 गोल और रियल मेड्रिड केलिए 282 मैचों में 216 गोल शामिल हैं। इस दौरान एक बार अर्जेंटीना लीग में टॉप स्कोरर रहे,दो बार कोलंबिया लीग में और पांच बार ला लीगा में। साथ ही वे डिफेंडर भी थे और सबसे ऊपर बेजोड़ प्लेमेकर। उन्हें खेल की गहरी समझ थी और रणनीति बनाने में उस्तादों के उस्ताद। दो,अपनी विलक्षण खेल प्रतिभा और समझ से रियल मेड्रिड को बुलंदियों पर पहुंचाना। वे रियल से 1953 में 27 वर्ष की उम्र में जुड़े और 1964 तक उससे जुड़े रहे। इन 11 वर्षों में स्टीफानो  ने रियल को ज़मीन से आसमान पर पहुंचा दिया। 1953 में रियल के लिए पहला ही मैच बार्सिलोना के खिलाफ खेला और रियल ने बार्सिलोना को 5-0 से हराया जिसमें स्टीफानो ने हैट्रिक की। ये रियल का यूरोपीय फुटबॉल की महाशक्ति बनने की ओर पहला कदम था। आसमान की बुलंदियों को छूने के लिए पहली परवाज़ थी। रियल की टीम को अब ऐसा कारीगर मिल चुका तो जो उसे तराशकर एक अनमोल हीरा बना देने वाला था। जो टीम अब तक बहुत ही साधारण सी थी और जिसने पिछले 21 वर्षों में ला लीगा का एक भी खिताब नहीं जीता था उसे स्टीफानो ने अगले 11 वर्षों में 8 बार ला लीगा का चैंपियन बनाया। 1953-54 में अपने पहले ही सीजन में रियल के लिए 28 मैचों में  27 गोल किये और  चैंपियन बना दिया। सिर्फ इतना ही नहीं। 1955 में शुरू होने वाले यूरोपियन कप,जिसे अब चैंपियन लीग के नाम से जाना जाता है,का 1955 से 1960 तक लगातार 5 बार चैंपियन भी बनाया और  स्टीफानो ने पांचों बार फाइनल में गोल किए। 1960 में रियल को पहले इंटरकॉन्टिनेंटल कप का विजेता भी बनाया। 1957 और 1959 में दो बार स्टीफानो को 'बैलन डि ओर' खिताब से नवाजा गया और वो एकमात्र खिलाड़ी हैं जिन्हें 1989 में 'सुपर बैलन डी ओर' खिताब दिया गया। 1960 का यूरोपियन कप का फाइनल एनट्रेख्त फ्रेंकफर्ट के बीच ग्लासगो में सवा लाख दर्शकों के सामने खेला गया था। इस मैच में रियल ने फ्रेंकफर्ट को 7-3 से हराया था। इसे रियल के इतिहास का ही सबसे शानदार मैच नहीं गिना जाता  बल्कि फुटबॉल इतिहास के सबसे शानदार मैचों में शुमार किया जाता है। इसमें रियल की तीन गोल स्टीफानो और चार गोल पुस्कस ने किए थे। इस मैच में स्टीफानो की फुटबॉल की समझ,रणनीतिक चातुर्य और खेल कौशल अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में उपस्थित था। रियल के इतिहास में स्टीफानो के स्थान और महत्व को क्लब के प्रेसिडेंट फ्लोरेंतिनो पेरेज़ की उस टिप्पणी से समझा जा सकता है जो उन्होंने उन्हें श्रध्दांजलि देते हुए की थी कि 'डी स्टीफानो रियल मेड्रिड हैं। उनकी उपस्थिति उनकी क्लब से बड़ी छवि बनाती है कि इस छवि के आस पास भी कोई नहीं पहुंच  सकता।

स्टीफानो का जन्म ब्यूनस आयर्स में 4 जुलाई 1926 को हुआ था। उसके दादा इटली से अर्जेंटीना आये थे। इसलिए जब उन्होंने वहां  फुटबॉल खेलना शुरू किया तो उसमें दक्षिणी अमेरिका की कलात्मकता और आक्रमण का वो कौशल तो आया ही जो यहां के खिलाड़ियों में स्वाभाविक तौर में होता है और जो पेले,माराडोना और मैस्सी जैसे खिलाड़ी पैदा करती है,लेकिन इन खिलाड़ियों से इतर उसमें उस डिफेंस की वो काबिलियत भी आई जो इटली के खेल की जान है,उसकी पहचान है। वो इटली जो अपने बेजोड़ अभेद्य रक्षण के लिए जाना जाता है। रक्षण जो 'कैटेनेसिओ' यानी 'द चेन ' के नाम से जग प्रसिद्द है। रक्षण जिसने जीनो डॉफ और बुफों जैसे गोलकीपर दिए और फ्रैंको बरेसी,पाओलो माल्दीनी,फैबिओ कैनावरो और चेलिनी जैसे डिफेंडर भी। और इस तरह एक स्टीफानो फुटबॉल को मिलता है जो फुटबॉल जीनियस था,अपनी तरह का अकेला,एक कंप्लीट फुटबॉलर।


उनके जीवन में तमाम ऐसी घटनाएं घटी जो सामान्य नहीं थीं। 1953 में उन्होंने कोलंबिया के क्लब मिलोनेरिस के खिलाड़ी के रूप में यूरोप का दौरा किया। वहां उन्होंने शानदार खेल दिखाया और इतने प्रसिद्ध हो गए कि यूरोप के दो सबसे बड़े क्लब रियल मेड्रिड और बार्सेलोना दोनों ने उन्हें अपने क्लब में लाने के प्रयास शुरू कर दिए। उनका हस्तांतरण सबसे चर्चित और विवादास्पद हस्तांतरणों में से एक है। हुआ यूं कि रियल ने कोलंबिया के मिलोनेरिस के साथ समझौता किया तो बार्सिलोना ने उनके मूल क्लब अर्जेंटीना के रिवर प्लेट के साथ। झगड़ा बढ़ा तो मामला स्पेनिश फुटबॉल फेडरेशन में पहुंचा और अंततः इस बात पर सहमति बनी कि स्टीफानो अगले चार सालों तक बारी बारी से एक एक सीजन दोनों क्लब से खेलेंगे। अंततः बार्सिलोना ने अपना अधिकार छोड़ दिया। लेकिन जब पहले ही मैच में स्टीफानो के तीन गोल की मदद से रियल ने बार्सिलोना को 5-0 से हराया तो उन्हें अहसास हुआ होगा कि उन्होंने क्या खोया था। कहा जाता है स्टीफानो के रियल में ट्रांसफर में स्पेन के तानाशाह जनरल फ्रांको ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी क्योंकि वो रियल का समर्थक था। एक और बात। बात 1963 की। रियल मेड्रिड की टीम दक्षिण अमेरिका के प्री सीजन टूर पर थी। 24 अगस्त को वेनेजुएला के विद्रोही दल आर्म्ड फोर्सेज ऑफ लिबरेशन आर्मी ने राजधानी कराकास से डि स्टीफानो का अपहरण कर लिया। हालांकि दो दिन बाद उन्हें बिना नुकसान पहुंचाए विद्रोहियों ने छोड़ दिया और अगले दिन ही उन्होंने साओ पाओलो के विरुद्ध मैच खेला।  

जिस तरह से अपनी तमाम उपलब्धियों के बावजूद मैस्सी के खाते में ये अपूर्णता दर्ज की जाती है कि वे अर्जेंटीना को विश्व कप नहीं दिला सके,ठीक वैसे ही स्टीफानो के खाते में दर्ज है कि तीन देशों का प्रतिनिधित्व करने के बावज़ूद वे एक भी विश्व कप फाइनल्स में नहीं खेल सके। शायद महान लोगों के जीवन इन अपूर्णताओं के लिए अभिशप्त होते हैं या फिर यूं कहें कि ये अपूर्णताएँ खूबसूरत चांद के धब्बों की तरह हैं जो उनकी महान उपलब्धियों पर नज़र के काले टीकों की तरह हैं या फिर ये अपूर्णताएँ इसलिए भी होती हैं कि अविश्वसनीयता की हद तक पहुंचने वाली इन उपलब्धियों में ये मानवीय रंग भरती  हैं और ये अहसास कराती हैं कि वे हमारे बीच के ही एक खिलाड़ी हैं।








Wednesday 4 December 2019

मेस्सी के प्यार में पड़कर



साल के सर्वश्रेष्ठ फुटबॉल खिलाड़ी के खिताब 'बैलन डी ओर' की घोषणा किए जाने से एक दिन पहले रविवार को लियोनेल मेस्सी एटलेटिको मेड्रिड के विरुद्ध मैच खेल रहे थे। मैच खत्म होने में केवल पांच मिनट शेष रहते दोनों टीमें बिना गोल किए बराबरी पर थी कि मेस्सी ने सुआरेज के साथ मिलकर एक शानदार मूव बनाया। मेस्सी लगभग मध्य रेखा से बॉल ड्रिबल करते हुए  पेनाल्टी बॉक्स तक आए, बॉक्स  के बाहर सुआरेज को पास देकर अपने लिए जगह बनाई, सुआरेज ने पास वापस  मेस्सी को दिया और मेस्सी ने बाएं पैर से गेंद जाल में टांग दी। ये दरअसल ना केवल उनकी टीम बार्सिलोना के लिए विजयी गोल था बल्कि अपनी टीम के लिए उनका 614 वां गोल था। इस  मैच के तुरंत बाद रियल मेड्रिड के महान गोलकीपर और क्रिस्टियानो रोनाल्डो के साथी खिलाड़ी रहे इकेर कैसिलास ट्वीट कर मेस्सी को सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी बता रहे थे। प्रकारान्तर से वे शायद ये भविष्यवाणी करना चाह रहे थे कि कल 'बैलन डी ओर' का खिताब मेस्सी को ही मिलने जा रहा है। और फिर अगले दिन इस खिताब के लिए वोटिंग में मेस्सी के बाद दूसरे स्थान पर आने वाले डच खिलाड़ी वर्जिल वान डिक मेस्सी को बधाई देते हुए कह रहे थे "मुझे गर्व है पिछला साल मेरे लिए असाधारण उपलब्धियों वाला रहा , पर दुर्भाग्य ये है कि इस समय मेस्सी जैसे अति मानवीय(unnatural)खिलाड़ी मौजूद हैं।" जब वे ऐसा कह रहे थे तो वे केवल सच्चाई बयां कर रहे थे,अतिशयोक्ति कतई नहीं थी उसमें। निसंदेह मेस्सी हमारे समय के सबसे प्रतिभाशाली खिलाड़ी हैं। हमारे समय के जिन लोगों ने ध्यानचंद या फिर डॉन ब्रेडमैन या फिर पेले को या फिर माइकेल जॉर्डन को सजीव(लाइव) खेलते हुए नहीं देखा है,उन लोगों को मायूस होने की कतई ज़रूरत नहीं है क्योंकि उन्होंने मेस्सी को खेलते हुए देखा है ना। और ऐसा मैं नहीं कह रहा हूँ बल्कि इंग्लैंड के महान फुटबॉल खिलाड़ी गैरी लिनेकर कहते हैं कि "मैं इतना भाग्यशाली हूँ कि अपने ग्रैंड चिल्ड्रन्स को बता पाऊंगा कि मैंने मेस्सी को खेलते हुए देखा है।"

 आखिर मिथक बनते कैसे हैं। यही ना कि उन मिथकीय चरित्र के जीवन में कुछ अविश्वसनीय घटित होता है। 24 जून 1987 को दक्षिण अमेरिकी देश अर्जेंटीना के मध्य प्रान्त सांता फे के मध्यवर्गीय चेतना वाले सबसे बड़े शहर रोसारियो में जन्मे बहुत ही प्रतिभाशाली बालक लियोनेल आंद्रेस मैस्सी को फुटबॉल से प्रेम हो जाता है। परन्तु 10 साल की उम्र होते होते उसे 'ग्रोथ हार्मोन्स डेफिशियेंसी' बीमारी होती है। इसका खर्च ना परिवार उठाने की स्थिति में है और ना आर्थिक मंदी से जूझते देश अर्जेंटीना का कोई फुटबॉल क्लब। तब बार्सिलोना फुटबॉल क्लब के खेल निदेशक कार्ल रिक्सेस उसकी प्रतिभा को पहचानते हैं,उसके साथ अनुबंध करते है और उसके इलाज का प्रबंध  भी। मैस्सी स्पेन आ जाता है। साल था 2000। ये नई सदी की शुरुआत ही नहीं थी बल्कि एक नए मिथक के जन्म लेने की शुरुआत भी थी। मेस्सी में दक्षिण अमेरिकी फुटबॉल की कलात्मकता और एलेगेंस तो जन्मजात थी ही,बस उसमें अब यूरोपीय फुटबॉल की पावर और स्पीड  का ऐसा ब्लेंड हो जाना था जिससे मेस्सी की कलात्मकता में ग़ज़ब की लय और रवानी आ जानी थी और एक सर्वश्रेष्ठ फुटबॉलर का जन्म होना था।
     मेस्सी के इस ब्लेंड को देखना है तो याद कीजिये इस साल मई में खेले गए चैंपियंस ट्रॉफी के सेमीफाइनल के पहले चरण का मैच। बार्सिलोना एफ सी की टीम अपने मैदान कैम्प नोउ में लिवरपूल की टीम को होस्ट कर रही थी। पिछले विश्व कप की असफलता को भुला कर मेस्सी इस सीजन अपने पूरे रंग में आ चुके थे। और अब मैच दर मैच अपना जादू बिखेरा रहे थे। इस मैच से पहले वे इस सीजन 46गोल कर चुके थे। बार्सिलोना को स्पेनिश लीग का खिताब दिला चुके थे। और....और इस मैच में अपने खेल के जादू से पिछले दर्शकों को हिप्नोटाइज़ कर रहे थे और अपने खेल कैरियर का एक और लैंडमार्क स्थापित कर रहे थे। जब 75वें मिनट में अपना पहला और टीम का दूसरा गोल कर रहे थे तो ये अपने क्लब के लिए 599वां गोल था। और उसके बाद 83वें मिनट में मेस्सी का ट्रेडमार्क गोल आया। उनका 600वां गोल दरअसल इससे कम शानदार नहीं ही होना चाहिए था। ये एक फ्री किक थी। वे 35 मीटर दूरी से गोल के लगभग बाएं पोल के सामने से किक ले रहे थे। सामने चार विपक्षी खिलाड़ियों की मजबूत दीवार। गोल पर सबसे महंगे और शानदार गोलकीपर एलिसन मुस्तैद। ये वही एलिसन थे जिन्हें इस वर्ष के सर्वश्रेष्ठ गोलकीपर के लिए याशीन ट्रॉफी मिली है। ये एक असंभव कोण था। लेकिन मेस्सी के लिए नहीं। मेस्सी ने किक ली। बॉल एक तीव्र आर्च बनाती हुए सामने खिलाड़ियों की दीवार के सबसे बाएं खिलाड़ी के ऊपर से गोल पोस्ट के पास जब पहुंची तो एक क्षण को लगा कि बॉल गोलपोस्ट से बाहर। पर ये क्या! बॉल तीक्ष्ण कोण से दांई ओर ड्रिफ्ट हुई और गोल के ऊपरी बाएं कोने से होती हुई जाल में जा धंसी। ये गोल नहीं था। एक खूबसूरत कविता थी जिसे केवल मेस्सी के कलम सरीखे पैर फुटबॉल के शब्दों से विपक्षी गोल के श्यामपट पर लिख सकते थे। दरअसल कोई एक चीज कला और विज्ञान दोनों एक साथ कैसे हो सकती है,इसे मेस्सी के फ्री किक गोलों को देखकर समझा जा सकता है। वे विज्ञान की परफेक्ट एक्यूरेसी के साथ अद्भुत कलात्मकता से अपनी पूर्णता को प्राप्त होते हैं। इस गोल के बाद एक खेल पोर्टल जब ये ट्वीट करता है कि "लिटिल जीनियस डिफाइज लॉजिक" तो आप समझ सकते हैं क्या ही खूबसूरत गोल रहा होगा।और 600 गोल के लैंडमार्क को प्राप्त करने के लिए इससे कम खूबसूरत गोल की दरकार हो सकती है भला। दरअसल यही मेस्सी का जादू है जो सर चढ़ कर बोलता है।
 असाधारण प्रतिभा वो होती है जो किसी सजीव चीज में ही नहीं निर्जीव में भी जान फूंक दे। बैजू बावरा और तानसेन के बारे में कहा जाता है कि वे जब गाते तो वे अपने गायन से दीपक जलास देते   या फिर वर्षा करा देते। ये उनके संगीत और प्रतिभा का कमाल था। ध्यानचंद के बारे में कहा जाता है कि वे इतनी कमाल की ड्रबलिंग किया करते थे कि बॉल हमेशा स्टिक से चिपकी रहती थी। आप इसको यूं भी कह सकते हो कि उनके असाधारण खेल से मंत्रमुग्ध हो वो गेंद ही उनकी स्टिक से अलग ही ना होना चाहती हो या फिर क्रिकेट बॉल डॉन ब्रेडमैन के खेल पर रीझ कर हर बार उनके बल्ले के स्वीट स्पॉट पे आकर उनके बल्ले के उस स्वीट स्पॉट की आवाज पर झूम झूमकर मैदान में चारों और बिखर जाना चाहती हो। और फिर ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि फुटबॉल खेल की हर चीज मेस्सी के प्यार में ना पड़ गयी हो। फिर वो गेंद हो या गोल पोस्ट। मैदान की लाइन्स हो या घास या फिर स्वयं मैदान ही क्यों ना हो। और ये सब अपने महबूब की हार पर दुखी और महबूब की जीत पर खुश होते होंगे तो और क्या करते होंगे। याद कीजिए रूस में तातारिस्तान की राजधानी कजान  में खेले गए विश्व कप फुटबॉल का वो प्री क्वार्टर फाइनल मैच जिसमें अर्जेंटीना फ्रांस से हार कर विश्वकप से बाहर हो रहा था। वो शाम जो कयामत की शाम थी जिसमें लोगों ने एक क्लासिक मैच देखा। उन्होंने उम्मीदों के उफान को देखा और उसे बहते हुए भी देखा। लोग अर्जेंटीना को मेस्सी के लिए जीतता देखना चाहते थे तो खुद मेस्सी अर्जेंटीना के लिए जीतना चाहता था। मेस्सी ने अपना सब कुछ झोंक दिया। उसने कुल मिला कर दो असिस्ट किये। लेकिन अर्जेंटीना और जीत के बीच 19 साल का नौजवान एमबापा आ खड़ा हुआ। उसने केवल दो गोल ही नहीं दागे बल्कि एक पेनाल्टी भी अर्जित की। उसकी गति के तूफ़ान में अर्जेंटीना का रक्षण तिनके सा उड़ गया। मेस्सी का अर्जेंटीना 4 के मुकाबले 3 गोल से हार गया। लोगों की उम्मीदें हार गई। हताश निराश मेस्सी मैदान से बाहर निकले तो एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। मानो वे इस असफलता को पलटकर देखना ही नहीं चाहते थे। और तब मेस्सी के प्यार में पड़ी तमाम चीजे दुख में भीग भीग जा रही थीं। निश्चित ही उस दिन बहते  आंसुओं से कज़ान के वातावरण में कुछ ज़्यादा नमी रही होगी,कराहों से हवा में सरसराहट कुछ तेज हुई होगी,हार की तिलमिलाहट से सूरज का ताप कुछ अधिक तीखा रहा होगा,दुःख से सूख कर मैदान की घास कुछ ज़्यादा मटमैली हो गयी होगी और कजान एरीना से बाहर काजिंस्का नदी वोल्गा नदी से गले लग कर जार जार रोई होगी। यकीन मानिए जब  मेस्सी का कोई शॉट गोल पोस्ट मिस करता होगा  तो गोल पोस्ट उस दिशा में ना खिसक पाने का मलाल करता होगा। या फिर जब उसके शॉट्स मैदान से बाहर जा रहे होते है तो ज़रूर लाइन्स मन मसोस कर रह जाती होंगी कि क्यों ना हम थोड़ा सा दांई या बांई ओर खिसक गए। और फिर उन गेंदों का क्या जिनको मेस्सी के पैरों ने छुआ ही नहीं, उन गोलपोस्ट्स का क्या जिनमें मेस्सी गोल नहीं दाग पाए और उन फुटबॉल मैदानों  का क्या जहां मेस्सी ने कभी खेला ही नहीं।
फिलहाल तो मेस्सी के प्यार में पड़े वे सारे फुटबॉल मैदान , वो गेंद, वो गोलपोस्ट्स, वो फिजाएं उल्लास में डूब डूब जा रहे होंगे जो मेस्सी को छठवीं बार 'बैलन डी ओर' जिताने के सहभागी बने और जो उस के भागी नहीं बन सके वे भविष्य में इसके जादू को महसूसने को लालायित हो रहे होंगे।
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मैस्सी को 6 बैलन डी ओर' खिताब जीतने पर बहुत बधाई।

Sunday 22 September 2019

पंघल के पंच



रूस के एकातेरिनबर्ग में विश्व बॉक्सिंग चैंपियनशिप में 52 किलोग्राम वर्ग में अमित पंघल ने अपना पहला ही मुकाबला जीता था कि उन्होंने  प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को जन्मदिन की बधाई देते हुए ट्वीट किया कि वो पदक जीत कर उनके(प्रधानमंत्री) हाथों से केक खाएंगे। उनका ये विश्वास दरअसल उनकी कड़ी मेहनत और 2017 से अब तक उनको मिली अभूतपूर्व सफलता से उपजा था। उस विश्वास को उन्होंने टूटने नहीं दिया और इस विश्व प्रतियोगिता में रजत पदक प्राप्त किया। वे विश्व मुक्केबाजी प्रतियोगिता के फाइनल में पहुंचने वाले पहले भारतीय मुक्केबाज बने। 

और जब वे फाइनल में ओलंपिक चैंपियन उज्बेकिस्तान के शाखोबिदिन जोइरोव से हारे तो वे लड़कर हारे और कड़े संघर्ष के बाद हारे। हारने के  बाद वे एक बार फिर दुनिया से कह रहे थे'मेरे पंच थोड़े से कमज़ोर रहे। मैं अपनी कमजोरी जनता हूँ और उन पर काम करूंगा। जब जोइरोव से अगली बार मुकाबला होगा तो मैं जोइरोव को  हराऊंगा।' जब वे ऐसा कह रहे थे तो निश्चित रूप से ये उनका बड़बोलापन नहीं था बल्कि ये भी उसी उनकी योग्यता,अनथक परिश्रम और हालिया सफलताओं से उपजा आत्मविश्वास था जिसके बल पर वे सफलता के इस मुकाम पर अब तक पहुंचे हैं। महत्वपूर्ण बात ये है कि वे अपनी जीत से अपनी कमियों को विस्मृत नहीं करते और अपनी हार से मायूस या हतोत्साहित नहीं होते बल्कि उसके उलट उससे सबक लेते हैं और अपनी सफलता की सीढ़ी बना लेते हैं। 

23 साल का ये युवा सैनिक इस हद तक अभ्यास करता है कि कोच को 'बस भी कर' बोलना पड़ता है। उनका ये जूनून निश्चित ही एक सुनहरे भविष्य की आश्वस्ति देता है। 
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यानि केवल लुहार और सुनार के प्रहारों से ही तमगे नहीं बनते हैं बल्कि पंघल जैसे मुक्केबाजों के दमदार मुक्कों से भी ये तमगे आकार लेते हैं।
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अमित पंघल को बहुत शुभकामनाएं।

Saturday 14 September 2019

ये आपकी अपनी ज़िंदगी के खोए पन्नों के पते हैं



              सुश्री मीनू खरे विज्ञान में प्रशिक्षित हैं और लंबे समय से आकाशवाणी में कार्यरत हैं। निश्चित ही इन दोनों ने उनके स्वयं को अभिव्यक्त करने के तरीके को परिष्कृत और परिमार्जित किया होगा और एक दिशा दी होगी। शायद यही कारण है कि वे बड़ी से बड़ी बात को भी कम से कम शब्दों में कहना पसंद करती हैं और कहती भी हैं। और इसीलिये जब उन्होंने अपने अंतस को अभिव्यक्त करना चाहा तो इसके लिए  कहने की सबसे छोटी फॉर्म हाइकू को चुनती हैं जो उसके सबसे अनुकूल था। सोने पे सुहागा ये कि वे संगीत में प्रशिक्षित हैं जो उनकी संवेदना को ना केवल रागात्मकता प्रदान करता है बल्कि उनकी संवेदना को तीक्ष्णता और सूक्ष्मता भी प्रदान करता है। 
               वे लिखती हैं 'विशाल पुल/और नीचे बहती/ सूखी सी नदी' तो क्या ही ख़ूबसूरत बिम्ब बनाती हैं। एक तरफ वे उस यथार्थ को बयां कर रही होती हैं कि किस तरह हमारी बड़ी बड़ी नदियां मर रहीं हैं,बरसात को छोड़ कर बाकी समय उनमें पानी ना के बराबर होता है और उनके चौड़े पाटों पर बने विशाल पुल निरर्थक से लगते हैं। लेकिन उसी समय वे एक और गंभीर बात भी कह रही होती हैं कि किस तरह मनुष्य अंदर से खोखला होता जा रहा है,संवेदनहीन होता जा रहा है,उनकी संवेदनाएं सूख रही हैं और दूसरी तरफ भौतिक उपादानों से  बाह्याडंबर के विशाल पुल निर्मित कर रहा होता है। दरअसल वे एक बहुत ही पैनी,सूक्ष्म और चौकन्ना दृष्टि अपने आस पास घट रही घटनाओं पर और साथ ही अपने समय की विसंगतियों और विद्रूपताओं पर रखती हैं, उसे महसूसती हैं और अभिव्यक्ति देती हैं। उनकी इन अभिव्यक्तियों  का पता है उनका अभी हाल ही में आया संग्रह 'खोयी कविताओं के पते'। इस संग्रह में अनेकानेक विषयों पर रचित हायकू हैं। किसी भी संवेदनशील व्यक्ति की सबसे पहले नज़र अपने आस पास के वंचित,शोषित,मज़दूर की तरफ जाती है और वे जब भी उनकी तरफ देखती हैं कुछ मार्मिक रचती हैं- 'रोटी गोल थी/मुफ़लिसी नुकीली/चुभी पेट में' या फिर  'बोझ नहीं ये/कई पेट हैं लड़े/सिर पर मेरे'। इसे पढ़ते हुए अनायास ही स्व. नंदल हितैषी की कविता रिक्शावाला याद आ जाती है। वे लिखते हैं- 'रिक्शा पैर से नहीं पेट से चलती है'। वे सामाजिक सरोकारों से हमेशा जुड़ी रहीं,केवल लेखन के स्तर पर ही नहीं बल्कि व्यावहारिक स्तर पर भी। उन्होंने इन मुद्दों पर रेडियो के लिए तमाम प्रोग्राम भी बनाए और पुरस्कृत भी हुए। वे लिखतीं हैं-'बिटिया रानी/कभी गेट से विदा/कभी पेट से' या फिर 'कामकाजी स्त्री/दो नावों में सवार/फिर भी पर' या फिर 'बड़ी उदासी/ हैं सात समंदर/ धरती प्यासी'। 
               उनकी अभिव्यक्ति की रेंज बहुत ही विस्तृत है। वे हर समसामयिक विषय और समस्याओं पर लिखती हैं बहुत ही खूबसूरती से लिखती हैं।उनका संग्रह'खोयी कविताओं के पते' दरअसल आपकी अपनी ज़िंदगी के खोए पन्ने के पते हैं। जब आप इन कविताओं को पढ़ रहे होते हैं तो आप अपने आस पास के परिवेश को महसूस रहे होते हैं और खुद अपने ज़िन्दगी के खोए पन्नों के पतों से रूबरू हो रहे होते हैं। 
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इन पतों को एक बार ढूंढने का प्रयास आप भी जरूर करें।

Tuesday 10 September 2019

राफा द ग्रेट



रविवार की रात को न्यूयॉर्क के आर्थर ऐश स्टेडियम में  33 साल के राफेल नडाल और उनसे 10 साल छोटे 23 साल के डेनिल मेडवेदेव जब यूएस ओपन के फाइनल में आमने सामने थे तो ये केवल एक फाइनल मैच भर नहीं था बल्कि समय के दो अंतरालों के बीच द्वंद था,बीतते जाते और और आने वाले के बीच रस्साकशी थी, पुराने और नए के बीच संघर्ष था,दरअसल ये अनुभव और युवा जोश के बीच का महासंग्राम था। आने वाले नए के पास पर्याप्त समय होने से उपजी बेपरवाही तो है पर स्वयं को स्थापित करने की आतुरता भी है लेकिन बीतते जाते पुराने में मुट्ठी से समय रेत की तरह फिसलते जाने के अहसास से उपजी अधीरता है। उसमें बीतते समय के साथ चीज़ों को दोनों हाथों से समेटते जाने की लालसा है और वो हर चीज़ को पूरे जोश और जूनून से समेट लेने की  चाहना है,लालसा है। दरअसल  एक खिलाड़ी के जीवन में 30 साल की उम्र एक ऐसी विभाजक रेखा है जहां से उसकी ढलान शुरू हो जाती है। और तब खिलाड़ी के भीतर शीघ्रातिशीघ्र बहुत कुछ सिद्ध करने का एक आग्रह पैदा होता है। कुछ खिलाड़ियों के भीतर का ये आग्रह आग बन जाती है और तब राफेल नडाल और रोजर फेडरर और हां जोकोविच जैसे खिलाड़ी खेल दुनिया को मिलते हैं।

जोकोविच(32साल),राफा(33साल)और फेडरर(38साल) तीनों ने मिलकर इस शताब्दी के 19 सालों में 55 ग्रेंड स्लैम अपने नाम किये हैं और इनमें से 13 खिताब 30 साल की उम्र के बाद। पिछले 12 ग्रैंड स्लैम इन तीनों ने ही जीते। इन 12 फाइनल मुक़ाबलों में केवल चार बार 1990 के बाद जन्मे खिलाड़ी फाइनल में चुनौती देने में सक्षम हुए पर हर बार उन्हें मुँह की खानी पड़ी। दरअसल इन तीनों खिलाड़ियों की प्रतिभा और अनुभव का आभामंडल इतना प्रकाशवान है कि जो भी उनकी तरफ नज़र भरकर देखता है उसकी आंखें इस कदर चुंधिया जाती हैं कि उसे कोई रास्ता ही नहीं सूझता और असफलता के बियावान में भटक जाता है।

तो बात कल के मैच की। ये फाइनल ग्रैंड स्लैम के सबसे शानदार मैचों में एक था। 4 घंटे 52 मिनट चले इस मैच की अवधि ही इस संघर्ष की तीव्रता और गहनता का वक्तव्य है। ये यूएस ओपन के फाइनल का दूसरा दूसरा सबसे लंबा मैच था। मेडवेदेव ने पहले ही गेम में ब्रेक पॉइंट लेकर अपने इरादे ज़ाहिर कर दिए थे और तीसरे गेम में राफा की सर्विस ब्रेक भी कर दी। लेकिन अगले ही गेम में राफा ने मेडवेदेव की सर्विस ब्रेक कर दी तो लगा कि दर्शकों को कैसा शानदार मैच मिलने जा रहा है। हालांकि जब राफा ने पहले दो सेट जीत लिए तो लगा कि यहां भी कनाडा ओपन की कहानी दोहराई जाने वाली है जहाँ राफा ने फाइनल में मेडवेदेव को 6-3,6-0 से हरा दिया था। मैच समाप्ति के पश्चात इंटरव्यू में मेडवेदेव ने कहा कि कि इस स्टेज (दो सेट से पिछड़ने के बाद)पर आकर वे रनर्स अप स्पीच के बारे में सोचने लगे थे।यानी उस समय उन्हें लग गया था कि अब उनके पास कुछ खोने के लिए कुछ नहीं है और शायद इस निश्चिंतता ने ही उनके खेल को एक उचांई की और ले जाने में मदद की होगी और अगले दो सेट उन्होंने जीतकर बताया कि एक महीने के अंदर सेंट लॉरेंस नदी से लेकर हडसन नदी तक बहुत पानी बह चुका है और अब अब वे वो नहीं रहे जो मांट्रियल में थे।वे बेहतर तैयारी के साथ और हार्डकोर्ट पर 22-2 के इस साल के सबसे सफल खिलाड़ी के रूप में फ्लशिंग मीडोज पहुंचे थे। तभी तो 5वें और अंतिम सेट में 5-2 से पिछड़ने के बाद भी उन्होंने हार नही मानी और 5-4 के स्कोर के बाद 10वें गेम में ब्रेक पॉइंट लेकर स्कोर 5-5 कर ही दिया था कि राफा का अनुभव काम आया और अभी तक एकदम बराबरी को अपने पक्ष में मोड़ दिया। अंततः राफा ने 7-5,6-3,5-7,4-6,6-4 से मैच जीतकर एक इतिहास की निर्मिति की। हां इस मैच ने पुराने को बताया कि नए का आगमन बस कुछ समय का फेर है तो पुराने ने नए से कहा देखा पुराने को खारिज किया जाना कितना कठिन होता है।


जो भी हो 33 वर्ष की उम्र में राफा की 19वीं ग्रैंड स्लैम जीत अविस्मरणीय है जो फेडरर की सर्वाधिक 20 जीतों से एक कम है। जिस तरह से राफा अभी खेल रहे हैं आने वाले समय में वे कई और ग्रैंड स्लैम जीतने वाले हैं,ये तय है। दरअसल उन्होंने अपने खेल में समयानुरूप परिवर्तन किए हैं। समय की शानदार शिड्यूलिंग की है। और चोटों से उबर कर शानदार वापसी की है। 

जो भी हो राफा, फेडरर और जोकोविच ऐसे विशाल वटवृक्ष हैं जिन्होंने अपनी प्रतिभा और अनुभव की छांव से पूरे टेनिस जगत को इस तरह से घेर रखा है कि नवोदित खिलाड़ियों को उनकी छाया से बाहर आने और स्वयं को मजबूत दरख़्त बनाने में  लंबी जद्दोजहद करनी पड़ेगी।

फिलहाल तो राफा को 19वीं जीत मुबारक और ये भी कि जीत की संख्या की ये बाली (टीन)उम्र खत्म होने को है और इस संख्या को युवावस्था में पहुंचाने की अग्रिम शुभकामनाएं कबूल हों।

Sunday 8 September 2019

ये नए के आने और पुराने के जाने की पदचाप है!




ये नए के आने और पुराने के जाने की पदचाप है!
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जिस तरह अभी हाल ही में 13 जून को  कनाडा की टीम टोरंटो रप्टर्स ओकलैंड के ओरेकल अरीना में तीन बार की चैंपियन गोल्डन स्टेट वारियर्स की मेजबान टीम को छठे गेम में हरा कर पहली बार एनबीए का खिताब जीतने के कारनामे को अंजाम दे रही थी,ठीक उसी तरह 19 साल की बियांका अन्द्रीस्क्यु कनाडा के लिए एक और इतिहास रच रही थीं। वे आर्थर ऐश सेन्टर कोर्ट में अमेरिका की सेरेना विलियम्स को 6-3,7-5 से हरा कर केवल अपना पहला ग्रैंडस्लैम ही नहीं जीत रही थीं बल्कि कोई ग्रैंड स्लैम जीतने वाली पहली कनाडाई खिलाड़ी भी बन रही थीं। जो हैशटैग #wethenorth रप्टर्स के साथ लोकप्रिय हुआ था वो अब बियांका के लिए #shethenorth के नाम से नए सिरे से ट्रेंड और लोकप्रिय हो चला है।

बियांका केवल एक इतिहास ही नहीं रच रही थीं बल्कि वे फिर फिर इतिहास को दोहरा रही थीं। वे रप्टर्स की तरह अमेरिका में मेजबान प्रतिद्वन्दी को हराकर पहली कनाडाई होने का कारनामा दोहरा रही थीं तो वे पिछले साल के फाइनल को भी दोहरा रही थीं। याद कीजिये 2018 के फाइनल में बियांका की तरह ही युवा ओसाका ने सेरेना को हरा कर उनको 24वां ग्रैंडस्लैम  जीतने से ही नहीं रोका था बल्कि ग्रैंडस्लैम जीतने वाली पहली जापानी खिलाड़ी बनी थीं। दोनों बार अनुभव पर जोश भारी पड़ा। जिस समय 1999 में सेरेना ने अपना पहला ग्रैंड स्लैम जीता था उस समय बियांका ने जन्म भी नहीं लिया था। और ये भी आपके सपने पूरे तभी होंगे जब उन्हें देखोगे और प्रयास करोगे। बियांका प्रेस वार्ता में बता रही थीं कि 15 साल की उम्र में उन्होंने यूएस की जीत की राशि का एक फेक चेक स्वयं से भरकर अपने पास रखा हुआ है तो शायद उन्हें इस बात का अनुमान हो चला था कि जल्द ही 3.5 मिलियन डॉलर राशि का असली चेक भी उनके हाथ आने वाला है।

बियांका की ये जीत इसलिए भी उल्लेखनीय है कि पिछले साल वे इस प्रतियोगिता के लिए क्वालीफाई भी नहीं कर सकी थीं। लेकिन इस साल फरवरी से वे शानदार फॉर्म में चल रहीं हैं। दरअसल उन्होंने सेरेना को उनके हथियारों से ही मात दी। उन्होंने सर्व और वॉली का शानदार खेल दिखाया। उन्होंने सेरेना की तरह तेज़ सर्विस की और बहुत ही शक्तिशाली फोरहैंड वॉली लगाईं। उन्होंने पहला सेट आसानी से 6-3 से जीत लिया।उसके बाद दूसरे सेट में भी 5-1 से आगे थीं और 40-30 पर चैंपियनशिप के लिए सर्व कर रहीं थीं जिसे सेरेना ने अपने शानदार फोरहैंड शॉट से बचा लिया। इस एक शॉट ने सेरेना में जान डाल दी और सेरेना ने अगले चार गेम जीतकर स्कोर 5-5 की बराबरी पर ला दिया। अब लगा कि सेरेना गेम में वापसी कर चुकी हैं। सेरेना ऐसा पहले कई बार कर चुकी थीं। पर बियांका ने अपना संयम बनाये रखा।उन्होंने अगले दो गेम ही नहीं जीते बल्कि एक इतिहास रचा और एक इतिहास बनने से रोक दिया।युवा जोश से अनुभव हार गया। पुराने ने नए को रास्ता दिया। और पिछले पांच सालों में यूएस चैंपियनशिप को महिला वर्ग में पांचवा चैंपियन मिला।

बियांका को जीत मुबारक!
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तो फिर सेरेना का क्या?

सेरेना के हिस्से एक बार फिर निराशा हाथ लगी! वे एक बार फिर 24वां ग्रैंड स्लैम जीत कर मार्गरेट कोर्ट की बराबरी करने में असफल रहीं। पर वे असफल भर हुईं पिछले तीन बार के तरह। 2017 में बच्चे को जन्म देने के बाद उन्होंने कोर्ट पर वापसी की। इन दो सालों में चार बार ग्रैंड स्लैम के फाइनल में पहुंची(2018/2019 के विम्बलडन और यूएस ओपन में)पर हर बार हार गईं। वे हारीं,पर हारने से कुछ नहीं होता,हार मानने से होता है। और उन्होंने हार मानी क्या? उन्होंने कहा कि वो फिर लौटकर आएंगी। दरअसल वे अफ्रीकी अमेरिकन समुदाय के संघर्ष और जिजीविषा का प्रतिनिधि चेहरा हैं जिसे उस समुदाय ने अमेरिका में पिछले 500 सालों में रहते हुए दिखाया है। पहले अफ्रीकी अमेरिकन ग्रैंडस्लैम विजेता आर्थर ऐश के नाम वाला ये टेनिस अरीना दरअसल अफ्रीकी अमेरिकनों के जीवन का शाहाकार सा प्रतीत होता है और जब भी कोई अफ्रीकी अमेरिकन वहां खेलता है तो उसके हाथ में थमा रैकेट किसी माउथ ऑर्गन सा लगता है जिससे एफ्रो अमेरिकन के चट्टानी जीवन का ब्लूज संगीत निसृत होता रहता है।

निसंदेह सेरेना चैंपियन खिलाड़ी है। वो एक दिन फिर लौटकर आएगी,चैंपियन की तरह चैंपियन बनकर।
से

सेरेना को शुभकामनाएं!
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तो क्या समय फिर लौट कर आएगा!

Sunday 25 August 2019

हौंसलों की ये उड़ान बरकरार रहे


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भारतीय समाज की एक बहुत ही सुस्थापित परंपरा है किसी भी विशेष अवसर अपने निकटस्थ लोगों को स्वर्णाभूषण भेंट करने की। और आज जब अपनी माँ के जन्मदिन पर पुसरला वेंकट सिंधु   विश्व विजेता बनकर अपनी मेहनत से अर्जित सोने के तमगे को मां के माथे सजा रहीं थीं तो किसी खिलाड़ी द्वारा मां को दी गई इससे खूबसूरत
भेंट और कुछ नहीं हो सकती थी।
  
स्विट्ज़रलैंड की खूबसूरत वादियों में  बसे बासेल शहर में सिंधु जब विश्व बैडमिंटन चैंपियनशिप के फाइनल में जापान की नोजोमी ओकुहारा को 21-7 और 21-7  हरा रही थीं तो हौंसलों,संघर्ष,लगन,परिश्रम और प्रतिभा से लिखी जा रही एक लंबी कथा की अनेक उपकथाओं में से सबसे महत्वपूर्ण उपकथा का एक खूबसूरत उपसंहार लिख रही थीं। दरअसल ये उपकथा 2017 में ग्लासगो में शुरू हुई थी और वाया नानजिंग बासेल पहुंची थी। और इस खूबसूरत उपसंहार के लिए राइन नदी के किनारे बसे बासेल जैसी खूबसूरत जगह से बेहतर जगह और कौन सी हो सकती थी।

2017 की विश्व चैंपियनशिप ग्लासगो में हुई थी और फाइनल सिंधु और ओकुहारा के बीच खेला गया था। ये ऐतिहासिक और अद्भुत मैच था। 111 मिनट चला ये मैच अब तक का सबसे लंबा मैच था जिसमें बैडमिंटन खेल अपनी संपूर्णता में उपस्थित था। इसमें दोनों खिलाड़ियों के कौशल,प्रतिभा,क्षमता,तकनीक,स्टेमिना,धैर्य का श्रेष्ठ निदर्शन था। उस मैच में एक रैली 73 शॉट्स की थी। इतने शॉट्स में तो कई बार पूरा गेम ही खत्म हो जाता है। एक अन्य रैली 53 शॉट्स की थी। उस मैच का स्कोर ओकुहारा के पक्ष में था 21-19,20-22 और 22-20। तकनीकी रूप से वहां ओकुहारा जीती ज़रूर थीं,लेकिन अगर आप स्कोर पर एक नज़र डालें तो समझ आएगा कि दरअसल ये एक अनिर्णीत संघर्ष था जिसे आगे जाकर खत्म होना था। उसके बाद 2018 में नानजिंग एक बार फिर सिंधु  कारोलिना मारन से फाइनल में हार गईं। और तब 2019 में बासेल आया। यहां का फाइनल 2017 के ग्लास्गो के फाइनल का रेप्लिका था। पुसरला वेंकट सिंधु और नोजोमी ओकुहारा के मध्य। ये मैच बिल्कुल वहीं से शुरू हुआ जहां ग्लास्गो में खत्म हुआ था या यूं कहें अनिर्णीत छूटा था। यहां पहले ही पॉइंट के लिए 22 शॉट्स की रैली हुई। ये अंक जीता ओकुहारा ने। लगा यहां भी ग्लास्गो दोहराया जाने वाला है। लेकिन सिंधु कुछ और ही तय करके आईं थीं। ओकुहारा को अगला अंक जीतने के लिए 8 अंकों तक इंतज़ार करना पड़ा। तब स्कोर हुआ 8-2 और उसके बाद 16-4 और फिर 21-7 सिंधु के पक्ष में। दूसरे गेम की कहानी भी अलग नहीं थी।दूसरा गेम भी 21-7 से जीत कर सिंधु ने  बताया कि मैच कैसे खत्म किया जाता है।5 फुट 11 इंच लंबी सिंधु ने अपने कद की भांति खेल के स्तर को भी इतना ऊंचा उठा दिया कि प्रतिपक्षी एकदम बौना होकर रह गया। सिंधु ने पूरे मैच में बहुत ही आक्रामक खेला। उन्होंने ओकुहारा को डीप थर्ड में खिलाया और बीच कोर्ट से पूरे खेल को नियंत्रित किया। ओकुहारा ने नेट पर सिंधु की कमज़ोरी का फायदा उठाने की कोशिश की। पर सिंधु ने नेट पर भी कोई मौका प्रतिद्वंदी को नहीं दिया। और अपने तमगे के  रुपहले रंग को सुनहरे रंग में तब्दील कर दिया। ये 2017 के अनिर्णीत मैच का निर्णायक अंत था। 

दरअसल खेल में या तो आप अपनी मेहनत से दक्षता अर्जित करते हैं या आपमें जन्मजात प्रतिभा होती है। अर्जित दक्षता वाले खिलाड़ी के प्रदर्शन में एक निरंतरता रहती है।उसके प्रदर्शन में ऊंच नीच कम रहती है। लेकिन जन्मजात प्रतिभावान खिलाड़ी के प्रदर्शन निरंतरता की कमी होती है। सिंधु एक ऐसी ही प्रातिभावान खिलाड़ी हैं। वे अक्सर शानदार प्रदर्शन करते करते अचानक से महत्वपूर्ण मौके पर चूक जातीं।
लेकिन इस समय वे खेल के चर्मोत्कर्ष पर हैं।आपको याद होगा इससे पहले इंडोनेशिया ओपन के क्वार्टर फाइनल में ओकुहारा को 21-14,21-7 से और सेमी फाइनल में चेन यू फेई को 21-19,21-10 से रौंद दिया था,हालांकि वे फाइनल में यामुगुची से हार गई। जो शानदार प्रदर्शन उन्होंने इंडोनेशिया में किया था वो उन्होंने यहां जारी रखा। यहां सेमी फाइनल में चेन युफेई को 21-7,21-14 से और फाइनल में ओकुहारा को 21-7,21-7 से निर्ममता से रौंद डाला।

दरअसल ये सिंधु की प्रतिभा का विस्फोट है जिसमें चीन और जापान की इस खेल में बादशाहत,महानऔर समृद्ध परंपरा और दर्प चूर चूर होकर बिखर गया और धूल धुसरित हो गया। और उसके विध्वंस पर भारतीय बैडमिंटन के  नए युग का आरंभ होगा। और बासेल और स्विट्जरलैंड के लिए सिर्फ इतना ही कि उन्होंने ये सोचा और समझा कि सिंधु के पास रुपहला रंग पहले से बहुतायत में है और खुद उनके यहां भी पहाड़ों पर बर्फ की चादर पर पसरा रुपहला रंग भी बहुतायत में है तो क्यों ना उस रुपहली चादर पर सूर्य की किरणों से जो सुनहरा रंग छिटका छिटका फिरता है,उसे बटोर कर अपने इस खूबसूरत मेहमान को भेंटकर विदा किया जाय।
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सिंधु को ये अविस्मरणीय जीत मुबारक!

Tuesday 6 August 2019


दरअसल ये उठे हुए हाथ भारतीय बैडमिंटन की सबसे बड़ी आश्वस्ति की तरह हैं कि 'हम हैं ना'.जिस समय साइना अपनी यात्रा का द्रुत पूरा कर चुकी हों और श्रीकांत व सिंधु अपने सम पर आकर द्रुत में आने की लय खोज रहे हों उस समय इस जोड़ी का विलंबित से उठान आपको आश्वस्त करता है कि ऊंचाइयों का एक बेहद खूबसूरत संगीत आपके दिलोदिमाग पर छा जाने वाला है।
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सात्विक-चिराग की जीत मुबारक! हिप हिप हुर्रे!

Tuesday 23 July 2019


पुसरला वेंकट सिंधु निसंदेह भारतीय बैडमिंटन की एक  बड़ी उपलब्धि हैं जिन्होंने बैडमिंटन को नई ऊँचाई तक पहुंचाया है। लेकिन अपनी तमाम खूबियों और विशेषताओं के बावजूद वे एक अपूर्ण खिलाड़ी हैं। उनके खेल में निरंतरता की बेहद कमी हैं। वे पैचेज में बेहतरीन खेलती हैं। वे एक दिन बहुत अच्छा खेलेंगी और अगले दिन उतना ही बुरा। वे अक्सर ही महत्वपूर्ण मुक़ाबले में हार जाती हैं। आप चाहें तो उन्हें चोकर कह सकते हैं।

अभी हाल ही में सम्पन्न इंडोनेशिया ओपन इसका बड़ा उदाहरण है। पहले दो मुक़ाबलों में अनसीडेड खिलाड़ियों के विरुद्ध संघर्ष करती दिखाई दीं।पहले राउंड में ओहोरी को 11-21,21-15,21-15से जीतीं तो दूसरे राउंड में ब्लिचफेल्ट को 21-19,17-21,21-11 से जीतीं। उसके बाद वे गज़ब का शानदार खेलीं। क्वार्टर फाइनल में उन्होंने तीसरी सीड नोजोमो ओकुहारो को 21-14,21-7 से रौंद डाला। इतना ही नहीं उसके बाद सेमीफाइनल में भी उन्होंने दूसरी सीड चेन युफेई को भी आसानी से 21-19,21-10 से हरा दिया। और जब ये लगाने लगा कि अब वे इस साल का पहला खिताब जीत लेंगी तो फाइनल में बहुत ही आसानी से 15-21,14-21 से अकाने यामागुची से  हार गईं जिनसे  पिछले 4 मैच लगातार जीते थे।

शायद ये अपूर्णता ही सिंधु के खेल की खूबसूरती है कि तकनीकी के इस युग में वे मशीन नहीं बन सकीं।


ये लड़की तो पारस है


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कभी आप राष्ट्रिय राजमार्ग 37 से गुवाहाटी से पूरब की तरफ जोरहाट की यात्रा कीजिए। पूरे रास्ते दोनों तरफ दूर दूर तक धान के खेत और चाय के बागानों की कभी ना खत्म होने वाली एक गहरी हरियाली और उसके पार समानांतर चलती पहाड़ों की श्रृंखला से समृद्धि के साथ चलते कॉरीडोर का भ्रम उत्पन्न होता है। भ्रम इसलिए कि पहली नज़र में आपको उस हरियाली के नीचे अभावों,गरीबी,दुखों और शोषण का स्याह रंग दिखाई नहीं देता है। इसी राजमार्ग पर जब गुवाहाटी से लगभग सवा सौ किलोमीटर की यात्रा कर चुके होते हैं तो नौगांव ज़िला आता है। इसी ज़िले में एक गांव है ढिंग। और इसी गांव में  जोमाली और रोनजीत दास नाम की एक कृषक दंपति है जो धान उगाते हैं और मेहनत करके उसके हरे रंग को पका के सुनहरे रंग में बदल देते हैं पर अपनी किस्मत में सुखों के सुनहरे रंग लाने में लाख कोशिशों के बावजूद  कामयाब नहीं हो पाते। लेकिन वे संयोग से अपने यहां एक ऐसा पारस पत्थर उत्पन्न करते हैं जो भले ही धान के हरे रंग को सुनहरे रंग में ना बदल पाए पर जहां भी उसके चपल कदम पड़ते हैं धातुओं का रंग सुनहरा और रुपहला होने लगता है। उस पारस का नाम 'हिमा रोनजीत दास' है।

हिमा ने पिछले बीस दिनों में यूरोपीय सर्किट में दो सौ और चार सौ मीटर की रेस में पांच स्वर्ण पदक जीते। 18 साल की उम्र में टेम्पेरे में पिछले साल जब  वे अंडर 20 विश्व चैंपियनशिप में 400 मीटर का स्वर्ण  पदक जीत रहीं थीं तो वे एक इतिहास बना रहीं थीं। ऐसा करने वाले वे पहली भारतीय एथलीट थीं। तब से वे लगातार अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं और आने वाले समय में वे एथेलेटिक्स में भारत की सबसे बड़ी उम्मीद बनकर उभरी हैं।
         
 फ़िलहाल वे अपने हाल के प्रदर्शन से चर्चा में हैं।दरअसल यूरोपीय सर्किट में ये प्रदर्शन अगर विशुद्ध खेल की दृष्टि से देखें तो कोई बड़ा प्रदर्शन नहीं है। जो भी स्वर्ण उन्होंने जीते उनमें से वे एक में भी अपना सर्वश्रेष्ठ समय नहीं  निकाल सकीं हैं। जिस 400 मीटर में उन्होंने गोल्ड जीता उसमें तीनों पदक भारतीय बालाओं ने जीते। विस्मया दूसरे और सरिता बेन गायकवाड़ तीसरे स्थान पर रहीं। दरअसल वे जिन प्रतियोगिताओं में भाग ले रहीं थी वे कोई बड़ी महत्वपूर्ण प्रतियोगिताएं थी ही नहीं और उसमें जो प्रतिद्वंदिता थी वो भी स्तरीय नहीं थी। इन प्रतियोगिताओं में अनस मोहम्मद ने भी स्वर्ण पदक जीते और अपने समय में सुधार किया। जबकि कई अन्य भारतीय खिलाड़ियों ने भी अच्छा प्रदर्शन किया। इन्हीं में से एक मे एम पी जाबिर ने 400 मीटर बाधा दौड़ में स्वर्ण जीता।फिलहाल जो प्रदर्शन है ,ये कटु सत्य है कि, उससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतने की कोई संभावना नहीं है मेरा मतलब ओलंपिक से या इसी स्तर की अन्य प्रतियोगिता से है। दरअसल इस तरह के टूर एथेलेटिक्स संघ द्वारा सांस्कृतिक आदान प्रदान और खिलाड़ियों को एक्सपोज़र देने के लिए होते हैं। निसंदेह इससे खिलाड़ियों को बेहतरीन एक्सपोसर मिलता है। वे उनके तौर तरीके,स्टाइल,तकनीकी और माहौल से रूबरू होते हैं और एक बड़े स्टेज पर स्वयं को प्रस्तुत करने को तैयार होते हैं और उससे जो अनुभव खिलाड़ी को प्राप्त होते हैं वो सबसे बड़ा फ़ायदा होता है। वे अभी 19 साल की हैं और आने वाले समय में अगर उन्हें सही ट्रेनिंग मिली तो निसंदेह वे बेहतर करेंगी। इस समय की सबसे बड़ी जरूरत है कि उन्हें उम्मीदों के अतिशय बोझ में दबने से बचाना है।

दरअसल उनका हालिया प्रदर्शन  इस बात के लिए रेखांकित किया जाना चाहिए कि सुदूर उत्तर पूर्व की 55 किलो और 5 फुट 5 इंच लंबी दुबली पतली सी लड़की जिसके पिता अपनी लड़की को सिर्फ इसलिए अपने से कई सौ किलोमीटर दूर भेज देते हैं कि उसे तीनों समय भरपेट  भोजन मिलेगा,वो आज  अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एथेलेटिक्स में पदक जीतने की भारत की सबसे बड़ी आशा बन कर उभरी है। उसकी सफलता की कहानी स्वप्न सरीखी है। अभावों और विपरीत परिस्थितियों में हौसले और धैर्य को बनाये रख कर कैसे सफलता पाई जाती है,ये उससे सीखा जा सकता है। उस पर सोने में सुहागा ये कि एक स्टार बन जाने के बाद भी उसके भीतर की मानवीयता,उसके भीतर की खेल भावना मर नहीं जाती है। वो असम के लोगों के दुख दर्द को समझती है क्योंकि वो सब उसने खुद भोगा है और इसलिए अपनी सैलरी का आधा भाग असम के बाढ़ पीड़ितों के लिए दान कर देती है।
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उसकी सफलता और उदारता के लिए उसे सलाम करना तो बनता है ना।

Saturday 20 July 2019

कुछ हार जीत ही होती हैं।


कुछ हार जीत ही होती हैं या कुछ जीत हार हो जाती हैं
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14 जुलाई को खेल इतिहास की पुस्तक में दो ऐसे पृष्ठ जुड़ रहे थे जिनके  हरूफ रोमांच की अतिरिक्त स्याही में डूबकर कुछ ज्यादा बड़े और मोटे हो गए थे। और क्या ही संयोग है कि ये घटनाएं एक ही शहर में एक ही समय पर कुछ ही दूरी पर घट रहीं थी और वो भी गज़ब की समानता के साथ। वो शहर था लंदन। और घटनाएं ! कहने की ज़रूरत नहीं क्रिकेट विश्व कप का फाइनल और विम्बलडन टेनिस ग्रैंड स्लैम का पुरुष फाइनल। 

दोनों फाइनल रोमांच की पराकाष्ठा थे और ये दोनों अपने अपने खेलों के 'मक्का'में यानी लॉर्ड्स के मैदान और विम्बलडन के आल इंग्लैंड क्लब के सेन्टर कोर्ट पर खेले जा रहे थे। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात ये दोनों ही मैच अपने अपने विजेताओं की अपेक्षा हारने वालों के लिए यानी न्यूजीलैंड और फेडरर के याद किये जायेंगे। 
ये शायद इंग्लैंड का दुर्भाग्य ही है कि वे विश्व कप शुरू होने के 44 वर्षों बाद 12वे संस्करण में जीत हासिल कर रहे थे।और जीत भी कैसी कि जीत से पहले याद आये निर्धारित 50 ओवरों में टाई, उसके बाद सुपर ओवर में टाई,अधिक बाउंड्रीज से मैच के विजेता का निर्धारण, सुपर ओवर में ओवर थ्रो में बॉल का  बैट से लगकर चौका हो जाना और अंपायर द्वारा 5 की जगह 6 रन दे देना। दरअसल फाइनल के उस रोमांच और मैदान में घटने वाली इतनी घटनाओं के बीच इंग्लैंड की जीत गुम सी हो गई। 

तो दूसरी तरफ नोवाक जोकोविच की जीत से पहले फेडरर याद आएंगे,उनका फाइनल में शानदार खेल याद आएगा,उनका फाइनल तक का सफर याद आएगा,उनकी राफा के ऊपर जीत याद आएगी,याद आएगा 5 सेटों तक चला संघर्ष जो पांचवें सेट में 12-12 गेमों के बाद अंततः टाई ब्रेकर  निर्णीत हुआ और इन सब से पहले याद आएगा कि 38वर्ष की उम्र में भी फेडरर किसी युवा खिलाड़ी की तरह बल्कि उससे भी कहीं शानदार टेनिस खेल रहे थे।
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आधिकारिक विजेता भले ही नोवाक और इंग्लैंड हो पर मेरी ओर से विजेता फेडरर और न्यूजीलैंड भी बल्कि ही समझे जाएं।

Wednesday 17 July 2019

जोड़ घटा बाकी


जोड़ घटा बाकी
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मौन की तरलता में
शब्द हैं कि घुले जाते हैं
और अर्थ हैं कि
इश्तेहार की तरह बहे जाते हैं।

कुछ अर्थ अपनी चीख में भी अनसुने रह गए
और दूसरे अर्थ अपने मौन में भी
सबसे ज्यादा सुने गए।

सुने गए अर्थ
जो सबसे भारी थे हवा हो गए रुई की तरह 
और सुने गए सबसे हल्के अर्थ
मन की सबसे भीतरी तहों में 
 दर्ज किए गए चोट की तरह।

बड़ी चोट करने वाले अर्थ निरर्थक पदबंधों की तरह  हल्की खराशों में अभिव्यक्त हुए 
और छोटी चोट वाले अर्थ 
लोकोक्तियों के तरह मर्म पर 
गहरे घाव से अंकित हुए ।

ये दीगर बात है समय के अंतराल में 
सभी ने अपने अर्थ खो दिए 
और एक मौन रिक्तता से 
निशान छोड़ गए 
अपनी विरासत में
पर कहीं दूर से लौट आने वाली अनुगूंज
अभी भी शेष है
उम्मीद की किरण सी
कि उनमें अर्थ लौट आएंगे 
एक दिन।

Tuesday 16 July 2019



दुनिया की वे जगहें सबसे खूबसूरत होती हैं जहां प्रकृति की उदारता अपने सबसे तरल और मानवीय श्रम की गरिमा अपने सबसे सघन रूप में होती है।अम्बाला से पटियाला जाते हुए हाईवे के दोनों तरफ दूर दूर तक तक बारिश के पानी से लबालब भरे खेत और उसके ऊपर हाल ही में रोपी गई धान की पौध हरे रंग की चादर आदमी के पेट की भूख की कालिमा का सबसे सुंदर आवरण प्रतीत होता है। पहली नज़र में पटियाला शहर समृद्धि का बहता दरिया से लगता है और ये भी कि पंजाब के शहर किसी भी अन्य प्रान्त के शहरों की तुलना में अधिक सुनियोजित ढंग से विन्यस्त हैं।

Saturday 29 June 2019

लम्हा लम्हा ज़िन्दगी यूं मचलती है

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"कोई अगर तुमसे पूछे 
मेरे बारे में
तो कहना एक लम्हा था
जो बीत गया
अगर कोई मुझसे पूछेगा 
तुम्हारे बारे में
तो मैं कहूंगा 
एक ही लम्हा था 
जो मैंने जी लिया"
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ये ज़िन्दगी आखिर लम्हों का जोड़ घटाव ही तो है,जमा  बाकी ही तो है। आप लम्हा लम्हा जीते जाते हो। एक लम्हा ज़िन्दगी में जुड़ता जाता है और एक लम्हा ज़िन्दगी कम होती जाती है। किसी लम्हे में पूरी ज़िंदगी जी ली जाती है और कोई एक लम्हा पूरी ज़िंदगी भी नही जिया जाता। एक लम्हे प्रेम के समंदर में डूब जाते हो तो एक लम्हे ग़म के दरिया में। एक लम्हा ख्वाब का,एक लम्हा खराशों का। एक लम्हा मुस्कुराती सुबह का,एक लम्हा उदास शाम का। एक खुशनुमा लम्हा आस का, एक उदास लम्हा निराशा का। 
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एक खुशनुमा लम्हे में कलम ने प्यार का शाहकार रचा अगले लम्हे एक राग ने धड़कना सिखाया और अगले लम्हे स्वर के दरिया में कल कल बह निकला।
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कुणाल-प्रशांत एक लम्हा शब्दों से प्रेम की इमारत बनाते हैं,उसे एक लम्हे में जावेद-मोहसिन अपनी धुन से रंग देते हैं तो प्रेम के अनेकों रंग बिखर बिखर जाते हैंऔर अगले लम्हे जब अरिजीत-श्रेया अपने सुरों की रोशनी से भर देते हैं तो वे रंग खिलखिला उठते हैं
     "तू इश्क़ के सारे रंग दे गया
      फिर खींच के अपने संग ले गया"
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#बॉलीवुड_गीत_7

Sunday 23 June 2019

'तुमसा नहीं देखा'



         'पूर्ण' शब्द अपने आप में बहुत ही सकारात्मक होने के बावजूद अनेक संदर्भों में  उतना ही नकारात्मक लगने लगता है। एक ऐसा शब्द जो अक्सर खालीपन के गहरे भावबोध में धकेल देता है,कुछ छूट जाने का अहसास कराता है और मन को  अन्यमनस्यकता से भर भर देता है। पिछले दिनों जब युवराज सिंह मुम्बई के एक होटल में जब अपनी मैदानी खेल पारी के पूर्ण होने की घोषणा कर रहे थे तो केवल ये घोषणा ही उनके फैन्स के दिलों में गहन उदासी और खालीपन का भाव नहीं भर रही थी बल्कि वो जगह भी,जहां वे ये घोषणा कर रहे थे,उनके दुख का सबब भी बन रही थी। निसंदेह ये नितांत दुर्भाग्यपूर्ण ही था युवराज जैसे प्रतिभावान खिलाड़ी को जिस पारी के पूर्ण होने की घोषणा खेल मैदान में  गेंद और बल्ले से करनी थी वो एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में माइक के ज़रिए कर रहा था।
              यूं तो उनके खेल आंकड़े स्वयं ही बयान देते हैं कि वे भारतीय क्रिकेट के और खासकर छोटे प्रारूप वाली क्रिकेट के एक बड़े नहीं बहुत बड़े खिलाड़ी हैं। लेकिन उनका ये 'बड़ापन' इन आंकड़ों का मोहताज है ही नहीं। दरअसल वे आंकड़ों के नहीं उपस्थिति के खिलाड़ी हैं। उनका व्यक्तित्व इतना आकर्षक है कि वे मैदान पर अपनी उपस्थिति भर से दर्शकों के दिल में चुपके से घुस जाते हैं और फिर अपने सकारात्मक हावभाव,अथलेटिसिज्म और कलात्मक खेल से दिमाग पर छा जाते हैं। उनके चेहरे पर फैली  स्मित मुस्कान और मैदान पर उनकी गतिविधियों से इतनी पॉज़िटिव ऊर्जा निसृत होती कि दर्शकों के दिलोदिमाग उससे ऐसे आवृत हो जाते कि उन्हें कुछ और नहीं सूझता और उनके प्यार में पड़ जाते।
              वे एक आल राउंडर थे। आल राउंडर मने ऐसे खिलाड़ी जो खेल के हर महकमे में बराबर की दखल और दक्षता रखता हो। और उन जैसा खिलाड़ी एक शानदार आल राउंडर ही हो सकता था। वे आला दर्जे के कलात्मक बल्लेबाज़,अव्वल दर्जे के बेहतरीन क्षेत्ररक्षक और एक अच्छे गेंदबाज़ थे। एक खिलाड़ी के रूप में उनके व्यक्तित्व का कोई एक कुछ हद अनाकर्षक पहलू था तो वो उनका बॉलिंग एक्शन था अन्यथा उन्हें बैटिंग और फील्डिंग करते देखना अपने आप में किसी ट्रीट से कम नहीं होता। वे मोहम्मद कैफ और सुरेश रैना के साथ मिलकर क्षेत्ररक्षकों की ऐसी त्रयी बनाते हैं जिसने केवल फील्डिंग के दम पर भारतीय क्रिकेट की तस्वीर बदल दी। सन 2000 के बाद से क्रिकेट की सफलताओं में फील्डिंग का भी उतना ही योगदान है जितना बैटिंग और बॉलिंग का और निसंदेह इसके श्रेय का बड़ा हिस्सा युवराज के खाते में आता है। युवराज पॉइंट गली या कवर के क्षेत्र में एक ऐसी अभेद्य दीवार थे जिसे किसी भी बैट्समैन के लिए भेद पाना दुष्कर होता था। वे चीते की फुर्ती से गेंद पर झपटते और बल्लेबाजों को  क्रीज के बिल में ही बने रहने को मजबूर कर देते और यदि गलती से गेंद  हवा में जाती तो उसका पनाहगाह सिर्फ उनके हाथ होते। और जब बल्ला उनके हाथों में होता तो बाएं हाथ से बल्लेबाज़ी की सारी एलिगेंस मानो उनके खेल में साकार हो उठती। वे बॉल के जबरदस्त हिटर थे और पावर उनका सबसे बड़ा हथियार। एक ओवर में छह छक्के और 12 गेंदों में फिफ्टी उनके हिस्से में नायाब रिकॉर्ड हैं। लेकिन उनकी पावर हिटिंग  रॉ नही थी।उसमें अद्भुत लालित्य और कलात्मकता होती। वो इस कदर मंजी होती कि देखने वाले को उनके चौके छक्के बहती हवा से सहज लगते।मानो उसमे शक्ति लगाई ही नहीं। उनके कवर में पंच आंखों के लिए ट्रीट होते और और उनके पसंदीदा पुल शॉट नायाब तोहफा। 
          वे जब भी मैदान में होते गतिशील रहते,वे अदम्य उत्साह शक्ति से भरे होते, ऊर्जा उनसे छलक छलक जाती।ये उन जैसे खिलाड़ी का ही माद्दा था जो कैंसर जैसी बीमारी से लड़कर  खेल में शानदार वापसी कर सका। मां बाप के अलगाव की त्रासदी से जूझते हुए वे जिस व्यक्तित्व और और खिलाड़ी के रूप में उभरते हैं और भारतीय क्रिकेट परिदृश्य पर छा जाते हैं वो अपने आप मे बेमिसाल है।
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खेल मैदान से अलविदा भारतीय क्रिकेट के युवराज।बहुत आए और गए पर 'तुमसा नहीं देखा'।

Saturday 15 June 2019

क्वाही का जादू बनाम चोटों का दंश



लगभग 15 दिन पहले जब एनबीए फाइनल्स गोल्डन स्टेट्स वारियर्स और टोरंटो रप्टर्स के बीच होना तय पाया गया था उस समय बास्केटबॉल के सभी बड़े विशेषज्ञ और जानकार ये अटकललें लगा रहे थे की 'बेस्ट ऑफ सेवन' का फाइनल्स आखिर कितने गेमों में खत्म हो जाएगा।ज़्यादातर विशेषज्ञों का मानना था कि ये फाइनल्स 6 गेमों में समाप्त होगा।और अमेरिका के कैलिफोर्निया के ओरेकल एरीना में बृहस्पतिवार की रात्रि में रप्टर्स टीम वारियर्स को 114 के मुकाबले 110 अंको से हराकर एनबीए 2019 का समापन किया तो विशेषज्ञों के अटकलें सच्चाई में तब्दील हो गईं थीं।बस फ़र्क़ सिर्फ इतना था कि जीतना वारियर्स को था जीत रप्टर्स गई।
दरअसल रप्टर्स लगभग आधी रात को जब 4 के मुकाबले 2 गेमों से वारियर्स को हराकर एनबीए के नए चैंपियन बन रहे थे तो तो वे वहां से हज़ारों मील दूर टोरंटो में खुशियों और उत्साह का सवेरा ला रहे थे। ये पहला अवसर था जब लैरी ओ ब्रायन ट्रॉफी देश से बाहर की यात्रा कर रही है।टोरंटो रप्टर्स एकमात्र विदेशी फ्रेंचाइजी है और इसके 24 साल के इतिहास में पहली बार टीम फाइनल्स में पहुंची और ट्रॉफी अपने नाम की।
12 महीने पहले लियोनार्ड क्वाही के फ्री एजेंट हो जाने के बाद जब रप्टर्स ने सान एंटोनियो स्पर्स से अपने लिए ट्रेड किया तो शायद ही किसी को ये अनुमान हो कि वे एक इतिहास की निर्मिती करने जा रहे हैं। वे उन्हें उनके शानदार खेल के लिए फाइनल्स का एमवीपी (मोस्ट वैलुएबल प्लेयर) घोषित किया गया तो ऐसा करने वाले एनबीए इतिहास के अब्दुल जब्बार क्रीम और लेब्रोन जेम्स के बाद ऐसे तीसरे खिलाड़ी थे जो दो अलग अलग टीमों से फाइनल्स  एमवीपी घोषित किया गया।दरअसल उन्होंने अपने खेल की शानदार कलाओं से वारियर्स के किले थॉम्पसन,डुरंट और स्टीफन करी की कलाओं की चमक को इस कदर फीका कर दिया कि खुद तो पूर्णिमा के चाँद से एनबीए के आसमान में छा गए और बाकी खिलाड़ी दूज और तीज की चंद्र कला भर से रह गए।  इतना ही नहीं जब क्वाही जब रप्टर्स को जॉइन कर रहे थे उन्होंने शहयड ही सोचा होगा कि वे एक इतिहास को दोहराते हुए एक उम्मीदों के  बड़े संहारक के रूप में स्थापित हो जाएंगे। 2012 में वे सान एंटोनियो स्पर्स की और से फाइनल्स मियामी हीट के विरुद्ध खेल रहे थे। मियामी हीट में उस समय लेब्रोन जेम्स और ड्वाने वेड जैसे खिलाड़ी खेल रहे थे। उस समय स्पर्स ने हीट को हराकर लगातार तीसरे साल चैंपियन बनने से रोक दिया था।और आज ठीक उसी तरह का कारनामा दोहरा रहे थे वारियर्स को लगातार तीसरे साल और पिछले पांच ससलों में चौथी बार चैंपियन बनने से रोक दिया।
इसमें कोई शक नही रप्टर्स की ये जीत जितनी क्वाही,सीएकम,लारी और मार्क गसोल के खेल की वजह से है उतनी ही वारियर्स के सबसे उम्दा खिलाड़ी दो बार के एमवीपी केविन डुरंट तथा अन्य खिलाड़ियों की चोट के कारण भी है। पर आदुनिक खेलों में चोट एक अनिवार्य चीज है और जीत तो जीत होती है।एनबीए को एक नया चैंपियन मुबारक।

Monday 10 June 2019

राफा द गैलक्टिको ऑफ टेनिस




राफा द 'गैलक्टिको' ऑफ टेनिस
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राफेल नडाल के 12 वीं बार 'कूप डी मस्केटीएर' ट्रॉफी जीतने के बाद उनसे हारने वाले युवा थिएम कह रहे थे 'राफा हमारे खेल के लीजेंड हैं और ये (12बार फ्रेंच ओपन जीतना) अवास्तविक(unreal) है , तो राफा को  मस्केटीएर ट्रॉफी प्रदान करने के बाद रॉड लेबर ने ट्वीट किया कि 'ये विश्वास से परे(beyond belief) है।' दरअसल राफा का उस समय वहां होना ही अपने आप मे अविश्वास से परे होना था। वे पीले रंग की टी शर्ट पहने थे। जैसे ही जीते तो पीठ के बल कोर्ट पर लेट गए।और वे जब उठे तो लाल मिट्टी उनकी पीली शर्त पर लिपटी थी। उस समय राफा अस्त होने से ठीक पहले के सूर्य के समान लग रहे थे जिसकी स्वर्णिम आभा दिन भर की ओजपूर्ण परिश्रम के कारण रक्तिम आभा में बदल जाती है। उस रक्तिम आभा वाले सूर्य को उस मैदान में खड़े देखना वास्तव में अविश्वसनीय था जिसके खेल के प्रकाश में टेनिस खेल के आकाश के सारे तारे छुप जाते हैं। बिला शक वे 'किंग ऑफ क्ले' है,मिट्टी की सतह के खेल साम्राज्य के चक्रवर्ती सम्राट जिसकी जीत के अश्वमेध अश्व को पकड़ने की हिम्मत ना तो फेडरर और जोकोविच जैसे पुराने यशश्वी सम्राटों में है और ना थिएम,सितसिपास और ज्वेरेव जैसे युवा राजकुमारों में। ऐसा प्रतीत होता है कि फिलिप कार्टियर मैदान की लाल मिट्टी से उनका इतना  आत्मीय लगाव है की वो भी उनके रक्त की तरह उनमें अतिशय उत्साह की ऑक्सीजन से युक्त कर राफा को अपराजेय बना देती है। भले ही रियल मेड्रिड मेरी सबसे नापसंद टीम रही हो पर उनका एक फ्रेज तो अपने सबसे पसंदीदा खिलाड़ी के लिए उधार लिया ही जा सकता है।दरअसल वे टेनिस के 'गैलेक्टिको' हैं। सबसे अलग। सबसे सुपर।
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राफा को फ्रेंच ओपन की 12वीं और ग्रैंड स्लैम की कुल 18वीं जीत की बहुत मुबारकां।

Sunday 9 June 2019

ये मृत्यु का महाउत्सव था



ये मृत्यु का महाउत्सव था
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(आज आईएमए द्वारा पासिंग आउट परेड आयोजित की गई जिसका आकाशवाणी देहरादून द्वारा सजीव प्रसारण किया गया। मैं भी आकाशवाणी टीम का सदस्य था और इस महत्वपूर्ण आयोजन को देखने का सुअवसर मिला।इस दौरान कारगिल समेत तमाम युद्धों में वीरगति को प्राप्त होने वाले जवान होंट करते रहे)

किसी भी संस्था के प्रशिक्षुओं का अपनी उपाधि प्राप्त करने या प्रशिक्षण समाप्त करने के बाद खुशी मनाना स्वाभाविक है और उनके नियोक्ताओं द्वारा उन्हें समारोहपूर्वक विदा म भी। सिर्फ इसीलिए नही कि उन्होंने अपना लक्ष्य सफलतापूर्वक पूरा किया है बल्कि इसलिए भी कि वे एक ऐसी दुनिया में प्रवेश जहां उनके सपने साकार रूप होने जा रहे होते हैं। जहां उनके सपनों को पंख लगने जो हैं और उनकी उड़ान के लिए अनंत आकाश है। वे जीवन को भरपूर जीने जा रहे हैं। वो जीवन का उल्लास है। वे जीवन का उत्सव मनाया रहे होते हैं।

पर क्या वास्तव में  जीवन के इस उल्लास का उत्सव आईएमए के ये प्रशिक्षु भी मनाते हैं,वे प्रशिक्षु जो युद्ध के लिए प्रशिक्षित होते हैं,जो युद्ध की रणनीतियों में दक्षता हासिल करते हैं।युद्ध जो विनाश का पर्याय हैं। युद्ध जो मृत्यु का सहोदर है। वे तो नियति से वायदा करते हैं। वायदा किसी भी परिस्थिति में मृत्यु को गले लगाने का। युद्ध को सीखते और उसमें निष्णात होते जाने की प्रक्रिया में वे युद्ध की निस्सारता को समझ रहे होते होंगे और उसी प्रक्रिया में ज़िन्दगी के सबसे बड़े सत्य से भी परिचित हो रहे होते होंगे।वे जान रहे होते होंगे कि जीवन तो मिथ्या है।मृत्यु ही एकमात्र सत्य है। और जब वे प्रशिक्षण के बाद जीवन की कर्मभूमि में उतर रहे जोते हैं तो निश्चित ही जीवन का नही मृत्यु का महा उत्सव मना रहे होते होंगे। बिल्कुल आम भारतीय जैसे।जैसे वो सुख दुख में समदर्शी रहता है। वो दुख में भी सुख की तरह उत्सव मनाता है।वो पूर्णिमा के उजाले की तरह अमावस की स्याह रात का उत्सव भी मनाता हैं। और मृत्यु का मूल राग करुणा का राग है।और जब ये प्रशिक्षु महा उत्सव मना रहे होते हैं तो तमाम उल्लास,हर्ष,उत्साह,खुशियों और मुस्कराहटों के बावजूद एक करुण संगीत नेपथ्य में तैर रहा होता है एक ऐसा करुण संगीत जो हर पल आपको हर जगह मृत्यु की उपस्थिति का एहसास करा रहा होता है। हाँ ये ज़रूर होता है कि आपकी देशप्रेम की अमूर्त भावना वहां उपस्थित स्थूल उपादानों से मिलकर हिलोरें मारने लगती है।
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क्या युद्ध इतने ज़रूरी होते हैं और उनके बिना भी कोई दुनिया संभव है।


Friday 17 May 2019

ये रंगों का बयान है


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टेस्ट मैच क्रिकेट खेल का मूल प्रारूप है। पांच दिन का ये प्रारूप इस खेल का सबसे शांत,उबाऊ और नफासत से भरा है जिसमें खिलाड़ी सफेद कपड़े पहनते हैं। ये रंग खेल के उस प्रारूप का सबसे प्रतिनिधि रंग है। मैदान में घास को छोड़कर सफेद जूतों व कपड़ों और हल्के क्रीम कलर या ऑफ व्हाइट कलर के बल्लों और विकटों के बीच बस एक ही चटख  लाल रंग होता है गेंद का। इस प्रारूप में सफेद रंग के बीच जिस अनुपात में लाल रंग होता है,मैदान में बस उतना ही रोमांच और उत्साह होता है।

 फिर टेस्ट क्रिकेट की नीरसता को तोड़ने के लिए सीमित ओवरों वाला एकदिवसीय प्रारूप आया। अब क्रिकेट में गज़ब के  रोमांच और उत्साह का समावेश हो गया। नफासत की जगह भदेसपन लेने लगा। भद्रजनों का खेल आमजनों का खेल होने लगा। तो इसी के साथ रंगों का अनुपात भी बदल गया। मैदान में रंग बिखरने लगे। सफेद कपड़े रंगीन कपड़ों में बदल गए और बॉल का रंग लाल से सफेद हो गया। अब रंगीन कपड़ों के बीच जिस अनुपात में बॉल का सफेद रंग होता है मैदान में नीरसता की भी बस उतनी ही गुंजाइश बची रह गई।

लेकिन शायद अभी भी एक कमी बाकी थी। इन रंगों में चमक की कमी थी,रंगों में ग्लेज़ नही था क्योंकि खेल के रोमांच और उत्साह में ग्लैमर की कमी थी। तब फटाफट प्रारूप टी ट्वेंटी आया।इसमें रोमांच,जोश,जुनून और गति का विस्फोट हुआ और ग्लैमर का समावेश हुआ तो कपड़ों के थोड़े फीके और कम चमक वाले रंग चटक होने लगे,रंगों की चमक और ग्लेज़ सहसा ही जोश और जुनून के अनुपात में बढ़ गया।
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क्या ही कमाल है कि रंग क्रिकेट के क्रमिक  बदलाव के सबसे गाढ़े प्रतीक हैं। निसंदेह ये देखना रोचक होगा कि आगे इसके और छोटे होते प्रारूप पर रंग कैसे अपना बयान बदलेंगे।

ये हार भारतीय क्रिकेट का 'माराकांजो' है।

आप चाहे जितना कहें कि खेल खेल होते हैं और खेल में हार जीत लगी रहती है। इसमें खुशी कैसी और ग़म कैसा। लेकिन सच ये हैं कि अपनी टीम की जीत आपको ...