समय ज़िन्दगी से ठीक वैसे ही फिसलता जाता है जैसे मुट्ठी से रेत।आप चाहे जितना भी रोकने का प्रयत्न करें वो अनवरत अबाध गति से बहता जाता है,रोके नही रुकता। लेकिन बहाव कितना भी तेज हो, कितना भी शक्तिशाली हो,उस बहाव से कुछ अंश छूट ही जाते हैं। जैसे मुट्ठी से सारा रेत फिसल जाने के बाद भी हथेली पर रेत के कुछ चमकीले कण रह जाते हैं और वे छुटाए नहीं छूटते, ठीक वैसे ही आदमी के जीवन से समय के फिसलते जाने के बावजूद समय से टूटकर उसके कुछ टुकड़े आत्मा से चिपक जाते हैं। ये ऐसे क्षण होते हैं जो बिताए नहीं बीतते और नगण्य होने के बावज़ूद आपके अस्तित्व में सफेद,स्याह और ग्रे रंग भरते रहते हैं,वे स्मृतियों के बियाबान में जुगनुओं की तरह चमकते रहते हैं।
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अकारज 23
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