सुश्री मीनू खरे विज्ञान में प्रशिक्षित हैं और लंबे समय से आकाशवाणी में कार्यरत हैं। निश्चित ही इन दोनों ने उनके स्वयं को अभिव्यक्त करने के तरीके को परिष्कृत और परिमार्जित किया होगा और एक दिशा दी होगी। शायद यही कारण है कि वे बड़ी से बड़ी बात को भी कम से कम शब्दों में कहना पसंद करती हैं और कहती भी हैं। और इसीलिये जब उन्होंने अपने अंतस को अभिव्यक्त करना चाहा तो इसके लिए कहने की सबसे छोटी फॉर्म हाइकू को चुनती हैं जो उसके सबसे अनुकूल था। सोने पे सुहागा ये कि वे संगीत में प्रशिक्षित हैं जो उनकी संवेदना को ना केवल रागात्मकता प्रदान करता है बल्कि उनकी संवेदना को तीक्ष्णता और सूक्ष्मता भी प्रदान करता है।
वे लिखती हैं 'विशाल पुल/और नीचे बहती/ सूखी सी नदी' तो क्या ही ख़ूबसूरत बिम्ब बनाती हैं। एक तरफ वे उस यथार्थ को बयां कर रही होती हैं कि किस तरह हमारी बड़ी बड़ी नदियां मर रहीं हैं,बरसात को छोड़ कर बाकी समय उनमें पानी ना के बराबर होता है और उनके चौड़े पाटों पर बने विशाल पुल निरर्थक से लगते हैं। लेकिन उसी समय वे एक और गंभीर बात भी कह रही होती हैं कि किस तरह मनुष्य अंदर से खोखला होता जा रहा है,संवेदनहीन होता जा रहा है,उनकी संवेदनाएं सूख रही हैं और दूसरी तरफ भौतिक उपादानों से बाह्याडंबर के विशाल पुल निर्मित कर रहा होता है। दरअसल वे एक बहुत ही पैनी,सूक्ष्म और चौकन्ना दृष्टि अपने आस पास घट रही घटनाओं पर और साथ ही अपने समय की विसंगतियों और विद्रूपताओं पर रखती हैं, उसे महसूसती हैं और अभिव्यक्ति देती हैं। उनकी इन अभिव्यक्तियों का पता है उनका अभी हाल ही में आया संग्रह 'खोयी कविताओं के पते'। इस संग्रह में अनेकानेक विषयों पर रचित हायकू हैं। किसी भी संवेदनशील व्यक्ति की सबसे पहले नज़र अपने आस पास के वंचित,शोषित,मज़दूर की तरफ जाती है और वे जब भी उनकी तरफ देखती हैं कुछ मार्मिक रचती हैं- 'रोटी गोल थी/मुफ़लिसी नुकीली/चुभी पेट में' या फिर 'बोझ नहीं ये/कई पेट हैं लड़े/सिर पर मेरे'। इसे पढ़ते हुए अनायास ही स्व. नंदल हितैषी की कविता रिक्शावाला याद आ जाती है। वे लिखते हैं- 'रिक्शा पैर से नहीं पेट से चलती है'। वे सामाजिक सरोकारों से हमेशा जुड़ी रहीं,केवल लेखन के स्तर पर ही नहीं बल्कि व्यावहारिक स्तर पर भी। उन्होंने इन मुद्दों पर रेडियो के लिए तमाम प्रोग्राम भी बनाए और पुरस्कृत भी हुए। वे लिखतीं हैं-'बिटिया रानी/कभी गेट से विदा/कभी पेट से' या फिर 'कामकाजी स्त्री/दो नावों में सवार/फिर भी पर' या फिर 'बड़ी उदासी/ हैं सात समंदर/ धरती प्यासी'।
उनकी अभिव्यक्ति की रेंज बहुत ही विस्तृत है। वे हर समसामयिक विषय और समस्याओं पर लिखती हैं बहुत ही खूबसूरती से लिखती हैं।उनका संग्रह'खोयी कविताओं के पते' दरअसल आपकी अपनी ज़िंदगी के खोए पन्ने के पते हैं। जब आप इन कविताओं को पढ़ रहे होते हैं तो आप अपने आस पास के परिवेश को महसूस रहे होते हैं और खुद अपने ज़िन्दगी के खोए पन्नों के पतों से रूबरू हो रहे होते हैं।
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इन पतों को एक बार ढूंढने का प्रयास आप भी जरूर करें।
उनकी अभिव्यक्ति की रेंज बहुत ही विस्तृत है। वे हर समसामयिक विषय और समस्याओं पर लिखती हैं बहुत ही खूबसूरती से लिखती हैं।उनका संग्रह'खोयी कविताओं के पते' दरअसल आपकी अपनी ज़िंदगी के खोए पन्ने के पते हैं। जब आप इन कविताओं को पढ़ रहे होते हैं तो आप अपने आस पास के परिवेश को महसूस रहे होते हैं और खुद अपने ज़िन्दगी के खोए पन्नों के पतों से रूबरू हो रहे होते हैं।
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