सुप्रसिद्ध कथाकार ज्ञानरंजन कल इलाहाबाद में थे। मीरा स्मृति सम्मान के सिलसिले में। मैं उन्हें एक बड़े कथाकार के रूप में जानता हूँ और उससे भी अधिक पहल के संपादक के रूप में। इलाहाबाद में रहते हुए ज्ञानरंजन,रविन्द्र कालिया और दूधनाथ की त्रयी के बारे में काफी कुछ सुना था।कल उनसे मिलने और उन्हें सुनने का मौका मिला। सम्मान समारोह में उन्होंने एक छोटा सा वक्तव्य दिया। दरअसल वे इलाहाबाद के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर रहे थे। वे उस शहर को ढूंढने का प्रयास कर रहे थे जिसमें उनका जन्म हुआ और पले बढ़े और जिसे वे वर्षों पहले छोड़ गए थे। जिसका उन पर बड़ा दाय है और जिसे वे शिद्दत से महसूस भी करते हैं। उन्होंने शहर को और शहर ने उन्हें भरपूर जिया। तभी तो इतने वर्षों से इलाहाबाद की स्मृतियाँ उनके मन में इस तरह जड़ थी मानो वो लंबा अंतराल कल की बात हो। वे अपने जिए उस इलाहाबाद के शानदार और सजीव चित्र बनाते हैं जो उनकी स्मृति पटल पर स्थायी रूप से अंकित हो चुका है और जो भगवती चरण वर्मा,दूधनाथ सिंह,नासिरा शर्मा,धर्मवीर भारती में बार बार आता है। पर वो शहर अब उन्हें ढूंढे से भी नहीं मिलता। तभी वे उसकी दुखी मन से उसकी मृत्यु की घोषणा करते है। पर शहर मन में इतने गहरा पैठा है, वे इस शिद्दत से उसे चाहते हैं कि उसकी मृत्यु में भी खूबसूरती ढूंढ लेते हैं। वे मानते हैं कि अपनी मृत्यु के बाद भी ये शहर तक्षशिला,नालंदा या एथेंस जैसा ही खूबसूरत लगेगा। उनके वक्तव्य के कुछ संपादित अंश .……
"जिस इलाहाबाद में मैंने अपने को आवारागर्द के रूप में पाया,जिस इलाहाबाद में एक संभ्रांत परिवार में जन्म लेकर भी मैं अभिजात्यों के खिलाफ चला गया और अपनी हर भाषाओं से इसकी निरंतर मुख़ालफ़त की। यहाँ तक की कहानियों के उन पात्रों की भी जो इलाहाबाद की उपज थे और जो उपज अब पूरे मुल्क में फ़ैल गयी है ……… इलाहाबाद ने मुझे शरण दी है,स्वीकार किया है और अब सम्मान भी किया है तो अब अधिक बद्तमीजी नहीं करूँगा। इलाहाबाद का तो जलवा था कि मुझे नौकरी भी बिना साक्षात्कार के मिली।उन दिनों लोग जबलपुर में मुझसे सम्मानजनक दूरी रखते थे कि मैं इलाहाबाद का हूँ,इलाहाबाद से आया हूं। नई नौकरी के बावज़ूद मैं हरीशंकर परसाई के साथ अनाप शनाप छुट्टियां लेता हुआ,जब मुक्तिबोध कैंसर से जूझ रहे थे तो राजनांदगांव,भोपाल,दिल्ली के अस्पतालों के चक्कर लगाता रहा और वहां मेरी मुलाकातें शमशेर,नेमिचन्द्र जैन, श्रीकांत वर्मा से बार बार हुईं। ना जाने कितनी महापुरुषों की छायाएं इसी इलाहाबाद में मेरे ऊपर गिरी उसे बताना कठिन है। इसलिए इलाहाबाद के असंख्य आभार हैं। साथियों विश्वास करें जब इलाहाबाद की बात आती है तो मेरा सोना-जागना स्थगित हो जाता है। मेरे अंदर एक युवक उभरता है। भीतर रासायनिक बेकरारी होने लगती है। पुराना उत्साह उत्पात तोड़ फोड़ मचने लगती है। इसलिए मैं वाचाल होने के लिए क्षमा चाहता हूँ। .......
जीते जी मैंने कम से कम दो इलाहाबाद देखे। मैं पुराने का ध्वंसावशेष हूँ और मलबे का अंकुर भी।
पुरानी जगहों को खोज रहा हूँ पर उनका कायाकल्प हो गया है। मैं जानना चाहता कि एक शहर कब और कैसे मरता और कैसे जीता है। मेरे कोई भी पात्र आउटसाइडर नहीं हैं। सभी इस भूगोल के हैं। मेरा लोकेल भी इलाहाबाद है। और इन पात्रों से मेरी वैचारिक लड़ाई आज भी जारी है। आप सब को अपनी कुछ नकारमक बातें बतलाता हूँ।एक तो ये कि इलाहाबाद का आदमी सदा क्षम्य है। दूसरा यह इलाहाबाद का आसमान ज़मीन सब अलग है। और अंतिम यह कि हम सब ने इलाहाबाद का दूध पिया है। बहरहाल मैंने इस शहर में महान अध्यापक प्राप्त किए,ऐसे नए पुराने लेखक कलाकार संपादक जिन्हें मैंने तारामंडल कहा। ऐसे दूधनाथ,कालिया, लक्ष्मीधर, प्रभात,ओमप्रकाश, रज्जू और नीलाभ जैसे मित्र जिनके उजाले अंधेरों में मेरा जुगनू दमकता रहा। यहीं कौशल्या जी ममताजी और सुलक्षणा ने असंख्य बार खाना खिलाया।मेरे मित्र झूंसी ,तेलियरगंज ,धूमनगंज और दिल्ली में फेंक दिए गए। हर शहर में ये होता रहा है और हो रहा है। शानी ने दिल्ली पर लिखा 'सारे दुखिया जमुना पार'। मैं कहूँगा गंगा पार,जमुना पार और बचे खुचे चौफटका पार। …… तो मेरे गुरु, मेरे दोस्त, मेरे पात्र, मेरे साथी, मेरे लेखक, मेरे अड्डे, मेरे फुटपाथ, यहां तक कि मेरी प्रेमिका और फिर मेरी पत्नी सभी इसी शहर के पात्र हैं। मैं उन्हें नागरिक नहीं पात्र कहता हूँ क्योंकि उन्हीं से मेरी रचना पैदा हुई है। जिस सभागार में हम उपस्थित हैं उससे कुछ दूरी पर पोनप्पा रोड़ है। जहाँ हुड्ड हो जाने के बाद मैंने सायकिल सीखी और इनाम में सौ रुपए पाए क्योंकि मेरे लोग यह उम्मीद छोड़ चुके थे। साउथ रोड की मरीन ड्राइव की तरह लहराती कटावदार बत्तियां दूधनाथ की कहानी में हैं ,ज़ीरो रोड को नासिरा शर्मा ने आबाद किया और भगवती बाबू के उपन्यास में रास्ते राहत जगाती यूनिवर्सिटी रोड बार बार आता है और वो शानदार गोल केथेड्रल जिसने धर्मवीर भारती को प्रेरित किया और वे अंधायुग तक गए। इसी इलाके में महादेवी सबसे पास थीं पर वे सदा सबसे दूर रहीं। यहाँ से अमृत राय भी पास थे और श्रीपत राय सानु सन्यासी ड्रूमंड रोड पर। बहुत बाद में इसी इलाके में अमरकांत भी आए ,मार्कण्डेय ,ओंकार शरद राजापुर सिमेट्री के पास बसे थे। आकाशवाणी के दो जुड़वां बंगले भी इस सभागार के पास हैं जहाँ एक समय गिरिजा कुमार माथुर कभी कभार एक टाँगे पर दारागंज तक जाते थे। तांगा रस्तोगी जी का था। उनके साथ इस आवारा को दो चार बार संगत करने का अवसर मिला। यहीं भारत भूषण अग्रवाल और प्रभाकर माचवे भी थे जिन्होंने मुझे तीन सप्ताह के तीन अनुबंध दिए थे जिसकी मज़दूरी उन दिनों कुल पंद्रह रुपये थी। यहीं स्टूडियो में मैंने उस्ताद अलाउद्दीनखां के सरोद को खिलखिलाते और सरोद पर उस्ताद को आंसू टपकाते भी देखा था। यहीं मैंने पहली बार प्रभात के साथ मुक्तिबोध की गौरांगउटान कविता का पाठ भी सुना। उन दिनों इलाहाबाद का ये इलाका दबंग, अभिजात्य अंग्रेजी शिल्प और सुनसान से भरा ऐसा इलाका था जहाँ कोई बूढ़ी औरत सीताफल नहीं बेच सकती थी। और मूंगफली के ठेले भी इधर नहीं घुसते थे। यह थी पच्छिम की थॉर्नहिल रोड।
नगरों की एक आयु होती है, वे कितने ही गर्वीले और शरीफ क्यों न हों। ध्यानस्थ हो सौ वर्ष पहले और सौ वर्ष बाद के इलाहाबाद के दृश्य देखे जा सकते हैं। क्योंकि हमारे देश में विकास का जो दर्शन उभरा है और जिस पर एक सीमा तक सहमति भी हो गयी है उसी में ध्वंस, डूब और विनाश निहित हो गया है।जो नगर जल प्लावन, युद्ध, भूकम्प, आवागमन, निष्क्रमण तथा प्रजनन और विकास के अनन्य बहानों की वजह से जमींदोज़ हुए उनमें सात आठ सौ सालों में गणना सौ के पार हो जाएगी। इनमें जीवित मरे हुए भी शामिल हैं। हमारे देखते देखते विकास ने टिहरी और हरसूद को निगल लिया। अभी पचास सालों में और नगर तबाह होने की प्रतीक्षा में हैं। ये शहर नहीं सभ्यताएं थीं। मैं इलाहाबाद के घमंड को टूटते हुए देख रहा हूँ। इसके गर्वीले चिन्ह और लैंडमार्क मिट रहे हैं। लेकिन सुन्दर और मरी हुई चीज़ें भी शानदार हो सकती हैं। नालंदा, तक्षशिला, मोहनजोदड़ों,कौशाम्बी, एथेंस की याद कर लें। सूची और भी है। इलाहाबाद वयोवृद्ध है या उन्मत्त या हत्यारों द्वारा मारा जाएगा या क्या पता नदियां इसे घेर लेंगी। मेरी यह समझ है इलाहाबाद पर हमला हो चुका है। ये हमले पुणे, हैदराबाद, बेंगलुरु, लखनऊ, दिल्ली और अहमदाबाद पर भी हो चुके हैं। एक अदृश्य दीवार खड़ी हो गयी है जो नए पुराने शहरों के बीच है। हमारे जैसे लोग नए पुराने किसी भी हिस्से में चैन से नहीं रह सकते। इस आर्थिक और सांस्कृतिक बलवे का अंजाम कहाँ तक जाएगा यह सब जानना पहचानना हमारे लिए दिलचस्प है। सवाल मरने जीने का नहीं है। सवाल इसके आगे का है। शहर में सामग्रियाँ,तरल मुद्रा,चमक दमक,भुलक्कड़ी,जन संकुलता किसी की भी कोई कमी नहीं है।फिर भी सवाल खतरनाक होते जा रहे हैं। इस सम्मान कार्यक्रम में मैं संकेत देना चाहता हूँ कि इलाहाबाद पर एक किताब चल रही है। यह वक्तव्य केवल कृतज्ञता मात्र है। इलाहाबाद के कारण मुझे आज भी बोनस मिल रहा है।"
No comments:
Post a Comment