Monday, 12 December 2022

अकारज _ 18

 


अकारज_18

दिन भर की भाग दौड़ के बाद वो थकी सी क्लांत बैठी थी। दिन था कि अब सांझ हो चला था।

कुछ देर बाद उसने जुम्हाई ली और नींद में गुम हो गई। सांझ गहरी रात में बदल गई।

सकी आँखों में कुछ सपने आए। आसमां में तारे टिमटिमाने लगे।

सने नींद में करवट बदली। आसमां में चांद उग आया और आसमां चांदनी से भर उठा।

वो जगने ही वाली थी। उसने अंगड़ाई ली। रात सुब्ह में तब्दील हो गई।

सने आंखें खोली। सूरज उसकी खिड़की पर हाज़िर हुआ।

सने अब धीमे से मुझे पुकारा 'कहां हो तुम'। चिड़िया चहचहा उठीं।

मैंने उसके माथे पर एक बोसा और हाथ पर चाय का प्याला धरा। स्मित मुस्कान उससे होंठों पर फैल गई। कमरा  गुलाबी रंग से भर उठा। 

वो थी। मैं था। मौन भंग करती चाय की चुस्कियां थीं।

गुलाबी रंग सुर्ख हुआ ही चाहता था कि उसके मन में दिन भर की जिम्मेदारियों का एक पहाड़ उग आया और उसका शरीर पहाड़ के बीच बहती नदी होने लगा।

कि मेरे मन की नीरवता उसके भीतर बहती नदी के शोर में घुल रही थी और उसके भीतर बहती नदी का शोर मेरी नीरवता में।

कि दो मन अब एक दूसरे में घुले जाते थे।


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