Monday 17 August 2020

पसंद और नापसंद के बीच झूलता क्रिकेट हीरो



          अंततः भारतीय क्रिकेट की सबसे बड़ी जिज्ञासा का समाधान हुआ, सबसे ज़्यादा वांछित सवाल का जवाब मिला, और भारतीय क्रिकेट के सबसे चमकदार युग का पटाक्षेप हुआ. अपने आधिकारिक इंस्टाग्राम अकाउंट के ज़रिये ‘कैप्टन कूल’ ने सन्यास लेने की घोषणा की. धोनी चाहे कितने भी कूल हों लेकिन उनका सन्यास लेना भी इतना ‘कूल’ होगा, ये किसी ने सोचा नहीं था. पर वो धोनी ही क्या जो अपने फ़ैसलों से अपने चाहने वालों को चौंका न दें. आख़िर अपने खेल कॅरिअर के 16 सालों में खेल मैदान के भीतर और बाहर भी वे अपने फ़ैसलों से चौंकाते ही तो रहे हैं. तो विदाई भी ऐसी हुई तो क्या आश्चर्य!
       अगर भारतीय क्रिकेट इतिहास के चार सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों के नाम भारतीय क्रिकेट में उनके योगदान के लिए चुनने पड़े तो इनमें निसन्देह एक नाम महेंद्र सिंह धोनी का होगा. शेष तीन नाम ज़ाहिर है कि गावस्कर, कपिल और सचिन हैं.
         1983 में क्रिकेट विश्व कप में भारत की जीत भारतीय क्रिकेट इतिहास की ऐसी युगांतरकारी घटना है, जो उसके इतिहास को दो युगों में विभाजित करती है. 1983 से पहले के क्रिकेट का ‘एलीट काल’ और 1983 के बाद का क्रिकेट का ‘मास काल’. गावस्कर और कपिल इन दो कालों के सबसे बड़े प्रतिनिधि खिलाड़ी हैं. और इन दोनों की जगह कोई नहीं ले सकता. 83 से पहले का काल क्रिकेट का क्लासिक युग है. और गावस्कर से बड़ा खिलाड़ी कोई नहीं. विश्व की अब तक की सबसे ख़तरनाक गेंदबाजी के ख़िलाफ जिस तरह से टेस्ट क्रिकेट में पहली बार दस हज़ार से ज़्यादा रन बनाए, वो अविश्वसनीय था. ये गावस्कर ही थे, जिन्होंने भारतीय क्रिकेट को विश्व पटल पर एक नई पहचान देने का काम किया.

         '83 में विश्व कप जिताकर कपिल ने न केवल गावस्कर द्वारा बनाई गई पहचान को स्थापित किया बल्कि भारतीय क्रिकेट के विशिष्ट स्वरूप पीछे करके इसे जनसाधारण के खेल में बदल दिया. इसके बाद सचिन आते हैं. वे इस जनसाधारण के खेल को अपनी असाधारण व्यक्तिगत उपलब्धियों से खेल को लोगों के धर्म के रूप में स्थापित कर देते हैं. और वे ख़ुद भगवान के रूप में पूजे जाने लगते हैं. लेकिन अभी भी क्रिकेट इतिहास का चक्र पूरा नहीं हुआ था. अभी भी कुछ कमी सी थी. कुछ अधूरा था. कुछ था, जो छूट रहा था. वो थी खेल की बादशाहत. धोनी तीन-तीन विश्व ख़िताब भारत के लिए जीतते हैं और भारतीय क्रिकेट की बादशाहत क़ायम कर देते हैं. ये ऐसा काम था जो अभी तक कोई नहीं कर पाया था.

         इस तरह सचिन के बाद धोनी के अवदान के साथ भारतीय क्रिकेट का एक पूरा चक्र पूरा होता है. गावस्कर भारतीय क्रिकेट की विश्व पटल पर पहचान बनाते हैं, कपिल उस पहचान को स्थायित्व देकर उसे जनसाधारण के खेल में बदल देते हैं, सचिन खेल को धर्म में परिवर्तित कर देते हैं और धोनी विश्व पटल पर उसकी सर्वोच्चता स्थापित कर देते हैं.

     कपिल और गावस्कर के बाद सचिन और धोनी भारतीय क्रिकेट के स्वरूप को बदलने वाले सबसे बड़े कैटेलिस्ट थे. दोनों का भारतीय क्रिकेट को बड़ा पर अलग अवदान रहा. दरअसल सचिन क्रिकेट का कला पक्ष थे तो धोनी विज्ञान पक्ष. सचिन क्रिकेट की कविता थे तो धोनी निबंध थे. सचिन अंतरात्मा से थे तो धोनी शरीर से. सचिन जितने कोमल से थे तो धोनी उतने ही कठोर. सचिन बहुत वैयक्तिक थे और धोनी सामूहिक. सचिन किसी बन्द लिफाफ़े से थे और धोनी खुली किताब की तरह. दरअसल सचिन दिल थे और धोनी दिमाग. पर दोनों थे भारतीय क्रिकेट के शिखर पुरुष ही.

     धोनी 2004 में भारतीय क्रिकेट फ़्रेम में आते हैं और छा जाते हैं. धीरे-धीरे बाक़ी सब नेपथ्य में चले जाते हैं. वे अपनी प्रतिभा से लैंडस्केप को पोर्ट्रेट में बदल देते हैं. इस काल में वे इस पोर्ट्रेट का एकमात्र चेहरा बन जाते हैं. भारतीय क्रिकेट में सौरव ने जिस आक्रामकता का समावेश किया था, धोनी ने उसे चरम पर पहुंचा दिया था. धोनी अपने खेल से आगे बढ़कर दूसरों के लिए उदाहरण बनते थे. वे आगे बढ़कर ज़िम्मेदारी ख़ुद अपने कंधों पर लेते थे और तब बाक़ी लोगों से उम्मीद करते थे. वे एक शानदार विकेटकीपर थे, बेहतरीन आक्रामक बल्लेबाज़ और असाधारण लीडर. दरअसल उन्हें खेल की गहरी समझ थी. खेल की अपनी इसी असाधारण समझ के चलते वे खेल मैदान पर ऐसे निर्णय लेते, जिनसे अक्सर विशेषज्ञ चौंक जाते. लेकिन उनके निर्णय सही साबित होते. वे जोखिम भरे निर्णय लेते.

        दरअसल असाधारण उपलब्धियों के लिए ऐसे जोखिम लेने की दरकार होती है और उन्हें यह क़बूल था. ये धोनी ही थे जिन्होंने विपक्षी खिलाड़ियों की आंख में आंख डालना सिखाया. उनकी खेल की समझ, खेल में उनकी संलग्नता और खेल के उनके अद्भुत पर्यवेक्षण को इस बात से समझ जा सकता है कि डीआरएस (डिसीजन रिव्यु सिस्टम) को धोनी रिव्यु सिस्टम कहा जाने लगा था. उन्होंने भारतीय क्रिकेट को नए सिरे से संगठित किया. वे सबसे फिट खिलाड़ी थे. विकेटों के बीच उनकी रनिंग गजब थी. उन्होंने फील्डिंग पर विशेष ध्यान दिया. इसीलिए उन्होंने फिटनेस को टीम का मूलमंत्र बना दिया. इसी बिना पर उन्होंने सीनियर खिलाड़ियों को बाहर का रास्ता दिखाया और नए युवा खिलाड़ियों की जोश से लबरेज टीम बनाई.

        धोनी का अंतरराष्ट्रीय कॅरिअर दिसंबर 2004 में बांग्लादेश दौरे के लिए ओडीआई टीम में चयन के साथ शुरू होता है. हालांकि वे पहले ही मैच वे शून्य पर रन आउट हो जाते हैं, पर अपने पांचवें मैच में पाकिस्तान के खिलाफ 148 रनों की अविस्मरणीय पारी खेल कर स्थापित हो जाते हैं. 2005 में श्रीलंका के विरुद्ध उनका टेस्ट कॅरिअर शुरू होता है और 2006 में दक्षिण अफीका के विरुद्ध टी20 कॅरिअर. इसमें भी ओडीआई की तरह पहले मैच में शून्य पर आउट होते हैं. लेकिन 2007 में टी20 विश्व कप की कमान उन्हें सौंपी जाती है और विश्व कप जीत कर आते हैं. 2011 में 28 साल बाद ओडीआई आईसीसी विश्व कप जिताते हैं. ये जीत सचिन के लिए होती है. और 2013 में आईसीसी चैंपियनशिप. और ऐसा करने वाले एकमात्र कप्तान.

         निःसन्देह एक कप्तान के रूप में उनकी उपलब्धियां असाधारण हैं और एक खिलाड़ी के रूप में सराहनीय. उनकी कप्तानी में भारत ने 2007 में पहला टी ट्वेंटी विश्व कप (इंग्लैंड), 2011 में विश्व कप (भारत), 2013 में चैंपियन ट्रॉफी (दक्षिण अफ्रिका) जीती और 2009 में टेस्ट क्रिकेट में भारत को नंबर एक बनाया. वे भारत के सबसे सफल कप्तान हैं. उन्होंने 50 टेस्ट मैचों में कप्तानी की, जिसमे से 27 में जीत 17 में और 15 अनिर्णीत रहे,199 एक दिवसीय में से 110 में जीते और 74 हारे जबकि 72 टी ट्वेंटी मैचों में से 42 जीते और 28 हारे. उन्होंने कप्तान के रूप में एक दिवसीय मैचों में 54 की औसत और 86 की स्ट्राइक रेट से 6633 रन, टी ट्वेंटी में 122 की स्ट्राइक रेट से 1112 रन और टेस्ट क्रिकेट में 41 की औसत से 3454 रन बनाए हैं. अगर उनके पूरे कॅरिअर के आंकड़ों पर नज़र डाली जाए तो उन्होंने 90 टेस्ट मैच खेल जिसमें उन्होंने 38.1 की औसत से 4876 रन बनाए. 350 एक दिवसीय मैचों में 50.6 के औसत से 10773 रन और 98 टी20 मैचों में 37.6 के औसत से 1617 रन बनाए. विकेट के पीछे टेस्ट मैचों में 256 कैच,तीन रन आउट और 38 स्टंपिंग,एक दिवसीय मैचों में 322 कैच,22 रन आउट और 123 स्टंपिंग और टी20 मैचों में 57 कैच,8 रन आउट और 34स्टंपिंग कीं. ये आंकड़े उनकी सफलता की कहानी कहते हैं और यह बताने के लिए काफ़ी हैं कि वह एक बड़े खिलाड़ी और महान कप्तान भी हैं.

       लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि वे एक ऐसे खिलाड़ी हैं जो जितने अधिक पसंद किए जाते हैं उतने ही अधिक नापसंद. आखिर क्यों है ऐसा? मैं स्वयं उन्हें पसंद नहीं कर पाता. मैं यह कहने का जोख़िम उठाता हूँ कि धोनी मेरे पसंददीदा खिलाड़ी नहीं रहे और न ही मेरे लिए वे गावस्कर, कपिल या सचिन जैसे खेल आइकॉन रहे हैं. आख़िर आप इतने बड़े खिलाड़ी के मुरीद क्यों नहीं हो पाए? क्यों उस खिलाड़ी के फैन नहीं हो पाए? क्यों उस खिलाड़ी को नापसंद किया जाता है?

         दरअसल आप किसी खिलाड़ी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व से प्रभावित होते हैं. आप जब उसका अनुसरण करते हो तो केवल खेल के मैदान में ही नहीं उसके बाहर भी उसे देखते हो और खेल के मैदान में भी सिर्फ़ उसका खेल भर नहीं देखते हो बल्कि खेल से इतर उसकी गतिविधियों को भी उतनी सूक्ष्मता से देखते हो. 2004 में जब धोनी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर क्रिकेट में पदार्पण करते हैं तो कंधे तक फैले लंबे बालों की तरह स्वाभाविकता उनके व्यक्तित्व पर पसरी हुई दिखती थी. उस समय वे एक मध्यम दर्ज़े के शहर और निम्न-मध्यम वर्ग के परिवार के एक बहुत ही प्रतिभा वाले सच्चे, सरल, स्वाभाविक और उत्साही खिलाड़ी होते हैं. धीरे-धीरे उनका रूपांतरण होता है. वे एक नवोदित खिलाड़ी से बड़े खिलाड़ी बन जाते हैं. फिर 2007 में टीम की कमान उनके हाथ में आती है. क्रिकेट प्रबंधन से उनके बहुत मज़बूत सम्बन्ध बनते हैं. अब वे बहुत शक्तिशाली हो जाते हैं. वे सत्ता के केंद्र में होते हैं और खेल के सर्वेसर्वा बन जाते हैं.

         यहां केवल एक नवोदित खिलाड़ी का खेल के सबसे बड़े खिलाड़ी बनने का सफ़र ही पूरा नहीं होता बल्कि पूरे व्यक्तित्व का रूपांतरण भी साथ-साथ होता चलता है. वे जैसे-जैसे क़द में बड़े होते जाते हैं वैसे-वैसे उनके बाल छोटे होते चले जाते हैं और उसी अनुपात में उनकी सरलता, स्वाभाविकता, अल्हड़पन और सच्चाई भी कम होती चली जाती है. वे अब सरल नहीं रहते, जटिल हो जाते हैं, स्वाभाविक नहीं रहते कृत्रिमता उन पर हावी हो जाती है, वे हसंमुख और अल्हड़पन की जगह गंभीरता का आवरण ओढ़ लेते हैं, स्वाभाविक अभिमान अहंकार में बदल जाता है और एक साधारण आदमी अचानक से अभिजात वर्ग का प्रतिनिधि लगने लगता है. अभिजात्य उनके पूरे व्यक्तित्व पर पसर जाता है. उनके हाव भाव, चाल-ढाल हर चीज़ पर.

          अपनी सफलताओं और प्रबंधन के साथ संबंधों के बल पर सर्वेसर्वा बन जाते हैं. आदमी जैसे-जैसे सत्ता और ताक़त पाता जाता है वैसे-वैसे वो मन में अधिक और अधिक सशंकित होता जाता है और सबसे पहले उन लोगों को ख़त्म करने का प्रयास करता है जो उसके लिए यानी उसकी सत्ता के लिए ख़तरा हो सकते हैं. धोनी एक-एक करके सारे सीनियर खिलाड़ियों को बाहर का रास्ता दिखाते हैं चाहे वो गांगुली हों, लक्ष्मण हों, द्रविड़ हों, गंभीर हों, हरभजन हों, सहवाग हों या फिर सचिन ही क्यों न हों. इनमें से ज़्यादातर खिलाड़ी अपने खेल के कारण नहीं बल्कि धोनी की नापसंदगी के कारण ही हटे. वे इतने शक्तिशाली थे कि टीम में वो ही खेल सकता था जिसे वे चाहते. तभी तो रविन्द्र जडेजा जैसे औसत प्रतिभा वाले खिलाड़ी टीम में लगातार बने रहे और अमित मिश्र जैसे कई खिलाड़ी टीम में अंदर-बाहर होते रहे.

        जब मोहिंदर जैसे बड़े कद के चयनकर्ता उनके विरुद्ध हुए तो उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा. यहां पर पाकिस्तान के इमरान याद आते हैं. जिस समय उनके हाथ में पाकिस्तानी टीम की कमान थी, वे एकदम तानाशाह की तरह व्यवहार करते थे. यहां तक कि लोकल स्तर पर खेलते खिलाड़ी को देखते और राष्ट्रीय टीम में शामिल कर लेते. अपनी प्रतिभा के बल पर उन्होंने अपनी कप्तानी में पकिस्तान को विश्व कप जिताया और टीम को नई ऊंचाईयां भी दी लेकिन उन्होंने पाकिस्तानी क्रिकेट के ढांचे को ही नष्ट कर दिया कि उनके जाते ही पाकिस्तानी क्रिकेट रसातल में चला गया और आज तक नहीं उबर सका. थोड़ा ग़ौर करेंगे तो आप पाएंगे कि धोनी भी अक्सर इमरान की तरह व्यवहार करते प्रतीत होते हैं. गनीमत यह हुई कि भारतीय क्रिकेट का ढांचा इतना मज़बूत है कि नुकसान न के बराबर या बिलकुल नहीं हुआ.

            उनका यह व्यवहार केवल टीम के स्तर पर ही नहीं दीखता है बल्कि मैदान में भी दिखाई देता है. वे मैदान में अब एक तरह की कृत्रिम गंभीरता ओढ़े नज़र आने लगे. जैसे-जैसे वे सफल होते गए उनकी ‘कैप्टन कूल’ की छवि मज़बूत हो गई. ये सही है कि आज खेल भी बहुत कॉम्प्लिकेटेड हैं और प्रतिद्वंद्विंता बहुत ज़्यादा हो गयी है और ऐसे में किसी भी खिलाड़ी और विशेष रूप से कप्तान का ‘कूल’ होना बनता है. लेकिन कूल होने का मतलब इतना ही है कि विषम परिस्थितियों में भी खिलाड़ी धैर्य और संयम बनाये रखे और कठिन समय में शांत दिमाग से परिस्थितियों के अनुसार फ़ैसले ले सके. इसका ये मतलब यह कतई नहीं हो सकता कि आप जीत में उत्तेजित और उल्लसित न हों और हार में दुखी. खेल तो नाम ही जोश और जूनून का है. आप भावनाओं को काबू में रख ही नहीं सकते. आप मशीन नहीं हो न. आप भाव रहित यंत्रवत कैसे हो सकते हो? धोनी अक्सर जीत-हार के बाद निष्पृह से दिखाई देते हैं मानो जीत-हार का कोई असर उन पर हुआ ही न हो. क्या वे खेल नहीं रहे थे? क्या वे पैसा कमाने के लिए काम भर कर रहे थे?

          उनकी बैटिंग का अंदाज़ बड़ा अनाकर्षक था. उनका रक्षात्मक शॉट देखिये. वे सीना आगे निकाल कर पैरों पर झुकते हुए बड़े ही अजीबोगरीब ढंग से गेंद को धकेलते थे. ऐसे ही हेलीकॉप्टर शॉट कहीं से भी आकर्षक नहीं लगता. एक बात और, जब कोई बॉलर विकेट लेता है तो वह बैट्समैन की ओर एक ख़ास भाव से देखता है या कुछ हाव-भाव प्रकट करता है. ठीक उसी तरह से जब बल्लेबाज़ चौका या छक्के लगाता है तो या तो बॉलर की ओर देखता है या हाव-भाव प्रकट करता है जो बैट्समैन या बॉलर को चिढ़ाए और उसमें खीज़ पैदा करे. दरअसल ये हाव-भाव केवल अपनी योग्यता दिखाने के निमित्त मात्र नहीं होते बल्कि प्रकारान्तर से अपने विपक्षी की काबिलियत की स्वीकृति भी होती है. लेकिन धोनी चौके-छक्के लगाकर भी भावहीन बने रहते हैं, कोई प्रतिक्रिया नहीं देते, जैसे ये कोई बड़ी बात नहीं है. प्रकारान्तर से वे बॉलर की क़ाबिलियत को नकारते हैं. ऐसा करके वे एक ख़ास क़िस्म का अहंकार प्रदर्शित करते हैं. जैसे-जैसे उनका क़द बड़ा होता गया, वैसे-वैसे उनमें सरकाज़्म बढ़ता गया. आप उनकी प्रेस वार्ताएं देखिए. उनके जवाबों में हमेशा एक ख़ास क़िस्म का व्यंग्य लक्षित करेंगे. ये अपने को श्रेष्ठ मानने के अहंकार से उपजा था, जिसमें वे मीडिया को कुछ भी बताना ज़रूरी नहीं समझते थे.

             और अंत में एक बात और. वे आईपीएल में एक ऐसी टीम से जुड़े थे, जिसके मालिक सट्टेबाज़ी से जुड़े थे. ये सभी जानते कि किस तरह से मामले को थोड़े बहुत कार्यवाही करके रफ़ा-दफ़ा किया गया. एक टीम के मालिक इतने गहरे से सट्टेबाज़ी में संलिप्त हो और टीम के कप्तान को कोई जानकारी न हो, ऐसा संभव नहीं लगता वह भी जब उसके मालिक के साथ उनके आर्थिक हितों में साझेदारी हो. कुछ छींटे धोनी पर भी पड़े थे. हालांकि सीधे तौर पर उनकी भागीदारी का कोई सबूत नहीं मिला. लेकिन उस टीम के कप्तान के तौर पर भी और एक बड़े खिलाड़ी के तौर पर उनकी नैतिक ज़िम्मेदारी तो बनती ही है और इस मामले में उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभाई. आप जानते हैं कि इस तरह के आरोप किस तरह से आपकी छवि धूमिल करते हैं. इसका सबसे बड़ा उदाहरण अज़हरुद्दीन हैं. वे धोनी से बड़े खिलाड़ी थे और निःसंदेह उन्हीं की तरह सफल कप्तान भी. यही सब कारण हैं कि धोनी के सन्यास की घोषणा करने के बाद भी कुछ ख़ालीपन-सा नहीं लगा.

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इसके बावजूद धोनी निर्विवाद रूप से एक बेहतरीन एथलीट, क्रिकेट की असाधारण समझ और अंतर्दृष्टि रखने वाले और शानदार नेतृत्वकर्ता थे. यह भारतीय क्रिकेट के सबसे सफल और चमकदार युग की समाप्ति है. भविष्य में भारतीय क्रिकेट के लिए इससे बेहतर समय हो सकता है, ख़राब हो सकता है पर ऐसा तो बिल्कुल नहीं होगा.

गुड बाय धोनी!

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