Sunday 2 February 2020

लम्हे जो समय के बहाव में छूट गए_2

उसका बचपन एक छोटे से कस्बेनुमा शहर में बीता था। वहीं उसकी आरंभिक पढ़ाई लिखाई हुई थी। उसने अभी अभी टीन ऐज पार करके युवावस्था में बस कदम ही रखा था। ऐसे ही अभी अभी उसने उस छोटे से शहर से एक बड़े शहर में प्रवेश किया। यहां पर उसने एक  नामी गिरामी विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए दाखिला जो लिया था। जैसे जैसे उसके जीवन मे चीजों का आकार बढ़ रहा था, मसलन शिक्षा,उम्र या उसके रिहायशी शहर का आकार,वैसे वैसे उसकी आँखों में सपने बढ़ रहे थे। सतरंगी सपने। सपने उसके भविष्य के , उसके अपने जीवन के , प्यार के , परिवार के , खुशियों के , खुशहाली के। उसकी बड़ी बड़ी आँखें सपनों से उसी तरह लबालब भरीं रहतीं जैसे सावन के बादलों में पानी। अक्सर जीवन की रूक्ष वास्तविकताओं की गर्मी से वे सपने आंखों से बारिश की तरह बह जाते। कुछ दिन आंखें बिन सपने सूनी सूनी सी रहतीं। पर जल्द ही उम्मीदों की ऊष्मा से संघनित हों बूंद बूंद सपने फिर फिर आंखों में जमा होते जाते।

आंखों में सपनों के जमा होने और बहते जाने की इस लुका छिपी के बीच उसकी आँखों में वो सपने सी समा गई थी।उसने सोचा 'अरे!ये तो वही प्रोफेसर साहब की बेटी है जिससे उसके घर मिला था।' एक हफ्ते पहले की ही तो बात है।जब वो इस अजनबी शहर में अकेली जान आया था तो उन प्रोफेसर साहब के नाम एक चिठ्ठी लाया था।और जब उनके घर पहुंचा तो यही तो मिली थी। कितना अपनापन था। हां ये बात और थी कि प्रोफेसर साहब ने इतने रूखे ढंग से बात की थी कि वो दोबारा उनके यहां जाने की सोच भी नहीं सकता था। उस दिन उसे अपने डिपार्टमेंट में देखकर उसे अच्छा लगा था। जैसे ही दोनों की आंखें चार हुई उसके भीतर ही भीतर कुछ पिघलने लगा था।  अचानक वो गायब हो गई थी। पर उम्मीद गायब नहीं हुई थी। अगले दिन आने की उम्मीद। उसकी उम्मीद उसकी आँखों की उम्मीद से मुखर हुई थी। वो फिर आई। वो फिर फिर आती रही,दोनों की नज़रें मिलती रही। उसके भीतर ही भीतर बहुत कुछ सुलगता जाता और पिघलता जाता। पर बाहर कुछ बुझाई ना देता। मौन खुल ना पाता। भीतर के भाव शब्दों का आकार तो लेते पर ध्वनि ना बन पाते।

आखिर हर चीज की एक हद तो होती ही है ना। उसकी आँखों की आस कब नाउम्मीदी में बदल गयी इसका भान उसे उस दिन हुआ जब उसने उसकी आँखों में निराशा का गीलापन देखा था। मौन से बनी दूरी आस को मिलने वाली ध्वनि खत्म कर सकती थी तो निराशा से आकार लेते शब्दों को मिली ध्वनि मौन से बने पुल को हमेशा के लिए तोड़ सकता था। आस हार गई। नाउम्मीदी जीत गई ।उसे ध्वनि मिल गई। उसने मायूसी से कहा था 'अब फिर कभी यहां लौट कर नहीं आऊंगी।' उसकी आँखों के कोर कातरता के गीलेपन से भीग भीग जाते थे। उस क्षण उन दोनों की आखों ने एक दूसरे को देखा था। उसे लगा कि उसकी सांसे थम जाएंगी। समय की बहती धारा में वो क्षण  उसकी आत्मा पर पत्थर बन कर जड़ हो गया था। 
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लम्हे जो समय के बहाव में छूट गए_2







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