स्वदेश दीपक की पुस्तक 'मैंने मांडू नहीं देखा' पढ़ रहा हूँ। ये पुस्तक खुद में एक 'मायाविनी' है,'सीडक्ट्रेस' है। अगर इससे प्रेम किया तो तो आत्मा मानवीय संवेदना से चांदनी सी खिल जाएगी और इसे नापसंद किया कि ये तो बाइपोलर डिसऑर्डर से ग्रस्त व्यक्ति की खंडित जीवन की कथा है तो बहुत संभव है कि आप पहले से ही किसी 'मायाविनी' से शापग्रस्त हों।
अद्भुत पुस्तक है।
मैंने स्वदेश दीपक के बारे में इलाहाबाद रहवास के समय से ही सुन रखा था। मैं उन्हें उनके उनके नाटक 'कोर्ट मार्शल' के लिए जानता था जिसकी इलाहाबाद में शानदार प्रस्तुतियां हुई थीं। और इस किताब का शीर्षक तो हमेशा से ही आकर्षित करता था। पर पढ़ने को अब मिली।
किताब पढ़ते हुए इसके ' सीडक्ट्रेस' होने का आभास होता है और इसके 365 पन्ने उसके द्वारा मारे धरे गए बोसे, जिनमें से कुछ आत्मा को सघन वेदना की घनघोर बारिश से डुबोते हैं और कुछ सुकून की रिमझिम बौछार से भिगोते हैं।
जिस दिन ये किताब घर आई,उससे अगले दिन किसी काम से गुरुग्राम जाना पड़ा था। इसे साथ ले जाना चाहता था। लेकिन लेकर नहीं गया। लौटकर आया तो 102 बुखार था। किताब चिढ़ा रही थी देखा मेरे अपमान का नतीजा।
देहरादून से पटियाला बेटी को छोड़ने और लाने के लिए ना जाने कितनी बार अंबाला से गुजरा लेकिन जाम से भरी सड़कें और एयरफोर्स स्टेशन और बायपास व फ्लाईओवर की भूल भुल्लैया जिसमें अक्सर देहरादून जाने वाले सही रास्ते से भटक जाया करता था, के अलावा कोई स्मृति इस शहर की नहीं बनी थी। पर अचानक ये शहर इतना प्रिय हो गया है और स्वदेश के घर को एक नजर देखने को इच्छा इतनी बलवती कि अब इस शहर एक बार जरूर जाना है।
लग रहा है काश एक बार स्वदेश लौट आए और उससे मिलना हो सके। फिर लगता है ठीक ही है।अपने प्रिय लेखक से कभी मिलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए और उसके सुकून में खलल नहीं डालनी चाहिए। वो जहां हो सुकून में हो।
अफसोस रहेगा स्वदेश के बारे में विस्तार से पहले क्यों नहीं जाना।
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