तुम वैसे बिल्कुल नहीं हो
जैसे कहे
और समझे जाते हो।
मैं जानता हूँ
जब तुम प्रेम में पगते हो
तो ताजमहल बन जाते हो
करुणा में भीगते हो
तो दरिया बन बह निकलते हो
दुःख से गलते हो
तो शिवाला बन बैठते हो
मिटने पर आते हो
तो रेत बन जाते हो
चक्की का पाट बन
पेट थपथपाते हो
सिल बट्टा बन
नथुने महकाते हो
ख़ुद की रगड़ से घायल होकर भी
दुनिया को रोशन करते हो
खुदवाते हो राजाज्ञाएं
और फिर सदियों तक ढ़ोते हो
ये सब अच्छा है
बस एक खराबी है तुम्हारी
कि तुम खौलना और धधकना भी जानते हो
और अक्सर मज़लूमों के हाथ के
हथियार बन जाते हो
तुम्हारा यूँ धधकना इन्हें पसंद नहीं
कि तुम्हारे ताप से पिघलने का
ख़तरा है उनकी काँच की दीवारों को
कि दीवारों के पीछे के उनके अंधेरों पर
हावी हो सकती है
तुम्हारे ताप की रोशनी
दरक सकती है उनकी सत्ता।
इसीलिए तुम हो
बेकार
जड़
और कठोर भी
आज तक।
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