Saturday 31 August 2024

अवनी लखेरा:द गोल्डन गर्ल

 



साल 2021 के ओलम्पिक खेलों को याद कीजिए। टोक्यो ओलम्पिक में भारतीय खिलाड़ी पदकों को हासिल करने में हांफ रहे थे। वे अपने पदकों की गिनती बमुश्किल सात तक ले जा पाए थे। लेकिन इसकी भरपाई की हमारे पैरा एथलीटों ने। टोक्यो ओलम्पिक के तुरंत बाद टोक्यो में ही पैरा ओलम्पिक खेल हुए। इन खेलों में भारत ने कुल 19 पदक जीते थे। 05 स्वर्ण,08 रजत और 06 कांस्य। ये हमारे पैरा खिलाड़ियों का असाधारण प्रदर्शन था।

इन्हीं पदक विजेताओं में एक थीं अवनी लखेरा। वे निशानेबाजी प्रतियोगिता में भाग ले रही थीं। उन्होंने 10 मीटर एयर राइफल में स्वर्ण पदक जीता था। वे पैरालंपिक खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला शूटर थीं। इसके अलावा उन्होंने 50 मीटर राइफल थ्री पोजीशन में कांस्य पदक भी जीता था।

2021 से 2024 तक तीन साल लंबा वक्त बीत चुका है। खेल टोक्यो से पेरिस तक की हजारों किलोमीटर लंबी यात्रा कर चुके हैं। इस बीच अगर कुछ नहीं बदला तो अवनी लखेरा का शूटिंग के प्रति जज़्बा नहीं बदला और ना उनका निशाना चूका। वे अभी भी उतनी ही एक्यूरेसी से निशाना साध रही हैं। उनका निशाना कितना अचूक है ये उन्होंने आज एक बार फिर सिद्ध किया। 

ये वही शूटिंग रेंज थी जहां कुछ दिन पहले मनु भाकर भारत के लिए इतिहास रच रही थीं। आज भी किरदार वही थे। बस उनका नाम बदला था। आज मनु की जगह अवनी लखेरा थीं। हां, उन्होंने गौरव का रंग बदला। तमगे का रंग बदला और अपनी काबिलियत,अपने निशाने और निशाने की एक्यूरेसी से उसे सुनहरे रंग में बदल दिया। उन्होंने एक बार फिर देश को गौरवान्वित किया। आज उन्होंने 10 मीटर एयर राइफल में स्वर्ण पदक जीता। अब वे शूटिंग में दो पैरा ओलम्पिक खेलों में स्वर्ण जीतने वाली पहली शूटर बन गई हैं।

आज 10 मीटर राइफल में 249.7 अंकों के साथ अपना ही टोक्यो पैरा ओलम्पिक में बनाया 249.6 अंकों का विश्व कीर्तिमान तोड़ दिया। यहां उल्लखनीय है कि इसी स्पर्धा में कांस्य पदक 228.7 अंकों के साथ भारत की मोना अग्रवाल ने जीता।

अवनी पैरा ओलम्पिक में एस एच वन कैटेगरी में भाग लेती हैं। इस श्रेणी में वे प्रतिभागी भाग लेते हैं जिनका निचला हिस्सा विकलांगता की श्रेणी में आता है लेकिन हाथ इतने मजबूत होते हैं कि राइफल या पिस्टल पकड़ने के लिए स्टैंड का सहारा नहीं लेना पड़ता है।

साल 2012 में अवनी के पिता धौलपुर में तैनात थे। उस समय वे 11 वर्ष की थीं। वे परिवार के साथ जयपुर से धौलपुर जाते वक्त कार दुर्घनता में उनका निचला हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया था। पर उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी अपना धैर्य नहीं खोया। उन्होंने ना केवल अपनी पढ़ाई जारी रखी बल्कि खेलों भी हाथ आजमाया। उन्होंने शुरुआत तीरंदाजी से की। लेकिन जल्द ही शूटिंग करने लगीं। वे खेलों के साथ साथ मेधावी छात्रा भी हैं और इस समय  कानून की पढ़ाई कर रही हैं।

अवनी को बहुत बधाई और मोना अग्रवाल को भी। भारत को पेरिस पैरा ओलम्पिक के 2024 के पहले दो पदक मुबारक।


Friday 30 August 2024

साझे अतीत की तलाश का सफरनामा






यात्रा वृतांत हमेशा से बहुत रुचिकर लगते रहे हैं। वे अक्सर बहुत समृद्ध कर जाते हैं। रोचकता तो उनका अंतर्निहित गुण है ही। जिन जगहों को आपने ख़ुद नहीं देखा है,इन वृतांतों के माध्यम से देखा समझा जा सकता है। और भविष्य में उन जगहों पर अगर जाना हुआ तो वे मार्गदर्शक के रूप में काम में लाए जा सकते हैं।

दूसरे, जगहों को देखने समझने का हर व्यक्ति का अपना एक उद्देश्य होता है और अपना एक दृष्टिकोण भी। इस यात्रा वृतांतों से होकर जाते हुए चीजों और जगहों को अलग अलग कोनों से देख समझ कर ख़ुद को समृद्ध होते हुए पाया जा सकता है।

अभी अभी लेखक पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव का यात्रा वृतांत 'कच्छ कथा' पढ़कर समाप्त किया है। ये एक शानदार यात्रा वृतांत है। पूरा कच्छ और उसका लोक आंखों के सामने पसरा है। एक ऐसा वृतांत जो आपके भीतर उसे खुद अपनी आंखों से देखने की तीव्र उत्कंठा से भर देता है। ऐसा वृतांत जो कच्छ और वहां के जीवन को पूरी समग्रता से सामने उपस्थित करता है। फिर वो चाहे कच्छ का इतिहास हो,भूगोल हो,सामाजिक जीवन हो,अर्थव्यवस्था हो,राजनीति हो या फिर सांस्कृतिक जीवन।

वे कमाल के किस्सागो हैं। वे वहां की बातों को किस्सों में सुनाते हैं और वहां के किस्सों को कविता में बदल देते हैं। वे मैक्रो और माइक्रो दोनों स्तरों पर अपने देखे को बयां करते चलते हैं। कभी उनके विवरणों का फलक इतना विस्तारित होता है कि लगता है वे कच्छ की नहीं, बल्कि देश दुनिया की बात कर रहे हैं। और कभी किसी चीज के इतने सूक्ष्म ब्यौरे प्रस्तुत कर रहे होते हैं कि पढ़कर अचरज में डूबने लगते हैं। उनकी लेखनी में मानो कोई कैमरा लगा हो जो मौके के अनुसार जूम इन और जूम आउट होता रहता है।

वे एक साझा संस्कृति की तलाश में बार बार कच्छ जाते हैं । लगातार दस सालों तक। और इस कच्छ की साझा विरासत की तलाश में दस सालों तक कच्छ के भूगोल से होते हुए उसके इतिहास,पुरातात्विक अवशेषों,साहित्य,अर्थ,धर्म,समाज और संस्कृति से गुजरते हुए राजनीति तक जाते हैं। जिन चीजों से वे गुजरते हैं, उसे खुद आत्मसात ही नहीं करते बल्कि उसे पाठकों के सामने भी हुबहू रख देते हैं।

ये वृतांत उन्हीं के शब्दों में 'साझे अतीत की तलाश का सफरनामा' है। वे अपने यात्रा वृतांत के आरंभ में लिखते हैं  "...मुंद्रा और मांडवी के बीच मरद पीर के कई मंदिर और दरगाहें हैं। कहानी तक़रीबन सभी की एक जैसी है, जैसी हमें विक्रम ने रामदेव पीर के बारे में बताई थी या जो रण के मशहूर हाजी पीर के बारे में प्रसिद्ध है। ऐसी हर कहानी में एक लाचार बूढ़ी औरत होती है और उसकी गायें होती हैं। गायों को डकैत उठा ले जाते हैं और उसकी मालकिन फ़रियाद लेकर पीर के पास पहुंचती है। पीर घोड़े पर बैठकर जाते हैं और औरत की गायों को बचाने के चक्कर में शहीद हो जाते हैं। हाजी पीर की कहानी में औरत हिंदू है। रामदेव पीर की कहानी में औरत मुसलमान है। दोनों में ही गायों को लूटने वाले डकैत मुसलमान हैं। ऐसी कथाएं आपको समूचे कच्छ में सुनने को मिलेंगी।"

लेकिन इन दस सालों की यात्रा का हासिल क्या है। इन दस सालों में कच्छ के हजारों सालों के साझे अतीत का ये साझापन दरकने लगता है। इस दरार को वे खुद देखते हैं और महसूस करते हैं। वृतांत के अंतिम पृष्ठों पर वे लिखने को मजबूर हो जाते हैं - "कच्छ में दुख की कई परतें हैं। यहां के सिखों का सबसे ज़ाहिर दुख यह है कि उनके ऊपर किसी कलंक की तरह 'पर-प्रांती' की मुहर लगाई जा चुकी है। इनके दुख यहीं से निकलते हैं और यहीं जाकर पनाह पाते हैं। जो लोग ख़ुद को कच्छी मानते हैं और सिखों को बाहरी,ऐसा नहीं है कि उनके दुख काम हों। वे ख़ुद गुजरातियों की तुलना में देखकर दुखी होते हैं। फिर तीसरी परत कच्छी हिंदुओं और मुसलमानों के बीच रह रह कर उभारे जाने वाले उपजे दुख की है। ये तमाम दुख जिन जगहों पर पनाह पाते हैं,वहां अलगाव के खतरे और बढ़ जाते हैं।"

इस अर्थ में ये यात्रा वृतांत कच्छ के साझे अतीत का सफरनामा भर नहीं है बल्कि उससे आगे ये कच्छ के समसामयिक इतिहास, समाज और राजनीति का एक रूपक भी है और भविष्य का संकेत भी जो प्रकारांतर से पूरे देश काल और समाज को भी प्रतिविंबित करता है।

एक बेहतरीन यात्रा वृतांत जिसे यात्राओं में रुचि रखने वाले हर पाठक को अवश्य पढ़ना चाहिए।

Sunday 25 August 2024

प्रोफेसर की डायरी, तदर्थवाद और प्रसार भारती का प्रोग्राम कैडर







डॉ लक्ष्मण यादव की किताब 'प्रोफेसर की डायरी' अभी पढ़कर खत्म की है। ये इस किताब का चौथा संस्करण है। पहली बार किताब 08 फरवरी 2024 को प्रकाशित होती है और 29 फरवरी को इसका चौथा संस्करण आ जाता है। इसके कवर पर नीचे एक कोने में अंकित है 20 दिन में 26 हज़ार+  प्रतियां बिकी। यानी प्रतिदिन एक हज़ार से अधिक प्रतियों की बिक्री। ये एक हैरान कर देने वाला आंकड़ा है।

यूं तो अन्याय और भ्रष्टाचार अब इतना ज्यादा और इतना सामान्य हो गया है कि ऐसी कोई खबर हमें उस तरह से विचलित नहीं करती जितना कि एक इंसान को करना चाहिए। हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं, जब हमारी संवेदनाएं भोथरी हो चुकी हैं। लेकिन अगर इस किताब की लोकप्रियता को कोई पैमाना माना जाए तो ये पुस्तक इस बात की ताईद करती है, नहीं अभी भी हमारी संवेदना मरी नहीं है। हम अभी भी अन्याय देखकर विचलित भी होते हैं और उसे देखना समझना भी चाहते हैं।

दरअसल डॉ लक्षमण यादव को दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में 14 वर्षों तक एडहॉक अध्यापन करने के बाद नियमित करने के बजाय नौकरी से निकाल दिया जाता है। वे पैर छूने की संस्कृति के बजाय अपनी काबिलियत से नियमित होना चाहते हैं, और बकौल उनके पिछड़े और दलित वर्ग के लिए काबिलियत के आधार पर नौकरी पाना असम्भव नहीं तो बहुत कठिन अवश्य है। उनका एक्टिविज्म भी इसका एक कारक बना। ये किताब उनके 14 वर्षों के अध्यापन के दौरान उनके द्वारा उनकी अपनी डायरी में दर्ज़ किया गया ब्यौरा है। डायरी का पहला पन्ना अगस्त 2010 का है और आखिरी 06 दिसंबर 2023 का। 

उनकी ये पुस्तक दो मुख्य बिंदुओं पर केंद्रित है। एक, दिल्ली विश्विद्यालय में एडहॉक व्यवस्था और दो, नियुक्तियों में वंचित तबकों के लिए आरक्षण रोस्टर। लेकिन इन दो बिंदुओं पर केंद्रित होते हुए भी ये अपने समय और समाज को भी रेखांकित करती है। समकाल उसमें साथ-साथ दर्ज़ होता चलता है।

इन दो केंद्रीय बिंदुओं के इर्द गिर्द वंचित तबके और अन्याय से पीड़ित आम आदमी के दुख-दर्द और संघर्षों की छोटी-छोटी कहानियों के सूक्ष्म ब्यौरे कथ्य को अधिक मार्मिक और सघन बना देते हैं।

बहुत ही सहज और सरल भाषा में बिना किसी अभिव्यंजना के अभिधा में वे अपनी बात कहते हैं। लेकिन विषय इतना गंभीर और ज़रूरी है कि बात सीधे दिल पर चोट करती है। दरअसल ये हमारी या हमारे इर्द गिर्द रहने वाले हर व्यक्ति की व्यथा कथा है।

लेकिन इस किताब की एक सीमा है। बावजूद इसके कि किताब में एडहॉक लोगों के साथ अन्याय और कठिनाइयों की बात वे बखूबी उठाते हैं, इस समस्या के मूल में नहीं जाते और इस पर उतनी गंभीरता या विस्तार से विचार नहीं करते जितनी गंभीर ये समस्या है। या तो वे अपने प्रति अन्याय को शीघ्रातिशीघ्र सबके सामने लाने की उत्कंठा से प्रेरित होंगे या अपने प्रति हुए अन्याय से मिली सहानुभूति का लाभ लेना चाहते हो। वे दिसंबर 23 में नौकरी से निकाले जाते हैं और 8 फरवरी 2024 को किताब का पहला संस्करण आ जाता है। शायद उन्होंने इस किताब को लाने में जल्दबाजी की। एक वजह ये भी हो सकती है कि उनके लिए एडहॉक व्यवस्था से अधिक महत्वपूर्ण पिछड़े और दलित वर्ग की समस्याओं को रेखांकित करना हो।

जो भी हो एडहॉक व्यवस्था पर बात करना भी बहुत ज़रूरी है।

एडहॉक व्यवस्था एक पुरानी सरकारी व्यवस्था है। ये व्यवस्था सरकार की लालफीताशाही का नतीजा थी। क्योंकि सरकारी महकमों में स्थाई व्यवस्था करने में पर्याप्त समय लग जाता है। अतः जब तक स्थाई व्यवस्था हो, तब तक तदर्थ नियुक्ति से काम चलाने की व्यवस्था की गई। क्योंकि ये स्थायी नियुक्ति नहीं होती थी,इसकी चयन प्रक्रिया आसान और स्थानीय रखी गई। आगे चलकर इस व्यवस्था का भरपूर दुरुपयोग किया जाना था और इसे भ्रष्टाचार और नौकरी में बैकडोर एंट्री का जरिया भी हो जाना था। कम से कम शिक्षा विभाग में एडहॉकवाद खूब चला। और शिक्षण कार्य में तमाम नाकाबिल लोग घुस गए। शिक्षा में गिरावट के तमाम कारणों में एक कारण ये भी था। ना केवल प्राइवेट माध्यमिक विद्यालयों में बल्कि डिग्री कालेजों में भी प्रबंधन ने अपने परिवार वालों को, सगे संबंधियों को या फिर पैसे लेकर एडहॉक नियुक्ति दी। ये सभी कुछ साल एडहॉक सर्विस कर न्यायालय का दरवाजा खटखटाते और और स्थाई नियुक्ति पा जाते। ये बात मैं उत्तर प्रदेश के संदर्भ में कह रहा हूं। उत्तर प्रदेश में शिक्षा की क्या स्थिति है ये किसी से छुपी नहीं है। कहने को ये कहा जा सकता है कि स्थाई नियुक्ति में भी गड़बड़ियां हो सकती हैं और होती भी हैं। लेकिन एडहॉक व्यवस्था  इन गड़बड़ियों को करने का बहुत ही सरल और आसान रास्ता है। ये प्रक्रिया बैकडोर एंट्री यानी चोर दरवाजे से नौकरी पाने की सुविधा देती है।

यहां याद रखना चाहिए कि 'एडहॉक' एक प्रक्रिया भर नहीं है बल्कि एक मनोवृति है जिसने पूरी प्रसाशनिक व्यवस्था को बुरी तरह जकड़ रखा है। ये एक ऐसी व्यवस्था है जो शोषण को पोषित करती है। जो अंततः संस्था को और व्यक्ति को बर्बाद कर देती है। और ये एडहॉकिज़्म यथास्थितिवाद के साथ मिलकर संस्थाओं को बर्बाद कर रहा है। पहले सबसे आसान और बैकडोर की हिमायती प्रक्रिया एडहॉक के माध्यम से अपनी मनचाही व्यवस्था बना लो और उसके बाद उसे अनंत काल तक चलने दो।

इसका एक सबसे बड़ा उदाहरण प्रसार भारती है। इस तदर्थवाद और उसके सहोदर यथास्थितिवाद ने देश की दो प्रीमियर संचार संस्थाओं आकाशवाणी और दूरदर्शन और विशेष रूप से आकाशवाणी को बर्बादी के कगार पर पहुंचा दिया है। ये इसलिए कि एडहॉकवाद और कैजुअल अप्रोच द्वारा इन संस्थानों के कार्यक्रम निर्माण के लिए उत्तरदाई प्रोग्राम कैडर को बर्बाद किया जा रहा है और कर दिया गया है।

कैसे? आइए समझने का प्रयास करते हैं।

प्राइवेट मीडिया के आने से पहले आकाशवाणी और दूरदर्शन ही संचार माध्यम थे जो देश की 90 फीसद से ज़्यादा आबादी और क्षेत्रफल को आच्छादित करते थे। ये दोनों सरकारी विभाग थे और सरकार के नियंत्रण में थे। विपक्ष का आरोप था कि ये दोनों संस्थान पक्षपात करते हैं। ये विपक्ष को कम स्थान देते हैं और सरकार के भोपू की तरह काम करते हैं। ज़ाहिर है ये आरोप काफी हद तक सही भी था। मांग हुई कि इन संस्थाओं को स्वायत्त किया जाय बीबीसी की तर्ज़ पर। कई आयोगों और कमेटी की सिफारिशों के बाद 1990 में इन संस्थाओं को स्वायत्त बनाने वाला बिल संसद में पास हुआ और सात साल बाद 1997 में 24 नवंबर को प्रसार भारती बोर्ड का गठन हुआ। आकाशवाणी व दूरदर्शन प्रसार भारती को सौंप दिए गए।

बिल के पास होने और प्रसार भारती बोर्ड के गठन में लगभग सात साल का फासला था। लेकिन कमाल की बात ये है कि इतना समय मिलने के बावजूद इसके बोर्ड का गठन जल्दबाजी में किया गया फैसला था जिसे आधी-अधूरी तैयारी के साथ शुरू किया गया था। इसमें आगे के कर्मचारियों की भर्ती , उनकी सेवाओं,पुराने कर्मचारियों की स्थिति, उनके प्रमोशन, सेवा शर्तें आदि के बारे में कुछ भी तय नहीं हुआ था। और कमोवेश आज भी वही स्थिति है। जो भी बने या बाद में बने उनमें इतनी अनिश्चितता और अस्पष्टता थी कि वे आगे चलकर और ज़्यादा स्थिति खराब करने वाले थे।

नए कर्मचारियों की भर्ती के लिए कोई निकाय प्रसार भारती के पास नहीं था। और आज भी नहीं है। लंबे समय तक नियुक्तियां हुई ही नहीं। यूपीएससी ने ये कहकर इनकार कर दिया कि हमारा काम सरकार के विभागों के लिए नियुक्ति करना है ना कि स्वायत्त संस्था के लिए काम करना। साल 2015 में भर्ती हुईं। ये भर्तियां बहुत ही कैज़ुअल तरीके से हुईं। इसमें इतनी ज़्यादा विसंगतियां थीं। ये भर्तियां एसएससी से करवाई गईं। इसमें प्रसारण निष्पादक की भर्ती तो ठीक है क्योंकि पहले से ही इन की भर्ती यही एजेंसी करती रही थी। लेकिन कार्यक्रम अधिकारियों की जो कि राजपत्रित अधिकारियों होते हैं, नियुक्ति भी इसी एजेंसी ने की। सबसे दयनीय बात ये थी कि इन दोनों पदों की का एक ही भर्ती एक ही एग्जाम द्वारा हुई। बस जो स्नातकोत्तर थे उन्हें पैक्स के लिए अर्ह माना गया,बाकी सब को ट्रैक्स के लिए। हुआ ये कि बहुत सारे अभ्यर्थी जो मेरिट लिस्ट में ऊपर थे वे निचले पद ट्रैक्स में चयनित हुए और जो मेरिट में नीचे थे वे ऊंचे पद पैक्स के लिए चयनित हुए। ये प्रोग्राम कैडर की प्रसार भारती की एकमात्र भर्ती थी। इसमें भी चयनित लगभग एक चौथाई लोगों ने नौकरी छोड़ दी। हां, इससे पहले 2007 के आसपास विशेष नियुक्ति हुई थीं। 

इस भर्ती की गंभीरता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि कार्यक्रम अधिकारियों की पोस्ट जो कि राजपत्रित होते थे,डिग्रेड करके अराजपत्रित कर दिया गया। अब प्रसार भारती में दो तरह के कार्यक्रम अधिकारी हो गए। एक वे जो पहले से थे वे राजपत्रित थे। । दूसरे वे जिन्हें प्रसार भारती ने चुना, वे अराजपत्रित रह गए। एक ही कैडर या पद पर दो तरह के अधिकारी।

एक और तो नई भर्तियां प्रोग्राम कैडर में नहीं हुई तो दूसरी और लगातार लोग सेवानिवृत होते रहे। इससे कई तरह की विसंगतियां पैदा हुईं।

एक, प्रोग्राम कैडर में लोगों की भारी कमी हो गई। जो लोग बचे उन पर काम का बोझ बहुत अधिक बढ़ गया। स्वाभाविक था कार्यक्रम की गुणवत्ता प्रभावित हुई।

दो, संस्थान का मूलभूत स्वरूप ही बदल गया। बीबीसी की तर्ज़ पर बनाया गया प्रसार भारती उसके एकदम उलट गया। बीबीसी में कुल मैन पॉवर का 80 फीसद कार्यक्रम के लोगों का है और 20 फीसद में बाकी सब लोग। यहां कार्यक्रम के लोग 20 फीसद भी नहीं बचे। देश भर में 400 से भी ज़्यादा केंद्रों पर कुल मिलाकर लगभग दो हज़ार भी कार्यक्रम कैडर के लोग नहीं हैं।
 
कमाल की बात ये है कि प्रसार भारती ने करोड़ों रुपए खर्च करके एक प्राइवेट कंपनी शायद अर्नेस्ट यंग से प्रसार भारती में मैन पावर ऑडिट कराया। पर इतना खर्च करने के बाद भी आज तक उस रिपोर्ट को लागू करना तो दूर,उसे पब्लिश तक नहीं किया गया। ये तदर्थवाद का एक और उदाहरण है।

दरअसल प्रसार भारती के कर्मचारियों के तीन विंग हैं -कार्यक्रम,अभियांत्रिकी और प्रशासनिक। अभियांत्रिकी विंग में सबसे अधिक कर्मचारी हैं। इसके दो कारण हैं। एक लगातार तकनीकी विकास के कारण मैन पावर की उतनी जरूरत नहीं रह गई है जितनी पहले थी। हालांकि पदों में अभी भी किसी प्रकार की कटौती नहीं हुई। दो, तकनीकी विकास के चलते और नई तकनीकी के आगमन के कारण बहुत सारे रिले केंद्र बंद कर दिए गए जिनकी बदली हुई परिस्थितियों में कोई जरूरत नहीं रह गई थी। रिले सेंटर होने के कारण यहां पर केवल अभियांत्रिकी वर्ग के लोग ही तैनात थे। वे अब सरप्लस हो गए और उन पर छंटनी का खतरा मंडराने लगा। उन्हें हर कैडर के खाली पदों पर ना केवल एडजस्ट किया गया बल्कि बहुत सारे पद सृजित भी किए गए। 

दूसरी और कार्यक्रम कैडर में नई भर्ती ना होने या बहुत कम होने से बहुत सारे पद रिक्त पड़े रह गए और अंततः उनको खत्म कर दिया गया या दूसरे कैडर की भेंट चढ़ा दिया गया।

एक बात ये भी कि प्रसारण के घंटे बढ़ाए जा रहे हैं। उसके लिए और ज्यादा कार्यक्रमों के निर्माण की जरूरत है। दूसरी ओर प्रोग्राम कैडर में लोग लगातार कम हो रहे हैं। इसका सीधा प्रभाव ये हुआ कि जो बचे लोग थे उन पर काम का अतिरिक्त बोझ पड़ा। ये बोझ थोड़ा नहीं बहुत अधिक था। इससे कार्यक्रमों की गुणवत्ता पर फ़र्क पड़ना स्वाभाविक था।

प्रोग्राम कैडर का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि पहले आकाशवाणी का महानिदेशक प्रोग्राम कैडर का ही होता था। आज की तारीख में प्रोग्राम का कोई भी व्यक्ति उप निदेशक से ऊपर के पद पर नहीं है। वे भी गिनती के बीसेक।इसका कारण ये है कि कार्यक्रम के अधिकारियों के प्रमोशन किए ही नहीं गए या उसमें इतने अड़ंगे लगा दिए गए कि वे हुए ही नहीं। इससे पैंतीस साल की नौकरी वाले लोग बिना किसी प्रमोशन या एक प्रमोशन के साथ रिटायर होते गए। ऊपर के पदों पर वे जा ही नहीं पाए। कमाल की बात ये कि जो प्रमोशन भी हुए वे रेगुलर नहीं होते बल्कि एडहॉक होते और उसी से सेवानिवृत होते जाते। यहां उल्लेखनीय ये है कि बाकी कैडर में नियमित रूप से प्रमोशन होते रहे और वो भी रेगुलर ना कि एडहॉक।

 प्रोग्राम कैडर के लोगों का प्रमोशन ना होने का परिणाम ये हुआ कि कार्यक्रम कैडर के इन ऊपर के सभी पदों पर या तो अभियांत्रिकी कैडर के लोग आ गए या फिर  बाहर से प्रतिनियुक्ति पर आए लोग बैठा दिए गए। मजे की बात ये है कि निर्णय लेने वाले इन महत्वपूर्ण पदों पर प्रतिनियुक्ति या अभियांत्रिकी कैडर के लोगों की कार्यक्रमों की अंतर्दृष्टि या तो है ही नहीं या बहुत ही कैजुअल तरीके की है। कम से कम वैसी तो नहीं ही है जैसी प्रोग्राम कैडर के लोगों की होती है या जैसी प्रोग्राम के लिए होनी चाहिए।

इससे दो तरह की समस्या हुईं। एक, या तो ये अधिकारियों  कार्यक्रम की तरफ से उदासीन रहे। इससे कार्यक्रम के मसले उपेक्षित होते गए। दो, या उनका गैर जरूरी हस्तक्षेप हुआ। इससे एक ओर प्रोग्राम कैडर के लोगों को अपनी साख और अधिकार बचाने के लिए अतिरिक्त ऊर्जा खर्च करनी पड़ी,दूसरी ओर कार्यक्रम और उसके मसले उपेक्षित होते गए। इसका असर स्वाभाविक रूप से कार्यक्रमों की गुणवत्ता पर पड़ना था।

आखिर ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर प्रोग्राम कैडर में मैनपावर की कमी को कैसे पूरा किया जा रहा है।

दरअसल इसके लिए भी बहुत ही कैजुअल तरीका प्रयुक्त किया जा रहा है। ये कमी कैजुअल मैन पावर के द्वारा पूरी की जा रही है। ये भी एक तरह का एडहॉकवाद का ही एक रूप है। जो कैजुएल्स का पैनल बनता है,उसमें युवाओं के लिए जीवन यापन की बड़ी संभावना नहीं बनती है। उनकी महीने में अधिकतम छ बुकिंग हो सकती है। और कम से कम सालों साल कोई बुकिंग नहीं। आप एक तरफ नए लोगों को ट्रेंड करने में अपने रिसोर्सेज को खर्चते हैं और वो बेहतर अवसर पाते ही दूसरी जगह चला जाता है। इतना खर्च करने और मेहनत करने के बाद टैलेंट बाहर चला गया। कैजुअल में बहुत सारा ऐसा टैलेंट होता है जिसे अगर बेहतर अवसर प्रसार भारती में मिले तो वे बहुत अच्छा कर सकते हैं और प्रोग्राम कैडर को बेहतरीन बनाया जा सकता है। लेकिन जब बोर्ड का पूर्णकालिक प्रोग्रामर के प्रति ही रवैया कैजुअल हो तो कैजुअल मैनपावर की कौन कहे।

प्रसार भारती के एडहॉकवाद का एक बड़ा उदाहरण ये है कि वो एक निश्चित निर्णय अभी तक नहीं ले पाया है। और प्रोग्राम कैडर की ये सबसे बड़ी दुविधा हो गई है। ये चयन प्रसार भारती को ' पब्लिक ब्रॉडकास्टर' बनाए रखने और ' कमाऊ संस्था' बनाने के बीच का चयन है। एक तरफ वे इस पर से पब्लिक ब्रॉडकास्टर होने का ठप्पा भी नहीं हटाना चाहते हैं और दूसरी और उससे कमाई भी करना चाहते हैं। एक तरफ वे सरकार का भोंपू भी बने रहते हैं और दूसरी तरफ अपने को स्वायत्त संस्था का लेबल भी देना चाहते हैं। एक तरफ प्रोग्राम कैडर को साठ सत्तर साल पुराने पब्लिक ब्रॉडकास्टर वाले एआईआर मैनुअल से बांधने रखा गया है, तो दूसरी ओर उनके लिए साल दर साल राजस्व अर्जन के बड़े बड़े लक्ष्य तय किए जा रहे हैं। प्रोग्राम कैडर है कि उसे समझ ही नहीं आता वो पब्लिक कल्याण के लिए कार्यक्रम करे या राजस्व अर्जन के लिए।

बोर्ड की कैजुअल और एडहॉक दृष्टि और विचारों की विसंगति का सबसे अच्छा उदाहरण उसकी नवनिर्मित क्लस्टर व्यवस्था है। एक तरफ सब कुछ केंद्रीकृत किया जा रहा है। स्थानीय महत्व के निर्णय तक अब केंद्र स्तर पर निदेशालय या प्रसार भारती बोर्ड/सचिवालय को दे दिए गए हैं। कार्यक्रम को स्थानीय स्तर से खत्म करके राज्य स्तर पर और केंद्र स्तर पर करने का प्रयास किया जा रहा है। इसकी शुरुआत मध्य प्रदेश से हुई। जहां स्थानीय केंद्रों के कार्यक्रम चंक खत्म करके मध्य प्रदेश रेडियो के नाम से राज्य स्तरीय कार्यक्रम शुरू किया गया। स्वाभाविक है इससे स्थानीय प्रतिभाओं के अवसर कम हुए। ऐसा हर जगह होने की योजना थी,लेकिन हो हल्ला हो जाने के कारण योजना खटाई में पड़ गई। दूसरी तरफ दो चार केंद्रों को मिलाकर एक क्लस्टर व्यवस्था की गई है। यानी हर राज्य में अब कई क्लस्टर ऑफिस भी काम करने लगे हैं। कहा ये गया कि इससे निर्णय लेने की शक्ति को विकेंद्रित किया जा रहा है। लेकिन हुआ उलटा। केंद्रों  के अधिकार क्लस्टर को सौंप दिए गए। निर्णयों में अनावश्यक देरी होने लग गई लालफीता शाही चरम पर पहुंच गई।

कुल मिलाकर प्रसार भारती में प्रोग्राम कैडर बहुत दयनीय स्थिति में है। प्रसार भारती बोर्ड और उसके नियंताओं के एडहॉक़िज़्म ने उसे रसातल में पहुंचा दिया है। प्रोग्राम कैडर अपनी अस्वाभाविक मौत मर रहा है। इसे तत्काल प्राणवायु पहुंचाने की नितान्त आवश्यकता है। जान लीजिए प्रोग्राम कैडर की मृत्यु दरअसल देश के दो प्रीमियर संचार संस्थानों की मौत भी है। क्योंकि इनकी प्राणवायु कार्यक्रम और गुणवत्ता वाले कार्यक्रम ही है। और प्रोग्राम कैडर के बीमार होने का मतलब इन संस्थानों का बीमार होना और कैडर की मृत्यु इन संस्थानों की मृत्यु है। 




Friday 23 August 2024

सुनो जोगी व अन्य कविताएं




आकाशवाणी में काम करते हुए कुछ बहुत ही जीनियस और होनहार युवाओं के साथ काम करने का अवसर मिला। ऐसे युवा जिन्हें आगे चलकर अपने-अपने क्षेत्रों में बेहतरीन काम करना था और एक मकाम हासिल करना था। 

उनमें एक नाम संध्या नवोदिता है।

संध्या की पहली पहचान एक बहुत ही 'आत्मविश्वास से भरी लड़की' है जिसे अपने होने और अपनी काबिलियत पर पूरा भरोसा है।

दूसरी पहचान एक बेहतरीन रेडियो ' कार्यक्रम प्रस्तुतकर्ता ' की है। वो रेडियो से पहले पहल  युववाणी कॉम्पियर के रूप में  जुड़ीं। वे इस कार्यक्रम की शानदार स्क्रिप्टिंग करती और बेहतरीन तरीके से पेश करतीं। रेडियो में नई होने के बावजूद उनमें आत्मविश्वास झलकता। शायद वे पहले से ही मंच संचालन में दक्ष थीं। और ये आत्मविश्वास रेडियो पर कार्यक्रम प्रस्तुत करते हुए झलकता।

तीसरी पहचान एक 'एक्टिविस्ट' की है।  इलाहाबाद में कहीं भी कोई महत्वपूर्ण कार्यक्रम हो या धरना-प्रदर्शन हो,एक चेहरा हमेशा मौजूद होता। और वो चेहरा  संध्या का होता। वे हर जगह मौजूद होतीं। अगर मैं गलत नहीं हूँ तो उन्होंने सोनभद्र जिले में कन्हर नदी पर बनने वाले बांध के लिए भूमि अधिग्रहण के विरुद्ध आंदोलन में भी सक्रिय भाग लिया और वहां के हालातों पर एक महत्वपूर्ण  रपट भी जारी की। 

चौथी पहचान एक बहुत ही संवेदनशील और आला दर्ज़े की युवा 'कवयित्री' की है। 

संध्या की जो बात सबसे ज़्यादा मुत्तासिर करती हैं वे छोटे से छोटे मनोभावों को बड़ी आसानी से पकड़ती हैं। खासकर विसंगतियों को। और फिर उसको बहुत सॉफ्ट से लहज़े में लेकिन मारक जुमलों में ज़ाहिर भी कर देती हैं।

क्योंकि वे एक्टिविस्ट हैं तो जाहिर सी बात है उनकी कविता में  राजनीतिक स्वर होना स्वाभाविक है। उनकी कविता है 'बाश्शा'। कविता जो सन 14/15 के आसपास पढ़ी गई होगी। लेकिन आज भी स्मृति में ताज़ा है। दस सालों बाद भी ये कविता उतनी ही मारक है। इतने सालों में  मानो कुछ भी ना बदला हों। इसमें बादशाह के लिए स्लैंग शब्द 'बाश्शा' का प्रयोग जिस तरह से किया गया है, वो अद्भुत है। इस एक शब्द ने कविता को बेहद मारक बना दिया है।

'....मुलुक बाश्शा का , हुकुम बाश्शा का/ 

सो बस रौंदने चला आ रहा है बाश्शा/ 

इतिहास को, भूगोल को, पूरी कायनात को../

बाश्शा के शौक अजीब हैं/ 

बाश्शा की भूख अजीब है/ 

बाश्शा की प्यास अजीब है।'


लेकिन राजनीतिक स्वर उनकी कविताओं का मुख्य स्वर नहीं है। उसका फलक विशाल है। वे देश, समाज और अपने समय से गुजरती हुई प्रेम तक जाती हैं और एक बहुत ही कोमल संसार की निर्मिति करती हैं।

इस बात को उनके अभी हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह 'सुनो जोगी और अन्य कविताएं' में लक्षित किया जा सकता है। संग्रह में दो भाग हैं। पहले भाग 'एक दिन हमने खेल किया था' में विविध विषयों पर 55 कविताएं हैं। जबकि दूसरे  भाग 'सुनो जोगी' में इसी नाम की कविता श्रृंखला की बहुत  ही चर्चित 45 कविताएं हैं।

उनकी कविताओं में समय किसी इतिहास की तरह दर्ज़ होता चलता है। 'देश-देश' का अंश देखिए-


'यह देश जो अपने खेतों में झूमता रहा/ 

जंगलों में,बीहड़ों में,गॉवों में पलता रहा/ 

कब उग आया कंक्रीट के कैक्टसों में/ 

और डेढ़ सौ खम्बों वाली एक विशालकाय गोल इमारत में कैद हो गया/ 

यह देश/ 

क्रिकेट के भगवानों/ 

सदी के महानायकों/ 

आइडलों और आइकनों के चक्रव्यूह में/ 

मासूम बच्चे सा फँसा लिया गया।'


अफ्रीका के सुप्रसिद्ध साहित्यकार चिनुआ अचेबे का एक प्रसिद्ध कथन है 'जब तक हिरण अपना इतिहास खुद नहीं लिखेंगे, तब तक हिरणों के इतिहास में शिकारियों की बहादुरी के किस्से गाए जाते रहेंगे'। ये एक सर्वकालिक और सार्वभौमिक सत्य है। संध्या इस कथन को भारतीय संदर्भ में कितनी ख़ूबसूरती विस्तारित करती हैं अपनी कविता 'चिनुआ अचेबे के नाम' में कि

'हिरण जाएंगे जान से

ठगे जाएंगे

घायल किए जाएंगे पीढ़ियों से

इतिहास में साबित होंगे सर्वोत्तम शिकार

मुलायम मांस और अलबेली खाल वाले

मासूम,सुंदर,चितचोर

अपनी हत्या के लिए खुद ही दोषी

 करार दिए जायेंगे

हिरण जब भी दायर करेंगे मुकदमा शिकारियों के खिलाफ

 बदतमीज,नाकारा,विकास विरोधी कहे जाएंगे। 


वे समसामयिक घटनाओं पर केवल पैनी नज़र ही नहीं रखतीं, बल्कि बेहद मार्मिक संवेदना से उसे दर्ज़ भी करती हैं-

'आरे के पेड़ कटते हैं

अमेज़न के जंगल जलते हैं

....एक पेड़ कटता है/

 सौ बरस का इतिहास कटता है/ 

पानी कटता है/ 

शर्म कटती है/ 

विवेक कटता है/

 प्यार कटता है...'


 स्त्री विमर्श उनकी कविताओं का एक मुख्य स्वर है। लेकिन वे स्त्री विमर्श के बने बनाए रूढ़ ढांचे को तोड़ती हैं और स्त्री के दुःख दर्द को,सवालों को तरल संवेदना के साथ प्रस्तुत करती हैं-

'औरतों ने अपने तन का/ 

सारा नामक और रक्त/ 

इकट्ठा किया अपनी आंखों में/ 

और हर दुख को दिया/ 

उसमें हिस्सा/ 

हज़ारों साल में बनाया एक मृत सागर/ 

आंसुओं ने कतरा कतरा जुड़कर/

 कुछ नहीं डूबा जिसमें/

औरतों के सपनों और उम्मीदों/ 

के सिवाय।'


वे इस संग्रह की पहली ही कविता में ही लिखती हैं 'सबसे ज़्यादा मुखर हो जाऊंगी मैं आपके मौन में'। उनकी कविताएं मुखर मौन की तरह ही आती हैं। उनकी कविताएं कहीं भी लाऊड नहीं होती। वे बहुत सहजता और धीमे स्वर में अपनी बात कहती हैं लेकिन अधिकतम बेधक क्षमता के साथ।

 वे बहुत ही सहज और कम शब्दों में गंभीर से गंभीर बात कह जाती हैं। देश की,समाज की, उनकी विसंगतियों की, विडंबनाओं की। कमाल ये है कि परिस्थितियां चाहे जितनी विषम हों, निराश करने वाली हों, उनकी कविता एक आशा में खत्म होती हैं-

'ऊष्मा से भरा हुआ दिन हुआ जा सकता है/

ठंड की नरम भाप भी/ 

सवेरे की मीठी ओस भी/

आदमी को भरोसे की आवाज होना चाहिए।'


संग्रह के दूसरे भाग 'सुनो जोगी' में इसी नाम की श्रृंखला की 45 प्रेम कविताएं  हैं।

ये अद्भुत प्रेम कविताएं हैं। ये कविताएं बाकी सभी प्रेम कविताओं से इस  मायने में अलग हैं कि दैहिक और भौतिक प्रेम की कविताएं ना होकर प्रेम के उच्चतर स्तर की कविताएं हैं। ऐसी कविताएं जहां  व्यष्टि में समिष्ट समाहित हो जाता है। वैयक्तिक कामनाओं में विश्व कल्याण समाहित हो जाता है।

भारतीय संस्कृति में जोगी की अवधारणा एक ऐसे सिद्ध पुरुष की है जो सांसारिक रागद्वेष से ऊपर उठ गया है। सामान्य जन से ऊपर। सिद्ध। ईश्वर प्रेम में अनुरक्त। कबीर के जोगी सा। 'सुनो जोगी' का जोगी भी ऐसा ही है -

 'कबीर के रास्ते आते हो तुम/ 

सांवरिया को खोजते/ 

राग बरसाते हो / 

जादू जगाते हो/ 

जोगी दीवाना किए जाते हो।


उनकी भाषा में ताजगी हैं। उन्होंने कमाल के बिंब और मेटाफर प्रयोग किए हैं। एक दम नए। एकदम अनूठे। ऐसे जैसे अब तक किसी ने ना किए। ऐसे जो अब तक कवियों की नज़र से ओझल थे। उनकी कल्पना से परे कि

 'लंबी परछाइयाँ,लंबे डग/ 

पलक झपकते धरती  नापते हो/ 

जो है तुम्हारे गुरुत्व से ढकी/

 पखावज बजाते हो/ 

जादू जगाते हो/ 

मल्हार गाते हो/ 

सारी चेतना पर फूंक देते हो मंतर/'


उनकी कविताओं में कमाल की लय है। कुछ कविताओं को पढ़ कर संगीत का सुख मिलता जैसे आप केदारनाथ अग्रवाल को पढ़कर पाते हैं 'मांझी ने बजाओ बंशी/ मेरा मन डोलता/ जैसे मेरा तन डोलता'। संध्या की कविता देखिए- 

'एक कहानी मैंने लिखी एक कहानी तू भी पढ़/

आंसू आंसू मैंने लिखी पानी पानी तू भी पढ़/'


सुनो जोगी कविताएं प्रेम की अद्भुत अभिव्यक्ति हैं

'आंखों की तरलता,तुम बहो/ 

मुस्कान,तुम खिलो/

हँसी,तुम छा जाओ/ 

स्पर्श,तुम जादू बन जाओ/

उंगलियों,तुम वाद्य पर बारिश बन बजना/

आवाज, तुम झरने सी होना/

आत्मा तुम अरुणोदय बनना..... 

सुनो मन रंगना।'


तो आपको भी प्रेम के रंग में मन को रंगना है। आपको भी प्रेम में डूब जाना है। तो एक बार 'सुनो जोगी और अन्य कविताओं' से होकर ज़रूर गुज़रना चाहिए।




Thursday 15 August 2024

खेलों की प्रेम कहानियां

 



खेल मैदान खिलाड़ियों के कौशल और प्रतिभा प्रदर्शन के मंच होते हैं। और इसका सबसे बड़ा मंच है ओलम्पिक खेल। ओलम्पिक खेलों का लक्ष्य ही सिटियस,अल्टियस,फोर्टियस है। क्या ही कमाल है कि और तेज़,और ऊँचा,और मजबूत बनने के इस यज्ञ में आहुति देते हुए भी खिलाड़ियों के हृदय में बहती प्रेम की धारा सूखती नहीं है।

फिर ये खेल 'प्रेम के शहर' पेरिस में हो रहे हों तो बात ही क्या है। एक ऐसा शहर जिसकी प्रेम की एक ऐतिहासिक परंपरा रही हो। एक ऐसा शहर जिसका साहित्य, कला, वास्तु, संस्कृति सब मिलकर शहर में अदभुत रोमान पैदा करते हों। एक ऐसा शहर जो अनगिनत रोमांटिक  उपन्यासों,कहानियों और फिल्मों का बैकड्रॉप रहा हो। शहर जो एमिल जोला का है। शहर जो  फ्रेडरिक बैरन का है। शहर जो क्लेयर कीटो का है। शहर जो मेरी एंटोनेट और लुई चौदहवे के प्रेम का है। शहर जिसमें प्रेम का प्रतीक बन चुका एफिल टावर हो। शहर जिसमें  प्रेम का पुल पोंट डेस आर्ट्स हो जिस पर खड़े होकर प्रेमी अपने प्रेम को ताला लगाकर हमेशा के लिए सुरक्षित रखने की कामना करते हों और जिसका नाम ही 'लव लॉक ब्रिज' पड़ गया हो। शहर जिसमें मोंटमार्टे जैसा कोई रोमानी इलाका हो और उसके केंद्र में एक प्रेम की दीवार 'ले मूर डेस जे टाइमे' हो जिस दुनिया की अढ़ाई सौ से भी ज्यादा भाषाओं में तीन शब्दों को ही बार बार लिखा गया हो 'आमी तोमाको भालोबाशी'। 

एक ऐसा शहर ए मोहब्बत जहां दुनिया भर के प्रेमी अपनी मोहब्बत का इजहार करने आते हों। उस शहर में दुनिया के कोने कोने से सद्भाव और मैत्री का संदेश लाए खिलाड़ियों को अगर प्यार ना हो जाता तो फिर क्या होता। और क्या वजह रही होगी कि इस शहर में इन खेलों के दौरान एक नहीं, दो नहीं, बल्कि दुनिया भर के खिलाड़ियों के सात जोड़ों ने अपने साथियों को प्रपोज किया। 

क्या ही खूबसूरत वे दृश्य रहे होंगे जो खेलों की दुनिया को रोमान के रंगों से सराबोर कर रहे थे।

दृश्य एक

ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे

इक आग का दरिया है और डूब के जाना है

                                      जिगर मुरादाबादी।

ये जुलाई की चौबीसवीं तारीख थी। अभी भी ओलंपिक खेलों के औपचारिक उद्घाटन में दो दिन बाकी थे। हां कुछ खेलों के मुकाबले जरूर शुरू हो गए थे। फुटबॉल और रग्बी के। अगले दिन हैंडबॉल के मुकाबले भी शुरू होने थे। 

समय शाम गौधूली। जगह पेरिस का खेल गांव। अर्जेंटीना की पुरुष हैंडबाल टीम और महिलाओं की हॉकी टीम के खिलाड़ी एक जगह इकट्ठे हैं। अचानक पाब्लो सिमोनेट घुटने के बल बैठते हैं और अपनी फियांसे हॉकी खिलाड़ी मारिया कैंपॉय का हाथ पकड़ विवाह प्रस्ताव रखते हैं। मारिया चौकती हैं और फिर इस प्रताव का स्वीकार कर लेती हैं। वातावरण में प्रेम की नमी घुल जाती है। आठ सालों से पल रही प्रेम कथा के रंग कुछ और गाढ़े हो जाते हैं।

खेलों से पहले प्रेम का उत्सव शुरू हो जाता है। खेलों के उत्साह और उमंग पर प्रेम का रंग भी चढ़ जाता है।


दृश्य दो

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का 

उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले                                      

                                         मिर्ज़ा ग़ालिब

तारीख दो अगस्त की। समय गहराती रात। स्थान ला चैपल अरीना। चीन की बैडमिंटन खिलाड़ी हुआंग या क्वॉन्ग अपने साथी झेंग सिवेई के साथ दक्षिण कोरिया की किम वोन हो और जियांग ना यून के विरुद्ध मिश्रित युगल का फाइनल मैच आसानी से 21- 08,21- 11 से जीत लेती हैं। दर्शकों में हुआंग या क्वांग के फियोंसे बैडमिंटन खिलाड़ी चीन के लियू यू चेन मैच देख रहे होते हैं। वे अपनी जगह से उठते हैं और अपनी मित्र हुआंग के सामने पहुंचते हैं। बधाई के लिए पहले फूलों का गुलदस्ता भेंट करते हैं और फिर घुटनों के बल बैठकर उन्हें प्रस्तावित करते हुए इंगेजमेंट रिंग उनकी अंगुली में पहना देते हैं। पूरा अरीना खुशियों से भर जाता है। प्रेम के रंग और गाढ़े होते जाते हैं।

प्रेम में डूबी हुआंग स्वर्ण पदक के साथ साथ इंगेजमेंट रिंग को भी लेकर घर वापस लौटती हैं।


दृश्य तीन

इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है 

सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है 

                                                   जिगर मुरादाबादी

तारीख 10 अगस्त। स्थान पोर्ते दे ला चैपल अरीना जहां चीन के लियू यू चेन ने हुआंग को प्रस्तावित किया था। बस फ्लोर बदला हुआ था। ये बैडमिंटन कोर्ट की जगह लयबद्ध जिमनास्ट का फ्लोर था।

इटली की लयबद्ध जिमनास्ट एलेसिया मौरेली का वो सपना पूरा हो रहा था जिसे वे बचपन से देखा करती थीं और उसके चित्र बनाया करती थीं। बचपन में उनसे उनके सबसे बड़े सपने के बारे में पूछा गया तो उन्होंने ओलंपिक रिंग्स के अंदर स्प्लिट्स करते हुए खुद की एक तस्वीर बनाई थी। 

हो भी क्यों ना जो तस्वीर वे खुद बनाया करती थीं,उन्हें आज दुनिया भर के फोटोग्राफर जो उतार रहे थे। उन्होंने लयबद्ध जिम्नास्टिक का कांस्य पदक जीता था। उनका सपना पूरा हुआ था। लेकिन तस्वीर अभी भी पूरी नहीं थी। इसमें प्रेम के रंग भरे जाने थे। और उनके कांसे के धूसर रंग को चमकीला जो बनाया जाना था।

जैसे ही वे पोडियम से उतरी। उनके फियोंसे मास्सिमो बर्टेलोनी ने उनके समक्ष प्रस्ताव रखा और मौरेली की उंगली पर एक चमकदार हीरे की सगाई की अंगूठी। अब वे एक पदक के अलावा चमकदार अंगूठी के साथ विदा हो रही थीं। उनका चेहरा जीत की खुशी से ही नहीं दमक रहा था बल्कि प्रेम के रंग से सुर्ख भी हुआ जाता था।

वे कह रही थीं "यह अंगूठी और यह पदक भविष्य की खुशबू है और मैं अपने सबसे अच्छे दोस्तों, टीम के साथियों और अपने भावी पति के साथ इसे जीकर बहुत खुश हूं।"

दृश्य चार

तुम्हें ज़रूर कोई चाहतों से देखेगा 

मगर वो आँखें हमारी कहाँ से लाएगा 

                                                  बशीर बद्र

तारीख  पांच अगस्त। दिन सोमवार। दिन का उजला समय। स्थान खूबसूरत सीन का किनारा।बैकड्रॉप एफिल टावर। 

अमेरिका के जस्टिन बेस्ट ने 01 अगस्त को अपने साथियों निक मीड,माइकल ग्रैडी और लियाम कॉरिगन के साथ मिलकर रोइंग की पुरुषों की कॉक्सलेस फोर स्पर्धा का स्वर्ण पदक जीता था। ये 64 वर्षों में इस स्पर्धा में अमेरिका का पहला स्वर्ण पदक था।

इस खूबसूरत जगह पर अपने दोस्तों और पारिवारिक सदस्यों के साथ इससे बेखबर प्रेमिका को लैनी डंकन को 2738 पीले गुलाबों के साथ प्रपोज किया। इतने गुलाब इसलिए कि वे इतने दिनों से स्नैपचैट पर एक दूसरे से प्रेम का इजहार कर रहे थे और पीले इसलिए कि स्नैपचैट के नोटिफिकेशन का बिंदु पीले रंग का होता है।

सीन नदी के किनारे 2738 दिनों की एक प्रेम यात्रा अब अपने अंजाम को प्राप्त हो चुकी थी। सीन नदी के किनारे एक और धारा बहने लगी थी प्रेम की और गुलाबों की खुशबू में घुल कर प्रेम महकने लगा था।


दृश्य पांच

बहुत दिनों में मोहब्बत को ये हुआ मा'लूम 

जो तेरे हिज्र में गुज़री वो रात रात हुई 

                                         फ़िराक़ गोरखपुरी

तारीख छह अगस्त। दिन मंगलवार। स्थान स्टेड डी फ्रांस।  स्थानीय धावक 33 वर्षीया 

एलिस फिनोट एक रोमानी अंदाज में खुद से किया गया एक वादा पूरा कर रही थीं।

वे पहली बार ओलंपिक में भाग ले रही थीं। स्पर्धा थी महिलाओं की 3,000 मीटर स्टीपलचेज़। वे उसमें चौथे स्थान पर रही। केवल तीन सेकंड से पदक चूक गईं। हालाँकि उन्होंने 8:58.67 के समय के साथ यूरोपीय स्टीपलचेज़ रिकॉर्ड तोड़ दिया था।

लेकिन दौड़ से पहले उन्होंने स्वयं से भी एक वादा किया था कि "नौ मेरा भाग्यशाली अंक है और हमारे साथ के भी नौ वर्षों हो चुके हैं। (अगर) मैं नौ मिनट से कम समय में ये दौड़ पूरी कर लूं तो मैं प्रपोज करूंगी।"

और खुद से किए गए वादे को पूरा करने के लिए  दौड़ के कुछ ही क्षणों बाद फिनोट ट्रैक पर एक घुटने के बल बैठी और पानी भरी आंखें लिए  अपने स्पेनी प्रेमी ब्रूनो मार्टिनेज बार्गीला को, जो ट्रायथलीन के खिलाड़ी हैं,एक पिन भेंट की। इस पर लिखा था "प्यार पेरिस में है।" बाद में उन्होंने वो पिन बारगीता शर्ट में टांक दिया मानो ये पिन ना हो उनका दिल हो कि अब दो दिल एक साथ धड़कने लगे थे।


दृश्य छह

दिल पे आए हुए इल्ज़ाम से पहचानते हैं 

लोग अब मुझ को तिरे नाम से पहचानते हैं 

                                         क़तील शिफ़ाई

तारीख 30 जुलाई। दिन मंगलवार। पेरिस में कोई जगह। अमेरिका की महिला रग्बी सेवन खिलाड़ी अलेव केल्टर ने अपनी स्पर्धा में कांस्य पदक जीतने के बाद साथी खिलाड़ी कैथ ट्रेडर के सामने घुटनों के बल बैठी और अपनी 96 साल की दादी की मौजूदगी में शादी का प्रताव रखा।

एलेव केल्टर तीसरी बार ओलंपिक खेलने पेरिस आई थीं। उनका पदक जीतने का सपना तब पूरा हुआ जब उन्होंने कांस्य पदक मैच में 30 जुलाई को ऑस्ट्रेलिया को 14-12 से हराकर एक इतिहास रचा। अमेरिकी सेवन्स स्क्वाड के लिए ये अब तक का पहला पदक था। इस जीत में केल्टर ने अहम भूमिका निभाई। उन्होंने अमेरिका की ओर से पहला स्कोर किया। 

इस जीत के बाद वे सीधे अपनी दोस्त ट्रेडर के पास पहुंचीं और उन्हें प्रपोज किया। ट्रेडर उसी अमेरिकी महिला XVs टीम के लिए खेलती हैं, जिसके लिए केल्टर भी खेलती हैं और यहीं पर इनके बेवच प्रेम की नींव पड़ी। 

ये प्रपोजल अन्य प्रपोजल से अलग बहुत ही वैयक्तिक रहा और इसका पता तब चला जब 06 अगस्त को उन्होंने एक वीडियो के जरिए इस बात को साझा किया।

एक और प्रेम कहानी अपनी मंजिल  पर पहुंची अमेरिका से बहुत दूर सिटी ऑफ लव पेरिस में।

दृश्य सात

मोहब्बत एक ख़ुशबू है हमेशा साथ चलती है 

कोई इंसान तन्हाई में भी तन्हा नहीं रहता 

                                                 बशीर बद्र

तारीख चार अगस्त। दिन रविवार। समय एक चमकीला दिन। स्थान सुप्रसिद्ध एफिल टावर का बैकड्रॉप। इस दिन एक और खिलाड़ी प्रेमी घुटनों के बल झुका और प्रेम निवेदन किया।

ये अमेरिका के शॉट पटर पेटन ऑटरडल थे। वे शॉट पुट में भाग लेने वाले तीन अमेरिकियों में से एक थे। वे बहुत मामूली से अंतर से जमैका के आर कैंपबेल से पीछे रह कर पदक से चूक गए। पहले दो स्थानों पर अमेरिकी खिलाड़ी रहे।

अगले दिन ही एफिल टावर के बैकड्रॉप में उन्होंने अपनी प्रेमिका मेडी नील्स के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। वे उनके साथ इन दिनों पेरिस में ही हैं। एक बार फिर सीन नदी के किनारे दो दिल मिले, प्रेम की ऊष्मा से पिघले, और सीन के समानांतर प्रेम की एक और धारा बह निकली।


यों प्रेम के इस शहर में प्रेम की कुछ कहानियां अपने अंजाम को पहुंची। कहने को तो इनकी गिनती एक दर्जन तक पहुँचती हैं। पर कुछ सामने आईं, कुछ पर्दे में रह गईं। 

पर कहते हैं ना प्यार के दुश्मन हज़ार। इन प्रस्तावों के चर्चा में आते ही इनकी आलोचना शुरू हो गयी कि इनकी सुर्खियों ने ओलंपिक में महिलाओं की वास्तविक उपलब्धियों को पृष्ठभूमि में धकेल दिया।

जो हो इस प्रेम नगर में कितनी ही प्रेम कहानियाँ पूरी हुई। लेकिन  ऐसा भी हुआ होगा कि इन सोलह दिनों में और ना जाने कितनी नई प्रेम कहानियों ने जन्म लिया होगा। जो कहीं और उनके अपने प्रेमनगर में, अपने सपनों के शहर में पूरी होंगी।

और ये भी कि पेरिस में बने इन सुंदर दृश्यों की तरह ऐसे ना जाने कितने दृश्य आगे भी आने वाले समय में बनते रहेंगे और लोगों की स्मृति का हिस्सा भी कि बकौल मिर्ज़ा ग़ालिब

इश्क़ पर ज़ोर नहीं, है ये वो आतिश 'ग़ालिब'

कि लगाए न लगे और बुझाए न बने !

अभावों की आभा



विस्थापन मानव जीवन में किसी भयानक त्रासदी की तरह आता है। विशेष रूप से तब जब ये विस्थापन जबरन कराया गया हो या मजबूरी में करना पड़ा हो। ये किसी अभिशाप की तरह जीवन को दुख देता है। अपनी जड़ ज़मीन से अलग हुआ विस्थापित पेड़ से टूटे पत्ते की तरह समय के थपेड़ों के हाथों पिटता हुआ अपने अस्तित्व और गरिमा की तलाश में भटकता रहता है। दुनिया में इस समय सौ मिलियन से अधिक लोग जबरन विस्थापित हैं जो जीवन यापन और मानवीय गरिमा से रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

ये साल 2016 था। रियो ओलंपिक के आयोजन का साल। अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक कमेटी के अध्यक्ष थॉमस बॉक ने एक पहल की। संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी की मदद से ओलंपिक कमेटी और ओलंपिक शरणार्थी फाउंडेशन द्वारा एक  शरणार्थी ओलंपिक टीम का गठन किया गया ताकि दुनिया भर में शरणार्थियों की तरह रह रहे लोगों में से खेल प्रतिभाओं को अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन हेतु खेल का उच्चतम मंच प्राप्त हो सके।

तब पहली 2016 के रियो ओलंपिक में पहली बार शरणार्थी ओलंपिक दल ने भाग लिया। इसमें कुल 10 खिलाड़ी शामिल थे। इसके बाद 2021 के टोक्यो ओलंपिक में कुल 29 खिलाड़ियों ने भाग लिया। लेकिन वहां ये एक भी पदक नहीं जीत सके थे। इस बार पेरिस ओलंपिक में इस दल के कुल 37 लोगों ने भाग लिया और शानदार प्रदर्शन किया। 



इसमें सबसे शानदार प्रदर्शन सिंडी एनगाम्बा का  था। 75 किग्रा भार वर्ग की मुक्केबाज़ी स्पर्धा में 25 वर्षीय सिंडी एनगाम्बा ने एक  कांस्य पदक जीत कर इतिहास रचा। उन्होंने क्वार्टर फाइनल में मेजबान फ्रांस की डेविना मिचेल को सर्व सम्मति से 5-0 से हराकर सेमीफ़ाइनल में प्रवेश कर अपना कांस्य पदक पक्का कर लिया था। ये शरणार्थी ओलंपिक दल का इन खेलों में पहला पदक था। हालांकि वे सेमीफ़ाइनल में अपना मैच पनामा की एथीना बैलोन से हार गईं लेकिन तब तक पोडियम पर खड़े होने का हक़ प्राप्त कर इतिहास रच चुकी थीं।

सिंडी का जन्म 1998 में कैमरून में हुआ था।  11 वर्ष की अवस्था में वे एक आव्रजक के रूप में ग्रेट ब्रिटेन आईं। लेकिन जब उनके चाचा वापस कैमरून जाने लगे तो उनके वैध दस्तावेज चाचा द्वारा खो दिए गए। समस्या तब आईं जब स्कूल से कॉलेज में भर्ती होने का समय आया। उस समय उनके वीसा का नवीनीकरण होना था। लेकिन उनके पास वैध दस्तावेज नहीं होने के कारण उन्हें देश में अवैध शरणार्थी माना गया। तब से कानूनी लड़ाई लड़ रहीं हैं। वे लेस्बियन हैं और इसीलिए वे अपने देश वापस नहीं जाना चाहती हैं क्योंकि कैमरून में समलैंगिकता अपराध की श्रेणी में आता है और उन्हें पांच साल की सजा हो सकती है। उनका कहना है वे ब्रिटेन में बचपन से रह रही हैं और उन्हें कभी नहीं लगा कि वे यहां आव्रजक हैं।

उन्होंने अपने खेल कैरियर की शुरुआत फुटबॉल से की। लेकिन जल्द ही उन्हें ये लग गया कि उनका सच्चा पैशन फुटबॉल नहीं बॉक्सिंग है। फिर 15 वर्ष की उम्र में बॉक्सिंग शुरू की। वे तीन अलग अलग भार वर्ग में ब्रिटेन की राष्ट्रीय चैंपियन हैं और ब्रिटिश बॉक्सिंग टीम के साथ अभ्यास करती हैं। वे ब्रिटिश टीम की और से ही भाग लेना चाहती थीं। लेकिन उनके पास ना तो ब्रिटेन का पासपोर्ट है और ना दीर्घकालीन वीसा। इन्हीं प्रपत्रों के अभाव में उन्हें उनके भाई के साथ एक बार अवैध प्रवासी होने की बिना पर गिरफ्तार करके डिटेंशन सेन्टर भेज दिया गया और वापस कैमरून भेजे जाने का खतरा भी उन पर मंडराने लगा। लेकिन इसी बीच उनके अंकल जो वहीं काम कर राजे हैं,के हस्तक्षेप से उन्हें 2021 में शरणार्थी का दर्जा प्राप्त हो गया।अभी भी ब्रिटेन में उनका दर्जा शरणार्थी का है। इसलिए उन्होंने शरणार्थी ओलंपिक टीम के लिए आवेदन किया और उन्हें टीम में चुन लिया गया।

उन्होंने पदक जीतकर दिखाया कि विस्थापित लोगों को अगर अवसर मिले तो वे अपने को सिद्ध कर सकते हैं और अपनी काबिलियत भी।

हालांकि शरणार्थी टीम से पदक जीतने वाली वे अकेली खिलाड़ी हैं, लेकिन उनके साथियों ने भी इस ओलंपिक में शानदार और उम्मीद जगाने वाला प्रदर्शन किया है। एथलेटिक्स में डोमिनिक लोकिन्योमो लोबालू  पुरुषों की 5,000 मीटर दौड़ स्पर्धा के फ़ाइनल में सेकेंड के शतांश से भी कम अंतर से पदक से चूक गए और चौथे स्थान पर रहे।

 इसके अलावा पेरिना लोकुरे नाकांग ने महिलाओं की 800 मीटर दौड़ स्पर्धा में और जमाल अब्देलमाजी  पुरुषों की 10,000 मीटर दौड़ में व्यक्तिगत सर्वश्रेष्ठ समय निकाला। साथ ही तीन खिलाड़ी फर्नांडो दयान और जॉर्ज एनरिकेज़ की टीम व सईद फज़लौला, समन सोलतानी  कैनो स्प्रिंटर्स क्वार्टर फाइनल में पहुंचे। 

ये प्रदर्शन इस मामले में असाधारण और विशिष्ट कहे जा सकते हैं कि ये उन खिलाड़ियों द्वारा किए गए हैं जो अपने जीवन यापन के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वे न्यूनतम मानवीय सुविधाओं के साथ रहकर, केवल अपने दृढ़ संकल्प, अपने साहस, अपनी कड़ी मेहनत और अपनी प्रतिभा के बल पर ऐसा कर पा रहे हैं। 

ये शरणार्थी ओलंपिक दल के सदस्यों द्वारा किए गए ये चमकीले प्रदर्शन मानवीय जिजीविषा और  साहस के उच्चतर बिंदु है। ये इस बात का प्रमाण हैं कि अगर व्यक्ति ने ठान लिया है तो तमाम बाधाओं और त्रासदियों से गुजर कर भी जीवन में बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है।मानव जीवन में किसी भयानक त्रासदी की तरह आता है। विशेष रूप से तब जब ये विस्थापन जबरन कराया गया हो या मजबूरी में करना पड़ा हो। ये किसी अभिशाप की तरह जीवन को दुख देता है। अपनी जड़ ज़मीन से अलग हुआ विस्थापित पेड़ से टूटे पत्ते की तरह समय के थपेड़ों के हाथों पिटता हुआ अपने अस्तित्व और गरिमा की तलाश में भटकता रहता है। दुनिया में इस समय सौ मिलियन से अधिक लोग जबरन विस्थापित हैं जो जीवन यापन और मानवीय गरिमा से रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

ये साल 2016 था। रियो ओलंपिक के आयोजन का साल। अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक कमेटी के अध्यक्ष थॉमस बॉक ने एक पहल की। संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी की मदद से ओलंपिक कमेटी और ओलंपिक शरणार्थी फाउंडेशन द्वारा एक  शरणार्थी ओलंपिक टीम का गठन किया गया ताकि दुनिया भर में शरणार्थियों की तरह रह रहे लोगों में से खेल प्रतिभाओं को अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन हेतु खेल का उच्चतम मंच प्राप्त हो सके।

तब पहली 2016 के रियो ओलंपिक में पहली बार शरणार्थी ओलंपिक दल ने भाग लिया। इसमें कुल 10 खिलाड़ी शामिल थे। इसके बाद 2021 के टोक्यो ओलंपिक में कुल 29 खिलाड़ियों ने भाग लिया। लेकिन वहां ये एक भी पदक नहीं जीत सके थे। इस बार पेरिस ओलंपिक में इस दल के कुल 37 लोगों ने भाग लिया और शानदार प्रदर्शन किया।

इसमें सबसे शानदार प्रदर्शन सिंडी एनगाम्बा का  था। 75 किग्रा भार वर्ग की मुक्केबाज़ी स्पर्धा में 25 वर्षीय सिंडी एनगाम्बा ने एक  कांस्य पदक जीत कर इतिहास रचा। उन्होंने क्वार्टर फाइनल में मेजबान फ्रांस की डेविना मिचेल को सर्व सम्मति से 5-0 से हराकर सेमीफ़ाइनल में प्रवेश कर अपना कांस्य पदक पक्का कर लिया था। ये शरणार्थी ओलंपिक दल का इन खेलों में पहला पदक था। हालांकि वे सेमीफ़ाइनल में अपना मैच पनामा की एथीना बैलोन से हार गईं लेकिन तब तक पोडियम पर खड़े होने का हक़ प्राप्त कर इतिहास रच चुकी थीं।

सिंडी का जन्म 1998 में कैमरून में हुआ था।  11 वर्ष की अवस्था में वे एक आव्रजक के रूप में ग्रेट ब्रिटेन आईं। लेकिन जब उनके चाचा वापस कैमरून जाने लगे तो उनके वैध दस्तावेज चाचा द्वारा खो दिए गए। समस्या तब आईं जब स्कूल से कॉलेज में भर्ती होने का समय आया। उस समय उनके वीसा का नवीनीकरण होना था। लेकिन उनके पास वैध दस्तावेज नहीं होने के कारण उन्हें देश में अवैध शरणार्थी माना गया। तब से कानूनी लड़ाई लड़ रहीं हैं। वे लेस्बियन हैं और इसीलिए वे अपने देश वापस नहीं जाना चाहती हैं क्योंकि कैमरून में समलैंगिकता अपराध की श्रेणी में आता है और उन्हें पांच साल की सजा हो सकती है। उनका कहना है वे ब्रिटेन में बचपन से रह रही हैं और उन्हें कभी नहीं लगा कि वे यहां आव्रजक हैं।

उन्होंने अपने खेल कैरियर की शुरुआत फुटबॉल से की। लेकिन जल्द ही उन्हें ये लग गया कि उनका सच्चा पैशन फुटबॉल नहीं बॉक्सिंग है। फिर 15 वर्ष की उम्र में बॉक्सिंग शुरू की। वे तीन अलग अलग भार वर्ग में ब्रिटेन की राष्ट्रीय चैंपियन हैं और ब्रिटिश बॉक्सिंग टीम के साथ अभ्यास करती हैं। वे ब्रिटिश टीम की और से ही भाग लेना चाहती थीं। लेकिन उनके पास ना तो ब्रिटेन का पासपोर्ट है और ना दीर्घकालीन वीसा। इन्हीं प्रपत्रों के अभाव में उन्हें उनके भाई के साथ एक बार अवैध प्रवासी होने की बिना पर गिरफ्तार करके डिटेंशन सेन्टर भेज दिया गया और वापस कैमरून भेजे जाने का खतरा भी उन पर मंडराने लगा। लेकिन इसी बीच उनके अंकल जो वहीं काम कर राजे हैं,के हस्तक्षेप से उन्हें 2021 में शरणार्थी का दर्जा प्राप्त हो गया।अभी भी ब्रिटेन में उनका दर्जा शरणार्थी का है। इसलिए उन्होंने शरणार्थी ओलंपिक टीम के लिए आवेदन किया और उन्हें टीम में चुन लिया गया।

उन्होंने पदक जीतकर दिखाया कि विस्थापित लोगों को अगर अवसर मिले तो वे अपने को सिद्ध कर सकते हैं और अपनी काबिलियत भी। हालांकि शरणार्थी टीम से पदक जीतने वाली वे अकेली खिलाड़ी हैं, लेकिन उनके साथियों ने भी इस ओलंपिक में शानदार और उम्मीद जगाने वाला प्रदर्शन किया है। 


एथलेटिक्स में डोमिनिक लोकिन्योमो लोबालू  पुरुषों की 5,000 मीटर दौड़ स्पर्धा के फ़ाइनल में सेकेंड के शतांश से भी कम अंतर से पदक से चूक गए और चौथे स्थान पर रहे।

 इसके अलावा पेरिना लोकुरे नाकांग ने महिलाओं की 800 मीटर दौड़ स्पर्धा में और जमाल अब्देलमाजी  पुरुषों की 10,000 मीटर दौड़ में व्यक्तिगत सर्वश्रेष्ठ समय निकाला। साथ ही तीन खिलाड़ी फर्नांडो दयान और जॉर्ज एनरिकेज़ की टीम व सईद फज़लौला, समन सोलतानी  कैनो स्प्रिंटर्स क्वार्टर फाइनल में पहुंचे। 

ये प्रदर्शन इस मामले में असाधारण और विशिष्ट कहे जा सकते हैं कि ये उन खिलाड़ियों द्वारा किए गए हैं जो अपने जीवन यापन के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वे न्यूनतम मानवीय सुविधाओं के साथ रहकर, केवल अपने दृढ़ संकल्प, अपने साहस, अपनी कड़ी मेहनत और अपनी प्रतिभा के बल पर ऐसा कर पा रहे हैं। 

ये शरणार्थी ओलंपिक दल के सदस्यों द्वारा किए गए ये चमकीले प्रदर्शन मानवीय जिजीविषा और  साहस के उच्चतर बिंदु है। ये इस बात का प्रमाण हैं कि अगर व्यक्ति ने ठान लिया है तो तमाम बाधाओं और त्रासदियों से गुजर कर भी जीवन में बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है।




Wednesday 14 August 2024

बुनना सुंदर सपने को




 घटनाएं बीत जाती हैं। उनकी स्मृतियां बाकी रह जाती हैं। पेरिस ओलम्पिक का भी समापन हो गया। लेकिन इसमें भाग ले रहे खिलाड़ियों द्वारा इसके भीतर बनी संवेगों की रंग बिरंगी छवियां और उनके जुनून,साहस,ताकत व कौशल से किए गए हैरतंगेज और रोमांचक कारनामों की बेहद खूबसूरत तस्वीरें हमेशा के लिए हृदय पटल पर अंकित हो चुकी हैं।

टॉम डेली जाने माने ब्रिटिश डाइवर हैं जिन्होंने पेरिस ओलम्पिक से पहले एक स्वर्ण और तीन कांस्य पदक जीते थे। इस बार उन्होंने डाइविंग की  10 मीटर सिंक्रोनाइज्ड प्लेटफार्म स्पर्धा में अपने जोड़ीदार नोआह विलियम्स के साथ मिलकर रजत पदक जीता।

वे हवा में अपने शरीर के साथ शानदार कलाबाजियां करते हैं और डाइव करते हैं किसी बहुत ही दक्ष नर्तक की तरह। लेकिन कमाल की बात ये है कि वे जितनी दक्षता के साथ हवा और पानी में अपने शरीर से कलाबाजी दिखाते हैं उतनी ही दक्षता से और खूबसूरती से क्रोशिए और धागे के साथ अपनी उंगलियों से करामात दिखाते हैं। वे शायद दुनिया के एक प्रसिद्ध एथलीट होने के साथ एक सिद्धहस्त बुनाई करने वाले हैं। वे बुनाई के क्षेत्र में स्त्रियों को मात देते हैं। डाइविंग के बाद बुनाई उनका दूसरा पैशन है।




अपनी बुनाई के लिए वे पहली बार टोक्यो ओलम्पिक में चर्चा में आए। वहां उन्होंने अपनी स्पर्धा के दौरान बैठे बैठे अपने पदक रखने के लिए एक सुंदर पाउच बना दिया था।

लेकिन इस बार तो वे और भी दो हाथ आगे निकल गए। अपना इवेंट खत्म करने के बाद उन्होंने अधिकांश समय अपने साथियों को प्रोत्साहित करने और अपने दूसरे पैसाइयों को पूरा करनेए दिया। इस बार तो उन्होंने बाकायदा अपना पूरा पुलोवर ही बुन दिया। सफेद,लाल और नीले रंग के इस पुलोवर का पहले उन्होंने एक स्केच बनाया और फिर उसको साकार रूप दे डाला।

 लाल रंग की पृष्ठभूमि के इस पुलोअर में सफेद रंग से सामने चेस्ट पर एफिल टावर पेरिस 2024 लिखा है और नीचे लाल और सफेद रंग से ब्रिटेन का राष्ट्रीय ध्वज बनाया है। एक आस्तीन पर अंग्रेजी के अक्षर टी डी हैं जो उनके नाम के आरंभिक अक्षर है और एक आस्तीन पर 5 है जो उनके ओलम्पिक में पांचवे मेडल का प्रतीक है।

वो क्या ही सुंदर दृश्य रहा होगा जब एक खिलाड़ी पवेलियन में दर्शकों के बीच बहुत ही चपलता और कुशलता से अपनी उंगलियों से कुछ धागों के साथ एक खूबसूरत सपना बुन रहा होगा। और ये भी प्रतिभा स्त्री पुरुष के बीच कोई भेदभाव नहीं करती।



Tuesday 13 August 2024

मैंने मांडू नहीं देखा





 स्वदेश दीपक की पुस्तक 'मैंने मांडू नहीं देखा' पढ़ रहा हूँ। ये पुस्तक खुद में एक 'मायाविनी' है,'सीडक्ट्रेस' है। अगर इससे प्रेम किया तो तो आत्मा मानवीय संवेदना से चांदनी सी खिल जाएगी और इसे नापसंद किया कि ये तो बाइपोलर डिसऑर्डर से ग्रस्त व्यक्ति की खंडित जीवन की कथा है तो बहुत संभव है कि आप पहले से ही किसी 'मायाविनी' से शापग्रस्त हों।

अद्भुत पुस्तक है।

मैंने स्वदेश दीपक के बारे में इलाहाबाद रहवास के समय से ही सुन रखा था। मैं उन्हें उनके उनके नाटक 'कोर्ट मार्शल' के लिए जानता था जिसकी इलाहाबाद में शानदार प्रस्तुतियां हुई थीं। और इस किताब का शीर्षक तो हमेशा से ही आकर्षित करता था। पर पढ़ने को अब मिली।

 किताब पढ़ते हुए इसके ' सीडक्ट्रेस' होने का आभास होता है और इसके 365 पन्ने उसके द्वारा मारे धरे गए बोसे, जिनमें से कुछ आत्मा को सघन वेदना की घनघोर बारिश से डुबोते हैं और कुछ सुकून की रिमझिम बौछार से भिगोते हैं

जिस दिन ये किताब घर आई,उससे अगले दिन किसी काम से गुरुग्राम जाना पड़ा था। इसे साथ ले जाना चाहता था। लेकिन लेकर नहीं गया। लौटकर आया तो 102 बुखार था। किताब चिढ़ा रही थी देखा मेरे अपमान का नतीजा।

देहरादून से पटियाला बेटी को छोड़ने और लाने के लिए ना जाने कितनी बार अंबाला से गुजरा लेकिन जाम से भरी सड़कें और एयरफोर्स स्टेशन और बायपास व फ्लाईओवर की भूल भुल्लैया जिसमें अक्सर देहरादून जाने वाले सही रास्ते से भटक जाया करता था, के अलावा कोई स्मृति इस शहर की नहीं बनी थी। पर अचानक ये शहर इतना प्रिय हो गया है और स्वदेश के घर को एक नजर देखने को इच्छा इतनी बलवती कि अब इस शहर एक बार जरूर जाना है।

लग रहा है काश एक बार स्वदेश लौट आए और उससे मिलना हो सके। फिर लगता है ठीक ही है।अपने प्रिय लेखक से कभी मिलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए और उसके सुकून में खलल नहीं डालनी चाहिए। वो जहां हो सुकून में हो।

अफसोस रहेगा स्वदेश के बारे में विस्तार से पहले क्यों नहीं जाना।

हंसती हुई स्त्री




' हंसती हुई स्त्री ' 

और ' रोता हुआ पुरुष ' 

जीवन के दो सुंदर दृश्य हैं

जब स्त्री की दंतपंक्तियों से

पुरूषों की सी आजादी

और आदमी की आंखों से

स्त्री के से दुःख 

झरते हैं।

Monday 12 August 2024

गुदड़ी का लाल

 




ल रात पेरिस के स्टेड डी फ्रांस में पुरुषों की जेवलिन स्पर्धा के अपने पहले प्रयास में जब पाकिस्तान के अरशद नदीम रनअप से चूके और फ़ाउल कर बैठे,तो लगा वे दबाव में हैं। लेकिन नियति ने उनके लिए कुछ और सोच रखा था। उनके दूसरे प्रयास में उनके हाथ से निकले भाले ने एक ऐसी अविस्मरणीय उड़ान भरी जो दुनिया के खेल इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज़ कर दी गयी है। एक अकेली ऐसी उड़ान जिसने एथलेटिक्स की दुनिया में नदीम को लीजेंड बना दिया।

च तो ये है कि दूसरे प्रयास में नदीम के भाले की 92.97 मीटर दूरी की इस उड़ान ने ना केवल उनके लिए स्वर्ण पदक सुनिश्चित कर दिया था बल्कि औरों के लिए स्वर्ण पदक के रास्ते भी बंद कर दिए थे। अब कोई चमत्कारी थ्रो ही नदीम से स्वर्ण पदक छीन सकती थी और हम जानते हैं इस तरह के चमत्कार  रोज रोज नहीं होते हैं। क्या ही कमाल वे करते हैं कि एक प्रतियोगिता की छह थ्रो में वे 90+मीटर की दो दो थ्रो करते हैं और नीदरलैंड के एंड्रियास थोरकिल्डसन द्वारा 2008 के बीजिंग ओलंपिक में स्थापित 90.57 मीटर के पिछले ओलंपिक  रिकॉर्ड को नेस्तनाबूद कर देते हैं। वे एक ऐसी थ्रो को अंजाम देते हैं जो अब तक कि छठी सबसे लंबी थ्रो थी।

दीम की ये दूसरी थ्रो  केवल 92.97 मीटर की उड़ान भर नहीं थी बल्कि ये पाकिस्तान के पश्चिमी पंजाब के सुदूर कोने में स्थित एक छोटे से गांव मियां चुन्नू से दुनिया के सबसे खूबसूरत शहर पेरिस तक की लंबी उड़ान थीं। एक गुमनाम ज़िंदगी से शोहरत की बुलंदियों तक पहुँचने की उड़ान। यदि इस 92.97मीटर की उड़ान के दो बिंदुओं को देखेंगे तो इसके एक छोर पर मियां चुन्नू और दूसरे छोर पर पेरिस दिखाई देगा। दरअसल ये उड़ान उनकी इन दो बिंदुओं के बीच की मुश्किलों और संघर्षों से भरी यात्रा का एक खूबसूरत रूपक है।

ये बात आज अतिशयोक्ति लग सकती है लेकिन ये तय है कि आने वाले निकट भविष्य में वे किसी किंवदंती की तरह ही याद किए जाएंगे जैसे हिंदुस्तान में ध्यानचंद को याद किया जाता है। मिल्खा सिंह को याद किया जाता है। 

नकी ये जीत इसलिए और भी ज़्यादा शानदार है कि ये असमानों के बीच का मुकाबला था। एक तरफ नीरज,वेबर,वादलेच जैसे सुविधा सम्पन्न प्रतिभागी थे तो दूसरी और येगो और अरशद नदीम जैसे प्रतिभागी जिन्हें अभ्यास के एक भाले को बदलने के लिए भी जनता की दरकार होती है। ये दो विपरीत ध्रुवों के बीच मुकाबला था। एक तरफ वे प्रतिभागी थे जिन्हें इस समय विश्व के सर्वश्रेष्ठ कोच और इस समय विश्व में उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ तकनीक और सुविधाओं के साथ ट्रेनिंग उपलब्ध थी और दूसरी तरफ अरशद नदीम जैसे खिलाड़ी जिनकी ट्रेनिंग सामान्यतः बहुत ही साधारण और औसत दर्जे की सुविधाओं और उपकरणों से होती है। हालांकि उन्होंने कुछ समय दक्षिण अफ्रीका के कोच टेरसियस लिबेनबर्ग से भी ट्रेनिंग ली है।

हले दर्ज़े के खिलाड़ी सुविधाओं से अपनी प्रतिभा को निखारते हैं और दूसरे दर्ज़े के खिलाड़ी अपनी प्रतिभा से सुविधाओं की भरपाई करते हैं।

रशद एक ऐसे ही खिलाड़ी हैं जो बचपन से ही बेहद प्रतिभाशाली लेकिन अभावों की दुनिया में बड़े होते हैं। जिनके लिए नॉन वेज खाना एक लग्ज़री होता है। जिसे अपने सबसे प्रिय खेल क्रिकेट को इसलिए छोड़ना पड़ता है कि उस खेल के खर्चों को उनका परिवार वहन नहीं कर सकता था। वे एक इतने गरीब मुल्क से आते हैं जो पेरिस ओलंपिक में भाग लेने वाले केवल सात प्रतिभागियों का खर्च उठाने की कुव्वत नहीं रखता और अंततः  एक कमेटी ये निश्चय करती है कि देश केवल नदीम और उसके कोच की हवाई यात्रा का खर्च वहन करेगा। एक ऐसा खिलाड़ी जिसके अंतरराष्ट्रीय प्रतिगोगिताओं में भाग लेने का इंतज़ाम उसके गांव वाले मिलकर करते हैं।

लेकिन प्रतिभाएं सुविधाओं की मोहताज कहाँ होती है। वो अपना रास्ता खुद बनाती है। ऐसे लोग लीक पर नहीं चलते वे खुद लीक बनाते हैं। बहते निर्मल पानी को भला कौन रोक सकता है। लाख चट्टानों के होने के बावजूद वो अपना रास्ता बना ही लेता है। 

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अरशद नदीम भी ऐसे ही है। अभावों की कोई भी बाधा उनका रास्ता कहां रोक सकती थी। उन्होंने भी अपना रास्ता खुद बनाया। मियां चुन्नू से पेरिस तक। गुमनामी से शोहरत तक। आम से विशिष्ट तक। खिलाड़ी से लीजेंड बनने तक।

सही कहें तो गुदड़ी के लाल ऐसे ही होते हैं।

नदीम को सोने का तमगा मुबारक। जीत मुबारक।


                                                            

यूएस ओपन की नई चैंपियन

  रंग खुद में अभिव्यक्ति का शक्तिशाली माध्यम हैं। उतने ही शक्तिशाली जितने उच्चरित शब्द हो सकते हैं या लिखित शब्द। हर रंग एक कहानी कहता है,ए...