यात्रा वृतांत हमेशा से बहुत रुचिकर लगते रहे हैं। वे अक्सर बहुत समृद्ध कर जाते हैं। रोचकता तो उनका अंतर्निहित गुण है ही। जिन जगहों को आपने ख़ुद नहीं देखा है,इन वृतांतों के माध्यम से देखा समझा जा सकता है। और भविष्य में उन जगहों पर अगर जाना हुआ तो वे मार्गदर्शक के रूप में काम में लाए जा सकते हैं।
दूसरे, जगहों को देखने समझने का हर व्यक्ति का अपना एक उद्देश्य होता है और अपना एक दृष्टिकोण भी। इस यात्रा वृतांतों से होकर जाते हुए चीजों और जगहों को अलग अलग कोनों से देख समझ कर ख़ुद को समृद्ध होते हुए पाया जा सकता है।
अभी अभी लेखक पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव का यात्रा वृतांत 'कच्छ कथा' पढ़कर समाप्त किया है। ये एक शानदार यात्रा वृतांत है। पूरा कच्छ और उसका लोक आंखों के सामने पसरा है। एक ऐसा वृतांत जो आपके भीतर उसे खुद अपनी आंखों से देखने की तीव्र उत्कंठा से भर देता है। ऐसा वृतांत जो कच्छ और वहां के जीवन को पूरी समग्रता से सामने उपस्थित करता है। फिर वो चाहे कच्छ का इतिहास हो,भूगोल हो,सामाजिक जीवन हो,अर्थव्यवस्था हो,राजनीति हो या फिर सांस्कृतिक जीवन।
वे कमाल के किस्सागो हैं। वे वहां की बातों को किस्सों में सुनाते हैं और वहां के किस्सों को कविता में बदल देते हैं। वे मैक्रो और माइक्रो दोनों स्तरों पर अपने देखे को बयां करते चलते हैं। कभी उनके विवरणों का फलक इतना विस्तारित होता है कि लगता है वे कच्छ की नहीं, बल्कि देश दुनिया की बात कर रहे हैं। और कभी किसी चीज के इतने सूक्ष्म ब्यौरे प्रस्तुत कर रहे होते हैं कि पढ़कर अचरज में डूबने लगते हैं। उनकी लेखनी में मानो कोई कैमरा लगा हो जो मौके के अनुसार जूम इन और जूम आउट होता रहता है।
वे एक साझा संस्कृति की तलाश में बार बार कच्छ जाते हैं । लगातार दस सालों तक। और इस कच्छ की साझा विरासत की तलाश में दस सालों तक कच्छ के भूगोल से होते हुए उसके इतिहास,पुरातात्विक अवशेषों,साहित्य,अर्थ,धर्म,समाज और संस्कृति से गुजरते हुए राजनीति तक जाते हैं। जिन चीजों से वे गुजरते हैं, उसे खुद आत्मसात ही नहीं करते बल्कि उसे पाठकों के सामने भी हुबहू रख देते हैं।
ये वृतांत उन्हीं के शब्दों में 'साझे अतीत की तलाश का सफरनामा' है। वे अपने यात्रा वृतांत के आरंभ में लिखते हैं "...मुंद्रा और मांडवी के बीच मरद पीर के कई मंदिर और दरगाहें हैं। कहानी तक़रीबन सभी की एक जैसी है, जैसी हमें विक्रम ने रामदेव पीर के बारे में बताई थी या जो रण के मशहूर हाजी पीर के बारे में प्रसिद्ध है। ऐसी हर कहानी में एक लाचार बूढ़ी औरत होती है और उसकी गायें होती हैं। गायों को डकैत उठा ले जाते हैं और उसकी मालकिन फ़रियाद लेकर पीर के पास पहुंचती है। पीर घोड़े पर बैठकर जाते हैं और औरत की गायों को बचाने के चक्कर में शहीद हो जाते हैं। हाजी पीर की कहानी में औरत हिंदू है। रामदेव पीर की कहानी में औरत मुसलमान है। दोनों में ही गायों को लूटने वाले डकैत मुसलमान हैं। ऐसी कथाएं आपको समूचे कच्छ में सुनने को मिलेंगी।"
लेकिन इन दस सालों की यात्रा का हासिल क्या है। इन दस सालों में कच्छ के हजारों सालों के साझे अतीत का ये साझापन दरकने लगता है। इस दरार को वे खुद देखते हैं और महसूस करते हैं। वृतांत के अंतिम पृष्ठों पर वे लिखने को मजबूर हो जाते हैं - "कच्छ में दुख की कई परतें हैं। यहां के सिखों का सबसे ज़ाहिर दुख यह है कि उनके ऊपर किसी कलंक की तरह 'पर-प्रांती' की मुहर लगाई जा चुकी है। इनके दुख यहीं से निकलते हैं और यहीं जाकर पनाह पाते हैं। जो लोग ख़ुद को कच्छी मानते हैं और सिखों को बाहरी,ऐसा नहीं है कि उनके दुख काम हों। वे ख़ुद गुजरातियों की तुलना में देखकर दुखी होते हैं। फिर तीसरी परत कच्छी हिंदुओं और मुसलमानों के बीच रह रह कर उभारे जाने वाले उपजे दुख की है। ये तमाम दुख जिन जगहों पर पनाह पाते हैं,वहां अलगाव के खतरे और बढ़ जाते हैं।"
इस अर्थ में ये यात्रा वृतांत कच्छ के साझे अतीत का सफरनामा भर नहीं है बल्कि उससे आगे ये कच्छ के समसामयिक इतिहास, समाज और राजनीति का एक रूपक भी है और भविष्य का संकेत भी जो प्रकारांतर से पूरे देश काल और समाज को भी प्रतिविंबित करता है।
एक बेहतरीन यात्रा वृतांत जिसे यात्राओं में रुचि रखने वाले हर पाठक को अवश्य पढ़ना चाहिए।
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