Wednesday 31 December 2014

नया साल मुबारक



         समय ऐसी सतत धारा है जिसमें जीवन अबाध गति से बहता रहता है। इसे न तो कोई बांध सका और ना रोक। हाँ दिन,महीने,साल ऐसे पड़ाव ज़रूर हैं जो आपको ये सुविधा देते हैं कि क्षण भर रूक सकें और देख सकें कि आपकी ज़िंदगी कहाँ पहुँच गई है,उसने कैसा रंग-रूप,आकार ओढ़ लिया है,क्या थी,क्या हो गई है। और आप जब भी इस बारे में सोचते हैं तो आपको लगता है कि ये आपका वर्तमान ही है जो सबसे कठिन समय से गुज़र रहा है। आपका बीता कल आपका सबसे अच्छा समय था। जैसे जैसे आप जीवन में आगे बढ़ते हैं वैसे ही आपका सफर कठिन से कठिनतर होता चला जाता है,संघर्ष सघन होते जाते हैं, चुनौतियाँ महती होती जाती हैं,विरोधी शक्तियाँ बढ़ती जाती हैं। आपको अपना समय सबसे कठिन लगने लगता है। आपको लगता है कि आपका समय घोर अनास्था और संकट का समय है।पर शायद ये हर दौर का सच है। लेकिन हर दौर में बहुत कुछ बल्कि बहुत अधिक सकारात्मक भी होता है जो जीवन को आगे बढ़ाता है। आपके शत्रुओं के बीच कुछ ऐसे मित्र आपके साथ होते हैं जिनके सहारे आप उन्हें बेमानी कर पाते हैं। आपके साथ कुछ ऐसे अपने होते हैं जो आपके जीवन का सबसे बड़ा हासिल होते है जो आपकी हर निराशा को हवा कर देते हैं। बुरे और अच्छे के द्वन्द से एक बेहतर व्यवस्था का निर्माण केवल सामाजार्थिक जीवन का ही सच नहीं है बल्कि आपके भीतर का सच भी है।  आपके भीतर की बुराई को अच्छाई से परास्त होना ही है। बेहतर का निर्माण होना ही है। चाहे जितनी घृणा,आतंक,अन्याय और शोषण व्याप्त हो अंततः प्रेम,एकता,समानता और अहिंसा ही बचनी है। आज भी जीवन में इतना कुछ अच्छा और सकारात्मक है जो अविश्वास और अनास्था के समय में बेहतर भविष्य के सपने देखने का होंसला देता है। इसी होंसले,विश्वास और आस्था के साथ समय के सतत प्रवाह के एक और पड़ाव में प्रवेश करने पर सभी यार दोस्तों को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं !


Tuesday 23 December 2014



तेरी सांसें
सर्द रातों में
शोला बन
देह में कुछ पिघलाती रहीं

तेरी छुअन
तपती दोपहर में भी
बर्फ़ की मानिंद
मन में कुछ जमाती रही

ज़िंदगी बस यूँ ही
पिघलते और जमते
रफ्ता रफ्ता गुज़रती गई। 

Sunday 19 October 2014

पत्थर



तुम  वैसे बिल्कुल नहीं हो 
जैसे कहे 
और समझे जाते हो। 

मैं जानता हूँ 
जब तुम प्रेम में पगते हो 
तो ताजमहल बन जाते हो  
करुणा में भीगते हो 
तो दरिया बन बह निकलते हो  
दुःख से गलते हो 
तो शिवाला बन बैठते हो 
मिटने पर आते हो 
तो रेत बन जाते हो
चक्की का पाट बन 
पेट थपथपाते हो
सिल बट्टा बन 
नथुने महकाते  हो
ख़ुद की रगड़ से घायल होकर भी
दुनिया को रोशन करते हो 
अपने सीने पर 
खुदवाते हो राजाज्ञाएं 
और फिर सदियों तक ढ़ोते हो 

ये सब अच्छा है 
बस एक खराबी है  तुम्हारी 
कि तुम खौलना और धधकना भी  जानते हो 
और अक्सर मज़लूमों के हाथ के 
हथियार बन जाते  हो 
तुम्हारा यूँ धधकना इन्हें पसंद नहीं 
कि तुम्हारे ताप से पिघलने का 
ख़तरा  है उनकी  काँच की दीवारों को  
कि दीवारों के पीछे के उनके अंधेरों पर 
हावी हो सकती है
तुम्हारे ताप की रोशनी 
दरक सकती है उनकी सत्ता।  

इसीलिए तुम हो 
बेकार 
जड़ 
और कठोर भी
आज तक।  


Monday 8 September 2014

इलाहाबाद ज्ञानरंजन की नज़र में

       

        सुप्रसिद्ध कथाकार ज्ञानरंजन कल इलाहाबाद में थे। मीरा स्मृति सम्मान के सिलसिले में। मैं उन्हें एक बड़े कथाकार के रूप में जानता हूँ और उससे भी अधिक पहल के संपादक के रूप में। इलाहाबाद में रहते हुए ज्ञानरंजन,रविन्द्र कालिया और दूधनाथ की त्रयी के बारे में काफी कुछ सुना था।कल उनसे मिलने और उन्हें सुनने का मौका मिला। सम्मान समारोह में उन्होंने एक छोटा सा वक्तव्य दिया। दरअसल वे इलाहाबाद के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर रहे थे। वे उस शहर को ढूंढने का प्रयास कर रहे थे जिसमें उनका जन्म हुआ और पले बढ़े और जिसे वे वर्षों पहले छोड़ गए थे। जिसका उन पर बड़ा दाय है और जिसे वे शिद्दत से महसूस भी करते हैं। उन्होंने शहर को और शहर ने उन्हें भरपूर जिया। तभी तो इतने वर्षों से इलाहाबाद की स्मृतियाँ उनके मन में इस तरह जड़ थी मानो वो लंबा अंतराल कल की बात हो। वे अपने जिए उस इलाहाबाद के शानदार और सजीव चित्र बनाते हैं जो उनकी स्मृति पटल पर स्थायी रूप से अंकित हो चुका है और जो भगवती चरण वर्मा,दूधनाथ सिंह,नासिरा शर्मा,धर्मवीर भारती में बार बार आता है। पर वो शहर अब उन्हें ढूंढे से भी नहीं मिलता। तभी वे उसकी दुखी मन से उसकी मृत्यु की घोषणा करते है। पर शहर मन में इतने गहरा पैठा है, वे इस शिद्दत से उसे चाहते हैं कि उसकी मृत्यु में भी खूबसूरती ढूंढ लेते हैं। वे मानते हैं कि अपनी मृत्यु के बाद भी ये शहर तक्षशिला,नालंदा या एथेंस जैसा ही खूबसूरत लगेगा। उनके वक्तव्य के कुछ संपादित अंश .……

                                   "जिस  इलाहाबाद में मैंने अपने को आवारागर्द के रूप में पाया,जिस इलाहाबाद में एक संभ्रांत परिवार में जन्म लेकर भी मैं अभिजात्यों के खिलाफ चला गया और अपनी हर भाषाओं से इसकी निरंतर मुख़ालफ़त की। यहाँ तक की कहानियों के उन पात्रों की भी जो इलाहाबाद की उपज थे और जो उपज अब पूरे मुल्क में फ़ैल गयी है  ………   इलाहाबाद ने मुझे शरण दी है,स्वीकार किया है और अब सम्मान भी किया है तो अब अधिक बद्तमीजी नहीं करूँगा।  इलाहाबाद का तो जलवा था कि मुझे नौकरी भी बिना साक्षात्कार के मिली।उन दिनों लोग जबलपुर में मुझसे सम्मानजनक दूरी रखते थे कि मैं इलाहाबाद का हूँ,इलाहाबाद से आया हूं।  नई नौकरी के बावज़ूद मैं  हरीशंकर परसाई के साथ अनाप शनाप छुट्टियां लेता हुआ,जब मुक्तिबोध कैंसर से जूझ रहे थे तो राजनांदगांव,भोपाल,दिल्ली के अस्पतालों के चक्कर लगाता रहा और वहां मेरी मुलाकातें शमशेर,नेमिचन्द्र जैन, श्रीकांत वर्मा से बार बार हुईं। ना जाने कितनी महापुरुषों की छायाएं इसी इलाहाबाद में मेरे ऊपर गिरी उसे बताना कठिन है। इसलिए इलाहाबाद के असंख्य आभार हैं। साथियों विश्वास करें जब इलाहाबाद की बात आती है तो मेरा सोना-जागना स्थगित हो जाता है। मेरे अंदर एक युवक उभरता है।  भीतर रासायनिक बेकरारी होने लगती है। पुराना उत्साह उत्पात तोड़ फोड़  मचने लगती है।  इसलिए मैं वाचाल होने के लिए क्षमा चाहता हूँ। .......
             जीते जी मैंने कम से कम दो इलाहाबाद देखे। मैं पुराने का ध्वंसावशेष हूँ   और मलबे का अंकुर भी।
  पुरानी जगहों को खोज रहा हूँ पर उनका कायाकल्प हो गया है। मैं जानना चाहता कि एक शहर कब और कैसे   मरता और कैसे जीता है। मेरे कोई भी पात्र आउटसाइडर नहीं हैं। सभी इस भूगोल के हैं। मेरा लोकेल भी इलाहाबाद है। और इन पात्रों से मेरी वैचारिक लड़ाई आज भी जारी है। आप सब को अपनी कुछ नकारमक बातें बतलाता हूँ।एक तो ये कि इलाहाबाद का आदमी सदा क्षम्य है।  दूसरा यह  इलाहाबाद का आसमान ज़मीन सब अलग है। और अंतिम यह कि हम सब ने इलाहाबाद का दूध पिया है। बहरहाल मैंने इस शहर में महान अध्यापक प्राप्त किए,ऐसे  नए पुराने लेखक कलाकार संपादक जिन्हें मैंने तारामंडल कहा। ऐसे दूधनाथ,कालिया, लक्ष्मीधर, प्रभात,ओमप्रकाश, रज्जू और नीलाभ जैसे मित्र जिनके उजाले अंधेरों में मेरा जुगनू दमकता रहा। यहीं कौशल्या जी ममताजी और सुलक्षणा ने असंख्य बार खाना  खिलाया।मेरे मित्र झूंसी ,तेलियरगंज ,धूमनगंज  और दिल्ली में फेंक दिए गए। हर शहर में ये होता रहा है और हो रहा है। शानी ने दिल्ली पर लिखा 'सारे दुखिया जमुना पार'। मैं कहूँगा  गंगा पार,जमुना पार और बचे खुचे चौफटका पार। …… तो मेरे गुरु, मेरे दोस्त, मेरे पात्र, मेरे साथी, मेरे लेखक, मेरे अड्डे,  मेरे फुटपाथ, यहां तक कि मेरी प्रेमिका और फिर मेरी पत्नी सभी इसी शहर के पात्र हैं। मैं उन्हें नागरिक नहीं पात्र कहता हूँ क्योंकि उन्हीं से मेरी रचना पैदा हुई है। जिस सभागार में हम उपस्थित हैं उससे कुछ दूरी पर पोनप्पा रोड़ है। जहाँ हुड्ड हो जाने के बाद मैंने सायकिल सीखी और इनाम में सौ रुपए पाए क्योंकि मेरे लोग यह उम्मीद छोड़ चुके थे। साउथ रोड की मरीन ड्राइव की तरह लहराती कटावदार बत्तियां दूधनाथ की कहानी में हैं ,ज़ीरो रोड को नासिरा शर्मा ने आबाद किया और भगवती बाबू के उपन्यास में रास्ते राहत जगाती  यूनिवर्सिटी रोड बार बार आता है और वो शानदार गोल केथेड्रल जिसने धर्मवीर भारती को प्रेरित किया और वे अंधायुग तक गए। इसी इलाके में महादेवी  सबसे पास थीं पर वे सदा सबसे दूर रहीं। यहाँ से अमृत राय भी पास थे और श्रीपत राय  सानु सन्यासी ड्रूमंड रोड पर। बहुत बाद में इसी इलाके में अमरकांत भी आए ,मार्कण्डेय ,ओंकार शरद राजापुर  सिमेट्री के पास बसे  थे। आकाशवाणी के दो जुड़वां  बंगले भी इस सभागार के पास हैं  जहाँ एक समय गिरिजा कुमार माथुर कभी कभार एक टाँगे पर दारागंज तक जाते थे। तांगा रस्तोगी जी का था। उनके साथ इस आवारा को दो चार बार संगत करने का अवसर मिला। यहीं भारत भूषण अग्रवाल और प्रभाकर माचवे भी थे जिन्होंने मुझे तीन सप्ताह के तीन अनुबंध दिए थे जिसकी मज़दूरी  उन दिनों कुल पंद्रह रुपये थी। यहीं स्टूडियो में मैंने उस्ताद अलाउद्दीनखां के सरोद को खिलखिलाते और सरोद पर उस्ताद को आंसू टपकाते भी देखा था। यहीं मैंने पहली बार  प्रभात के साथ मुक्तिबोध की गौरांगउटान कविता का पाठ भी सुना। उन दिनों इलाहाबाद का ये इलाका दबंग, अभिजात्य अंग्रेजी शिल्प और सुनसान से भरा ऐसा इलाका था जहाँ कोई बूढ़ी औरत सीताफल नहीं बेच सकती थी। और मूंगफली के ठेले भी इधर नहीं घुसते थे। यह थी पच्छिम की थॉर्नहिल रोड।
          नगरों की एक आयु होती है, वे कितने ही गर्वीले और शरीफ क्यों न हों। ध्यानस्थ हो सौ वर्ष पहले और सौ वर्ष बाद के इलाहाबाद के दृश्य देखे जा सकते हैं। क्योंकि हमारे देश में विकास का जो दर्शन उभरा है और जिस पर एक सीमा तक सहमति भी हो गयी है उसी में ध्वंस, डूब और विनाश निहित हो गया है।जो नगर जल प्लावन, युद्ध, भूकम्प, आवागमन, निष्क्रमण तथा प्रजनन और विकास के अनन्य बहानों की वजह से जमींदोज़ हुए उनमें   सात आठ सौ सालों में गणना सौ के पार हो जाएगी। इनमें जीवित मरे हुए भी शामिल हैं। हमारे देखते देखते विकास ने टिहरी और हरसूद को निगल लिया।  अभी पचास सालों में और नगर तबाह  होने की प्रतीक्षा में हैं। ये शहर नहीं सभ्यताएं थीं। मैं इलाहाबाद के घमंड को टूटते हुए देख रहा हूँ। इसके गर्वीले चिन्ह और लैंडमार्क मिट रहे हैं। लेकिन सुन्दर और मरी हुई चीज़ें भी  शानदार हो सकती हैं। नालंदा, तक्षशिला, मोहनजोदड़ों,कौशाम्बी, एथेंस  की याद कर लें। सूची और भी है। इलाहाबाद वयोवृद्ध है या उन्मत्त   या हत्यारों द्वारा मारा जाएगा या क्या पता नदियां इसे घेर लेंगी। मेरी यह समझ है इलाहाबाद पर हमला हो चुका है। ये हमले पुणे, हैदराबाद, बेंगलुरु, लखनऊ,  दिल्ली और अहमदाबाद पर भी हो चुके हैं।  एक अदृश्य दीवार खड़ी हो गयी है जो नए पुराने शहरों के बीच है। हमारे जैसे लोग नए पुराने किसी भी हिस्से में चैन से नहीं रह सकते। इस आर्थिक और सांस्कृतिक बलवे का अंजाम कहाँ तक जाएगा यह सब जानना पहचानना हमारे लिए दिलचस्प है। सवाल मरने जीने का नहीं है। सवाल इसके आगे का है। शहर में सामग्रियाँ,तरल मुद्रा,चमक दमक,भुलक्कड़ी,जन संकुलता किसी की भी कोई कमी नहीं है।फिर भी सवाल खतरनाक होते जा रहे हैं।  इस सम्मान कार्यक्रम में मैं संकेत देना चाहता हूँ कि इलाहाबाद पर एक किताब चल रही है। यह वक्तव्य केवल कृतज्ञता मात्र है। इलाहाबाद  के कारण मुझे आज भी बोनस मिल रहा है।" 





हवा बदल गई है



हवा बदल गई है 
अब हवाएँ ज़हरीली हो गई हैं 
धुआं हवाओं को धमकाता है 
फ़िज़ाओं में ज़हर मत घोलों 
हवाएँ स्तब्ध हैं 
निस्पंद हैं 
जिससे एक निर्वात पैदा हो गया है 
और उसमें सब ऊपर नीचे हो रहे हैं 
बिना पेंदी के।  

Tuesday 2 September 2014

ईश्वर छुट्टी पर है





मैंने कभी इस बात पर ध्यान नहीं दिया इन बिरला मंदिरों में 

किसी बिरला की मूर्ति है या नहीं। लेकिन ये बात पक्की है कि आजकल 

हर जगह अ, बि, टा, ही पूजे जा रहे हैं। सरकार से लेकर नौकरशाहों 

सबके मन में ये देवता ही विराजमान हैं। ये सर्वज्ञाता, सर्वव्यापक और 

सर्वशक्तिमान हैं।अब देखिये ना एक तरफ किसान भूख से मर रहा 

है,आत्महत्या कर रहा है । पर सरकारें हैं कि खाद, पानी, डीज़ल सब से 

सब्सिडी ख़त्म करना चाहती हैं। उनके अनुसार ये सब्सिडी देश के 

आर्थिक विकास में बाधक हैं । और दूसरी तरफ चीनी मिल मालिक हैं 

जिन्हें सरकार बड़े बड़े पैकेज दे रही हैं। उन्हें प्रति कुंतल २० रुपये की 

सब्सिडी भी कम पड़ रही है। ये लोग चीनी के अलावा ढेर सारे उप 

उत्पादों (by products)जैसे खोई, मैली, शीरे से लाखों करोड़ो कमा रहे 

हैं। फिर भी घाटे में हैं। सरकारों को इन पर चढ़ावा तो चढ़ाना ही है ।

आखिर भगवान तो ये ही है ना। किसान हज़ारों में क़र्ज़ लेकर बैंक और 

पुलिस कर्मियों के खौफ से आत्महत्या लेते हैं। सरकार द्वारा उनके कर्ज 

माफी से आर्थिक क्षेत्र में बर्बादी की सुनामी आ जाती है। पर अरबों खरबों 

का क़र्ज़ जान बूझकर ना चुकाने के दोषी घोषित होने के बावज़ूद वे किसी 

शानदार बीच पर कैलेंडर की शूटिंग कर रहे होते है या किसी लीग में 

अपनी टीम का मज़ा ले रहे होते हैं। आखिर भगवान जो ठहरे। मैं 

आस्तिक हूँ। ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करता हूँ। पूजा भी करता हूँ 

और उपवास भी। और इसीलिये मानता हूँ कि ईश्वर या तो कहीं लम्बे 

अवकाश पर चले गए हैं या लम्बी तान कर सो गए हैं या फ़िर उन्हें 

मायोपिया हो गया है कि दूर की वस्तु स्पष्ट नहीं दिखाई दे रही है।

और ईश्वर की खाली जगह इन भगवानों ने ले ली है।अन्यथा ईश्वर की 

सबसे अनुपम कृति इस दुनिया की ये दुर्दशा ना होती । 



Monday 25 August 2014

भस्मासुर




वो जो सबसे शक्तिशाली है
मन के किसी कोने में सबसे बुझदिल है
उसे सताता है डर 
हर पल
अपने जैसे ही किसी दूसरे के अपने मुक़ाबिल खड़े होने का
डरता है हर किसी से
ना जाने कौन सा निहत्था उसे कर दे निरुत्तर
ना जाने कौन सा बच्चा खड़ा हो जाए उसके ख़िलाफ़ लेकर हथियार
ना जाने कौन सा किसान छीन ले  उसकी मुँह का निवाला
ना जाने कौन सा नागरिक छीन ले उसकी आज़ादी
ना जाने कौन सा शासक छीन ले उसकी सत्ता
गिराता है परमाणु बम
चलाता है  ड्रोन से मिसाइलें
जलाता है तेल के कुँए
रोकना चाहता है आत्महत्या करते किसानों की सब्सिडी
करता है हवाई हमले  मातृभूमि की मांग करते बच्चों और औरतों पर
बंद कर देना चाहता है अभिव्यक्ति  के सारे साधन
चाहता है हर किसी को रौंदना
चाहता है कुचलना
कर देना चाहता है नेस्तनाबूद
मिटा देना चाहता है अस्तित्व
पर वो नहीं जानता 
भस्मासुर भी नहीं बचा था 
एक दिन 
अपनी शक्ति के मद में चूर
वो भी उसी की तरह नाचेगा
अपने सर हाथ रखकर 
और खुद ही भस्म हो जाएगा।

Tuesday 5 August 2014

भले दिनों की भली बुरी बातें



विमल को पढ़ना महज़ एक इत्तेफ़ाक था। ब्लॉग देखने का नया नया शौक लगा था। एक दिन सर्फ करते करते भाई रामजी तिवारी के ब्लॉग सिताब दियारा पर पहुँच गया। वहाँ विमल के इलाहाबाद प्रवास के संस्मरणों की एक कड़ी पढ़ी।इसमें कई ऐसे लोगों का ज़िक्र था जिन्हें मैं अच्छी तरह से जानता था। पढ़ने की उत्सुकता जगी। फिर तो उस संस्मरण श्रृंखला की सारी कड़ी पढ़ डाली। और आने वाली हर कड़ी का बेसब्री से इंतज़ार रहने लगा। जब वो श्रृंखला ख़त्म हुई तो ऐसा लगा कि कुछ ऐसा ख़त्म हो रहा है जिसे ख़त्म नहीं होना चाहिए था। खैर उसे  ख़त्म होना ही था,हो गया। ख़त्म होते होते विमल मेरे पसंदीदा लेखक बन चुके थे क्योंकि इस दौरान मैं विभिन्न ब्लॉगों पर विमल की कई कहानी भी पढ़ चुका था और कुछ कविताएँ भी। विमल को पसंद करने का सबसे बड़ा कारण उनकी बेबाक़ी और लेखकीय ईमानदारी थी। जब विमल इलाहाबाद में थे उस समय मैं उन्हें नहीं जानता था। ना ही उनसे मुलाक़ात हुई। इस बात का हमेशा अफ़सोस रहेगा। अफ़सोस इसलिए कि एक ऐसा लेखक जिसे थोड़ा बहुत पढ़कर आप उससे इतने मुत्तासिर हो जाएं और उसके अपने आस पास रहते हुए भी ना जानते हो। आकाशवाणी में लगभग सभी साहित्यकार आते हैं और उन सभी को जानता भी हूँ। भले ही मुलाक़ात हो या ना हो। विमल भी आकाशवाणी आते थे और ये संयोग ही था कि मैं उन्हें उस समय नहीं जान पाया। मौक़ा आकाशवाणी से बाहर मिलने का भी था। भाई मुरलीधर प्रसाद  सिंह ने कई बार उन बैठकों में आने के लिए आमंत्रित किया जिनका जिक्र विमल ने अपने संस्मरणों में किया है  जहां मैं खुद को नाकाबिल मानते हुए भाग लेने में संकोच करता था और जहां विमल से मुलाक़ात हो सकती थी। विमल के संस्मरण और कहानियों और संतोष भाई के ब्लॉग पहली बार से वो सिलसिला फिर से शुरू हो गया जो  नौकरी लगने के बाद रूक सा गया था। पढ़ने का। दरअसल जब आप नौकरी पाने के लिए या डिग्री लेने के लिए पढ़ते हैं तो उसकी बहुत सीमाएं होती हैं। तब आप ज्ञान के लिए नहीं पढ़ते। हर चीज़ को पढ़ने में नफ़ा नुक्सान देखते हैं और वही पढ़ते हैं जिसे  पढ़ कर नौकरी पाने में कुछ मदद हो और इसीलिए अधिकांश लोग जॉब लगने और घर गृहस्थी के चक्कर में पड़ने के बाद पढ़ना लगभग छोड़  देते हैं। मेरे साथ ऐसा ही हुआ।। लेकिन इधर पढ़ने का सिलसिला शुरू हुआ तो फिर चल निकला। कुछ किताबें राजकमल प्रकाशन से लीं जिसमें हेरम्ब सर की 'दास्तान मुग़ल महिलाओं की' भी है। कुछ किताबें दखल से मंगाई और 6 युवा लेखकों के हाल ही छपे उपन्यास आधार से मँगाए। इनमें विमल का 'भले दिनों की बात थी ',जयश्री रॉय का 'इक़बाल', तरुण भटनागर का 'लौटती नहीं जो हँसी', वन्दना शुक्ला का 'मगहर की सुबह', कविता का 'ये दिये रात की  ज़रुरत है' और अल्पना मिश्रा का 'अन्हियारे तलछट में चमका' हैं। स्वाभाविक था सबसे पहले विमल के भले दिनों को जानना बूझना था। वैसे भी इसके मिलने में देर हो गयी थी। बहुत दिनों बाद कोई उपन्यास पढ़ रहा था। जैसी उम्मीद विमल से थी वैसा ही मिला। एक दिन की दो सिटिंग में उपन्यास समाप्त। 
                                                             ये वाकई एक बेहतरीन उपन्यास था जो आपको शुरू से अंत तक बांधे रखता है। कहानी बहुत ही हल्के फुल्के अंदाज़ में शुरू होती है। किशोर वय से अभी अभी जुदा दोस्तों की रूमानियत से जिसमें गालियों की भरमार है। लेकिन जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती जाती है रूमानियत धीरे धीरे गंभीरता में बदल जाती है और हल्का फुल्का अंदाज़ कब गंभीर प्रश्न बन आपके मस्तिष्क में हलचल मचाने लगते हैं,मथने लगते हैं,आपको इसका एहसास उपन्यास के ख़त्म होने पर होता है। लड़कपन की  इन प्रेमकथाओं के कथानक के भीतर अनेक अंतर्कथाएँ बहती हैं -मध्यमवर्गीय परिवारों में लड़कियों की स्थिति की ,जातिवाद की ,साम्प्रदायिकता की और आतंकवाद तथा उस पर की जाती राजनीति की भी । और इन कथाओं तथा अन्तर्कथाओं को पकड़ने सहेजने में आपको कोई प्रयास नहीं करना होता क्योंकि विमल की केवल भाषा में ही लय नहीं है बल्कि विचारों में भी गजब की लयबद्धता है जिसमें आप अनायास ही बहे चले जाते हैं बिना किसी प्रयास के। विमल की अपने पात्रों पर गजब की पकड़ होती है और विवरण बहुत ही सूक्ष्म। आप जल्द ही उन पात्रों में डूब कर खुद को खोजने लगते हैं और अपने को महसूस करने लगते हैं। यही लेखक की सबसे बड़ी सफलता होती है। विमल ऐसा करने में सफल हैं। भले दिनों की बात पढ़ते हुए आप निश्चित ही अपनी युवावस्था को एक बार पुनः जी पाएँगे ऐसा मुझे लगता है। रिंकू, सुधीर, राजू, कमल में खुद को खोजेंगे और सविता ,अनु ,टयूबलाइट  में अपनी फिएंसी को।  विमल की बनारस पर लिखी एक बेहतरीन कविता है बार बार लौटता हूँ बनारस .... "इस पुरातन शहर की आत्मा में हुए छेदों को भरने की कोशिश करता करता हूँ / सड़क  पर टहलता हूँ अकेला रात-रात भर /इसकी सांस अवरुद्ध होती है फेफड़ों में जमे धुंए की वजह से /मैं इसके सीने पर तेल और अजवाइन मिलाकर मलता हूँ … " दरअसल बनारस विमल में रचा बसा है,वे उसका दुःख दर्द समझते हैं,उसका इतिहास भूगोल जानते है और शिद्दत से जीते हैं। इसीलिये भले दिनों में पूरे बनारस को, उसके मोहल्लों को, उसकी गलियों को और उसमें रहने वालों की धडकनों को रचा बसा देते हैं जिन्हें  आप उन्हें सुन सकते है,महसूस कर सकते हैं। इन भले दिनों में प्यार भी पूरी सरसता के साथ कथानक में गुँथा है। विमल प्यार के चित्र भी पूरी मार्मिकता और सरसता के साथ खींचतें हैं। यहां मैं उनकी एक और कविता का ज़िक्र करना चाहता हूँ। "आई लव यू सूपर्नखा"  में जिस तरह इतिहास के सबसे घृणित और उपेक्षित पात्र को प्रेम का श्रेष्ठ प्रतीक बना देते हैं,इसे कोई प्रेम में आपादमस्तक डूबा व्यक्ति ही कर सकता है।तभी तो वे लिखते हैं ...तुम्हे प्रेम करना आता था सुपनखा  उससे भी अधिक उसका इज़हार करना ....और जीने के  लिए दिल धड़कना उतना ही ज़रूरी है /मैं अपने जीने की सूरत चुनता हूँ /तुमसे  अपनी बात कहता हूँ /आई लव यू सुपनखा। " सविता में सुपनखा का ही विस्तार  दीखता है। उपन्यास  का 

शुरुआती प्रेम है ".... कालोनी का हर लड़का कालोनी की हर लड़की को 

कभी न कभी चाह चुका होता था। इसीलिए किसी भी लड़की की शादी 

होती थी तो कालोनी के सभी जवान लड़को को सांप सूंघ जाता और 

क्रिकेट के मैदान में तीन चार दिनों तक मरघट जैसा सन्नाटा छाया 

रहता। कालोनी की एक लड़की शादी करके अपने ससुराल जाती थी और 

किसी न किसी घर में एक “मुख्य दिल” और कई घरो में कई “सहायक 

दिल” टूटा करते थे..." जो धीरे धीरे गहन और गंभीर होता जाता है और 

वैसे ही खूबसूरत दृश्य उभरते जाते हैं। मसलन .... "सविता उसी तरह 

देर तक खड़ी रही और थोड़ी देर बाद उसे लगने लगा था कि नदी के बहने 

की जो आवाज़ बहुत दूर सुनाई दे रही थी,वह उसके भीतर समाती जा 

रही है। थोड़ी देर में उसे वह समूची नदी अपने भीतर कलकल बहती हुई 

सुनाई देने लगी। उसे लगा जैसे ये नदी उसके भीतर बरसों से थी,लेकिन 

उसे उसका अंदाज़ा नहीं था और यह एक जगह पर रूकी हुई थी " और 

इससे भी खूबसूरत ये ......." सविता के होंठ थोड़े से पीछे गए जैसे 

सकुचा गए हों और फिर से वापस उन होंठों की तरफ ऐसे आए जैसे 

नदियॉ महासागर की तरफ आती हैं। दो जोड़ी होंठ एक दूसरे से जुड़ गए 

और पार्क किसी की भी उपस्थिति से खाली हो गया। आसमान एक 

चादर बन गया और उन दोनों को ढकने के लिए नीचे उतर आया। " 
       

ये उपन्यास उनके पसंदीदा शायर फ़राज़ को डेडिकेट है और हर 

दृश्यांतर के बाद (शायद) फ़राज़ साहब के शेर आते हैं। मैंने ऐसा प्रयोग 

पहले नहीं देखा(मैंने बहुत नहीं पढ़ा है ) . उपन्यास काफी लंबा होता है। 

खास तरह की एकरसता आने की पूरी संभावना है यदि कहन  कमजोर 

हो तो। उस दृष्टि से ये टेकनीक अच्छी है क्योकि ये  एकरसता तो तोड़ने 

में सहायक  है। लेकिन इसके अपने खतरे भी हैं। ये अशआर बीच बीच में 

आकर कहानी की लय को भंग भी करते हैं ,व्यवधान उत्पन्न करते हैं। 

समर्थ   रचनाकार को इसकी दरकार नहीं। एक और बात। गालियों की 

आमद बेरोकटोक है। ये बात सौ फीसदी सही है कि जिस वातावरण की 

निर्मिति वे करना चाहते थे वो इसके बिना संभव ही नहीं था। सिनेमा 

में भी इसका खूब इस्तेमाल हो रहा है और लेखन में भी चलन बढ़ा है। 

फिर भी कहूँगा कि हमारे कान और दिमाग तो  इसके खूब अभ्यस्त हैं 

क्योंकि ये हमारी बोलचाल का अभिन्न अंग बन गयी हैं। हम बचपन से 

इन्हें सुनते आए हैं। बोलचाल के स्तर पर आपको पता नहीं लगता। 

लेकिन आँखें अभी ऐसे शब्दों को देखने की वैसी अभ्यस्त नहीं हुई हैं 

जैसे कि कान। इसलिए अधिक प्रयोग आँखों के रस्ते दिमाग को चुभता 

हैं। जो भी हो ये आम पात्रों की साधारण कहानी का असाधारण उपन्यास 

है। विमल आपको हार्दिक बधाई। और हाँ एक दायित्व आपके मत्थे भी। 

भले दिनों की बात थी और ई इलाहाबाद है भइया  की छपी सैकड़ों 

प्रतियों में से दो इलाहाबाद के एक घर में आपके हस्ताक्षर के इंतज़ार में 

आज भी हैं। 










Tuesday 22 July 2014

लॉर्ड्स की ऐतिहासिक विजय


      भारत और इंग्लैंड के बीच वर्तमान श्रृंखला के दूसरे टेस्ट मैच के अंतिम दिन जब जो रूट और मोईन अली बैटिंग करने क्रीज़ पर आए थे उस समय कम ही लोग ये सोच रहे होंगे कि क्रिकेट के मक्का "लॉर्ड्स" के मैदान पर क्रिकेट के जनक इंग्लैंड का इस तरह मान मर्दन होगा। उनके ऐसा सोचने के पर्याप्त कारण भी थे। भारतीय टीम का रिकॉर्ड ये बता रहा था कि भारत ने इससे  पहले 81 साल के इतिहास में जो 16 मैच खेले हैं उनमें से मात्र एक बार 1986 में कपिलदेव के नेतृत्व में जीत हासिल की है। वरना तो बाकी 15 में से 4 ड्रा किये और 11 में हार ही खाई थी। फिर 2011 का दौरा भी लोगों के ज़ेहन में ताज़ा था जिसमें भारत ने बुरी तरह मुँह की खाई थी और चारों टेस्ट हार गई थी।  फिर गेंदबाज़ी भारत की कमज़ोर कड़ी है और इस बात पर यकीन कर पाना थोड़ा कठिन था कि भारतीय गेंदबाज 319 रनों से पूर्व इंग्लैंड के 6 विकेट आउट कर पाएंगे।लंच से पूर्व की अंतिम गेंद से पहले तक कल के नॉटआउट बैट्समैन अली और रुट ने अपनी विकेट बचा कर लोगों को ये सोचने के लिए बाध्य भी कर दिया कि कोई नई इबारत नहीं लिखी जाने वाली है। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। युवा भारतीय टीम ने नई  इबारत लिख ही डाली। दरअसल 95 रनों से इंग्लैंड की ये हार उसके उन जख्मों पर नमक छिड़के जाने जैसी थी जो जख़्म ऑस्ट्रेलिया और उसके बाद श्रीलंका से हार कर मिले थे।
                मैच जीतने के बाद आदरणीय उदय प्रकाश जी ने फेसबुक पर एक पोस्ट लगाई 'एक लगान परदे के बाहर"। लेकिन परदे के बाहर मैदान का ये लगान परदे पर के लगान से भिन्न था। परदे की लगान  में आमिर और उनके साथी अंतिम पारी खेल रहे थे जिसमें उनका लगान ही नहीं बल्कि उनका मान सम्मान,पूरा जीवन और उनके इंसान होने का एहसास सभी कुछ दांव पर लगा था। वे कड़ा संघर्ष कर उस चुनौती से पार पाते हैं। और वे ऐसा कर इसलिए पाते हैं कि भारतीय किसान सदियों से इतनी भीषण परिस्थितियों से संघर्ष कर सरवाइव करता रहा है और अपने जीवन को बचाने और अपने वज़ूद को मनवाने का वो संघर्ष,संघर्ष नहीं उसके जीवन में घटित होने वाली क्रिया थी जिसे वो रोज़ ही अंजाम देता आया है। वहां अंग्रेज़ मुँह की खाते हैं। पर अब परिस्थितियां बदल चुकी हैं। अपने मान सम्मान की रक्षा की ज़रुरत अंग्रेज़ों को है। कम से कम क्रिकेट में तो निश्चित ही। पहले बात लॉर्ड्स मैदान की। आख़िरी पारी  अँगरेज़ खेल रहे थे। उन्हें लक्ष्य मिला था। सम्मान भी उन्हीं का दांव पर था। होम ऑफ़ क्रिकेट कहे जाने वाले मैदान पर क्रिकेट के जन्मदाता की सम्पूर्ण साख दांव पर थी। अपने मैदान पर अपने लोगों के बीच भारत जैसे देश की टीम जिस पर उसने कई सौ साल राज किया हो वो उसे हरा दे। तो सम्मान किसका दांव पर लगा ? एक और फ़र्क़ था। आमिर की टीम अपना लक्ष्य हासिल करती करती है। पर वास्तविक मैदान पर अंग्रेज़ ऐसा करने में असफल रहते हैं। बस एक ही समानता है अंग्रेज़ दोनों जगह हारते है। घमंड दोनों जगह हारता है। संघर्ष दोनों जगह जीतता है। 
       बात सिर्फ मैदान तक सीमित नहीं है। भारत अब बड़ी आर्थिक ताक़त है। सिर्फ आर्थिक क्षेत्र में ही नहीं क्रिकेट में भी। बीसीसीआई इस समय क्रिकेट जगत की सबसे बड़ी नियामक संस्था है। क्योंकि भारत में क्रिकेट धर्म बन चुका है ,क्रिकेट का भगवान भी भारत का ही है। भारत में इसकी लोकप्रियता का लाभ उठा कर और कारपोरेट शैली में क्रिकेट का प्रबंधन कर बीसीसीआई सबसे धनवान और इसलिए सबसे शक्तिशाली संस्था बन चुकी है। एक समय था जब क्रिकेट प्रबंधन में इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया की तूती बोलती थी। भारतीय खिलाड़ी हमेशा अपने साथ भेदभाव तथा अन्याय की शिकायत करते थे। आज इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया ये शिकायत करते हैं कि बीसीसीआई अपने शक्तिशाली और अमीर होने का नाज़ायज़ फ़ायदा उठा रहा है। जो भी हो क्रिकेट में भारत का प्रभुत्व और शक्ति का जादू सिर चढ़ कर बोल रहा है। (ये दीगर बात है कि उसने खेल का कितना नुक्सान किया है और इस पर अलग से बहस होनी चाहिए )
              इसी समय आदरणीय रमेश उपाध्याय जी ने भी एक पोस्ट लगाई है ब्रिक्स देशों द्वारा विकास बैंक की स्थापना के सम्बन्ध में। इसमें उन्होंने अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की एक टिप्पणी भी उद्धृत की है 'America must always lead on the world stage. If we don't, no one else will.'दरअसल ये टिप्पणी विकसित देशों के बौखलाहट का,उनके भीतर बढ़ती असुरक्षा का आइना है जिसमें हम आने वाले समय में पश्चिम और विकसित देशों की घटती भूमिका को साफ़ साफ़ देख सकते हैं। निश्चित ही बहुत से देश उन पर उस हद तक निर्भर नहीं रहे जिस हद तक वे चाहते हैं। रियो दे जेनेरो में ब्रिक्स देशों की बैठक में अपना विकास बैंक बनाने के निर्णय और भारत के लॉर्ड्स के मैदान में ऐतिहासिक विजय को और क्रिकेट में भारत  बढ़ती ताक़त को ऐसी घटनाओं के रूप में देखा जाना चाहिए जो विकसित पश्चिम के घटते प्रभुत्व को और उन पर  विकासशील देशों की कम होती निर्भरता को रेखांकित करती है। फीफा विश्व कप फुटबॉल में ब्राज़ील और अर्जेंटीना की हार से आहत लोगों के लिए भारत की ये जीत राहत की बात होनी चाहिए। भारतीय टीम को इस जीत पर लख लख बधाइयाँ। 
                                  





  

  

Thursday 10 July 2014

फुटबॉल विश्व कप 2014_6



              8 जुलाई 2014 को बेलो होरिज़ोंटा का एस्टोडिया  मिनिराओ 1950 में रियो डी जेनेरो के एस्टोडिया मरकाना की तरह  एक ऐसा कब्रगाह बन रहा था जिसमें ब्राज़ील की उम्मीदें,गर्व तथा फुटबॉल सभी कुछ दफ़न हो हो रहा था और जिसे ब्राज़ीलवासी  ही नहीं बल्कि ब्राज़ील फुटबॉल को चाहने वाले लाखों करोड़ों फुटबॉल प्रेमी असहाय से डबडबाई आंखो से देख रहे थे । जब मिरोस्लाव क्लोस वर्ल्ड कप फाइनल्स का अपना 16वां और मैच का 2सरा गोल कर रहे थे तो वे केवल ब्राज़ील के रोनाल्डो के वर्ल्ड कप फाइनल्स में सर्वाधिक 15 गोल करने का रिकॉर्ड ही नहीं तोड़ रहे थे बल्कि लाखों ब्राज़िलियों का दिल भी तोड़ रहे थे और उनका अपनी मेज़बानी में 6वीं बार विश्व कप जीतने का सुन्दर सलोना सपना भी चकनाचूर कर रहे थे। नेमार उस समय बिस्तर पर लेटे इस अंत्येष्टि क्रिया को देख रहे होंगे तो उनका दिल तार तार हो उस घडी को कोस रहा होगा जब वे चोटिल हुए थे।  इधर जर्मनी की टीम गोलों की बरसात कर रही थी और उधर ब्राज़ीलवासी आसुओं की झड़ी लगा रहे थे।  शायद इसीलिये ईश्वर ने ये विधान रचा कि अटलांटिक महासागर के अलनीनो फैक्टर के प्रभाव से हिन्द महासागर के देशों में इस बार कम मानसूनी वर्षा होंगी क्योंकि उस पानी की ज़रूरत ब्राज़ीलवासियों को आंसू बहाने में अधिक जो होनी थी।
                              दरअसल ब्राज़ील की ये शर्मनाक पराजय विकसित यूरोपियन दर्प के सामने विकासशील अस्मिता का चूर चूर हो जाना था। ठीक वैसे ही जैसे 15वीं शताब्दी में और उसके बाद के समय में यूरोपीय देशों ने अपनी संगठित सेनाओं के बल पर तमाम देसी राज्यों की कमजोरी का फायदा उठा उनकी अस्मिता को तहस नहस कर उनपर लम्बे समय तक कब्ज़ा जमाए रक्खा। ये पराजय एक संगठित सेना  के सामने नेतृत्व विहीन सेना द्वारा आत्मसमर्पण था। यदि आप अपनी स्मृति के घोड़े दौड़ाएंगे तो आपको याद आएगा  कि नेमार के बिना ब्राज़ील की टीम इतिहास में उल्लिखित सेनाओं जैसी प्रतीत हो रही थी जो पूरी तरह राजा की वीरता  और उसके युद्ध कौशल पर निर्भर होती थी। जब तक राजा युद्ध  मैदान में अपना पराक्रम दिखाता रहता तब तक उसकी सेना भी लड़ती रह्ती और सफ़लता प्राप्त करती रहती। ऐसे में सेना की सारी ख़ामियां छुपी रहतीं। लेकिन राजा के खेत रहते ही सेना में भगदड सी मच जाती। नेतृत्त्व विहीन सेना बिना किसी योजना के  और तेजी से आक्रमण तो करती पर अपनी सुरक्षा का कोई ध्यान ना रखती। फलस्वरूप दुश्मन आसानी से कमजोर रक्षण का फ़ायदा उठाकर सेना को तहस नहस कर किला फतह कर लेता। ब्राज़ील की टीम ने ऐसा ही किया। नेमार जब तक टीम में थे वे अपने दम पर टीम को जिताते रहे और टीम की ऱक्षा पंक्ति की सारी कमी छुपी रहीं। लेकिन जैसे ही उनका हीरो नेमार घायल हो मैदान से रूख़सत हुआ टीम छितर बितर हो गई। उसने आक्रमण में कोई कमी नहीं छोड़ी। जर्मनी के टारगेट पर 12 शॉट के मुक़ाबिल ब्राज़ील ने  13 शॉट लगाए। पर नेतृत्व विहीन टीम ने घबराहट में रक्षण को पूरी तरह वल्नरेबल बना दिया और करारी शिकश्त खाई।
                ब्राज़ील टीम की पराजय का मंचन भले ही 8 जुलाई को एस्टोडिया  मिनिराओ में हुआ हो पर इसकी पटकथा 4 जुलाई को फोर्टेलिज़ा में कोलंबिया के ख़िलाफ खेले गए क्वार्टर फाइनल मैच के 86वें मिनट में उस समय लिख दी गयी थी जब कोलंबिया के जुआन कमिलो जुनिगा ने नेमार के घुटने में चोट मारी थी। 1950 में रिओ डी जनेरो  मरकाना में उरुग्वे के हाथों पराजय का दर्द आज 64 साल बाद भी ब्राज़ीलवासियों को सालता है। आप समझ सकते हैं कि इस जख्म को ठीक होने में शायद सदियां ग़ुज़र जाएं।

Saturday 5 July 2014

13वां हॉकी विश्व कप

                        


    नीदरलैंड में आयोजित हॉकी विश्व कप का 13वां संस्करण आई.पी.एल.टी-20 क्रिकेट के शोर, फ्रेंच ओपन टेनिस के ग्लैमर और फीफा वर्ल्ड कप के रोमांच के बीच कहीं खो सा गया थागत 31 मई से 15 जून 2014 तक नीदरलैंड के हेग के क्योसेरा स्टेडियम में 13वीं हॉकी विश्व कप प्रतियोगिता संपन्न हुई। ये तीसरा मौक़ा था जब ये प्रतियोगिता नीदरलैंड में आयोजित हो रही थी। इससे पूर्व 1973 और 1998 में भी नीदरलैंड इस प्रतियोगिता की मेज़बानी कर चुका है।और इस विश्व कप में भारत का प्रदर्शन भी सन्नाटे में निकल गया। कोई हो हल्ला या लानत मलानत नही हुईं। 
              हॉकी खेल -याद है ना आपको। अरे वही जो हमारा राष्ट्रीय खेल है और जिसमे हम कभी बुलंदी पर होते थे।  पर अब नहीं हैं। उसकी छाया मात्र बन कर रह गए हैं। उन बुलंदियों को फिर से छूने की चाह बरकरार है ,कोशिशें भी हो रहीं हैं। पर पता नहीं क्या बात है ये कोशिशें क़ामयाबी में तब्दील नहीं हो पातीं। जब भी भारतीय हॉकी टीम कोई बड़ा टूर्नामेण्ट खेलने जाती हैं तो भारतीयों की उम्मीदें जवां होने लगती हैं कुछ करिश्मा होने की आस में। पर हाथ कुछ नहीं लगता। फिर-फिर असफलता की कहानी अपने को दोहराती जाती है। हेग में भी ऐसा ही कुछ हुआ
                  इस प्रतियोगिता में 31 मई को भारतीय टीम आठवीं रैंकिंग के साथ शामिल हुई थी  और 15 जून को नौवीं रैंकिंग के साथ वापस लौटी। भारत को विश्व विजेता ऑस्ट्रेलिया,इंग्लैंड,बेल्जियम,स्पेन और मलेशिया के साथ ग्रुप ए में गया था। पहले मैच में भारत बेल्जियम से 2-3 से और दूसरे मैच में इंग्लैंड से 1-2 से हार गया। यहां महत्त्वपूर्ण बात ये है कि भारत के विरुद्ध दोनों मैचों में विजयी गोल अंतिम ३० सेकेंड में हुए। ये हाल के दिनों की भारतीय हॉकी टीम की सबसे बड़ी कमजोरी रही है। टीम अंत तक सस्टेन नहीं कर पाती। अगला मैच स्पेन से ड्रा खेला। प्रतियोगिता की पहली जीत मलेशिया के विरुद्ध मिली जिसे उसने 3-2 से हराया। पर अंतिम मैच में ऑस्ट्रेलिया से 0-4 से हार गई। इस प्रकार अपने ग्रुप में पाँचवें स्थान पर रह्कर प्ले ऑफ मुकाबले में नवें व दसवें स्थान के लिए दक्षिण कोरिया से खेले और इस मैच में उसे 3-0 से हराकर नौवां स्थान प्राप्त किया। 
                        प्रतियोगिता ऑस्ट्रेलिया ने जीती।  उसने पूरी प्रतियोगिता में शानदार प्रदर्शन किया। ग्रुप के पाँचों मैच जीत कर 15 अंकों के साथ ग्रुप में पहले स्थान पर रही। उसके डॉमिनेशन को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि उसने ग्रुप स्टेज में 19 गोल किए और 1 गोल खाया। इस ग्रुप से दूसरी टीम इंग्लैंड की थी जिसने सेमीफाइनल के लिए क्वालीफाई किया। दूसरे ग्रुप से मेजबान नीदरलैंड और अर्जेंटीना ने क्वालीफाई किया। सेमीफाइनल में ऑस्ट्रेलिया अर्जेंटीना को 5-1 से और नीदरलैंड इंग्लैंड को 1-0 से हराकर फ़ाइनल में पहुँची। फ़ाइनल में भी ऑस्ट्रेलिया ने अपना शानदार खेल जारी रखा और मेज़बान नीदरलैंड जैसी मज़बूत टीम को 6-1 से रौंदकर लगातार दूसरी बार और कुल मिलाकर तीसरी बार हॉकी का विश्व चैम्पियन बना। अर्जेंटीना ने इंग्लैंड को हराकर तीसरा स्थान प्राप्त किया। अर्जेंटीना ने पहली बार इस प्रतियोगिता के सेमीफाइनल में प्रवेश किया था।
                 विश्व कप में भारत के इस प्रदर्शन पर मैंने भारत के पूर्व अंतर्राष्ट्रीय हॉकी ख़िलाड़ी और इस समय एयर इंड़िया में ए.जी.एम. सुजीत कुमार से बात की। प्रस्तुत हैं उस बातचीत के कुछ अंश

प्रश्न:-अभी हाल ही में हेग में संपन्न विश्व कप में भारत के प्रदर्शन को आप किस नज़रिये से देखते हैं ?


उत्तर:-देखिए हमेशा परफॉरमेंस ही काउंट की जाती है। अगर परफॉरमेंस ख़राब हुई है तो लोग उसको क्रिटीसाइज करेंगे हीं मतलब हमारी टीम को। लेकिन खिलाड़ी होने के नाते यदि हम देंखे, पूरे टूर्नामेंट के मैच मैंने देखे हैं,तो हमारी टीम में और बाकी टीमों में कोई अंतर नहीं था। सभी टीमें एक बराबर थीं,एक समान थीं। लेकिन फ़र्क़ ये था कि दूसरी टीमों के अनुभवी खिलाड़ी अपने अनुभव का इस्तेमाल करते थे ग्राउंड में,लेकिन हमारे जो खिलाड़ी अनुभवी हैं उनका अनुभव हमारी टीम के लिए कभी भी फायदेमंद साबित नहीं हो रहा था। भई,कोच तो आपको ग्राउंड के बाहर बता देगा,ग्राउंड के अंदर तो बताएगा नहीं। जितने भी मैच उन्होंने हारे हैं या ड्रॉ किए हैं उनमें आखिरी 12 सेकेण्ड या 15 सेकेण्ड में हमारे ऊपर गोल पड़ा। जबकि एक अच्छी टीम के डिफेंडर लास्ट मोमेंट पर,डाइंग मोमेंट पर अपनी टीम को बचाने की कोशिश करते हैं। अगर आगे गोल नहीं हो रहा है तो पीछे भी हमारे ऊपर गोल ना हो और ये सारा का सारा दारोमदार अनुभवी खिलाड़ी के ऊपर निर्भर करता है। अगर आपका अनुभव टीम के लिए काम नहीं आया तो उस अनुभव का क्या फायदा। दूसरी चीज़ हमारी टीम में जीतने की जो ललक है उसमें हमेशा कमी देखी है। उनको जीतने की भूख होनी चाहिए ,उस भूख को जगाना चाहिए। लेकिन हमको लगता है पेट भरा हुआ है,इसलिए किसी को जीत की भूख़ ही नहीं है। मेरा ये मानना है कि हमारी टीम थोड़ी सी चूक की वजह से आज निचले पायदान पर आई है। अगर ये थोड़ा सा सँभल कर खेलते,थोड़ा अनुभव का इस्तेमाल करते और ये सोचते कि डाइंग मोमेंट पर हमारी टीम के ऊपर गोल नहीं होना चाहिए तो हो सकता था कि हमारी टीम सेमीफाइनल में खेलती। वो सेमीफ़ाइनल खेलने वाली टीम थी।


प्रश्न :-कुल मिला कर आप ये कहना चाहते हैं कि टीम का चयन ठीक था। अब दो प्रश्न उठते हैं एक,सरदारा,रघुनाथ,वीरेंदर ये ही तीन चार अनुभवी ख़िलाड़ी टीम में थे  और उनका अनुभव ठीक से काम नहीं आया ? दूसरे,खिलाडियों की फिजिकल फिटनेस अच्छी नहीं थी? वे 70 मिनट खेलने लायक नहीं थे? 

उत्तर:-देखिए आज की डेट में जो हमारी हॉकी टीम है वो फिट है।आप ये मान के चलिए कि हमारी टीम में फिटनेस की क़ोई कमी नहीं थी। अब आपने जो चार पांच लड़कों के नाम लिए वे अनुभवी थे यानि डिफेंस में हमारे पास अनुभवी खिलाड़ी थे,वो क्या कर रहे थे ?रुपिंदर पाल भी अच्छा ख़िलाड़ी है। मैं उसे बहुत अच्छा खिलाड़ी मानता हूँ। एक और डिफेन्स का अच्छा खिलाड़ी था। अगर आपके पास एक भी डिफेन्स का अच्छा खिलाड़ी है तो वो क्या करता है कि वो अपनी डिफेन्स को खिलाता हैं ,गाइड करता है।  हम ऑवर आल परफॉरमेंस देंखे तो श्रीजेश एक्सीलेंट प्लयेर हैं। जिस हिसाब से उसने खेला,परफॉर्म किया ,अगर वो परफॉर्म नहीं करता तो  हो सकता है इंडिया के ऊपर और गोल पड़ते। पर मेरा ये कहना है कि पूरी टीम अनुभवी नहीं होती। हमेशा एक्सपीरिएंस और यंग को मिलाकर टीम बनती है। यंग का काम होता है अटैक करना और स्पीड़ को बनाए रखना और अनुभवी खिलाड़ियों का काम होता है अपने अनुभव के साथ उन लड़कों को फीडिंग करना,अपने गोल को बचाना और टाइम टू टाइम स्ट्रैटजी चेंज करना।

प्रश्न:-आप ये कहना चाहते हैं कि सीनियर खिलाड़ी अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभा पाए ? 

उत्तर:-बिल्कुल,वो ठीक से नहीं निभा पाए। ख़ास तौर पर हम डिफेंडर्स को बोलेंगे।10 -15 सेकंड का समय बचा है,आप बराबर चल रहे हैं आप जीत नहीं सकते,कम से कम आपके पास एक पॉइन्ट तो होना चाहिए ।10 -15 सेकंड बचा है,आप गोल खा गए,ये कहाँ की तुक हैं। एक दो सिचुएशन तो ऐसी थी कि उनका फॉरवर्ड आ रहा है हमारे दो डिफेंडर उसे टैकल कर रहे हैं। भई एक को टैकल करने देते और आप उनको बैक से कवर करते। अगर उससे बॉल निकलती तो आप टैकल कर लेते। अब एट ए टाइम दोनों प्लयेर चले गए टैकल करने। एक ही बाल पर बीट हो गए दोनों तो गोल हो गया। जो भी सीनियर अनुभवी खिलाड़ी हैं उन्हें सोचना चाहिए कि जो डेंजर ज़ोन है 'डी' उसमें अगर बॉल आती है वो भी डाईंग मोमेंट में जहाँ पर गोल होने के बाद हमारे पास गोल उतारने के लिए समय नहीं रहेगा तो ऐसे मोमेंट में अपने को बड़ा सँभाल के खेलना चाहिए। हम इतने बड़े टूर्नामेंट में जा रहे हैं हमारा एक एक डिसीजन बड़ा वैल्युएबल है।


प्रश्न:-आप कह रहे हैं खिलाड़ी अपने अनुभव का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं?समस्या सिर्फ इतनी सी है या इससे बढ़कर है ?


उत्तर:-सच बात ये है कि हमारी जो अग्रिम पंक्ति थी वो इस लायक नहीं थी वो बड़े टूर्नामेंट में चैलेंज पेश कर सके।


प्रश्न:-अगर बार बार गलती हो रही है तो क्या इसके लिए कोच को भी जिम्मेदार माना जाना चाहिए या सिर्फ खिलाड़ी ही जिम्मेदार हैं ?


उत्तर:-कोच  की तो  बहुत लोग आलोचना कर रहे हैं कि विदेशी कोच आया हैं। उसको इतना पैसा दे रहे हैं नौ नौ लाख रुपया और इंडियन कोच को पैसा नहीं देते। जब टीम जीतती है तो सब एक सुर में बोलते हैं कोच बहुत अच्छा था। जब टीम हारती है तो एक सुर में बोलते हैं कोच बेकार है यार। देखिए जो कोचेज़ हैं वे वर्ल्ड के बेस्ट कोचेज हैं। लेकिन कोच कभी भी अपने खिलाड़ियों को घोल के नहीं पिलाता।ट्रेनिंग सेशन में वो सब कुछ बताएगा। लेकिन मैदान में सीनियर खिलाड़ी मह्त्वपूर्ण है। अगर हम सीनियर हैं और अपने अनुभव का इस्तेमाल नहीं कर सकते तो लानत है ऐसे 200-300 मैच खेलने पर। मेरा ये मानना है कि जो सीनियर प्लयेर खेल रहे थे उन्होंने अपने अनुभव का इस्तेमाल नही किया। दूसरे जो यंग प्लेयर खेल रहे थे वे बॉल प्रॉपर रिसीव नहीं कर पा रहे थे। इनको चाहिए कि जो यंग प्लयेर हैँ उनको ज्यादा से ज्यादा खिलाएं ,उनको ज्यादा एक्सपोज़र दें ताकि उनको ये पता लग सके कि हॉकी इंडिया लीग खेलना अलग चीज़ हैं और वर्ल्ड कप,ओलम्पिक,एशियाड खेलना अलग चीज़ है। उन्हें ये पता होना चाहिए कि हॉकी इंडिया लीग हिन्दुस्तान में होती है और वर्ल्ड कप,ओलंपिक विदेशों में खेलते हैं। जब आप विश्व की टॉप टीमों के विरुद्ध खेलते हैं तो इसके लिए आपको इतना एक्सपीरिएंस होना चाहिए,गेम की इतनी नॉलेज होनी चाहिए कि कब आपको बॉल रिसीव करना करना है,कहाँ करना है और कब कहाँ पास देना है
                                       सबसे बड़ी चीज़ है कि हॉकी बहुत तेज़ हो गयी है। फार्मेशन लगातार चेंज करते जा रहे हैं। हमारे पास आज की तारीख़ में एक भी ऐसा खिलाड़ी नहीं है जो विपक्षी को स्पीड़ में बीट कर सके। अब यूरोपियन ड्रिब्लिंग करके प्लेयर को बीट कर रहे हैं,डॉज मार रहे हैं। लेकिन हमारे एक भी खिलाड़ी में ये क्वालिटी नहीं है जो वन बाई वन एक भी ख़िलाड़ी को  बीट कर सके डॉज देकर। फिर हर खिलाड़ी में एक ना एक क्वालिटी ऐसी होती है जिसकी वज़ह से वो जाना जाता है राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर। हमारे बहुत से ऐसे खिलाड़ी हैं जो हॉकी इंडिया लीग तो खेलते हैं लेकिन बाहर खेलने का अनुभव उन्हें नहीं है।

प्रश्न:-पहले हम गोल्ड की बात करते थे। फिर हम मेडल की बात करने लगे। इस बार जब कोच से भारतीय टीम के बारे में पूछा गया तो तो उन्होंने कहा हमारा लक्ष्य पहले 6 स्थानों पर आने का है। ये हॉकी में निरन्तर गिरावट की और संकेत करता है। आप इसे किस नज़रिये से देखते हैं ?

उत्तर:-देखिये कोच को अपनी टीम की काबिलियत पर भरोसा नहीं है। इसलिए वो ये तो नहीं कहेगा कि टीम मैडल लाएगी। लेकिन मैं मानता हूँ कि टीम में इतनी खूबी थी कि कभी भी किसी भी मैच का पासा पलट सकती थी। प्रॉब्लम हमारी टीम में ये कि कन्सिस्टेंसी नहीं है। हमारी टीम आज अच्छा खेलेगी ,कल बुरा खेल जाएगी। कभी एक ही मैच में पैचेज में अच्छा खेलते हैं पता चला 10 मिनट अच्छा खेले 15 मिनट खराब खेले। अच्छी टीम वो होती है जो लगातार अच्छा खेलती है।हर किसी का ऑफ डे होता है।  बड़ी बड़ी टीमों का भी। हॉलैंड ने फाइनल में ऑस्ट्रेलिया से 6 गोल खा लिए क्योंकि उस दिन उनका ऑफ डे था। लेकिन जो टीम पैचेज में अच्छा खेलती है वो ज्यादा समय तक सस्टेन नहीं करती है। 

प्रश्न:-तो फिर समस्या का समाधान क्या है ?

उत्तर:- देखिये समस्या सॉल्व करने का एक ही तरीका है कि हमारी हॉकी की जो खामी हैं वो है 'लेक ऑफ़ क्वांटिटी' . क्रिकेट को देख लीजिए एक कैंप लगता है तो 5000 बच्चे आ जाते हैं,हॉकी का लगता है तो 250 बच्चे भी नहीं आते। अगर आपके पास क्वांटिटी नहीं है तो क्वालिटी कहाँ से जनरेट करेंगे।पर जो सबसे अच्छी चीज़ है वो है हॉकी इंडिया लीग। वो बेहतरीन हो रही है। आगे आने वाले चार पाँच सालों में इसके रिजल्ट मिलने शुरु हो जाऐंगे। लेकिन ग्रास रुट लेवल पर कुछ काम नहीं हो रहा है जिसकी जरूरत है। 

प्रश्न:-आपने थोड़ी देर पहले कहा कि भारतीय टीम में जीत की ललक नहीं है। हॉकी लीग से प्लेयर्स को अच्छा पैसा मिल रहा है। ऐसा तो नहीं कि ख़िलाड़ी इससे संतुष्ट  हो ?कहीं लीग का ये दूसरा पक्ष तो नहीं ?

उत्तर:-नहीं,नहीं हॉकी लीग से लड़कों को पैसा मिल रहा है अच्छी बात हैं। और भी ज्यादा मिलना चाहिए। आप जिन को रोल मॉडल मानते हैं उनको अवार्ड मिल् रहा हैं तो आपके दिल में ये बात आती है जब इनको इतना पैसा मिल रहा है,टी वी पर आ रहे हैं ,अवार्ड मिल रहा है अगर हम भी मेहनत से खेलेंगे तो हो सकता है हम भी इनकी तरह हो जाएं। तो लड़कों में एक जागरूकता आती है,उत्साह जगता है।

प्रश्न:-भारतीय हॉकी में गलत क्या हो रहा है ?

उत्तर:-आज  हमारे देश में ग्रास रुट लेवल पर काम नहीं हो रहा है। आज दुनिया में सबसे ज्यादा हॉकी हॉलैंड और ऑस्ट्रेलिया में खेली जाती है। पूरे हॉलैंड में 600 से  ज्यादा एस्ट्रो टर्फ हैं। क्या हमारे हिन्दुस्तान में हैं। मेरे ख़्याल से भारत में 100 भी नहीं मिलेंगे। विदेशों में बच्चे को शुरू से ही एस्ट्रो टर्फ पर खिलाते हैं,शुरू से ही बच्चों के पास वैसी ही हॉकी होती है,वैसे ही टर्फ के शूज़ होते है,वैसी ही टैक्टिस अडॉप्ट करते हैं स्किल्सकी। हमारे यहां सारे बच्चे तो घास पर खेलते हैं। हमारे यहाँ एक और प्रॉब्लम है ओवर ऐज की अग़र 14 साल का टूर्नामेंट है और उसमें 16 साल का लड़का खेलेगा तो अच्छी परफॉर्म कर लेगा लेकिन ऐसे में 14 साल के लड़के का क्या होगा। तीसरी बात ये है कि हमारे हिन्दुस्तान में कोचेज़ की क्वालिटी ही इतनी गिरी हुई है तो वे बच्चों क्या सिखाएंगे ?

प्रश्न:-तो फिर ?

उत्तर:-तो ग्रास रूट लेवल पर बहुत काम करने की जरूरत है। उसमें ऐज को चैक करने की बहुत जरूरत है। फिर अच्छा एटमॉस्फियर देने की जरूरत है। अच्छा इंफ्रास्ट्रक्चर हो। बच्चों के पास टर्फ हो। इसका कारण ये है कि आपके पास 500 बच्चें हैं। उन्हें सेलेक्ट कर के इंडिया भेज दिया। उनका रिप्लेसमेंट कौन आएगा। आप एक लड़के को सेलेक्ट कर रहे हैं वो कितने साल इंडिया खेलेगा। पांच साल सात साल। तब उसको कोई रिप्लेस भी तो करेगा। अगर कोई रिप्लेस करेगा तो बच्चा आएगा कहाँ से। वो बच्चा तैयार कैसे होगा ? इन सब बातों पर सोचना होगा।

प्रश्न:-इस समय इण्डिया टीम में कौन से उदीयमान खिलाड़ी हैं जो वर्ल्ड क्लास बन सकते हैं ?

उत्तर:-निसंदेह सरदारा सिंह बेस्ट प्लयेर हैं 

प्रश्न:-उनके अलावा ?

उत्तर:-एक लड़का है रुपिंदर पाल सिंह। वो बहुत अच्छा है। क्योंकि जो डिफेंडर होता है उसकी पहली क्वालिटी होती है टैकलिंग-फॉरवर्ड प्लेयर हमको बीट करके ना जाए। पेनाल्टी कार्नर उसकी एडिशनल स्किल है। रुपिंदर पाल में क्वालिटी हैं,अच्छी टैकलिंग है,अच्छी हाइट है,अच्छी रीच है और अच्छा ड्रैग फ्लिकर है। हमको ऐसे ही प्लेयर चाहिए। गुरबाज सिंह भी बहुत अच्छा प्लेयर हैं।  उसमें गेम सेंस बहुत है। रघुनाथ ठीक है लेकिन उसको टैकलिंग की आदत होनी चाहिए। कोचेज को डिफेन्स पे कंसन्ट्रेट करना चाहिए।  

प्रश्न:-फॉरवर्ड में कोई बेहतरीन प्लयेर दिखाई देता है। आकाशदीप सिंह के बारे  आपके क्या विचार हैं ?

 उत्तर:-हमारे फॉरवर्ड में इस समय कोई ऐसा प्लेयर नहीं है जिसको आप बोल सकते हैं कि आने वाले समय में वो वर्ल्ड क्लास बन जाएगा। वर्ल्ड क्लास बनने की कई क्वालिटी होती हैं। एक दो क्वालिटी ऐसी होती हैं जिसमें आपका परफेक्शन होता है जैसे मोहम्मद शाहिद थे। मो. शाहिद वर्ल्ड के ऐसे प्लेयर थे जिनका दुनिया लोहा मानती थी। उनके पास स्किल था विथ स्पीड। आज की डेट में दो एक ऐसे प्लयेर हो जाएं तो हिंदुस्तान के वारे न्यारे हो जाएंगे क्योंकि अभी हमारे पास  एक भी ऐसा प्लेयर नहीं है जो ड्रिबल करके एक प्लयेर को बीट कर सके। 

प्रश्न:-इस समय देश में हॉकी की जो गतिविधियाँ चल रही, हॉकी को जो चलाने वाले जो लोग हैं- हॉकी इंडिया और हॉकी फेडरेशन के बीच  आज भी लड़ाई चल रही है। क्या इसका फर्क पड़ता है हॉकी पर?

उत्तर:-देखिए अब कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा है क्योंकि मि. नरेंद्र बत्रा जो काम कर रहे हैं वो हॉकी के प्रमोशन के लिए बहुत  बड़ी चीज हैं। नरेंद्र बत्रा अकेले इतना बड़ा काम कर रहे हैं। और हिन्दुस्तान में एक नरेंद्र बत्रा नहीं चाहिए बल्कि पचासों नरेंद्र बत्रा चाहिएँ जो डिफरेंट एरिया में,डिफरेंट जोन में हॉकी के लिए काम करें। नरेंद्र बत्रा अकेले काम कर रहे हैं,उनको चाहिए सौ हाथ काम करने के लिए। नरेंद्र बत्रा ने जो काम कर दिया है वो हॉकी फेडरेशन कभी नहीं कर सकी। मेरा ये मानना है कि नरेंद्र बहुत अच्छा काम कर रहे हैं जिसके रिजल्ट एक दो साल में मिलना शुरू हो जाएंगे। लेकिन एट दी सेम टाइम नरेंद्र बत्रा को इस बात पर कंसन्ट्रेट करना चाहिए कि हम ग्रास रुट लेवल पर कैसे लड़के तैयार करें। कैसे हम लोगों से मैनेज करें। लोगों से बात करें। हर स्टेट में जितने भी बड़े खिलाड़ी हैं,ओलम्पियंस हैं उनको बुलाकर सुझाव लें। होता ये है जो चापलूसी करते हैं वे ऑफिसियल बन जाते हैं। नरेंद्र बत्रा को मालूम होना चाहिए कौन उनके काम का है और कौन बेकार है। वो जिस हिसाब की हॉकी करा रहे हैं ऑफिसियल भी उसी कैलिबर का होना चाहिए।  

प्रश्न-आप इलाहाबाद से हैं। इलाहबाद में हॉकी की लम्बी परंपरा है।न केवल स्कूल स्तर पर बल्कि विश्वविद्यालय स्तर पर भी इलाहाबाद का क़ाफी नाम था। एल्बर्ट कैलब,सुजीत,दानिश और अब मुज़्तबा। अब इलाहाबाद में हॉकी ख़त्म हो रही है ?आप क्या सोचते हैं?

उत्तर:-इलाहाबाद में भी हॉकी की दयनीय स्थिति है। मैं कर्नलगंज इंटर कॉलेज का प्रोडक्ट हूँ। जिस समय हम हॉकी खेलते थे उस समय सी.आई.सी.;एम.आई.सी.; एम.वाए.एम.ए. ये दो तीन कॉलेज बड़े अच्छे थे। इसके अलावा ए.बी.आई.सी. में और जमुना क्रिश्चियन में भी हॉकी होती थी। इलाहाबाद में दो तीन गेम हीं चलते थे-फुटबॉल,हॉकी,क्रिकेट और टेनिस भी। हॉकी में तो इलाहाबाद का वर्चस्व हमेशा से बना रहा। लेकिन मैं वही कह रहा हूँ ना कि इंटरेस्ट कौन लेगा। इंटरेस्ट किसी ना किसी को लेना ही पड़ेगा। किसी को आगे आना ही पड़ेगा। अब खेल निदेशालय एडहॉक कोच रख लेता है आठ दस हज़ार मिल जाता है। वो मस्ती में आते हैं सुबह और चले जाते हैं। एस्ट्रो टर्फ हैं नहीं इलाहाबाद वाराणसी गोरखपुऱ  ये सब गढ़ होते थे हॉकी के। वहां पर टर्फ होनी चाहिए। वाराणसी में तो चलिए टर्फ है इलाहाबाद में नही है,गोरखपुर में नहीं है। ये सब तो पॉकेट्स थीं होखी की। दोबारा रिवाइव करने  लिए इनको इंफ्रास्ट्रक्चर भी देना होगा। अगर हम कहते हैं कि बच्चे तैयार नहीं हो रहे हैं तो तैयार करेगा कौन। अच्छे कोच भी तो लाने पडेंगे ,अच्छी ग्राउंड भी तो होनी चाहिए। 
              अभी एक दिन यूनिवर्सिटी ग्राउंड पर गया था देख़ा खेल हो रहा था। अभी सीनियर हॉकी प्लेयर जो इस समय इलाहाबाद के कमिश्नर भी हैं,से बात हो रही थी उन्होंने कहा सुजीत हम यूनिवर्सिटी मे एस्ट्रो टर्फ लगवाना चाहते हैं हमने कहा "मोस्ट वेलकम ". इलाहाबाद में एस्ट्रो टर्फ होइ चाहिए। इलाहाबाद हॉकी का गढ़ था,एकदम ख़त्म हो गया है। तो उसको किसी तरह से रिवाइव करना चाहिए। अब रिवाइव करना है तो रिवाइवल प्लान होना चाहिए आपके पास। रिवाइवल प्लान कौन बनाएगा ?खेल निदेशालय के अधिकारी बनाएंगे। वो इस तरह से प्लान बनाए कि इलाहाबाद की जो अंतर्राष्ट्रिय खिलाङी हैं उन्हें इनवॉल्व करें कि वे ग्राउंड में जाएँ। उनको जो भी पैसा देना है दीजिये। अरे भई यहाँ जो एडहॉक कोच हैं एकदम बेकार हैं। जो आठ दस हज़ार उन्हें दे रहे ये पैसा अपने शहर के अंतर्राष्ट्रीय खिलाडियों को दीजिए वे कोचिंग देंगे ग्राउंड में आकर। 






दीपा करमाकर,एक लाजवाब जिमनास्ट

  अ पनी बात इलाहाबाद की एक स्टोरी से शुरू करता हूँ। वहां एक शख़्स हुआ करते थे डॉ यू के मिश्र। वे आबकारी विभाग में उच्चाधिकारी थे। लेकिन जिस व...