Tuesday 25 August 2020

बहुत दूर,इतना पास क्यों होता है



आज यात्रा वृतांत 'बहुत दूर,कितना दूर होता है' खत्म किया है। अभी भी यात्रा के सम्मोहन में हूँ कि यात्राएं ऐसी भी होती हैं। अपनी रवानी में इतनी कोमल मुलायम मखमली सी और बनावट में थोड़ी थोड़ी खुरदुरी सी। एक साथ धूप छांह सी। कभी खुशियां बिखेरती तो कभी उदासी फैलाती। यात्रा निपट अकेले यात्री की। यात्रा जितनी आदमी के बनाए भौतिक अवशेषों को देखने की,उससे कहीं ज़्यादा बजरिये मानव मन उसके बनाए समाज के भीतर झांकने की। यात्रा जितनी बाहर की है,उतनी ही यात्रा अपने भीतर की। यात्रा जितना दृश्य को देखती चलती है उससे कहीं ज़्यादा अदृश्य को व्यक्त करती हुई।
ये यात्रा भावनाओं और विचारों का ऐसा संगम है जिसमें भावनाएं तीव्र गति से बहाती ले जाती हैं और विचार हैं कि आपको बार बार थम जाने को कहते हैं,ठहर कर सोचने को मजबूर करते हैं।
यात्रा ऐसी जिसमें मुलाकात होती है खूबसूरत लोगों से कि ये यात्रा किन्ही जगहों की यात्रा भर ना रहकर ज़िन्दगी का सफर बन जाती है। जिसमें सुख भी हैं,दुःख भी हैं। थोड़ी बेचैनी है तो सुकूँ भी है। यात्रा जिसमें एक ओर लंदन है,पेरिस है,शैलों सु सोन(chalon sur saone) है,मेकन(मैकॉन) है,लीयोन है,एनेसी(annecy) है,शमोनी(chamonix )है, जिनेवा है,बासेल है तो दूसरी ओर ज़िंदगी को खोजती कैथरीन है,यारों का यार बेनुआ है,अपने सपनों को पूरा करने की जद्दोजहद में लगा तारिक है,असफल प्रेमी एलेक्स है,दो खूबसूरत बच्चों का जिम्मेदार पिता निकोलस है,आंखों में प्यार के सपने सजाए युवा एक और निकोलस है,अनुभवी प्यारी दोस्त जंग हे है,अकेलेपन से जूझती मार्टीना है और अपना मुक्ताकाश खोजती ली वान है। दुनिया में जितनी खूबसूरत जगहें है,उतने ही कमाल के लोग भी हैं और ये सब मिलकर इस बात का अहसास दिलाते हैं कि अभी भी दुनिया में बहुत कुछ ऐसा है जिससे दुनिया में उम्मीद है,दुनिया खूबसूरत है।
यात्रा में आप सिर्फ बाहर की दुनिया भर ही नहीं देखते बल्कि अपने भीतर की दुनिया को देखते बूझते बहुत दूर निकल जाते हो। आपको पता चलता है दुनिया बाहर की हो,भीतर की हो,उसे देखने, उसे बुझने बहुत दूर तलक जाना पड़ता है इतनी दूर कि दिल पूछ बैठता है आखिर 'बहुत दूर कितना दूर होता है',लेकिन जब यात्रा खत्म होती तो दिल एक आह के साथ कह उठता है 'बहुत दूर इतने पास क्यूं होता है'।
दरअसल इस मौसम में ये यात्रा करते हुए जितना बाहर से शरीर बारिश के पानी से भीगता है उतना ही अंतर्मन शब्दों से भीग भीग जाता है।
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थोड़ी सी आह, थोड़ी सी वाह के साथ
ओह
Manav Kaul
तो ये तुम हो।

Thursday 20 August 2020



         सुरेश रैना लीजेंड नहीं थे। बावजूद इसके वे अपने होने भर से मन मष्तिष्क पर उपस्थिति दर्ज़ कराते थे और छाए रहते थे। इसके लिए उन्हें किसी लीजेंड की तरह परफॉर्मेंस की ज़रूरत नहीं थी। दरअसल श्रेष्ठ क्षेत्ररक्षक ऐसे ही होते हैं। वे रॉबिन सिंह,मो.कैफ और युवराज की परंपरा के खिलाड़ी ठहरते हैं। गेंद और बल्ले के परफॉर्मेंस तो उनकी पहले से उपस्थिति के रंग को गाढ़ा भर करते थे।

         उनमें कमाल का विरोधाभास था। वे शतक से टेस्ट क्रिकेट का आगाज़ करते हैं और शून्य से समापन। वे 11 बार 'मैन ऑफ द मैच'बनते हैं,पर अनचीन्हे रह जाते हैं। वे भारी शरीर के होने के बावज़ूद गज़ब के फुर्तीले और शानदार क्षेत्ररक्षक थे। अपनी कोमल सी मुस्कुराहट के साथ बहुत ही सौम्य नज़र आते थे, लेकिन बेहद आक्रामक बल्लेबाज़ थे। और और वे छोटे से शहर से निकलते हैं और दुनिया के दिलों पर राज करते हैं

        मैदान में आंखें उन्हें खोजेंगी,पर वो नहीं होंगे। पर यही विधि का विधान है।

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गुड बाय रैना।




Monday 17 August 2020

अस्सी के दशक के क्रिकेट प्रेमियों का हीरो

 

           क्रिकेट खिलाड़ी और उत्तरप्रदेश सरकार में मंत्री चेतन चौहान का कल गुड़गांव के एक अस्पताल में निधन हो गया। वे 73 वर्ष के थे और कोरोना से संक्रमित थे। धोनी और रैना की अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से सन्यास की घोषणा से एक दिन पहले ही क्रिकेट जगत में जो हलचल मची थी उसे मानो चेतन चौहान की मृत्यु से फैली उदासी की चादर ने ढक कर शांत कर दिया हो। निसन्देह उनकी मृत्यु हृदय विदारक है।

              सितंबर 1969 में न्यूज़ीलैंड के विरुद्ध अपना टेस्ट कॅरियर शुरू करके 2017 में उत्तर प्रदेश सरकार में दोबारा मंत्री बनने की इस यात्रा में चेतन चौहान ने  कई किरदार निबाहे। वे राजनेता थे,खेल प्रशासक थे,चयनकर्ता थे और टीम मैनेजर भी थे। बावज़ूद इन सब के सब से ऊपर उनकी पहचान एक क्रिकेटर की और एक ओपनर बल्लेबाज़ की थी। दरअसल ये उनका क्रिकेटर ही था जिसने बाकी क्षेत्रों में उनकी पहचान बनाने की बुनियाद रखी। 

                 चेतन चौहान ने कुल 40 टेस्ट मैच खेले। देखने में ये आंकड़ा बहुत बड़ा नहीं लगता। लेकिन जिस समय वे खेल रहे थे जब क्रिकेट सीजन मात्र 6 महीने का होता और कुछ ही टेस्ट मैच या सीरीज सीजन भर में होतीं, ये आंकड़ा एक ठीक ठाक वजन वाला है। 40 टेस्ट मैचों का चेतन चौहान का ये खेल सफर कहीं से भी चकाचौंध या ग्लैमर भरा नहीं लगता। जिसने अपने कॅरियर के 40 मैचों में एक भी शतक ना बनाया हो उसके बारे में क्या कहा जा सकता है! इतना घटना विहीन और लो प्रोफाइल वाला कॅरियर कुछ कहने सुनने का स्पेस देता है भला!

                   लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता। कई बार घटना विहीन जीवन ही बताता है कि ऐसे जीवन के निर्माण में भी कितनी घटनाओं का योगदान होता है। वो जीवन भी कितनी संघर्षपूर्ण स्थितियों से निर्मित होता है। जैसे कभी कभी मौन सबसे ज़्यादा मुखर होता है। और कभी कभी लो प्रोफाइल भी इतना ऊंचा होता है कि आप उसकी ऊंचाई का अंदाजा भी नहीं लगा सकते। दरअसल चौहान के खेल और खेल में उनके योगदान को उन परिस्थितियों के संदर्भ में देखना चाहिए जिसमें वे खेल रहे थे।

                    चेतन चौहान का खेल कॅरियर पुणे से शुरू हुआ 1966-67 के सीजन में जब उनका चयन रोहिंटन बेरिया कप के लिए पुणे विश्वविद्यालय की टीम में हुआ और उसी वर्ष विज्जी ट्रॉफी के लिए पश्चिम क्षेत्र की टीम वे चुने गए। ये दोनों ही अंतर विश्विद्यालयी प्रतियोगिता थीं और उस समय उनकी बहुत प्रतिष्ठा थी क्योंकि इन्हें राष्ट्रीय टीम का प्रवेश द्वार माना जाता था। गावस्कर,बेदी जैसे तमाम बड़े खिलाड़ी यहीं से भारतीय टीम में शामिल हुए थे। 1967 के सीजन में इन दोनों प्रतियोगिताओं में और विशेष रूप से विज्जी ट्रॉफी में शानदार प्रदर्शन के कारण 1968 में महाराष्ट्र की रणजी टीम में शामिल कर लिया गया।  चौहान ने विज्जी ट्रॉफी में उस साल उत्तर क्षेत्र के खिलाफ 103 और फाइनल में दक्षिण क्षेत्र के विरुद्ध 88 और 63 रन बनाए थे। दक्षिण क्षेत्र के खिलाफ मैच में उनके ओपनर पार्टनर गावस्कर थे जिनके साथ उन्हें आगे चलकर एक दशक तक 40 टेस्ट मैचों में ओपनिंग करनी थी। 1968 में उनका चयन रणजी के साथ साथ दिलीप ट्रॉफी के लिए पश्चिम क्षेत्र की टीम में भी हो गया। इसके फाइनल में दक्षिण क्षेत्र की टीम के विरुद्ध 103 रन बनाए। यहां उल्लेखनीय है ये रन उन्होंने 5 टेस्ट गेंदबाजों के विरुद्ध बनाए थे। फलतः उनका चयन भारतीय टेस्ट टीम में हो गया और अपना पहला टेस्ट 25 सितंबर 1969 को बॉम्बे में न्यूजीलैंड के खिलाफ खेला। लेकिन वे कुछ खास नहीं कर पाए और दो टेस्ट मैच के बाद उन्हें टीम से बाहर कर दिया गया। उसी सीजन में इन्हें एक बार फिर ऑस्ट्रेलिया के विरुद्ध खेलने के लिए टीम में चुना गया। वे इस बार भी अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाए और एक बार टीम से निकाले गए तो अगले तीन साल टीम में वापसी नहीं कर पाए। लेकिन घरेलू क्रिकेट में धूम मचाते रहे। 1972-73 में रणजी में सर्वाधिक रन बनाने में दूसरे नंबर पर थे। इस कारण एक बार फिर वापसी की  इंग्लैंड के विरुद्ध। इस बार भी असफल रहे और इस बार अगले 5 सालों के लिए राष्ट्रीय टीम से बनवास मिला। इस बीच 1975 में वे दिल्ली चले आये और दिल्ली की टीम से खेलने लगे। घरेलू क्रिकेट में उनका अच्छा प्रदर्शन जारी रहा। 1976-77और 1977-78 के सीजन में शानदार प्रदर्शन के कारण 1977-78 के ऑस्ट्रेलिया दौरे पर उन्हें फिर से भारतीय टीम में जगह मिली।  1977-78 से 1981  तक का कालखंड उनके खेल जीवन का सबसे सफल समय था। उन्होंने अपना आखिरी टेस्ट मैच भी न्यूज़ीलैंड के विरुद्ध 1981 में खेला। इस प्रकार उन्होंने 40 टेस्ट मैचों में 16 अर्धशतकों की मदद से 31.7 की औसत से  2084 रन बनाए।जबकि प्रथम श्रेणी के 179 मैचों में 40.22 की औसत से 11143  रन बनाए।

                 अगर ये आंकड़े देखें तो आपको बहुत औसत लगेंगे। लेकिन दोस्तों अक्सर आंकड़े बहुत भ्रामक होते हैं। वे अक्सर सही तस्वीर प्रस्तुत नहीं करते। दरअसल उनके खेल जीवन के रोमांच और रोमांस को वे लोग ही समझ और महसूस कर सकते हैं जिन्होंने टीवी के आने से पहले रेडियो कमेंट्री से क्रिकेट के रोमांच का आनंद लिया है।

                      वे एक इंडिजुअल के रूप में भले ही साधारण लगें लेकिन वे एक सफल और शानदार जोड़ीदार थे। वे दुनिया के महानतम ओपनर बल्लेबाजों में से एक गावस्कर के सबसे बड़े जोड़ीदार थे और दोनों मिलकर सहवाग और गंभीर से पहले  भारत की सबसे सफल ओपनिंग जोड़ी बनाते थे। इस जोड़ी ने 59 पारियों में 3010 बनाए जो एक रिकॉर्ड था और जिसे बाद में सहवाग गंभीर की जोड़ी ने तोड़ा। उन्होंने ये रन 53.75 की औसत से बनाए जिसमें 10 शतकीय साझेदारियां थीं। ये बात बताती है कि चौहान की और उनके खेल की क्या अहमियत थी। वे विकेट का एक सिरे थामे रहते और गेंद की चमक खत्म करते रहते और गावस्कर के लिए एक बड़े स्कोर का रास्ता बनाते। उनकी सबसे बड़ी साझेदारी 1979 में इंग्लैंड में ओवल पर  213 रन की थी जिसमें चौहान ने 80 रन बनाए। इस मैच में गावस्कर ने 221 रन बनाए थे।

                        इससे भी महत्वपूर्ण बात ये है कि उस समय भारतीय टीम दोयम दर्जे की टीम मानी जाती थी। और चौहान ने इंग्लैंड,वेस्ट इंडीज और ऑस्ट्रेलिया जैसी सर्वश्रेठ टीमों के खिलाफ ये प्रदर्शन किया था। ये प्रदर्शन इसलिए भी याद किया जाना चाहिए कि ये दौर क्रिकेट के सबसे खौफ़नाक बॉलिंग अटैक का था और चौहान का प्रदर्शन इसी अटैक के विरुद्ध किया गया था। इसमें अटैक में शामिल हैं सरफराज,रिचर्ड हेडली,थॉमसन,लिली,एंडी रॉबर्ट्स,होल्डर,बाथम। ये वो समय था जब बल्लेबाजों के लिए रक्षा उपकरणों का चलन शुरू नहीं हुआ था। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि चौहान का  साधारण सा प्रोफाइल भी कितने रोमांच और संघर्ष से भरा है।

                         इसमें कोई शक नहीं कि चौहान किसी बड़ी प्रतिभा के धनी नहीं थे। उनके पास सीमित स्ट्रोक्स थे। उनके खेल की सीमाएं थीं। लेकिन वे विकेट पर टिकना जानते थे। वे विकेट पर समय बिताना जानते थे। उन्होंने पहला टेस्ट रन बनाने में 25 मिनट का समय लिया था। वे अपनी सीमाएं जानते थे। लेकिन वे कभी भी अपना विकेट गंवाते नहीं थे। उसे बॉलर को मेहनत करते लेना पड़ता था,उसे कमाना पड़ता था।

                         उनका खेल इस बात का प्रमाण है कि सीमित प्रतिभा को अपनी कड़ी मेहनत,संघर्ष और दृढ़ संकल्प से तराशा जा सकता है और उसे चमकीले नगीने में बदला जा सकता है। दरअसल वे अस्सी के दशक के उन क्रिकेट प्रेमियों के हीरो थे जिन्होंने उनकी बैटिंग का लुत्फ अपने ट्रांजिस्टर और रेडियो सेट पर जसदेव सिंह,सुशील दोषी, मुरली मनोहर मंजुल, स्कन्द गुप्त जैसे कमेंटेटरों के  आंखों देखे हाल के साथ एक्सपर्ट चंदू सरवटे के कमेंट्स के माध्यम से उठाया था।

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विनम्र श्रद्धांजलि चेतन जी। आप हमेशा हमारे दिलों में रहोगे।



पसंद और नापसंद के बीच झूलता क्रिकेट हीरो



          अंततः भारतीय क्रिकेट की सबसे बड़ी जिज्ञासा का समाधान हुआ, सबसे ज़्यादा वांछित सवाल का जवाब मिला, और भारतीय क्रिकेट के सबसे चमकदार युग का पटाक्षेप हुआ. अपने आधिकारिक इंस्टाग्राम अकाउंट के ज़रिये ‘कैप्टन कूल’ ने सन्यास लेने की घोषणा की. धोनी चाहे कितने भी कूल हों लेकिन उनका सन्यास लेना भी इतना ‘कूल’ होगा, ये किसी ने सोचा नहीं था. पर वो धोनी ही क्या जो अपने फ़ैसलों से अपने चाहने वालों को चौंका न दें. आख़िर अपने खेल कॅरिअर के 16 सालों में खेल मैदान के भीतर और बाहर भी वे अपने फ़ैसलों से चौंकाते ही तो रहे हैं. तो विदाई भी ऐसी हुई तो क्या आश्चर्य!
       अगर भारतीय क्रिकेट इतिहास के चार सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों के नाम भारतीय क्रिकेट में उनके योगदान के लिए चुनने पड़े तो इनमें निसन्देह एक नाम महेंद्र सिंह धोनी का होगा. शेष तीन नाम ज़ाहिर है कि गावस्कर, कपिल और सचिन हैं.
         1983 में क्रिकेट विश्व कप में भारत की जीत भारतीय क्रिकेट इतिहास की ऐसी युगांतरकारी घटना है, जो उसके इतिहास को दो युगों में विभाजित करती है. 1983 से पहले के क्रिकेट का ‘एलीट काल’ और 1983 के बाद का क्रिकेट का ‘मास काल’. गावस्कर और कपिल इन दो कालों के सबसे बड़े प्रतिनिधि खिलाड़ी हैं. और इन दोनों की जगह कोई नहीं ले सकता. 83 से पहले का काल क्रिकेट का क्लासिक युग है. और गावस्कर से बड़ा खिलाड़ी कोई नहीं. विश्व की अब तक की सबसे ख़तरनाक गेंदबाजी के ख़िलाफ जिस तरह से टेस्ट क्रिकेट में पहली बार दस हज़ार से ज़्यादा रन बनाए, वो अविश्वसनीय था. ये गावस्कर ही थे, जिन्होंने भारतीय क्रिकेट को विश्व पटल पर एक नई पहचान देने का काम किया.

         '83 में विश्व कप जिताकर कपिल ने न केवल गावस्कर द्वारा बनाई गई पहचान को स्थापित किया बल्कि भारतीय क्रिकेट के विशिष्ट स्वरूप पीछे करके इसे जनसाधारण के खेल में बदल दिया. इसके बाद सचिन आते हैं. वे इस जनसाधारण के खेल को अपनी असाधारण व्यक्तिगत उपलब्धियों से खेल को लोगों के धर्म के रूप में स्थापित कर देते हैं. और वे ख़ुद भगवान के रूप में पूजे जाने लगते हैं. लेकिन अभी भी क्रिकेट इतिहास का चक्र पूरा नहीं हुआ था. अभी भी कुछ कमी सी थी. कुछ अधूरा था. कुछ था, जो छूट रहा था. वो थी खेल की बादशाहत. धोनी तीन-तीन विश्व ख़िताब भारत के लिए जीतते हैं और भारतीय क्रिकेट की बादशाहत क़ायम कर देते हैं. ये ऐसा काम था जो अभी तक कोई नहीं कर पाया था.

         इस तरह सचिन के बाद धोनी के अवदान के साथ भारतीय क्रिकेट का एक पूरा चक्र पूरा होता है. गावस्कर भारतीय क्रिकेट की विश्व पटल पर पहचान बनाते हैं, कपिल उस पहचान को स्थायित्व देकर उसे जनसाधारण के खेल में बदल देते हैं, सचिन खेल को धर्म में परिवर्तित कर देते हैं और धोनी विश्व पटल पर उसकी सर्वोच्चता स्थापित कर देते हैं.

     कपिल और गावस्कर के बाद सचिन और धोनी भारतीय क्रिकेट के स्वरूप को बदलने वाले सबसे बड़े कैटेलिस्ट थे. दोनों का भारतीय क्रिकेट को बड़ा पर अलग अवदान रहा. दरअसल सचिन क्रिकेट का कला पक्ष थे तो धोनी विज्ञान पक्ष. सचिन क्रिकेट की कविता थे तो धोनी निबंध थे. सचिन अंतरात्मा से थे तो धोनी शरीर से. सचिन जितने कोमल से थे तो धोनी उतने ही कठोर. सचिन बहुत वैयक्तिक थे और धोनी सामूहिक. सचिन किसी बन्द लिफाफ़े से थे और धोनी खुली किताब की तरह. दरअसल सचिन दिल थे और धोनी दिमाग. पर दोनों थे भारतीय क्रिकेट के शिखर पुरुष ही.

     धोनी 2004 में भारतीय क्रिकेट फ़्रेम में आते हैं और छा जाते हैं. धीरे-धीरे बाक़ी सब नेपथ्य में चले जाते हैं. वे अपनी प्रतिभा से लैंडस्केप को पोर्ट्रेट में बदल देते हैं. इस काल में वे इस पोर्ट्रेट का एकमात्र चेहरा बन जाते हैं. भारतीय क्रिकेट में सौरव ने जिस आक्रामकता का समावेश किया था, धोनी ने उसे चरम पर पहुंचा दिया था. धोनी अपने खेल से आगे बढ़कर दूसरों के लिए उदाहरण बनते थे. वे आगे बढ़कर ज़िम्मेदारी ख़ुद अपने कंधों पर लेते थे और तब बाक़ी लोगों से उम्मीद करते थे. वे एक शानदार विकेटकीपर थे, बेहतरीन आक्रामक बल्लेबाज़ और असाधारण लीडर. दरअसल उन्हें खेल की गहरी समझ थी. खेल की अपनी इसी असाधारण समझ के चलते वे खेल मैदान पर ऐसे निर्णय लेते, जिनसे अक्सर विशेषज्ञ चौंक जाते. लेकिन उनके निर्णय सही साबित होते. वे जोखिम भरे निर्णय लेते.

        दरअसल असाधारण उपलब्धियों के लिए ऐसे जोखिम लेने की दरकार होती है और उन्हें यह क़बूल था. ये धोनी ही थे जिन्होंने विपक्षी खिलाड़ियों की आंख में आंख डालना सिखाया. उनकी खेल की समझ, खेल में उनकी संलग्नता और खेल के उनके अद्भुत पर्यवेक्षण को इस बात से समझ जा सकता है कि डीआरएस (डिसीजन रिव्यु सिस्टम) को धोनी रिव्यु सिस्टम कहा जाने लगा था. उन्होंने भारतीय क्रिकेट को नए सिरे से संगठित किया. वे सबसे फिट खिलाड़ी थे. विकेटों के बीच उनकी रनिंग गजब थी. उन्होंने फील्डिंग पर विशेष ध्यान दिया. इसीलिए उन्होंने फिटनेस को टीम का मूलमंत्र बना दिया. इसी बिना पर उन्होंने सीनियर खिलाड़ियों को बाहर का रास्ता दिखाया और नए युवा खिलाड़ियों की जोश से लबरेज टीम बनाई.

        धोनी का अंतरराष्ट्रीय कॅरिअर दिसंबर 2004 में बांग्लादेश दौरे के लिए ओडीआई टीम में चयन के साथ शुरू होता है. हालांकि वे पहले ही मैच वे शून्य पर रन आउट हो जाते हैं, पर अपने पांचवें मैच में पाकिस्तान के खिलाफ 148 रनों की अविस्मरणीय पारी खेल कर स्थापित हो जाते हैं. 2005 में श्रीलंका के विरुद्ध उनका टेस्ट कॅरिअर शुरू होता है और 2006 में दक्षिण अफीका के विरुद्ध टी20 कॅरिअर. इसमें भी ओडीआई की तरह पहले मैच में शून्य पर आउट होते हैं. लेकिन 2007 में टी20 विश्व कप की कमान उन्हें सौंपी जाती है और विश्व कप जीत कर आते हैं. 2011 में 28 साल बाद ओडीआई आईसीसी विश्व कप जिताते हैं. ये जीत सचिन के लिए होती है. और 2013 में आईसीसी चैंपियनशिप. और ऐसा करने वाले एकमात्र कप्तान.

         निःसन्देह एक कप्तान के रूप में उनकी उपलब्धियां असाधारण हैं और एक खिलाड़ी के रूप में सराहनीय. उनकी कप्तानी में भारत ने 2007 में पहला टी ट्वेंटी विश्व कप (इंग्लैंड), 2011 में विश्व कप (भारत), 2013 में चैंपियन ट्रॉफी (दक्षिण अफ्रिका) जीती और 2009 में टेस्ट क्रिकेट में भारत को नंबर एक बनाया. वे भारत के सबसे सफल कप्तान हैं. उन्होंने 50 टेस्ट मैचों में कप्तानी की, जिसमे से 27 में जीत 17 में और 15 अनिर्णीत रहे,199 एक दिवसीय में से 110 में जीते और 74 हारे जबकि 72 टी ट्वेंटी मैचों में से 42 जीते और 28 हारे. उन्होंने कप्तान के रूप में एक दिवसीय मैचों में 54 की औसत और 86 की स्ट्राइक रेट से 6633 रन, टी ट्वेंटी में 122 की स्ट्राइक रेट से 1112 रन और टेस्ट क्रिकेट में 41 की औसत से 3454 रन बनाए हैं. अगर उनके पूरे कॅरिअर के आंकड़ों पर नज़र डाली जाए तो उन्होंने 90 टेस्ट मैच खेल जिसमें उन्होंने 38.1 की औसत से 4876 रन बनाए. 350 एक दिवसीय मैचों में 50.6 के औसत से 10773 रन और 98 टी20 मैचों में 37.6 के औसत से 1617 रन बनाए. विकेट के पीछे टेस्ट मैचों में 256 कैच,तीन रन आउट और 38 स्टंपिंग,एक दिवसीय मैचों में 322 कैच,22 रन आउट और 123 स्टंपिंग और टी20 मैचों में 57 कैच,8 रन आउट और 34स्टंपिंग कीं. ये आंकड़े उनकी सफलता की कहानी कहते हैं और यह बताने के लिए काफ़ी हैं कि वह एक बड़े खिलाड़ी और महान कप्तान भी हैं.

       लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि वे एक ऐसे खिलाड़ी हैं जो जितने अधिक पसंद किए जाते हैं उतने ही अधिक नापसंद. आखिर क्यों है ऐसा? मैं स्वयं उन्हें पसंद नहीं कर पाता. मैं यह कहने का जोख़िम उठाता हूँ कि धोनी मेरे पसंददीदा खिलाड़ी नहीं रहे और न ही मेरे लिए वे गावस्कर, कपिल या सचिन जैसे खेल आइकॉन रहे हैं. आख़िर आप इतने बड़े खिलाड़ी के मुरीद क्यों नहीं हो पाए? क्यों उस खिलाड़ी के फैन नहीं हो पाए? क्यों उस खिलाड़ी को नापसंद किया जाता है?

         दरअसल आप किसी खिलाड़ी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व से प्रभावित होते हैं. आप जब उसका अनुसरण करते हो तो केवल खेल के मैदान में ही नहीं उसके बाहर भी उसे देखते हो और खेल के मैदान में भी सिर्फ़ उसका खेल भर नहीं देखते हो बल्कि खेल से इतर उसकी गतिविधियों को भी उतनी सूक्ष्मता से देखते हो. 2004 में जब धोनी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर क्रिकेट में पदार्पण करते हैं तो कंधे तक फैले लंबे बालों की तरह स्वाभाविकता उनके व्यक्तित्व पर पसरी हुई दिखती थी. उस समय वे एक मध्यम दर्ज़े के शहर और निम्न-मध्यम वर्ग के परिवार के एक बहुत ही प्रतिभा वाले सच्चे, सरल, स्वाभाविक और उत्साही खिलाड़ी होते हैं. धीरे-धीरे उनका रूपांतरण होता है. वे एक नवोदित खिलाड़ी से बड़े खिलाड़ी बन जाते हैं. फिर 2007 में टीम की कमान उनके हाथ में आती है. क्रिकेट प्रबंधन से उनके बहुत मज़बूत सम्बन्ध बनते हैं. अब वे बहुत शक्तिशाली हो जाते हैं. वे सत्ता के केंद्र में होते हैं और खेल के सर्वेसर्वा बन जाते हैं.

         यहां केवल एक नवोदित खिलाड़ी का खेल के सबसे बड़े खिलाड़ी बनने का सफ़र ही पूरा नहीं होता बल्कि पूरे व्यक्तित्व का रूपांतरण भी साथ-साथ होता चलता है. वे जैसे-जैसे क़द में बड़े होते जाते हैं वैसे-वैसे उनके बाल छोटे होते चले जाते हैं और उसी अनुपात में उनकी सरलता, स्वाभाविकता, अल्हड़पन और सच्चाई भी कम होती चली जाती है. वे अब सरल नहीं रहते, जटिल हो जाते हैं, स्वाभाविक नहीं रहते कृत्रिमता उन पर हावी हो जाती है, वे हसंमुख और अल्हड़पन की जगह गंभीरता का आवरण ओढ़ लेते हैं, स्वाभाविक अभिमान अहंकार में बदल जाता है और एक साधारण आदमी अचानक से अभिजात वर्ग का प्रतिनिधि लगने लगता है. अभिजात्य उनके पूरे व्यक्तित्व पर पसर जाता है. उनके हाव भाव, चाल-ढाल हर चीज़ पर.

          अपनी सफलताओं और प्रबंधन के साथ संबंधों के बल पर सर्वेसर्वा बन जाते हैं. आदमी जैसे-जैसे सत्ता और ताक़त पाता जाता है वैसे-वैसे वो मन में अधिक और अधिक सशंकित होता जाता है और सबसे पहले उन लोगों को ख़त्म करने का प्रयास करता है जो उसके लिए यानी उसकी सत्ता के लिए ख़तरा हो सकते हैं. धोनी एक-एक करके सारे सीनियर खिलाड़ियों को बाहर का रास्ता दिखाते हैं चाहे वो गांगुली हों, लक्ष्मण हों, द्रविड़ हों, गंभीर हों, हरभजन हों, सहवाग हों या फिर सचिन ही क्यों न हों. इनमें से ज़्यादातर खिलाड़ी अपने खेल के कारण नहीं बल्कि धोनी की नापसंदगी के कारण ही हटे. वे इतने शक्तिशाली थे कि टीम में वो ही खेल सकता था जिसे वे चाहते. तभी तो रविन्द्र जडेजा जैसे औसत प्रतिभा वाले खिलाड़ी टीम में लगातार बने रहे और अमित मिश्र जैसे कई खिलाड़ी टीम में अंदर-बाहर होते रहे.

        जब मोहिंदर जैसे बड़े कद के चयनकर्ता उनके विरुद्ध हुए तो उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा. यहां पर पाकिस्तान के इमरान याद आते हैं. जिस समय उनके हाथ में पाकिस्तानी टीम की कमान थी, वे एकदम तानाशाह की तरह व्यवहार करते थे. यहां तक कि लोकल स्तर पर खेलते खिलाड़ी को देखते और राष्ट्रीय टीम में शामिल कर लेते. अपनी प्रतिभा के बल पर उन्होंने अपनी कप्तानी में पकिस्तान को विश्व कप जिताया और टीम को नई ऊंचाईयां भी दी लेकिन उन्होंने पाकिस्तानी क्रिकेट के ढांचे को ही नष्ट कर दिया कि उनके जाते ही पाकिस्तानी क्रिकेट रसातल में चला गया और आज तक नहीं उबर सका. थोड़ा ग़ौर करेंगे तो आप पाएंगे कि धोनी भी अक्सर इमरान की तरह व्यवहार करते प्रतीत होते हैं. गनीमत यह हुई कि भारतीय क्रिकेट का ढांचा इतना मज़बूत है कि नुकसान न के बराबर या बिलकुल नहीं हुआ.

            उनका यह व्यवहार केवल टीम के स्तर पर ही नहीं दीखता है बल्कि मैदान में भी दिखाई देता है. वे मैदान में अब एक तरह की कृत्रिम गंभीरता ओढ़े नज़र आने लगे. जैसे-जैसे वे सफल होते गए उनकी ‘कैप्टन कूल’ की छवि मज़बूत हो गई. ये सही है कि आज खेल भी बहुत कॉम्प्लिकेटेड हैं और प्रतिद्वंद्विंता बहुत ज़्यादा हो गयी है और ऐसे में किसी भी खिलाड़ी और विशेष रूप से कप्तान का ‘कूल’ होना बनता है. लेकिन कूल होने का मतलब इतना ही है कि विषम परिस्थितियों में भी खिलाड़ी धैर्य और संयम बनाये रखे और कठिन समय में शांत दिमाग से परिस्थितियों के अनुसार फ़ैसले ले सके. इसका ये मतलब यह कतई नहीं हो सकता कि आप जीत में उत्तेजित और उल्लसित न हों और हार में दुखी. खेल तो नाम ही जोश और जूनून का है. आप भावनाओं को काबू में रख ही नहीं सकते. आप मशीन नहीं हो न. आप भाव रहित यंत्रवत कैसे हो सकते हो? धोनी अक्सर जीत-हार के बाद निष्पृह से दिखाई देते हैं मानो जीत-हार का कोई असर उन पर हुआ ही न हो. क्या वे खेल नहीं रहे थे? क्या वे पैसा कमाने के लिए काम भर कर रहे थे?

          उनकी बैटिंग का अंदाज़ बड़ा अनाकर्षक था. उनका रक्षात्मक शॉट देखिये. वे सीना आगे निकाल कर पैरों पर झुकते हुए बड़े ही अजीबोगरीब ढंग से गेंद को धकेलते थे. ऐसे ही हेलीकॉप्टर शॉट कहीं से भी आकर्षक नहीं लगता. एक बात और, जब कोई बॉलर विकेट लेता है तो वह बैट्समैन की ओर एक ख़ास भाव से देखता है या कुछ हाव-भाव प्रकट करता है. ठीक उसी तरह से जब बल्लेबाज़ चौका या छक्के लगाता है तो या तो बॉलर की ओर देखता है या हाव-भाव प्रकट करता है जो बैट्समैन या बॉलर को चिढ़ाए और उसमें खीज़ पैदा करे. दरअसल ये हाव-भाव केवल अपनी योग्यता दिखाने के निमित्त मात्र नहीं होते बल्कि प्रकारान्तर से अपने विपक्षी की काबिलियत की स्वीकृति भी होती है. लेकिन धोनी चौके-छक्के लगाकर भी भावहीन बने रहते हैं, कोई प्रतिक्रिया नहीं देते, जैसे ये कोई बड़ी बात नहीं है. प्रकारान्तर से वे बॉलर की क़ाबिलियत को नकारते हैं. ऐसा करके वे एक ख़ास क़िस्म का अहंकार प्रदर्शित करते हैं. जैसे-जैसे उनका क़द बड़ा होता गया, वैसे-वैसे उनमें सरकाज़्म बढ़ता गया. आप उनकी प्रेस वार्ताएं देखिए. उनके जवाबों में हमेशा एक ख़ास क़िस्म का व्यंग्य लक्षित करेंगे. ये अपने को श्रेष्ठ मानने के अहंकार से उपजा था, जिसमें वे मीडिया को कुछ भी बताना ज़रूरी नहीं समझते थे.

             और अंत में एक बात और. वे आईपीएल में एक ऐसी टीम से जुड़े थे, जिसके मालिक सट्टेबाज़ी से जुड़े थे. ये सभी जानते कि किस तरह से मामले को थोड़े बहुत कार्यवाही करके रफ़ा-दफ़ा किया गया. एक टीम के मालिक इतने गहरे से सट्टेबाज़ी में संलिप्त हो और टीम के कप्तान को कोई जानकारी न हो, ऐसा संभव नहीं लगता वह भी जब उसके मालिक के साथ उनके आर्थिक हितों में साझेदारी हो. कुछ छींटे धोनी पर भी पड़े थे. हालांकि सीधे तौर पर उनकी भागीदारी का कोई सबूत नहीं मिला. लेकिन उस टीम के कप्तान के तौर पर भी और एक बड़े खिलाड़ी के तौर पर उनकी नैतिक ज़िम्मेदारी तो बनती ही है और इस मामले में उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभाई. आप जानते हैं कि इस तरह के आरोप किस तरह से आपकी छवि धूमिल करते हैं. इसका सबसे बड़ा उदाहरण अज़हरुद्दीन हैं. वे धोनी से बड़े खिलाड़ी थे और निःसंदेह उन्हीं की तरह सफल कप्तान भी. यही सब कारण हैं कि धोनी के सन्यास की घोषणा करने के बाद भी कुछ ख़ालीपन-सा नहीं लगा.

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इसके बावजूद धोनी निर्विवाद रूप से एक बेहतरीन एथलीट, क्रिकेट की असाधारण समझ और अंतर्दृष्टि रखने वाले और शानदार नेतृत्वकर्ता थे. यह भारतीय क्रिकेट के सबसे सफल और चमकदार युग की समाप्ति है. भविष्य में भारतीय क्रिकेट के लिए इससे बेहतर समय हो सकता है, ख़राब हो सकता है पर ऐसा तो बिल्कुल नहीं होगा.

गुड बाय धोनी!

Monday 10 August 2020

देहरादून प्रवास डायरी 04

 



किसी की ज़िंदगी में तीस साल का वक़्फ़ा बहुत होता है. एक तिहाई या उससे थोड़ी ज़्यादा ही ज़िन्दगी. लेकिन एक शहर के लिए इतना वक़्फ़ा क्या होता है? शायद कुछ भी तो नहीं!

लेकिन समय है कि बहुत तेज़ दौड़ रहा है और आदमियों के साथ ये शहर भी दौड़े चले जा रहे हैं.

यूं तो किसी भी जगह को कुछ समय बाद दोबारा देखोगे तो कुछ बदली-बदली-सी ही लगेगी. पर इसमें सारा दोष जगह या समय का नहीं बल्कि आपकी स्मृति का भी होता है जो इस क़दर स्थिर होती है कि ज़रा-सी टस से मस नहीं होती. और समय है कि भागा-भागा जाता है, रुकने का नाम नहीं लेता. और जगहें तो समय के साथ ही क़दमताल करती है. वे ठहरी हुई स्मृति से बहुत आगे जा चुकी होती हैं. सवाल बस इतना है कि आगे जाने की कोई सीमा या गति भी होती है या नहीं.

कोई शहर तीस सालों में इस क़दर बदल जाएगा, इसका ज़रा भी गुमान न था.

एक शहर देहरादून था. एक शहर देहरादून है. उफ्फ़ क्या हाल हो गया है?

समय एकदम याद नहीं है. अगर स्मृति पर ज़्यादा ज़ोर डाला जाए तो एकदम सही समय भी बताया जा सकता है. फिर भी इतना तय है यह पिछली शताब्दी के अंतिम दशक का पहला या दूसरा साल ही था. वे गर्मियों के दिन थे. तब इस शहर को पहली बार देखा था. दिल आ गया था. लगा था कि शहर हो तो ऐसा. कितना भाग्यशाली लगा था ये शहर. इस शहर पे प्यार तो आया था मगर ईर्ष्या भी हुई थी यहां के लोगों से. तब यही लगा था इस शहर में रहने वाले कितने क़िस्मत वाले होंगे.

तब इस शहर को देखकर यही लगा था उफ्फ़ ये शहर! ये शहर है या कोई सुकोमल, कमनीय, ख़ूबसूरत, अलसाया-सा राजकुमार… हाँ, कुछ ऐसा ही तो लगा था. यह पहली नज़र में प्यार हो जाने वाला मसला था. एक ऐसा शहर जिसे मौसम की मार से बचाने के लिए चारों ओर पहाड़ियों ने दुशाला ओढ़ा रखा है. गहरी हरी घनी हरियाली ने सूर्य देवता के कोप से बचाने के लिए उसके सिर पर छावा कर दिया हो. और वो पहाड़ों की रानी मसूरी उसके शीश पर मुकुट सी शोभायमान थी. और रात में उसकी जलती-बुझती बिजलियां उस मुकुट में चमकती मणियों से कम कुछ भी प्रतीत हो सकती थीं भला. चारो ओर फैले बासमती के धानी रंग के खेतों के वस्त्र उस राजकुमार पर कितने फबते थे. और-और वे सरस, रसीली लीची और गदराए आम के पेड़ उसके वसन पर टंके सितारे से ही तो होते थे. बासमती की वो महक उसकी जठराग्नि दीप्त करती और आम और लीची को मादक गंध उसकी क्षुधा को शांत. वो राजपुर वाली सड़क तो उसके गले में पड़ा खूबसूरत हार ही था न. और हाँ, याद आया वो रिस्पना उसकी कमर पर लटकी करधनी ही थी न. और वे एलीट संस्थाएं मसलन भारतीय सैन्य अकादमी, फ़ॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट, डील, सर्वे कार्यालय! उसके सीने पर शान से लहराते तमगे ही तो थे.

ऐसे रूप पर आदमी तो क्या देवता का दिल भी न डोल जाए तो क्या हो. आख़िर इंद्र देव उस पर यूं ही मेहरबां थोड़े ही हुए होंगे कि सूर्य ने शरारतन जब भी इस राजकुमार को परेशान करने की नीयत से ज़रा-सा ताप बढ़ाया नहीं कि इंद्र की आंखों से दुःख की बूंदें बह निकलती और तब तक बहती रहती जब तक सूर्य के ताप से राजकुमार को राहत न मिल जाती.

हो सकता है दोस्तो, मैं उस राजकुमार की डिटेलिंग में कुछ भूल रहा हूँ. आख़िर उसकी ख़ूबसूरती को परखने के लिए दो दिन का वक़्फ़ा ज़्यादा थोड़े ही होता है. अगर आपको कुछ याद हो या याद आए तो आप उसमें जोड़ लेना.

ये आपकी ख़ुशक़िस्मती होती है कि आपकी इच्छाएं पूर्ण होती हैं. लेकिन इच्छाओं के पूर्ण होने की समय के साथ एक संगति भी होनी चाहिए. समय बीत जाने पर इच्छाओं का पूर्ण होना इच्छाओं के अपूर्ण रह जाने से होने वाले दुःख से भी ज़्यादा मारक साबित होता है या हो सकता है.

इच्छा पूरी हुई. मन की मुराद गले आ लगी. यज्ञ भूमि से देवभूमि में वास करने का मौका मिला. तो दून घाटी आ लगे. इस बार घूमने थोड़े ही आए थे. अब तो हम ख़ुद को उनमें गिन रहे थे, जिनको हमने पिछली बार ख़ुशनसीब माना था.

दिल उस ख़ूबसूरत राजकुमार को लंबे अरसे बाद देखने को बेताब हो चला था.

ये क्या! शहर में घुसते ही दिल धक-धक करते-करते हौंकने लगा था. ढलती साँझ के वक़्त हल्की बूंदाबांदी में रेंगते ट्रैफिक शहर की उदासी को घनीभूत करके रात को कुछ ज़्यादा गाढ़ा बनाने की भूमिका तैयार करता लग रहा था. अनहोनी की आशंका मन में जन्मने लगी थी, जिसे सच साबित होना था.

सोचा तो ये था इन बीते तीस सालों में ये सुकोमल-सा राजकुमार कुछ और गबरू नौजवान हो गया होगा. लेकिन ये क्या! ये तो ज़िम्मेदारियों के बोझ से दबा जवानी में ही बुढ़ाते, हांफते, गिरते-पड़ते आम आदमी-सा दिखाई देने लगा था. ये उम्मीदों का एन्टी-क्लाईमेक्स था.

चारों ओर कुकुरमुत्तों की तरह बेतरतीब सी उगी कॉलोनियां ने उसके पेट के आयतन को असीमित रूप से बढ़ा दिया है कि अब पैदल चाल तो क्या ऑटो इंची टेप से नाप पाना दुष्कर हो चला है. अब वे धानी धान के खेत वाले वसन उसके इस सुरसा के मुख की तरह बढ़े शरीर को ढक पाने में कहां समर्थ हैं. वे तो अब उसके शरीर पर चिथड़े से ही लगते हैं. हरियाली सिरे से ग़ायब है. अब लीची और आम के साथ-साथ बाक़ी पेड़ भी कहाँ बचे? तभी वो अब गंजा दीखने लगा है. अब शायद उसे ‘बाल्ड इज़ ब्यूटीफुल’ की सूक्ति से तसल्ली मिल जाती रही होगी. चारों तरफ फैला अतिक्रमण उसके चेहरे पर बेतरतीब खिचड़ी दाढ़ी-सा आंखों को चुभता है. आम और लीची की वो मीठी ख़ुशबू अब नालियों और नालों ने सोख ली है. जगह-जगह भरा पानी कील मुहांसे के अवशेष गड्ढे से नज़र आते हैं. और वे एलीट संस्थाएं अब तमगों की जगह टाट पर रेशमी पैबंद सी लगती हैं.

ऐसा नहीं कि उसके रंग-रूप को बचाने की कोशिश न की गई हो. बार-बार हुई है. लेकिन जब जब कोशिश होती वो उसके चेहरे पर किसी थर्ड ग्रेड सैलून में हुए फूहड़ मेकओवर से ज़्यादा कुछ नहीं होता. रूप बदलने के लिए एकाध बार प्लास्टिक सर्जरी की कोशिश भी हुई पर उससे बेहतर होने के बजाय और कुरूप होकर बाहर निकाला.

उफ्फ़ राजकुमार का ये हाल कर डाला उसके दरबारियों ने. वह भी इतने कम समय में. यकीन ही नहीं होता. हक़ीक़त और इतनी अविश्वसनीय. कमाल है न!

अब आप जब भी उस ख़ूबसूरत राजकुमार को देखने आएंगे तो उसकी जगह आपको संसाधनों के अभाव और बेशुमार ज़िम्मेदारियों के बोझ के मारे लाचार अधेड़ से मुठभेड़ होगी.

तो दिल थाम कर आइए. कलेजा हाथ में लेकर आइए. हां, आप इससे कभी पहले नहीं मिले तब कैसे भी चलेगा.

लेकिन कमाल है कि वो ज़िंदा है. उसमें एक दिल धड़कता है. वो अब भी वैसे ही धक-धक करता है जैसे कभी पहले करता था. जानते हैं क्यूं. क्योंकि इसमें अभी भी लिक्खाड़ रहते हैं, कवि और शायर रहते हैं, कलाकार रहते हैं, और बहुत सारे मानुस भी रहते हैं. वे अब भी इसमें विश्वास करते हैं और इससे प्यार करते हैं. वे उसमें जान फूंकते हैं. वे उसकी प्राण वायु हैं. उसकी धड़कन हैं.

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आज भी यकीन होता है शहर शरीर से कितना भी जर्जर हो जाए, आत्मा तो ज़िंदादिल बनी रहेगी.

#देहरादून_प्रवास_डायरी_04

ये हार भारतीय क्रिकेट का 'माराकांजो' है।

आप चाहे जितना कहें कि खेल खेल होते हैं और खेल में हार जीत लगी रहती है। इसमें खुशी कैसी और ग़म कैसा। लेकिन सच ये हैं कि अपनी टीम की जीत आपको ...