Wednesday 26 September 2018

अलविदा जसदेव सिंह!



खेल सिर्फ वो भर नहीं होता जो खिलाड़ी मैदान में खेल रहे होते हैं। खेल मैदान से बाहर जो दर्शक होते हैं वे उस खेल को सम्पूर्णता प्रदान कर रहे होते हैं। और दर्शक मात्र वे भर नहीं होते जो वहां प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित होते हैं बल्कि वे दर्शक उसे पूर्णता प्रदान कर रहे होते हैं जो अपने श्रवणेन्द्रियों के माध्यम से मष्तिष्क पटल पर उस खेल की प्रतिकृति को देख रहे होते हैं।मैदान से उन अनुपस्थित दर्शकों के लिए खेल की प्रतिकृति तैयार करके उन दोनों को एक कर देने वाली कड़ी कमेंटेटर होता है। खेल और अनुपस्थित दर्शकों के बीच रागात्मक एकता उत्पन्न करने वाली सबसे मज़बूत कड़ी आज टूट गई और खेलों की प्रतिकृति तैयार वाली सबसे बेहतरीन कूंची का स्वामी अंततः चला गया। आवाज़ के जादूगरों-मर्विन डीमेलो(अंग्रेजी कमेंट्री),देवकी नंदन पांडेय(समाचार वाचन),अमीन सयानी(मनोरंजन) और जसदेव सिंह(हिंदी कमेंट्री) की जिस चौकड़ी को सुनते हुए हमारी पीढ़ी बड़ी हुई उसका एक और स्तम्भ आज ढह गया। जसदेव सिंह  ने इस नश्वर संसार को अलविदा कहा। अब कमेंट्री चाहे जैसी हो पर वैसी बिलकुल नहीं होगी जैसी उनके होने से होती थी। 

                             दरअसल जसदेव सिंह आवाज के ऐसे जादूगर थे जो अपनी आवाज़ की कूंची से आरोह अवरोह की टेक्नीक और जोश,उत्साह,उमंग,आस,निराश,हर्ष,विषाद जैसे संवेगों  के रंगों से सुनने वाले के मन के कैनवास पर घटनाओं की हूबहू अमिट तस्वीर बना देते थे। सन 1975 में जब मैं 11 साल का था,उन्होंने हॉकी विश्व कप फाइनल की एक ऐसी ही तस्वीर उकेरी थी जो आज भी अमिट है। उनकी वो आवाज़ आज भी कानों में वैसे ही गूंजती है और हमेशा गूंजती रहेगी,चाहे वे रहें या ना रहें।उनका जाना एक व्यक्ति या एक कमेंटेटर का जाना भर नहीं है। ये पूरे एक युग का अवसान है। अलविदा जसदेव सिंह!

Friday 21 September 2018

'इलीट' और 'मासेस' के खांचे बहुत स्पष्ट हैं



'इलीट' और 'मासेस' के खांचे बहुत स्पष्ट हैं
-----------------------------------------------   
               विराट कोहली को 'खेल रत्न' मिला। बिला शक वे इस के हक़दार हैं। उन्हें बधाई।तो क्या बजरंग पूनिया की उपलब्धियां उनसे कम हैं। मेरा जवाब ना। तो उन्हें 'खेल रत्न' क्यों नहीं। और यहीं मेरा संदेह थोड़ा और बढ़ जाता है कि हमारे दिमागों में अभी भी 'इलीट' और 'मासेस' के खांचे बहुत स्पष्ट हैं।यहां बहुधा ऐसा होता है कि सोना कोई 'उगाता' है। सोने की चमक कोई और ले उड़ता है। और उगाने वाले के पास बिना चमक वाली धातु मसलन कांसा बच रह जाता है। 
             इसी समय तरनवा स्लोवाकिया में जूनियर विश्व कुश्ती चैम्पियनशिप चल रही है। ग्रीको रोमन शैली के 77 किलो भार वर्ग में साजन भानवाला ने रजत पदक जीता। टेम्पेरे में आयोजित पिछली प्रतियोगिता में उन्होंने कांस्य पदक जीता था। इस तरह से वे बैक टू बैक पदक जीतने वाले पहले भारतीय पहलवान बने। इसके अलावा वे एशियाई चैम्पियनशिप में पहले कांसा और फिर स्वर्ण जीत चुके हैं। उनकी ये उपलब्धि बहुत बड़ी है क्योंकि भारत में ग्रीको रोमन शैली बहुत प्रचलित और लोकप्रिय नहीं है। दरअसल इस शैली में पहलवान को कमर से नीचे हाथ नहीं लगाना होता है। साजन हरयाणा के एक साधारण से कृषक परिवार से है। जब उसकी जीत की खबर उनके परिवार को मिली तो उनकी प्रतिक्रिया इतनी ही थी कि  उनके लड़के ने देश के लिए नाम किया है। ये प्रतिक्रिया वैसी ही थी जैसी जीवन में आमतौर पर होती है। वे ज़मीन से जुड़े है।वे  धरती पुत्र हैं और धरती उनकी माता है। वे अपनी किस्मत के बीज धरती में बोते हैं,श्रम से निकले पसीने के खाद पानी देकर फसल के रूप में सोना उगाते हैं। लेकिन उसकी चमक  बिचौलिए ले उड़ते हैं। उनके पास बचता है उनकी मेहनत का लोहा और नमक जिससे सहारे वे ज़िंदगी की पहाड़ सी दुश्वारियों का सामना करते हैं और फिर फिर सोना उगाने के कर्म में प्रवृत होते हैं।  
                     आप कुछ दिन पीछे की और घूमे और 18वें एशियाई खेलों में पदक विजेताओं की सूची देखिए उनमे से कितने ही साधारण किसान परिवारों से हैं। फिर और पीछे जाईये। 5 साल,10 साल,15 साल या फिर 20 साल। स्मृति पर ज़ोर डालें और देखें अधिसंख्य पदक विजेता साधारण कृषक परिवारों वाली बैकग्राउंड वाले खिलाड़ी हैं। यानी धरती से सोना उगाने वाली पृष्ठभूमि से। वे जब गांव से निकल कर खेल मैदानों में प्रवेश करते हैं तो ये मैदान ही उनके लिए उर्वर भूमि बन जाते हैं जिसमे वे अपने सपनों के बीज बोते हैं,उम्मीदों और लगन की खाद और श्रम से पैदा पानी लगाते और उससे पदकों की फसल उगाते हैं। ये फसल इतनी ज़्यादा लहलहा सकती है यदि उन्हें तकनीकी सहयोग,कुशल प्रशिक्षण और प्रोत्साहन के न्यूट्रिएंट सप्लीमेंट मिल सकें। लेकिन  उससे भी ज़रूरी है इस फसल को बेईमानी,भाई भतीजावाद और भ्रष्टाचार की कीट-व्याधियों से बचाया जाए और हां उससे भी ज़रूरी उनकी मेहनत के कमाई की चमक लूटने वाले बिचौलियों और परजीवियों से बचाया जाए। अन्यथा लहलहाती फसल को नष्ट होने में भी देर नहीं लगती। 
-----------------------------------------------













Monday 17 September 2018

ओ सरदारा पाजी तू घना याद आंदा

सरदारा पाजी खेल मैदान से अलविदा
--------------------------------------
आप चाहे जीवन के खेल में दो चरम बिंदुओं के बीच मध्यम मार्ग चुन कर मज़े से खेल सकते हैं,लेकिन खेल के जीवन में  मध्यम मार्ग उतना सीधा और सरल नहीं होता,बल्कि यूँ कहा जा सकता है कि ये सबसे कठिन होता है।यहां बात हॉकी और फुटबॉल की है और उनके मिडफ़ील्ड की है। दरअसल मिडफ़ील्ड की पोजीशन सबसे महत्वपूर्ण होती है और इसीलिए इस पर खेलना सबसे कठिन भी। 

       चाहे फॉरवर्ड हों या फुल बैक उन्हें सिर्फ अपनी पोजीशन के खेल में महारत हासिल करनी रहती है। लेकिन मिडफील्डर को अपनी पोजीशन के खेल की महारत हासिल करने के लिए फॉरवर्ड और फुल बैक/डिफेंडर दोनों की पोजीशन के खेल में महारत  हासिल करनी होती है।मिडफील्डर वो केंद्र बिंदु जिसके इर्द गिर्द खेल चलता है।वे पहले तो आक्रमण की ज़मीन तैयार करते हैं,मूव बनाते हैं और फिर फॉरवर्ड के साथ विपक्षी किले पर आक्रमण करते हैं। और साथ ही विपक्षी के आक्रमण की जंगे मैदान के बीचों बीच धार भोथरी ही नहीं करते बल्कि अपने डिफेंडरों के साथ मिल कर अपने क़िले की रक्षा भी करते हैं। दरअसल वे ही हैं जो अपने गोल से लेकर विपक्षी गोल तक मार्च करते हैं और पेट्रोलिंग भी। आज के टोटल गेम में भी सबसे ज़्यादा मेहनत उन्हें ही करनी होती है। अभी  हाल ही संपन्न हुए विश्व कप फुटबॉल ने साबित किया कि जब जिस टीम के मिडफील्डरों ने शानदार खेल दिखाया जीत उन्हें ही नसीब हुई।
 
लेकिन आप जब भारत की हॉकी के मिडफील्ड की बात करते हैं तो दो नाम ही याद आते हैं। अजीत पाल सिंह और सरदार सिंह।पहला पंजाब के संसारपुर गांव से तो दूसरा हरयाणा के संत नगर गांव से। भारतीय हॉकी के दो भिन्न कालखडों के दो सर्वश्रेष्ठ मिडफील्डर।अजीत स्वर्णिम दौर के सबसे बेहतरीन सेंटर हॉफ तो सरदार सिंह अधोगति के बाद पुनर्निर्माण दौर के सबसे बेहतरीन मिडफील्डर। 
            सरदार सिंह ने 2006 अंतर्राष्ट्रीय हॉकी में प्रवेश किया और एशियाई खेलों में खराब प्रदर्शन के बाद अपने 12 साल लम्बे अंतर्राष्ट्रीय खेल जीवन को अलविदा कहा। दरअसल वो 20वीं शताब्दी के पहले दो दशकों का सबसे शानदार खिलाड़ी है। उसने भारत के लिए 300 से ज़्यादा  मैच खेले। भारतीय हॉकी के इस पुनर्निर्माण के  वो एकमात्र ऐसा खिलाड़ी था  विश्व की किसी भी टीम के लिए खेल सकता था।वो दो बार एफआईएच के प्लेयर ऑफ़ द ईयर के लिए नामांकित हुआ। वो शानदार प्लेमेकर था।आक्रमण के लिए मूव बनाते समय वो मैदान में पानी सा बहता और प्रतिपक्ष के आक्रमण के समय चट्टान सा खड़ा हो जाता। वो अपने साथियो को शानदार पास देता। इसमें उसको गज़ब की महारत हासिल थी। वो राइटहेंडर था। एक राइट हेंडर के लिए दांये से बाँए पास देना सबसे आसान होता है। लेकिन उसने एक नया पास इज़ाद किया। बिलकुल क्रिकेट के रिवर्स स्वीप सा। वो ड्रिब्लिंग करते हुई बांये से दांये रिवर्स पास करता। वो असंभव कोणों से पास करता। उसके पास बेहद सटीक होते। जिस समय 32 साल की अपने बूट खूंटी पर टाँगे उस समय वो हिन्दुस्तान का सबसे फिट एथलीट था। भारतीय खेलों में फिटनेस का पर्याय माने जाने वाले  कोहली से भी ज़्यादा। एशियाई खेलों  में जाने से पहले उसने यो-यो फिटनेस टेस्ट में 21.4  का स्कोर किया जबकि उसी समय कोहली का उस टेस्ट में स्कोर 19 था।
---------------------------------- 
उसके खेल मैदान में ना होने का ख्याल मन में एक अजीब सा खालीपन को भर देता है। और ये तय है कि इस खालीपन को जल्द भर पाना संभव नहीं। तो अपने एक और पसंदीदा खिलाड़ी को खेल मैदान से अलविदा !








Monday 10 September 2018

चाँद दाग़दार है तो हुआ करे खूबसूरत तो है



चाँद दाग़दार है तो हुआ करे खूबसूरत तो है
-----------------------------------------------

                        आदि काल से लेकर आज तक चाँद कवियों का सबसे खूबसूरत और पसंदीदा उपमान रहा है। तो क्या ही ताज्जुब कि एक बीस साला खिलाड़ी जो अभी अभी अपनी टीन ऐज से बाहर आई हो,के लिए अपना पहला ग्रैंड स्लैम खिताब चाँद जैसा ना रहा होगा। लेकिन जब कवि चाँद के लिए कहता है 'मगर उसमें भी दाग़ है' तो ये विडम्बना ही है कि उस खूबसूरत उपमान को उस दाग़ के साथ ही स्वीकारना पड़ता है। और स्वीकारें भी क्यों ना उस दाग़ से उसकी खूबसूरती पर क्या फर्क़ पड़ता है। ठीक ऐसे ही जापान की युवा खिलाड़ी ओसाका के लिए उसका पहला ग्रैंड स्लैम खिताब यू एस ओपन हमेशा ही चाँद जैसा रहेगा क्या फ़र्क पड़ता है कि उसके साथ सेरेना-रामोस विवाद दाग़ के रूप में हमेशा जुड़ा रहेगा।
                    आज फ्लशिंग मीडोज स्थित बिली जीन किंग नेशनल टेनिस सेंटर के आर्थर ऐश सेंटर कोर्ट पर महिला टेनिस की महानतम खिलाड़ियों में से एक सेरेना विलियम्स और जापान की युवा खिलाड़ी नाओमी ओसाका जब आमने सामने हुईं तो दो खिलाड़ी ही एक दूसरे से मुख़ातिब नहीं हो रहे थे बल्कि एक विशाल अनुभव से एक युवा जोश मुक़ाबिल हो रहा था। 36 वर्षीया सेरेना का ये 30वां ग्रैंड स्लैम फाइनल था तो उनसे 16 साल छोटी 20 वर्षीया ओसाका अपना पहला ग्रैंड स्लैम फाइनल खेल रही थीं। जीतता कोई भी एक नया इतिहास बनना तय था। देखना ये था कि सेरेना 24वां ग्रैंड स्लैम जीत कर मारग्रेट कोर्ट की बराबरी करती हैं या फिर ओसाका ग्रैंड स्लैम जीत कर ऐसा करने वाली पहली जापानी खिलाड़ी बनती हैं। यहां जोश ने अनुभव को हरा दिया। इतिहास ओसाका ने रचा। जब वे सेरेना को 6-2 और 6-4 से हरा रहीं थीं तो वे केवल एक मैच भर नहीं जीत रही थीं वे बंद आँखों से देखे अपने सपने को फ्लशिंग मीडोज के मैदान पर साकार कर रहीं थीं,अपनी कल्पनाओं में बनाये चित्र में यथार्थ के रंग भर रहीं थीं,अपने बचपन में पढ़ी किसी परी कथा को मैदान पर जी रही थीं।उन्होंने बताया कि नज़्म हरूफ से सफ़े पर ही नहीं लिखी जाती है बल्कि खेल के बीच मैदान पर भी रची जाती है।

              आज जब उनके सामने सेरेना खड़ी थीं तो वे महज़ एक प्रतिद्वंदी नहीं थीं बल्कि उनका आदर्श भी थीं और उनका सपना भी। जब सेरेना अपना पहला ग्रैंड स्लैम रही थीं तब नोआमी कुछ महीने थीं।सेरेना को देखकर ही उन्होंने टेनिस खेलना शुरू किया और किसी दिन किसी ग्रैंड स्लैम में उनके खिलाफ खेलने के सपने को मन में समाए बड़ी हुईं। वे सेरेना से इस कदर प्रभावित थीं कि उनके ग्राउंड स्ट्रोक्स तक सेरेना की तरह हैं। और क्या ही विडम्बना है अपने आदर्श के हथियार से ही उन्होंने उनको मात दी।

                ओसाका शुरू से ही आत्म विश्वास भरी थीं। उन्होंने ना केवल कुछ महीने पहले मियामी ओपन में सेरेना को हराया था बल्कि इस प्रतियोगिता में ज़बरदस्त फॉर्म में थीं और यहां तक के सफर केवल एक सेट खोया था। दूसरी ओर सेरेना पास ना केवल लंबा अनुभव था बल्कि 14 महीने बाद वापसी करने के पश्चात बैक टू बैक दूसरा मेजर फाइनल था।इससे पहले वे विंबलडन के फाइनल में पहुँच चुकी थी और इस प्रतियोगिता में भी शानदार खेल रही थीं।जिस तरह से उन्होंने सेमी फाइनल में सेवस्तोवा के विरुद्ध नेट पर खेल दिखाया था और 6-3,6-0 जीतीं उससे भी लग रहा था कि वे अपनी पुरानी रंगत में लौट आई हैं।लेकिन आज ओकासा का दिन था।उन्होंने शुरू से ही खेल पर नियंत्रण रखा।उन्होंने शानदार सर्विस की और बेसलाइन से खेल पर नियंत्रण रखते हुए ज़बरदस्त फोरहैंड पासिंग शॉट्स लगाए।दूसरी ओर सेरेना ने बेज़ा गलतियां की और हर सर्विस गेम में डबल फाल्ट किए।पहले सेट में ओकासा ने दो बार सर्विस ब्रेक की और सेट आसानी से 6-2 से जीत लिया।लेकिन दूसरे सेट में सेरेना ने वापसी की और 3-1 की बढ़त ले ली।ऐन इसी समय वो हुआ जो नहीं होना चाहिए था।अंपायर रामोस ने खेल संहिता के उल्लंघन के लिए पहली चेतावनी दी कि बॉक्स से उनके कोच उन्हें इशारा कर उन्हें सहायता पहुंचा रहे हैं ।इस से सेरेना भड़क गयी और इस बात से इंकार किया।अगले ही गेम में एक अंक पर हताशा में रैकेट पटका तो रामोस ने खेल संहिता के दूसरे उल्लंघन के लिए ओकासा को एक अंक दे दिया।इस पर सेरेना और ज़्यादा भड़की और ना केवल रामोस को चोर कहा बल्कि माफी मांगने को कहा।इस पर तीसरे उल्लंघन के लिए एक गेम ओकासा को दे दिया।अब स्कोर 5-3 ओकासा के पक्ष में हो गया ।ओकासा ने धैर्य बनाये रखा और आखिरी गेम जीत कर फाइनल अपने नाम किया।ये क्या ही विरोधाभास था कि एक अनुभवी और सीनियर खिलाड़ी जिससे और अधिक संयम और समझदारी की उम्मीद थी उसने अधिक उग्र रूप दिखाया इसके विपरीत ओकासा ने ग़ज़ब की परिपक्वता और संयम का परिचय दिया।उनपर ना तो सेरेना के विशाल व्यक्तित्व का असर पड़ा और न इस असाधारण घटनाक्रम का। उसने खेल पर अपना फोकस रखा और इतिहास निर्मिति का सबब बनीं।

                              दरअसल इस घटनाक्रम ने अगर सबसे बड़ा नुक्सान किया तो खेल का किया।अगर ये ना हुआ होता तो हो सकता है एक शानदार मैच देखने को मिलता।पर ऐसा हो ना सका।पर जो हो यू एस ओपन को एक नई चैंपियन मिली और जापान को नयी खेल आइकॉन।
                             बहुत बधाई ओसाका!
----------------------------------------
[सेरेना पर कुछ अलग से ।और हाँ डेल पोत्रो और जोकोविच के बीच होने वाले पुरुष फाइनल मैच पर कुछ नहीं क्योंकि अपना एक फेवरिट पहले ही हार चुका है और दूसरा फेवरिट रिटायर हर्ट । अस्तु ।]

Tuesday 4 September 2018

कोई पूछे कि हमसे ख़ता क्या हुई


कोई पूछे कि हमसे ख़ता क्या हुई
------------------------------------

"जीने और मरने की हम थे वजह 
और हम ही बेवजह हो गए देखते देखते.."

               अक्सर ये होता है ज़िन्दगी के साथ कि लिखना कुछ चाहो लिख कुछ और जाता है।कि मुस्कराहट चाहो उदासी लिख जाती है,कि सुबह चाहो सांझ लिख जाती है,कि दिन को चाहो रात लिख जाती है,कि फूल चाहो कांटे लिख जाते है।और क्या ही कमाल है जब शैली कहता है कि हमारे सबसे उदास गीत ही सबसे मधुर गीत होते हैं।
-------------------------------
             जब कलम आँसू लिखती है तो शब्द संगीत की लय पर नृत्य करते हुए भावनाओं की नदी के तटों के बांध तोड़ कर स्वर के सैलाब से एक ट्रेजिक मेलोडी रचते हैं कि मेलोडियस ट्रेजेडी।
--------------------------------
         मनोज मुंतज़िर अपनी कलम से मन के आसमाँ पर उदासी के जो बादल निर्मित करते हैं,रोचक कोहली उन्हें अपने साज़ों से कव्वाली सी धुन और सूफियाना से अंदाज़ में संघनित कर घनघोर घटाओं में तब्दील कर देते है और फिर आतिफ असलम अपनी बहती सी आवाज़ की ऊष्मा से उस घटा को पिघलाते हैं तो आँखे बूंदों की पनाहगाह बन जाती हैं और लब बोल उठते हैं-
"आते जाते थे जो सांस बन के कभी
वो हवा हो गए देखते देखते........."
----------------------------

Saturday 1 September 2018

तस्वीरें दो:एक कहानी









                            तस्वीरें दो:एक कहानी 
                            ------------------------
                           दरअसल खेल आवेगों और संवेगों का नाम है और साथ ही संवेदनाओं के आरोह और अवरोह का भी ।ये विज्ञान तो है पर उससे कहीं अधिक कला है।खेल के मैदान में खिलाड़ी जब अपने संवेगों से एक कलात्मक कृति का निर्माण कर रहा होता है, ठीक उसी समय मैदान के बाहर छायाकार उस कृति की अपने कैमरे के माध्यम से पुनर्रचना कर कुछ बेहतरीन चित्र बना रहा होता है।उनमें से कुछ चित्र अपने कंटेंट में इतने समृद्ध होते हैं कि शानदार और यादगार बन जाते है। 

                               जकार्ता और पालेमबंग में चल रहे 18वें एशियाई खेल लगभग समाप्त हो चले हैं।इस बीच इसकी हज़ारों तस्वीरें मीडिया के माध्यम से हम सभी की नज़रों से गुज़री।पर ये दो तस्वीरें क्या ही शानदार हैं कि ये आँखों से होती हुई आपके दिल पर चस्पां हो जाती और फिर हटने का नाम नहीं लेती।ये दो अलग अलग समय पर ली गयी तस्वीरें एक साथ मिलकर एक कहानी बुनती हैं।

                                   (चित्र ट्विटर से साभार)
                             इन दो तस्वीरों में पहली कर्नल राज्यवर्धन सिंह राठौर की है।वे खेल महकमे के शीर्ष अधिकारी हैं।और ये शीर्ष अधिकारी अपने खिलाड़ियों के साथ एकाकार होता है और खुद अपने हाथों से सूप सर्व करता है। ऐसा करते हुए वे एक शानदार नैरेटिव रच रहे होते हैं।वे अधिकारी से अधिक एक खिलाड़ी हैं और ओलम्पिक में रजत पदक जीत चुके हैं ।वे जानते हैं कि मैदान में खिलाड़ी के दिल दिमाग में क्या चल रहा होता है और उनकी क्या ज़रूरतें हैं।और इसीलिये जब वे सूप सर्व कर रहे होते हैं तो ये सूप भर नहीं होता बल्कि वे सूप से अधिक उनको प्रोत्साहन सर्व कर रहे होते हैं,उनमें जोश और जज़्बा भर रहे होते हैं,उनमें विश्वास और होंसले का संचार कर रहे होते हैं।खेल मैदान के अंदर खिलाड़ी भर नहीं खेल रहा होता बल्कि मैदान के बाहर सपोर्टिंग स्टाफ से लेकर उसके प्रशंसक और पूरा देश उसके खेल को कंप्लीट कर रहा होता है।तो ये तस्वीर यही कह रही होती है कि तुम मैदान के अंदर की सोचो,बाहर पूरा देश तुम्हारे साथ है।ये तस्वीर ठीक उसी तरह का दृश्य रचती है जैसे हाल ही में संपन्न विश्व कप फुटबॉल के दौरान क्रोशिया की राष्ट्रपति की तस्वीरें रचती हैं।

                               (चित्र ट्विटर से साभार)
                                      और पहली तस्वीर जो नैरेटिव बनाती है उसी से दूसरी तस्वीर संभव हो पाती है।ये दूसरी तस्वीर हेप्टाथलान की अंतिम प्रतिस्पर्धा 800 मीटर की दौड़ के तुरंत बाद की है जिसने स्वप्ना बर्मन का सोने का तमगा पक्का कर दिया था।हर खिलाड़ी का एक ही सपना होता है सर्वश्रेष्ठ होने का।स्वप्ना का भी था।उसका वो सपना साकार होता है लेकिन घोर गरीबी,अभावों,शारीरिक कमियों से अनवरत संघर्ष करते हुए।ऐसे में जब सपने पूरे होते हैं तो अनिर्वचनीय सुख की प्राप्ति होती है।ये एक ऐसी ही तस्वीर है जिसमें मानो स्वप्ना अपना सपना पूरा होने के बाद आँखें बंद कर उस पूरे हुए सपने को फिर से जी लेना चाहती है।मानो वो फ़्लैश बैक में जाती है,अपने सपने को रीकंस्ट्रक्ट करती हैं,फिर फिर जीती है,एक असीम आनंद को मन ही मन अनुभूत करती है और एक मंद सी मुस्कान उसकी आत्मा से निकल कर उसके चेहरे पर फ़ैल जाती है,एक चिर संतुष्टि का भाव उसके चेहरे पर पसर जाता है।एक ऐसा भाव जिसे आप चाहे तो आप बुद्ध की विश्व प्रसिद्ध मूर्तियों के शांति भाव से तुलना कर सकते हैं पर वो वैसा है नहीं।दरअसल वो एक ऐसा भाव है जो किसी किसान के फसल के बखारों में पहुच जाने के बाद चैन से बंद आँखों वाले चहरे पर आता है या फिर किसी मेहनतकश मज़दूर के चहरे पर दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद भरपेट भोजन से तृप्त हुई बंद आँखों से आता है।
-------------------------------------
भारतीय खेल के इन दो शानदार दृश्यों को कैमरे की नज़र में कैद करने वाले इन छायाकारों को सलाम तो बनता है।

                                                   (चित्र ट्विटर से साभार)


ये हार भारतीय क्रिकेट का 'माराकांजो' है।

आप चाहे जितना कहें कि खेल खेल होते हैं और खेल में हार जीत लगी रहती है। इसमें खुशी कैसी और ग़म कैसा। लेकिन सच ये हैं कि अपनी टीम की जीत आपको ...