कुछ हार जीत ही होती हैं या कुछ जीत हार हो जाती हैं
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14 जुलाई को खेल इतिहास की पुस्तक में दो ऐसे पृष्ठ जुड़ रहे थे जिनके हरूफ रोमांच की अतिरिक्त स्याही में डूबकर कुछ ज्यादा बड़े और मोटे हो गए थे। और क्या ही संयोग है कि ये घटनाएं एक ही शहर में एक ही समय पर कुछ ही दूरी पर घट रहीं थी और वो भी गज़ब की समानता के साथ। वो शहर था लंदन। और घटनाएं ! कहने की ज़रूरत नहीं क्रिकेट विश्व कप का फाइनल और विम्बलडन टेनिस ग्रैंड स्लैम का पुरुष फाइनल।
दोनों फाइनल रोमांच की पराकाष्ठा थे और ये दोनों अपने अपने खेलों के 'मक्का'में यानी लॉर्ड्स के मैदान और विम्बलडन के आल इंग्लैंड क्लब के सेन्टर कोर्ट पर खेले जा रहे थे। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात ये दोनों ही मैच अपने अपने विजेताओं की अपेक्षा हारने वालों के लिए यानी न्यूजीलैंड और फेडरर के याद किये जायेंगे।
ये शायद इंग्लैंड का दुर्भाग्य ही है कि वे विश्व कप शुरू होने के 44 वर्षों बाद 12वे संस्करण में जीत हासिल कर रहे थे।और जीत भी कैसी कि जीत से पहले याद आये निर्धारित 50 ओवरों में टाई, उसके बाद सुपर ओवर में टाई,अधिक बाउंड्रीज से मैच के विजेता का निर्धारण, सुपर ओवर में ओवर थ्रो में बॉल का बैट से लगकर चौका हो जाना और अंपायर द्वारा 5 की जगह 6 रन दे देना। दरअसल फाइनल के उस रोमांच और मैदान में घटने वाली इतनी घटनाओं के बीच इंग्लैंड की जीत गुम सी हो गई।
तो दूसरी तरफ नोवाक जोकोविच की जीत से पहले फेडरर याद आएंगे,उनका फाइनल में शानदार खेल याद आएगा,उनका फाइनल तक का सफर याद आएगा,उनकी राफा के ऊपर जीत याद आएगी,याद आएगा 5 सेटों तक चला संघर्ष जो पांचवें सेट में 12-12 गेमों के बाद अंततः टाई ब्रेकर निर्णीत हुआ और इन सब से पहले याद आएगा कि 38 वर्ष की उम्र में भी फेडरर किसी युवा खिलाड़ी की तरह बल्कि उससे भी कहीं शानदार टेनिस खेल रहे थे।
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आधिकारिक विजेता भले ही नोवाक और इंग्लैंड हो पर मेरी ओर से विजेता फेडरर और न्यूजीलैंड भी बल्कि ही समझे जाएं।
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