Sunday 9 June 2019

ये मृत्यु का महाउत्सव था



ये मृत्यु का महाउत्सव था
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(आज आईएमए द्वारा पासिंग आउट परेड आयोजित की गई जिसका आकाशवाणी देहरादून द्वारा सजीव प्रसारण किया गया। मैं भी आकाशवाणी टीम का सदस्य था और इस महत्वपूर्ण आयोजन को देखने का सुअवसर मिला।इस दौरान कारगिल समेत तमाम युद्धों में वीरगति को प्राप्त होने वाले जवान होंट करते रहे)

किसी भी संस्था के प्रशिक्षुओं का अपनी उपाधि प्राप्त करने या प्रशिक्षण समाप्त करने के बाद खुशी मनाना स्वाभाविक है और उनके नियोक्ताओं द्वारा उन्हें समारोहपूर्वक विदा म भी। सिर्फ इसीलिए नही कि उन्होंने अपना लक्ष्य सफलतापूर्वक पूरा किया है बल्कि इसलिए भी कि वे एक ऐसी दुनिया में प्रवेश जहां उनके सपने साकार रूप होने जा रहे होते हैं। जहां उनके सपनों को पंख लगने जो हैं और उनकी उड़ान के लिए अनंत आकाश है। वे जीवन को भरपूर जीने जा रहे हैं। वो जीवन का उल्लास है। वे जीवन का उत्सव मनाया रहे होते हैं।

पर क्या वास्तव में  जीवन के इस उल्लास का उत्सव आईएमए के ये प्रशिक्षु भी मनाते हैं,वे प्रशिक्षु जो युद्ध के लिए प्रशिक्षित होते हैं,जो युद्ध की रणनीतियों में दक्षता हासिल करते हैं।युद्ध जो विनाश का पर्याय हैं। युद्ध जो मृत्यु का सहोदर है। वे तो नियति से वायदा करते हैं। वायदा किसी भी परिस्थिति में मृत्यु को गले लगाने का। युद्ध को सीखते और उसमें निष्णात होते जाने की प्रक्रिया में वे युद्ध की निस्सारता को समझ रहे होते होंगे और उसी प्रक्रिया में ज़िन्दगी के सबसे बड़े सत्य से भी परिचित हो रहे होते होंगे।वे जान रहे होते होंगे कि जीवन तो मिथ्या है।मृत्यु ही एकमात्र सत्य है। और जब वे प्रशिक्षण के बाद जीवन की कर्मभूमि में उतर रहे जोते हैं तो निश्चित ही जीवन का नही मृत्यु का महा उत्सव मना रहे होते होंगे। बिल्कुल आम भारतीय जैसे।जैसे वो सुख दुख में समदर्शी रहता है। वो दुख में भी सुख की तरह उत्सव मनाता है।वो पूर्णिमा के उजाले की तरह अमावस की स्याह रात का उत्सव भी मनाता हैं। और मृत्यु का मूल राग करुणा का राग है।और जब ये प्रशिक्षु महा उत्सव मना रहे होते हैं तो तमाम उल्लास,हर्ष,उत्साह,खुशियों और मुस्कराहटों के बावजूद एक करुण संगीत नेपथ्य में तैर रहा होता है एक ऐसा करुण संगीत जो हर पल आपको हर जगह मृत्यु की उपस्थिति का एहसास करा रहा होता है। हाँ ये ज़रूर होता है कि आपकी देशप्रेम की अमूर्त भावना वहां उपस्थित स्थूल उपादानों से मिलकर हिलोरें मारने लगती है।
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क्या युद्ध इतने ज़रूरी होते हैं और उनके बिना भी कोई दुनिया संभव है।


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