Thursday, 22 December 2022

विश्व कप फुटबॉल डायरी_08

 



अस्सी मिनट बनाम चालीस मिनट बनाम पेनाल्टी शूट आउट

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              अगर मैं शिक्षक होता तो अपने विद्यार्थियों को सिखाता कि जीवन का एक पर्यायवाची 'फुटबॉल का खेल' होता है और एक फुटबॉल मैच वो बाइस्कोप होता है जिससे केवल उस जीवन को देखा भर नहीं जाता बल्कि उसे महसूस भी किया जाता है। हर वो आदमी जिसने कल लुसैल स्टेडियम में विश्व कप फुटबॉल का फाइनल देखा होगा,इस बात की ताईद करता पाया जाएगा।

          आखिर ऐसा कौन सा संवेग बच रहा होगा जो इस मैच में दौरान देह मन ने अनुभव ना किया होगा, ज़िंदगी के वे कौन से पाठ रहे होंगे, जो ये एक मैच ना सिखा पाया होगा या वो कौन सा रंग होगा जो इस एक मैच ना बिखरा होगा। जिसने भी कल का फाइनल मैच देखा होगा,इससे अलग क्या सोच पा रहा होगा।

           बीती रात फुटबॉल विश्व कप के बीच अर्जेंटीना और पिछली चैंपियन फ्रांस के बीच खेला गया मैच 120 मिनट के बाद भी 3-3 गोल की बराबरी पर छूटा,तो निर्णय पेनाल्टी शूट आउट से हुआ और अर्जेंटीना फ्रांस को 4-2 से हराकर विश्व चैंपियन बना। ये अर्जेंटीना का तीसरा विश्व खिताब था।

           दरअसल इस मैच को तीन भागों में अलग करके देखा जा सकता है। एक,पहले 80 मिनट। दो, 30 अतिरिक्त मिनट सहित अंतिम 40 मिनट। तीन,पेनाल्टी शूटआउट। ये तीन भाग इस मैच के आरंभ, उत्कर्ष और समापन थे। 

           ये मैच दो अलग फुटबॉल शैलियों और तीन महाद्वीपों के बीच का मुकाबला था। एक तरफ दक्षिण अमेरिकी फुटबॉल  की कलात्मकता थी। दूसरी तरफ यूरोप की गति और शक्ति थी। उस गति और शक्ति में अफ्रीकियों की किसी भी परिस्थिति से हार ना माने की अदम्य जिजीविषा और अंतिम समय तक संघर्ष करने के हौंसले का समावेश था।

          पहले भाग में अर्जेंटीना किसी विश्व चैंपियन की तरह खेला। इस भाग में अर्जेंटीना का खेल कौशल अपने उठान पर था, जिसने यूरोपीय गति और शक्ति को हतप्रभ कर दिया। ये अर्जेंटीना का इस प्रतियोगिता का सबसे शानदार प्रदर्शन था। उनके मूव और उनके पासेस का खेल देखना अदभुत अनुभव था। गेंद पर नियंत्रण और पासेस की दिशा कमाल की थी। ऐसा लग रहा था मानो अर्जेंटीनी खिलाड़ी एक दूसरे के मष्तिष्क को पढ़ ले रहे हैं। वे किसी धुन पर थिरकते प्रतीत होते। एक लय में। एक अन्विति में। सम्मोहन बिखेरते हुए। सम्मोहित करते हुए। इस दौरान अगर अर्जेंटीना का आक्रमण धुन पर थिरक रहा था तो डिफेंस किसी चट्टान की तरह अडिग खड़ा था जिससे टकरा कर फ्रांसीसी गति और ताकत बेबस हुई जाती थी। इस भाग में अधिकांश समय खेल फ्रांस के हाफ और उसके बॉक्स के आसपास सिमट गया था। उनका कमिटमेंट अविश्वसनीय था। मानो वे ये दृढ़ प्रतिज्ञा करके आएं हों कि फीफा ट्रॉफी का अगला गंतव्य केवल और केवल ब्यूनस आयर्स ही होना है।

             अर्जेंटीना के सामने फ्रांस की टीम दोयम दर्जे की प्रतीत हो रही थी। पहले 80 मिनट में एमबापे के केवल 11 टचेज जो अब तक का सबसे कम थे। वे खेल से अनुपस्थित से थे। फ्रांस की असहायता इस बात से समझी जा सकती हैं कि इन 80 मिनटों में फ्रांस की टीम केवल एक बार वो भी 71वें मिनट में गोल पर शॉट ले सकी और एमबापे का ये शॉट टारगेट से बहुत ऊपर से निकल गया।

             इस प्रतियोगिता में अब तक फ्रांसीसी जीत के कर्णधार रहे ग्रीजमान,देम्बेले और थियो हर्नांडेज इस समय तक बाहर जा चुके थे और उनकी जगह थुरम, कोमेन और कमाविन्गा ले चुके थे। ये बदलाव दरअसल कलात्मकता और गति व ताकत के द्वंद्व में तीसरे आयाम का जुडना था। अब अफ्रीकी जज्बा और संघर्ष करने की अदम्य लालसा भी फ्रांसीसी टीम में समाविष्ट हो चुकी थी। मृतप्राय गति व ताकत में सब्सिट्यूशन से फिर से प्राण फूंके जा चुके थे। अब मुकाबला दक्षिण अमेरिका बनाम यूरोप से आगे बढ़कर दक्षिण अमेरिका बनाम यूरोप व अफ्रीका हो चुका था।

           अंतिम 10 मिनट बचे थे। अर्जेंटीना दो गोल से आगे था। उस की जीत लगभग पक्की मानी जा रही थी कि समय चक्र ने पलटा खाया।  क्या पता उस समय फ्रांस के खिलाड़ियों में मष्तिष्क में अपने महानायक नेपोलियन के वे शब्द भी गूंज रहे हों कि   'असंभव जैसा शब्द उनकी डिक्शनरी में नहीं होता।' जो भी हो 79वें मिनट में एक मौका मिला फ्रांस को। मौनी अर्जेंटीना के बॉक्स में अकेले गेंद के साथ थे। अर्जेंटीना के ओटामेंदी के पास गोल बचाने का उन्हें गिराने के अलावा कोई चारा नहीं था। फ्रांस को पेनाल्टी मिली और एमबापे का गोल नंबर 06 आया। मैच में जान आ गयी। एक मिनट बीतते बीतते एमबापे का गोल नंबर 07 आया और स्कोर 2-2 से बराबर।

             गति और जोश ने अर्जेंटीना की लय को भंग कर दिया था। अगले 09 मिनट एक तरह से अफरा तफरी के थे। जो लय टूट चुकी थी,उसे फिर से बांधने में और गति ने जो लय पकड़ ली थी, उसे रोकने के लिए अर्जेंटीना को भी समय चाहिए था। इसी अफरा तफरी में रेगुलर समय समाप्त हुआ। दोनों टीमों को नए सिरे से रणनीति बनाने का मौका मिला।

              अतिरिक्त समय का खेल अर्जेंटीना ने ठीक वहीं से शुरू किया जहां उन्होंने उसे 80वें मिनट में छोड़ा था। वे एक बार फिर लय में थे और फ्रांसीसी गति और ताकत कुछ हद तक दिशाहीन। 109वें मिनट में एक बार फिर मैस्सी ने गोल गेंद के अंदर की। ये मेसी का मैच का गोल नबर दो और प्रतियोगिता का गोल नंबर 07 था। एक बार फिर लगा अर्जेंटीना जीत चुका है। अब केवल 05 मिनट शेष थे। खेल खत्म हुआ ही चाहता था। पर नियति को ये मंजूर ना था। ये फ्रांस की किस्मत थी कि बॉक्स के अंदर मोन्टीएल की कोहनी में गेंद लगी और एक और पेनाल्टी फ्रांस को। एमबापे की हैट्रिक गोल नंबर 08 के साथ आई। अब स्कोर 3-3 बराबरी पर था। अगर 80 मिनट का पहला भाग इस मैच की प्रस्तावना थी तो  40 मिनट का ये भाग मैच का उत्कर्ष था जिसमें खेल का रुख दोनों और झुकता रहा।

               अब इस मैच का उपसंहार लिखा जाना था। प्रस्तावना में पहले ही लिखा जा चुका था मैच अर्जेंटीना का है। निष्कर्ष इससे भिन्न कहां होना था। पेनाल्टी शूट आउट में एक बार फिर अर्जेंटीना ने फ्रांस को, उसके भाग्य को और फिर से चैंपियन बनने की उसकी किसी भी संभावना को शूटआउट कर दिया था। अब 4-2 जीतकर अर्जेंटीना नया चैंपियन था।

             याद कीजिए 2018 के विश्व कप को। प्री क्वार्टर फाइनल में अर्जेंटीना का फ्रांस से खेलना तय पाया गया था। वो शनिवार का दिन था। तातारिस्तान की राजधानी कज़ान का कज़ान एरिना था। ये क़यामत की शाम थी जिसमें लोगों ने एक क्लासिक मैच देखा था। उन्होंने उम्मीदों के उफान को देखा था और उसे बहते हुए भी देखा था। ये भी दो महाद्वीपों के बीच मुकाबला था। ये फुटबाल की दो अलग शैलियों के बीच मुकाबला था। ये उम्मीदों की विश्वास से टकराहट थी। उम्रदराज़ों का युवाओं से सामना था। अनुभव जोश के मुक़ाबिल था। कलात्मकता रफ़्तार और शक्ति से रूबरू थी। जो मुकाबला मैदान में दो टीमों के बीच हो रहा था वो लाखों लोगों के लिए मेस्सी का फ्रांस से मुकाबला बन गया था। अगर लोग अर्जेंटीना को मेस्सी के लिए जीतता देखना चाहते थे तो खुद मेस्सी अर्जेंटीना के लिए जीतना चाहता था। मेस्सी ने अपना सब कुछ झोंक दिया। उसने कुल मिला कर दो असिस्ट किये। लेकिन अर्जेंटीना और जीत के बीच 19 साल का नौजवान एमबापा आ खड़ा हुआ। उसने केवल दो गोल ही नहीं दागे बल्कि एक पेनाल्टी भी अर्जित की। उसकी गति के तूफ़ान में अर्जेंटीना का रक्षण तिनके सा उड़ गया। मेस्सी का अर्जेंटीना 4 के मुकाबले 3 गोल से हार गया। लोगों की उम्मीदें हार गई। हताश निराश मेस्सी मैदान से बाहर निकले तो एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। मानो वे इस असफलता को पलटकर देखना ही नहीं चाहते थे। 

         लेकिन क्या ही स्वीट रिवेंज था ये। एक बार फिर मानो वही मुकाबला दोहराया जा रहा हो। बिल्कुल उस जगह से शुरू हो रहा हो,जहां कजान में खत्म हुआ था।  19 साल का टीनएजर अब 23 साल का गबरू जवान हो चुका था। एक बार फिर  वो फुटबॉल के देवता की राह  में रोडा बनने का दुस्साहस कर रहा था। उसने अपनी टीम के 05 में से 04 गोल किए। लेकिन इस बार देवता से,अनुभव से,अदम्य चाहना से वो हार गया। इस बार समय और नियति मैस्सी के साथ थी। हुनर के साथ थी। इस बार एमबापे उदास थे। और मैस्सी अपने हाथों में फीफा कप उठाए उसे चूमते जाते थे। दोनों किरदारों के रोल बदल गए थे।

              कला और क्लास के आगे ताकत और गति पस्त हो चुके थे। नियति अपना खेल दिखा चुकी थी। आप भले ही कहें नियति क्रूर होती है। लेकिन इतनी भी नहीं कि एक असाधारण प्रतिभा को, खेल के महानतम खिलाड़ी को और उसके जादूगर को उस सम्मान से,उस हक़ से महरूम रख सके जिस पर उसका हक बनता था। मैस्सी की झोली में अब एक विश्व कप ट्रॉफी थी। जिस कला का वो सर्वश्रेष्ठ व्याख्याता था,अब  वो उसके शिखर पर था। अधूरी इच्छाओं का एक देवता पूर्णत्व को प्राप्त हो चुका था। वे हाथों में फीफा कप लेकर उसे चूम रहे थे। वे कह रहे थे 'मैं इसे बेइंतेहा चाहता था। मैं जानता था कि ईश्वर ये मुझे देंगे। ये लम्हा मेरा है।' सच में वो मैस्सी का लम्हा था।

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दरअसल यही फुटबॉल है। यही खेल है। यही जीवन है। 

और हम हैं कि अर्जेंटीना के कुछ और ज़्यादा समर्थक हुए जाते हैं। कि मैस्सी को कुछ और ज़्यादा चाहने वाले हुए जाते हैं। कि फुटबॉल के कुछ और अधिक दीवाने हुए जाते हैं।


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