Sunday, 30 June 2024

टी-20क्रिकेट विश्व कप और भारत की जीत





कल रात खेल मैदान के दो सबसे पसंदीदा युग्म टूट रहे थे। एक दुःख का बायस दूसरा सुख का। एनबीए की गोल्डन स्टेट वॉरियर्स टीम सबसे पसंदीदा और स्टीफन करी व क्ले थॉमसन का युग्म सबसे प्रिय। क्ले थॉम्पसन अब वॉरियर्स छोड़ रहे हैं। एक शानदार जोड़ी टूट रही है। एक जादू खत्म हो रहा है। वॉरियर्स के लिए एक युग का समापन हो रहा है। इस जोड़ी ने बीते सालों में वॉरियर्स को चार बार चैंपियन बनाने में अहम भूमिका अदा की।

 लेकिन सुख की इस बेला में दुःख की बात क्यों। आज बात सबसे पहले विराट और रोहित के युग्म की,लेकिन अलग अलग। क्योंकि ये दोनों दो अलग अलग शैली और अप्रोच वाले खिलाड़ी हैं जो मिलकर एक असाधारण योग्यता वाला युग्म बनाते हैं। 

एक, कहावत है 'फॉर्म अस्थायी होती है, स्थायी होती है क्लास'। ये विराट ने एक बार फिर सिद्ध किया। विराट ने कल विश्व कप के फाइनल में एक शानदार पारी खेली। ये परिस्थिति के अनुरूप खेली गई अव्वल दरजे की पारी थी। दी गई परिस्थिति में इससे बेहतर पारी हो ही नहीं सकती थी। चाहे कितना भी टी-20 का खेल हो,आप हर बार दो सौ की स्ट्राइक रेट से रन नहीं बना सकते। खेल में गेंदबाज भी होते हैं और वे 'मिट्टी के माधो' तो नहीं ना होते। 












दरअसल विराट की ये पारी इसलिए भी हमेशा याद रखी जाएगी कि उन्होंने कोई लप्पेबाजी नहीं की,बल्कि शानदार क्लासिक क्रिकेटिंग शॉट्स खेल कर पूरी की। उनकी इस पारी ने बताया कि टी-20 के खेल में भी क्रिकेटिंग शॉट्स लगाकर पारी बिल्ट अप की जा सकती है और मैच जिताए जा सकते हैं। 

बेतरतीब लप्पेबाज़ी और हिटिंग से मरते क्रिकेट खेल वाले समय में विराट की क्रिकेटिंग शॉट्स और सेंस से बनी ये पारी किसी मधुर संगीत की तरह आने वाले लंबे समय तक कानों में गूंजती रहेगी और किसी शास्त्रीय नृत्य की तरह आंखों और मन को तृप्त करती रहेगी। भले ही आज के टी-20 फॉर्मेट के लिहाज से विराट का खेल अप्रासंगिक हो गया हो लेकिन इस फॉर्मेट में भी क्रिकेट की शास्त्रीयता और कलात्मकता बचाने के लिए विराट को लंबे समय तक याद किया जा सकता है।

और उनका टी 20 को विदा कहने का इससे शानदार अवसर और क्या हो सकता था। वे एक विश्व कप के फाइनल में जिताऊ मैन ऑफ मैच पारी खेलकर टी 20 को विदा कह रहे थे। ऐसा सौभाग्य कितने खिलाड़ियों के भाग्य में होता है। कितने खिलाड़ियों पर ईश्वर की ऐसी इनायत होती है। 

अब हम भी अब इस फॉर्मेट में विराट रखी गईं अपनी अपेक्षाओं को विदा करते हैं। लेकिन हमारी अपेक्षाएं जानती हैं और इसलिए सलामत भी हैं कि क्रिकेट के बाकी फॉर्मेट में विराट के बल्ले से अभी भी बहुत कुछ चमकीला,सरस,दर्शनीय और यादगार आना बाकी है।


दो, कहावत है पैसे से बहुत कुछ खरीदा जा सकता है लेकिन सब कुछ नहीं खरीदा जा सकता। पैसे से क्रिकेट टीम खरीदी जा सकती है,लेकिन क्रिकेटिंग सेंस नहीं खरीदा जा सकता। योग्यता का सम्मान करना नहीं सीखा जा सकता। सद्व्यवहार नहीं खरीदा जा सकता। दरअसल जिंदगी में कुछ चीजें खरीदी नहीं जाती बल्कि अर्जित की जाती हैं। और अर्जित करना हर के बूते की बात कहां होती है।

रोहित ने बताया वे एक शानदार नेतृत्वकर्ता करता हैं,लीडर हैं,नायक हैं। वे खुद आगे बढ़कर जिम्मेदारी लेते हैं और खिलाड़ियों को प्रेरित करते हैं। आइपीएल में भी वे मुंबई इंडियंस को चेन्नई सुपर किंग के समानांतर सबसे सफल टीम के रूप में खड़ा करते हैं और धोनी जैसे महान कप्तान की आंखों में आंखें डालकर बात करने का माद्दा रखते हैं। इसके बावजूद उन्हें कप्तानी से हटाने की बात मायोपिक सोच रखने वाला धनपशु ही सोच सकता है। दरअसल पैसा अक्ल की आंख पर पड़ी कैटरेक्ट की वो झिल्ली है जिससे लोगों को बड़े बड़े अक्षरों में लिखी इबारत भी साफ नहीं दीखती।

रोहित को कप्तानी से हटाकर उन्हीं के नायब को कप्तान बनाकर उन्हें बेइज्जत करने की कोशिश करने वाले रोहित को विश्व कप हाथ में उठाए देखकर अपने दुष्कर्म पर पानी-पानी जरूर हो रहे होंगे। और अगर नहीं हो रहे होंगे तो उन्हें होना चाहिए।

इस जीत ने रोहित को भी कपिल पाजी और धोनी भाई जैसे लीजेंड्स की श्रेणी में ला खड़ा किया है। ऐसी जीत किसी को भी अविस्मरणीय बना देती है। रोहित भी अब इतिहास के पन्नों पर सजे मिलेंगे। इस जीत के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाएगा। वे टीम के खिलाड़ी हैं। टीम के लिए खेलते हैं। हर स्वार्थ से परे। ये उन्हें औरों से अलगाती है। विशिष्ट बनाती है। सुंदर बनाती है। 

रोहित को एक विश्व विजेता टीम के कप्तान के रूप में तो याद किया ही जाना है। लेकिन इससे अधिक उन्हें एक दूसरी वजह से याद किया जाना चाहिए। उनके खिलंदड़ेपन के लिए। उनकी एमेच्योर अप्रोच के लिए। आज के खेल इस कदर फिटनेस फ्रीक, सिस्टेमेटिक, वैज्ञानिक अप्रोच वाले और तकनीकी हो गए हैं कि रोहित जैसे शरीर वाले खिलाड़ी अजूबे लगते हैं। 

 रोहित और उनके खेल की यही खूबसूरती है कि खेलों के प्रोफेशनल युग में एमेच्योर खिलाड़ी की तरह खेलते हैं। उनकी स्मित मुस्कान और खिलंदड़ापन ताजी हवा के झोंके का अहसास देती है। उनकी प्रयास रहित और स्वाभाविक बल्लेबाजी आंखों और मन के लिए किसी ट्रीट के कम नहीं। उनका एमेच्योर लुक और एफर्टलेस खेल सिक्स पैक वाली फिटनेस फ्रीक और शुष्क तकनीकी और वैज्ञानिक अप्रोच से विशाल रेगिस्तान बने खेल मैदान में किसी नखलिस्तान की तरह नमूदार होते हैं। वे डेविड बून और इंजमाम उल हक की परंपरा में आते हैं।


तीन
,जिस समय रोहित को ह्यूमिलेट करने का प्रयास किया जा रहा था ऐन उसी वक्त एक खिलाड़ी खेल और रोहित के चाहने वालों द्वारा हकीकत में ह्यूमीलेट हो रहा था। ये हार्दिक पांड्या थे। इस साल के पूरे आईपीएल सीजन में मुंबई के दर्शकों का शिकार बने रहे। उन्हें दर्शकों द्वारा लगातार बू किया जाता रहा। लेकिन मजाल उसके चेहरे पर शिकन आई हो। अपेक्षाओं के दबाव और ह्यूमिलेशन में ना तो उसका बल्ला चला और ना गेंद। पर योग्यता स्थायी होती है।      
इस विश्व कप में उनका बल्ला भी चला और गेंद भी बोली। जीत में उनका योगदान भी कम नहीं। आईपीएल के दौरान रोहित और हार्दिक के मनमुटाव की खबरें आ रही थीं। दरअसल चंडूलखाने की खबरों पर कान नहीं धरने चाहिए। रोहित ने सबसे ज्यादा भरोसा हार्दिक पर किया और सेमीफाइनल और फाइनल में आखरी ओवर कराया और वे उस भरोसे पर खरे उतरे। विश्व कप जीतने के बाद जब हार्दिक की आंखों से पानी बह रहा था उसमें जीत की खुशी की मिठास भर नहीं बह रही थी,बल्कि आईपीएल के दौरान मिले ह्यूमिलेशन का खारापन भी बह रहा था। उन्हें इस तरह देखना एक अनोखा अहसास था।

और हां याद आया, जिस समय  हार्दिक अपने कैरियर की उठान पर थे,उस समय लेखक पत्रकार अनुराग शुक्ल ने  हार्दिक को कपिल देव का वारिस बताते हुए उनकी प्रसंशा में एक पोस्ट लिखी थी। तब मैंने उनकी कटु आलोचना करते हुए एक लंबी टिप्पणी उनके कमेंट बॉक्स में लिखी थी कि 'कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली'। दरअसल ये दो अलग नजरिए की बात थी। वे हार्दिक की योग्यता की बात कर रहे थे और मैं कपिल के भारतीय क्रिकेट को समूचे योगदान की बात कर रहा था। आज जब हार्दिक ने अपने को एक शानदार ऑल राउंडर के रूप में स्थापित कर लिया है और इस विश्व कप को जिताने में बहुमूल्य योगदान किया है तो मुझे बरबस ही उस कठोर टिप्पणी पर खेद होता है। लेकिन सबसे उल्लेखनीय है ये है कि सोशल मीडिया पर फैली नकारात्मकता और असहिष्णुता के बावजूद भी अनुराग भाई ने  उस टीप को ना केवल बहुत ही सकारात्मकता से लिया बल्कि उस लंबी टीप को प्रसंशा के साथ एक स्वतंत्र पोस्ट के रूप में लगाई थी। ये एक बेहद सुखद अहसास था और है।


चार, भारत की ये जीत उस देवतुल्य खिलाड़ी की बात किए बिना कहां पूरी होगी जिसने चौकों छक्कों और रनों की बरसात वाले फॉर्मेट में रनों की अतिवृष्टि से टीम इंडिया को  अपनी गोवर्धन पर्वत सरीखी गेंदबाजी से ना केवल टीम को हार से बचाया बल्कि उसे उसके मुकाम तक पहुंचाया। ये जसप्रीत बुमराह हैं। वैसे तो पूरा क्रिकेट ही और विशेष रूप से टी-20 फॉर्मेट,उसके नियम और उसका पूरा एनवायरमेंट बल्लेबाजों का खुल्लमखुल्ला समर्थन करता है। और ऐसे विपरीत माहौल में कोई गेंदबाज अगर महफिल लूट ले जाता है और मैन ऑफ द टूर्नामेंट का खिताब उड़ा ले जाता है तो समझा जा सकता है उसने क्या कमाल किया है और जीत में उसका क्या योगदान है। जसप्रीत ने ना केवल फाइनल में शानदार गेंदबाजी की और क्रिटिकल समय पर विकेट निकाला बल्कि पूरे टूर्नामेंट में 4.2 रन प्रति ओवर की दर से गेंदबाजी की। आधुनिक क्रिकेट में इस औसत से गेंदबाजी करना वन डे तो क्या टेस्ट मैच में भी मुश्किल होता है। लेकिन बूमराह ऐसे ही खिलाड़ी हैं जो अपनी गेंद से अपने चाहने वालों के लिए एक सिंफनी रचते हैं और बल्लेबाजों के लिए एक दुस्वप्न बुनते हैं।

पांच,आपने एक कहावत सुनी होगी सौ सुनार की एक लुहार की। दक्षिण अफ्रीका के बल्लेबाजों के चौकों छक्कों की ढेर सारी चोटों पर सूर्याकुमार यादव ने अपने एक अविश्वसनीय और अद्भुत कैच से ऐसी चोट की जो लुहार की चोट साबित हुई। उन्होंने पूरी प्रतियोगिता के दौरान शानदार बल्लेबाजी की लेकिन फाइनल में वो नहीं चला। पर एक कैच भर से एक हार को जीत में बदल दिया। 360 डिग्री शॉट्स से ए बी डीविलियर होने का खिताब उन्हें मिल चुका है। ये कैच लेकर उन्होंने अपने को जोंटी रोड्स भी सिद्ध किया। क्या ही विडंबना है या संयोग है या फिर दुर्योग है कि विपक्षी टीम के दो लीजेंड्स के खिताब पाकर वे उन्हें ही परास्त कर देते हैं।

छह, बात ऋषभ पंत की वापसी की। उनकी अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में वापसी किसी चमत्कार से कम नहीं।  एक इतनी भीषण सड़क दुर्घटना से जिससे जीवन की वापसी भी चमत्कार से कम नहीं था,वहां खेल के मैदान में शानदार वापसी उनकी दुर्धुष जिजीविषा तो है ही, बहुतों के लिए प्रेरणा भी और जिंदगी की एक खूबसूरत शै भी। उनकी इस वापसी को टीम इंडिया की इस जीत से ख़ूबसूरत और अविस्मरणीय और क्या हो सकती है।

सात, और ये भी कि हर सफलता के पीछे खिलाड़ियों की अपनी योग्यता के साथ साथ एक गुरु का परिश्रम,लगन और उसका ज्ञान होता है। टीम द्वारा कोच राहुल द्रविड़ को इस विदाई बेला में इससे शानदार गुरु दक्षिणा और कुछ हो भी नहीं सकती थी।


ये वैयक्तिक कसीदे  इस बात की ताईद ना समझे जाएं कि ये जीत कुछ खिलाड़ियों के व्यक्तिगत प्रयासों की जीत है। ये एक टीम की, टीम के प्रयास की जीत है। उनके सामूहिक एफर्ट की जीत है। एकजुटता की जीत है। उनके ज़ज्बे की जीत है। जिस किसी ने भी रोहित को मैच के बाद मैदान से गुफ्तगू करते देखा सुना होगा,जिस किसी ने भी खिलाड़ियों की आंख से बहते आंसू देखे होंगे, वे समझते होंगे कि खिलाड़ी के जीवन में एक जीत क्या मायने रखती है। यहां 'कैप्टन कूल' के बरस्क 'कैप्टन इमोशनल' को देखिए। कौन सा अंदाज आपको भाता है।

जिस तरह एक जीत खिलाड़ियों के लिए मायने रखती है। एक हार भी खिलाड़ियों के लिए बिल्कुल वैसी ही तीव्रता वाली लेकिन विपरीत संवेदना और जज्बात वाली होती है। ये एक तयशुदा तथ्य है। ये वो समय होता है जब मन के भीतर मिश्रित भावनाओं का उद्रेक होता है। कभी खुशी कभी ग़म।
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दरअसल खेल ऐसे ही होते हैं। खेल अगर उसके दीवानों की भावनाओं से खिलवाड़ ना करें तो वे काहें के खेल।  (क्षमा केशव भाई)। खेल इतिहास को इस बात की सहूलियत देते हैं कि वो हारने वाले और जीतने वाले दोनों की गाथाएं लिखे। 

और तब इतिहास हारने वाले के आंसुओं पर नज़्म लिखता है, निराशाओं की आंधियों पर त्रासदी रचता है और खामियों पर पोथी। और ठीक उसी समय जीतने वालों की खूबियों पर आल्हा रच रहा होता है। उनकी जीत की खुशियों पर समंदर की लहरों से झूम झूम कर गाए जाने वाले तराने लिख रहा होता है और प्रशंसा में महाकाव्य। 

अब गाथाएं दोनों की लिखी जाएंगी। भारत की भी और दक्षिण अफ्रीका की भी। दोनो की झोली में कुछ आएगा ही। भारत को विश्व विजेता का तमगा मिलेगा और दक्षिण अफ्रीका के हिस्से चोकर्स होने का कलंक।

लेकिन है तो ये खेल का मैदान ही। तो क्यों ना हम किसी की हार में उतने ही सहभागी हैं जितने वे खुद। हम उनकी हार में उतने ही गमगीन हों जितने किसी की जीत से उल्लसित।

फिलवक्त जीत मुबारक।

Saturday, 29 June 2024

यूरो कप 02



कल यूरो कप 2024 का चौथा दिन। 

पहला मैच विश्व नंबर दो फ्रांस और ऑस्ट्रिया के मध्य था। फ्रांस की टीम 2022 के विश्व कप में एक रोमांचक फाइनल में अर्जेंटीना से हारकर विश्व चैंपियन बनने से चूक गई थी। लेकिन यहां सबसे फेवरिट टीम के रूप आई हैं जिसकी अगुवाई विश्व के सबसे तेजतर्रार स्ट्राइकर किलियन बापे कर रहे हैं और निर्देशन कोच डेशचैंप्स। वे एक खिलाड़ी और कोच के रूप में विश्व कप जीतने के बाद यूरो कप भी जीतने की चाहत लिए हुए हैं।

 दूसरी ओर ऑस्ट्रिया की टीम  इस समय विश्व रैंकिंग में 25वीं पायदान पर है। लेकिन वो अपने लगातार पिछले 070मैच जीतकर सातवें आसमान पर है और किसी भी अपसेट के लिए तैयार। उसके कोच राल्फ रेंगनिक ने टीम को मजबूत बनाया है और आत्मविश्वास से भर दिया है।

कई बार दूसरे हमें नहीं हरा पाते। हम खुद से हार जाते हैं। बेल्जियम स्लोवेनिया से इसलिए हार गया कि उसके अपने खिलाड़ी ड्यूका ने एक गलत पास के रूप स्लोवेनिया को गोल ही नहीं परोसा बल्कि उसको एक अप्रत्याशित जीत भी परोस दी। फ्रांस ऑस्ट्रिया मैच में भी ऐसा ही कुछ हुआ। फ्रांस कहां जीता। ऑस्ट्रिया हारा खुद से। फ्रांस बढ़िया खेला। पर ऑस्ट्रियाई रक्षण को नहीं भेद पाया। तब पहले हाफ के 37वें मिनट में कप्तान बापे ने बहुत तेज मूव बनाया और बाएं फ्लैंक से एक समानांतर पास बॉक्स में अपने साथी को देना चाहा। बीच में ऑस्ट्रिया का मैक्समिलियन वोबर ने हेडर से बॉल को क्लियर करना चाहा और बाल नेट ने उलझा दी। ये मैच का एकमात्र गोल था। इसके बाद फ्रांस ने बढ़त को दुगुना करने की भरसक कोशिश की। पर नतीजा कोई नहीं निकला। हां इस प्रयास में बापे अपनी नाक तुड़वा बैठे और कम से कम अगले दो मैच नहीं खेल पाएंगे। इतना ही नहीं यूरो कप में अपना पहला गोल करने के लिए कुछ और ज्यादा इंतजार करना पड़ेगा।

Thursday, 20 June 2024

गर्मी का मौसम और खेल की गर्मी

 




इस समय भारत में सूर्य देवता प्रचंड फॉर्म में हैं और गर्मी से जनता का हलाकान किए हुए हैं। और अपने देवता का अनुसरण करते हुए इंसान भी यूरोप से लेकर अमेरिका तक अपने खेल कौशल से कम गर्मी उत्सर्जित नहीं कर रहे हैं। 


               मेरिका में इस समय टी-20 चल रहा है। ग्रुप स्टेज पूरा हो चुका है। पाकिस्तान,न्यूज़ीलैंड और श्रीलंका बाहर हो चुके हैं। अफगानिस्तानी टीम क्रिकेट  की नई ताकत बनकर उभरी है।



पिच और मौसम से हाथ मिला गेंदबाजों ने बल्लेबाजों की गर्मी भले ही निकाल दी हो,लेकिन उन्होंने अपने तेवरों से माहौल गर्म किया हुआ है।

                                           

                 मेरिका में ही 21 जून से फुटबॉल की दुनिया की सबसे पुरानी और तीसरी सबसे ज़्यादा देखी जाने वाली प्रतियोगिता कोपा अमेरिका कप शुरू होने को है। निसंदेह ये प्रतियोगिता तापमान बढ़ाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ने वाली नहीं है। अर्जेंटीना और ब्राजील सहित अमेरिका,दक्षिण अमेरिका और मध्य अमेरिका की कुल 16 टीमें अपने खेल कौशल के प्रदर्शन के लिए तैयार हैं। 



              हीं पर एनबीए का ये सीजन अभी अभी खत्म हुआ है और उसके ताप को अभी अभी भी महसूस किया जा सकता है। बोस्टन सेल्टिक्स ने डलास मेवेरिक्स के 4-1 से हराकर 18वीं बार जीत दर्ज की है जो एनबीए इतिहास में सबसे ज़्यादा है।


              धर जर्मनी में फुटबॉल का पावर हाउस यूरोप की बेहतरीन 24 टीमों ने धमाल मचाना शुरू कर भी दिया। 15 जून को पहले दिन खेल गए तीन मुकाबलों में ठीक ठाक गोल हुए। मेजबान जर्मनी ने स्कॉटलैंड को 5-1 से, स्विट्ज़रलैंड ने हंगरी को 3-1 से और स्पेन ने क्रोशिया को 3-0 से हराया। तीन ल आसान मुकाबलों से प्रतियोगिता का आगाज़ हुआ।


लेकिन पहले दिन के आसान मुकाबले दूसरे दिन ही संघर्षपूर्ण मुकाबलों में तब्दील हो गए। वातावरण हीट अप हो चुका था। इटली ने अल्बानिया को और नीदरलैंड ने पोलैंड को 2-1 से हराया तो डेनमार्क ने स्लोवेनिया से 1-1 से ड्रा खेला।


तीसरे दिन मुकाबले आते आते अपसेट होना शुरू हो गए। रोमानिया ने यूक्रेन को ज़रूर 3-0 से हराया। इंग्लैंड सर्बिया को बमुश्किल 1-0से हरा पाया। लेकिन  स्लोवेनिया ने बेल्जियम को 1-0 से हराकर इस प्रतियोगिता का पहला उलटफेर किया।


स समय बेल्जियम विश्व नंबर 03 टीम है जिसमें लुकाकू, केविन डी ब्रुइन, ड्यूका जैसे शानदार खिलाड़ी हैं। लुकाकू आठ क्वालिफाइंग मुकाबलों में 15 गोल दागकर यहां आए थे, जो किसी भी अन्य खिलाड़ी से ज़्यादा थे।  जबकि स्लोवेनिया की टीम विश्व रैंकिंग में 48वें नंबर की टीम है जिसके पास कोई बड़ा नाम नहीं था। सबसे बड़ी बात ये थी कि 

रवरी 2023 में  डोमीनिक ट्रासेडो के कोच बनने के बाद से टीम 14 मैचों में से एक में भी नहीं हारी थी।


स एक मैच में सब कुछ था। दोनों टीमों द्वरा कुछ शानदार मूव,अच्छे खेल का मुजायरा, एक आत्मघाती पास,गोल,वीएआर द्वारा दो गोलों को नकारा जाना। एक ड्रामा पैक्ड मैच। घटनाओं से पूर्ण। 


मैच के सातवें मिनट में ही ड्यूका ने अपने ही बॉक्स में एक लूज पास दिया जिसे स्लोवालियन फारवर्ड इवान श्रांज़ ने लपक लिया और गेंद गोल में डाल दी। अब स्लोवाकिया एक शून्य की बढ़त ले चुका था। ये बढ़त अंत तक कायम रही और यूरो 24 का पहला अपसेट किया।


सा नहीं है कि बेल्जियम खराब खेला एआ स्लोवाकिया ने असाधारण खेल का प्रदर्शन किया। दरअसल आज बेल्जियम का दिन नहीं था। दूसरे हाफ में तो बेल्जियम का खेल पर पूरा नियंत्रण था। उसका गेंद पर 70 फसाद नियंत्रण रहा। गोल पर कई शॉट लिए। लेकिन उनकी फिनिश बहुत खराब  थी और भाग्य ने भी साथ नहीं दिया। लुकाकू ने दो बार गोल किए। लेकिन ये उनका और बेल्जियम का दुर्भाग्य की दोनों बार गोल वीएआर ने नकार दिए। पहला गोल ऑफ़साइड के कारण रद्द कर दिया गया तो दूसरा हैंड टच के कारण।


 रअसल बेल्जियम की ये हार 2022 के कतर विश्व कप की याद दिलाती है। वो एक फ़ेवरिट टीम के रूप में कतर आए थे। लेकिन बहुत खराब प्रदर्शन कर ग्रुप स्टेज से ही बाहर हो गये थे। वहां उन्होंने क्रोशिया से 0-0 से ड्रा खेला और मोरक्को से 0-2 से हार गए। एकमात्र जीत कनाडा के खिलाफ आई और ग्रुप में तीसरे स्थान पर रहे।


 देखना दिलचस्प होगा 'रेड डेविल्स'  आगे कैसा प्रदर्शन करते हैं। प्रतियोगिता में बने रहने के  लिए उन्हें अपने अगले दोनों मैच जीतने होंगे।

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ये यूरो कप की शुरुआत भर है रोमांच से भरपूर। आगे संघर्ष का ताप बढ़ेगा। आप तैयार रहिए। टी 20 विश्व कप का सुपर 08 स्टेज  शुरू होने को है और कोपा कप भी।

Wednesday, 12 June 2024

अलकराज

 



         ये रविवार की गहराती शाम है। पेरिस में फिलिप कार्टियर अरीना में फ्रेंच ओपन प्रतियोगिता के पुरुष एकल के फाइनल मैच में 4 घंटे और 19 मिनट के संघर्ष के बाद दो खिलाड़ी दो अलग अलग फ्रेमों में एक खूबसूरत दृश्य बना रहे हैं।


फ्रेम एक, 21 साल का युवा गहरे लाल रंग की बजरी पर लेटा है। उसकी टीशर्ट हरी है और पीला शॉर्ट। लाल,पीला और हरा ये तीन रंग मिलकर एक अद्भुत दृश्य बना रहे हैं। इन रंगों में लिपटे इस युवा की आंखें आनंद से मुँदी हैं। वो पीठ के बल लेटा बचपन से मन में संजोए अपने एक सपने को जी रहा है। बचपन के ये सपने इतने ही रंगों से भरे और इतने ही खूबसूरत होते हैं जितना ये फ्रेम दिख रहा है। आपका मन खुशी से पुलक पुलक जाता है।


फ्रेम दो, 27 साल का वरिष्ठ युवा सुफेद टीशर्ट और शॉर्ट्स में है और सूनी आखों से आसमां ताक रहा है। वे आंखें गहरे विषाद भारी हो रही हैं। ये आँखें बीच बीच में पानी से छलछला जा रही हैं। एक सपने के टूटने का नैराश्य उसके चेहरे पर इतना गहरा है कि उसका गौरवर्ण चेहरा स्याह सा लगने लगा है। आपका भी मन उसके विषाद से चटक चटक जाता है।


ये दो फ्रेम एक साथ मिलकर जो दृश्य बनाते हैं, आप निश्चय नहीं कर पाते कि उससे आप दुःख में हैं, कि खुश हैं। अवसाद और आनंद की मिली जुली ऐसी स्थिति आपके मन में इससे पहले कब आई होगी,याद करने की कोशिश कीजिए।


ऐसा बहुत कम होता है जब आप दो खिलाड़ियों या दो टीमों में किसी को भी हारते नहीं देखना चाहते। इस फाइनल में जर्मनी के अलेक्जेंडर ज्वेरेव और स्पेन के कार्लोस अलकराज आमने सामने थे। आप दोनों को जीतते देखना चाहते हैं। पर ऐसा होता है क्या! पर विडंबना इसी को तो कहते हैं।


 इन दोनों का ही बहुत कुछ इस फाइनल में दांव पर लगा था।


ज्वेरेव का ये दूसरा ग्रैंड स्लैम फाइनल था। इससे पहले वे 2020 में यूएस ओपन के फाइनल में पहुंचे थे और फाइनल में जीत से दो अंक ही दूर थे कि जीतते जीतते डोमिनिक थिएम से हार गए थे। यहां वे एक बार फिर अपना पहला ग्रैंड स्लैम जीतने के लिए खेल रहे थे। 


एक अंतरराष्ट्रीय टेनिस खिलाड़ी के लिए पहला ग्रैंड स्लैम खिताब सबसे बड़ी चाहना होती है। और 'पहला' शब्द तो अपने आप में होता ही है खासा रूमानी। बिल्कुल वैसे ही जैसे पहली बारिश से उठती माटी की सौंधी सुगंध या पहले प्यार की मदहोशी। वे 'पहली जीत' के ऐसे ही अहसास से रूबरू होने की चाहना लिए मैदान में थे।


उधर अलकराज का ये तीसरा ग्रैंड स्लैम फाइनल था। दो ग्रैंड स्लैम टाइटल उनके पास पहले से थे। लेकिन फ्रेंच ओपन की इस लाल मिट्टी पर वे पहली बार फाइनल खेल रहे थे। उन्होंने बचपन से एक सपना देखा था। वे अपना नाम अपने देश के उन खिलाड़ियों में शुमार कराना चाहते थे जिन्होंने इस लाल मिट्टी को फतेह किया था। वे अपने देश की उस परंपरा के वाहक बनना चाहते थे जिसे सात अलग अलग खिलाड़ियों ने जारी रखा था और निःसंदेह इस सूची में नडाल सबसे ऊपर हैं जिन्होंने यहां 14 खिताब जीते हैं। नडाल बालक अलकराज के आदर्श थे। जिनके मैच देखने के लिए ये बालक मार्सिया में हर साल मई जून  माह में स्कूल से जल्द जल्द घर भागते हुए बड़ा हो रहा था।


दोनों खिलाड़ियों के लिए ये फ्रेंच ओपन खिताब महज एक जीत भर नहीं थी या एक खिताब पा लेना भर नहीं था। ये एक सपने का पूरा होना भी था। एक चाहत को पा लेना था। जाहिर है दोनों इस अवसर को जाया नहीं होने देना चाहते थे। कड़ा संघर्ष होना लाज़मी था। और हुआ भी।


मैच का निर्णय 4 घंटे 19 मिनट के कड़े संघर्ष के बाद 5 सेटों में हुआ। 6-3, 2-6, 5-7, 6-1, 6-2 स्कोर के साथ बाज़ी अलकराज के हाथ लगी। उनका सपना पूरा हुआ। ज्वेरेव का टूट गया। ये फाइनल मैच भले ही खेल की चरम ऊंचाई पर ना पहुंचा हो,लेकिन किसी ग्रांड स्लैम का फाइनल जैसा होना चाहिए था,वैसा ही था।


ज्वेरेव यहां बेहतर तैयारी के साथ आए थे। वे इटेलियन ओपन जीतकर और मेड्रिड ओपन फाइनल खेल कर आये थे। यहां वे क्ले पर अपनी सबसे शानदार टेनिस खेल रहे थे। इसके विपरीत अलकराज की बांह में चोट के चलते किसी भी बिल्ट अप क्ले कोर्ट प्रतियोगिता में नहीं खेल पाए थे। वे केवल मेड्रिड ओपन में खेल पाए जहां क्वार्टर फाइनल में अलियासिमे से हार गए थे।


      ये फाइनल मुकाबला अलग पीढ़ियों के दो बेहतरीन और लगभग समान प्रतिभा वाले खिलाड़ियों के बीच था। दोनों इस प्रतियोगिता में शानदार खेलकर फाइनल तक पहुंचे थे। अलकराज नंबर 01 सिनर को 5 सेटों के संघर्ष पूर्ण मुकाबले में हराकर यहां आए थे, तो ज्वेरेव क्ले के मास्टर कैस्पर रड को चार सेटों में हराकर फाइनल में पहुंचे थे। 


दोनों के पास अपने-अपने प्लस और माइनस थे।अगर ज्वेरेव के तरकश में कई साल अधिक खेलने का अनुभव, बंदूक की गोली सी तीव्र गति की सर्विस और झन्नाटेदार तेज फोरहैंड व बैकहैंड शॉट थे तो अलकराज के पास दो ग्रैंड स्लैम खिताब से मिला आत्मविश्वास,युवा जोश,दमखम और चपलता थी। पिच पर तेजी से स्लाइड और स्किड करने और बहुत तेजी से एक तरह के  शॉट से दूसरी तरह के शॉट मारने और शॉट्स के एक कोण से दूसरे कोण में बदलने की महारत थी।


ज्वेरेव के पास पहले खिताब जीतने की ललक से उपजी नर्वसनेस थी। पत्नी के साथ घरेलू हिंसा के मुकदमे का दबाव भी माइनस के तौर पर थे। उधर अलकराज के पास फोरहैंड मारने में बेजा गलती करने की आदत और फोरआर्म की चोट उभरने का खतरा बरकरार था।


      ये एक बराबरी का मुकाबला था। जो 5 सेटों तक चला। अगर टेनिस में कोई भी मुकाबला 5 सेट तक खिंचे तो सहज ही समझा जा सकता है कि मुकाबला दो बराबरी के प्रतिद्वंदियों के मध्य ही है।


अलकराज लेट स्टार्टर हैं। वे धीरे धीरे रफ्तार पकड़ते हैं। लेकिन यहां उन्होंने जल्द रफ्तार पकड़ी और पहला सेट 6-3 से जीत लिया। लेकिन अगले सेट में ज्वेरेव ने अपनी तेज गति से अलकराज को हतप्रभ करते हुए सेट 6-2 से जीतकर बराबरी कर ली। अब मैच संघर्षपूर्ण हो चला। तीसरा सेट बराबरी का था। दोनों पांच पांच गेम्स की बराबरी पर थे कि अलकराज ने कुछ बेजा गलती की और सर्विस ब्रेक करवा बैठे और सेट भी 5-7। ज्वेरेव अब जीत के ज़्यादा करीब थे। लेकिन तभी अलकराज अपनी फॉर्म में आए। उन्होंने कुछ अच्छी टेनिस खेली। उनके दमखम ने अपनी भूमिका अदा की। ज्वेरेव थके से लगे। जबकि अलकराज अपनी पूरी दमखम के साथ खेले और अगले दो सेट 6-1 और 6-2 से जीतकर अपना तीसरा ग्रैंड स्लैम जीतकर अपने नाम किया।


एक का सपना सच होकर उसके गले का हार बन गया। दूसरे का टूटकर बिखर गया। आंसू दोनों की आंखों से बहे। एक के खुशी बनकर टपके दूसरे दुख बनकर बहे।


कोई एक ग्रैंड स्लैम जीत पाना किसी भी टेनिस खिलाड़ी के लिए निसंदेह एक बड़ी उपलब्धि होती है। लेकिन पुरुष टेनिस में रोजर फेडरर,राफेल नडाल और नोवाक जोकोविक ने श्रेष्ठता के मानक इतने ऊंचे कर दिए हैं कि एक क्या,दो चार ग्रैंड स्लैम जीतना भी अब बड़ी उपलब्धि नहीं लगता। 


अगर किसी और खिलाड़ी को उनकी कतार में खड़े होना है तो उसे अपने खेल और उपलब्धियों से एक बड़ी लकीर खींचनी पड़ेगी। अलकराज जब ये जीत हासिल कर रहे होते हैं तो निसंदेह बड़ी नहीं तो उनके बराबरी की लकीर तो खींच ही रहे होते हैं और टेनिस लीजेंड की श्रेणी में खड़े हो रहे होते हैं। वे टेनिस की तीन सतहों पर तीन ग्रैंड स्लैम जीतने वाले सबसे कम उम्र के खिलाड़ी बनते हैं। और क्या ही कमाल है कि ऐसा वे अपने आदर्श राफेल को ही पीछे छोड़ते हुए करते हैं। राफेल जब ऐसा कर रहे थे तो वे 22 साल के थे और अलकराज से एक वर्ष ज़्यादा उम्र के।


 अभी तक तीनों सतह पर ग्रैंड स्लैम जीतने वाले कुल जमा 6 ही खिलाड़ी हैं-जिमी कॉनर्स, आंद्रे अगासी, मैट्स विलेंडर,रोजर फेडरर, राफेल नडाल और नोवाक जोकोविक। अब सातवें  भी है-अलकराज। ज़ाहिरा तौर पर वे ऐसा सबसे कम उम्र में कर रहे थे। तभी अपने प्रेजेंटेशन वक्तव्य में ज्वेरेव उनके लिए कहते हैं 'ये(अलकराज का) पहले से ही विस्मयकारी कैरियर है। तुम पहले से ही हॉल ऑफ फेम में शुमार हो। तुम इतनी अधिक उपलब्धियां हासिल कर चुके हो और अभी केवल 21 साल के हो।'


       ये फाइनल टेनिस इतिहास के सबसे संघर्षपूर्ण, शानदार और उच्चकोटि के टेनिस के एक कालखंड के समापन की और संकेत भी करता है। 2004 के बाद 20 सालों में ये पहला अवसर था जब फाइनल में राफा,नोवाक और फेडरर में से कोई भी नहीं था। फेडरर रिटायर हो चुके हैं। राफा पहले दौर में हार गए। उनका कैरियर लगभग समाप्त प्रायः है। नोवाक में अभी दम और काबिलियत है। वे अभी भी ग्रैंड स्लैम जीतने की क्षमता रखते हैं। लेकिन क्षमता होने के बावजूद नई युवा पीढ़ी की इस खेप से अब वे पार पा पाएंगे, इसमें संदेह लाज़िमी है।


फाइनल में अलकराज की जीत एक और विडंबना को उजागर करती है। अलकराज,सिनर,रड जैसे नए और नोवाक, राफा और फेडरर के बीच भी मेदवेदेव, सिटसिपास, ज्वेरेव,थिएम जैसे खिलाड़ियों की एक पीढ़ी है जो इन दो पीढ़ियों के बीच सैंडविच बन गई और लगभग बिना उपलब्धियों के बीत गई या बीत रही है।

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जो भी हो ये फाइनल एक टेनिस में एक नए युग का आरंभिक बिंदु साबित हो सकता है। जहां से अब नई पीढ़ी की प्रतिभा का जलवा और कुछ नई प्रतिद्वंद्विताओं का संघर्ष देखने को मिलेगा,ये तय है। अलकराज अभी 21 के हैं। वे राफा के जूते में पैर रख चुके हैं और सफलता के शिखर की और अग्रसर हैं।


अलकराज को ये तीसरी जीत मुबारक।


इगा स्वियातेक




 ये 2024 का फ्रेंच ओपन का महिला सिंगल का फ़ाइनल मैच था और फ़िलिप कार्टियर अरीना में फैले रंग ही मानो मैच की कहानी बयां कर रहे हों. इगा स्वियातेक गहरे लाल और नीले रंग की ड्रेस में थीं जबकि उनकी प्रतिद्वंद्वी जैस्मिन पाओलिनी हल्के लेमन येलो स्कर्ट और लेमन व्हाइट शर्ट में खेल रही थीं.

आज स्वियातेक के खेल में सागर-सी गहराई थी और उनके शॉट्स आग उगल रह थे. इसके विपरीत पाओलिनी का खेल फीका और नीरस. अपने शानदार आक्रामक खेल से स्वियातेक ने इस प्रतियोगिता की जॉइंट किलर पाओलिनी को निस्तेज कर दिया और आसानी से 6-2, 6-1 से हराकर लगातार तीसरा फ्रेंच ओपन जीत लिया.

आज पहले पाओलिनी मैदान में आईं और उनके पीछे स्वियातेक. वे दोनों ही मुस्कुराते हुए मैदान में दाख़िल हो रही थीं. ये उनके बीच की पहली समानता थी. उनके बीच एक समानता और थी. वे दोनों ही पोलिश भाषा बोलती हैं. इसके अलावा उन दोनों के बीच कुछ भी समान नहीं था.

स्वियातेक कोई भी ग्रैंड स्लैम नहीं हारी थीं और पाओलिनी कोई फ़ाइनल खेली ही नहीं थीं. स्वियातेक चार ग्रैंड स्लैम जीत चुकी थीं और पाओलिनी इस साल से पहले केवल चार ग्रैंड स्लैम मैच ही जीती पाई थीं. कद काठी में भी ख़ासा अंतर था. पाओलिनी पांच फीट चार इंच की दरम्याने कद की हैं तो स्वियातेक पांच फीट नौ इंच लंबी. पाओलिनी 28 साल की हैं तो स्वियातेक अभी कुल 23 साल की. पाओलिनी ‘लेट ब्लूमर’ हैं जिन्होंने काफी देर से शोहरत पाई जबकि स्वियातेक 19 साल की उम्र में अपना पहला ग्रैंड स्लैम जीत चुकी थीं.

मैच की शुरुआत पाओलिनी ने बेहतरीन की. उन्होंने क्वार्टर फ़ाइनल में चौथी सीड रिबाकिना को हराया था और सेमीफ़ाइनल में युवा अन्द्रीवा को. वे उत्साह से लबरेज़ थीं. उन्होंने अपना पहला सर्विस गेम जीतकर स्कोर 1-1 बराबर किया और फिर अगले ही गेम में स्वियातेक की सर्विस ब्रेक की और 2-1 की बढ़त ले ली. लगा पाओलिनी अपनी उस लय में हैं जिसने उन्हें यहां तक पहुंचाया था. लेकिन इस ब्रेक ने मानो सोई शेरनी को जगा दिया हो. स्वियातेक ने अगला गेम शून्य से जीतकर स्कोर 2-2 बराबर किया और उसके बाद उन्होंने पाओलिनी को कोई मौका नहीं दिया. दो और सर्विस ब्रेक कीं और पहला सेट 6-2 से जीत लिया. वे इतने पर ही नहीं रुकीं. अगले सेट में लगातार दो सर्विस ब्रेक कर स्कोर 5-0 किया. तब कहीं पाओलिनी एक गेम जीत सकीं. दूसरा सेट स्वियातेक ने 6-1 से जीतकर लगातार तीसरा और कुल चौथा फ्रेंच ओपन ख़िताब जीत लिया.

इगा को केवल गति से ही हराया जा सकता था. पाओलिनी के पास शानदार तीव्र गति और टॉपस्पिन वाले फोरहैंड शॉट्स थे. जिसकी वजह से वे फ़ाइनल तक पहुंची थीं. लेकिन आज वे उस तरह के शॉट्स नहीं खेल सकीं. इसके विपरीत स्वियातेक के पास शानदार टॉपस्पिन शॉट्स हैं वे चाहे फोरहैंड हों और चाहे बैकहैंड. पाओलिनी से कहीं बेहतर. ठीक वैसे ही जैसे नडाल के पास हैं. ये बेहतरीन टॉपस्पिन राफ़ा को भी क्ले कोर्ट पर अजेय बनाती है और स्वियातेक को भी.

स्वियातेक की चैंपियनशिप पॉइंट के लिए सर्विस को जैसे ही पाओलिनी ने बाहर मारा स्वियातेक घुटनों के बल बैठ गईं. उनके नीचे लाल रंग की मिट्टी आग से प्रतीत होती थी जो उनकी गति और चपलता से कुछ अधिक गहरी लाल हो चली थी. मानो क्वीन ऑफ़ क्ले के तेज से दहक रही हो. प्रेजेंटेशन वक्तव्य में उनकी प्रतिद्वंद्वी पाओलिनी स्वियातेक के लिए कह रहीं थीं ‘यहां तुम इस खेल की कठिनतम चुनौती हो’. निःसंदेह सेरेना के बाद की वे सबसे बड़ी खिलाड़ी हैं.

सुनील छेत्री

 



समय गौधूलि। दिन गुरुवार। दिनांक 6 जून। सन 2024।  स्थान भारतीय फुटबॉल का मक्का कोलकाता का बिबेकानंद जुबा भारती क्रीडांगन स्टेडियम। मने सॉल्ट लेक स्टेडियम।


इस स्टेडियम के भीतर शोर 120 डेसीबल हुआ जाता है। 68 हज़ार से भी ज़्यादा दर्शक उत्साह के चरम पर हैं। एक नीला समुद्र उमड़ आया है। लेकिन जैसे यहां का मौसम गरम होते हुए भी आर्द्रता से सीला सीला हुआ जाता है,वैसे ही दर्शक उछाह के उच्चतम बिंदु पर होने के बावजूद विदाई की करुणा से भीग रहे हैं। 


वे भारतीय फुटबॉल के एक युग के समापन के साक्षी बन रहे हैं।  


 आज इस शहर में एक नहीं दो सूरज अस्त हो रहे हैं। एक वो जो साल्ट लेक स्टेडियम की दीवारों से परे पश्चिम दिशा में विलीन हुआ जाता है। और एक वो जिसका स्टेडियम के भीतर 110 × 70 मीटर के मैदान में 90 मिनट में अवसान हुआ जाता है।


वे 19 साल से भारतीय फुटबॉल के सिरमौर बने भारतीय फुटबॉल के सबसे चमकदार सितारे को राष्ट्रीय टीम से खेलते हुए अंतिम बार देख रहे हैं।

भारतीय राष्ट्रीय फुटबॉल के कप्तान और सबसे शानदार फारवर्ड सुनील छेत्री अपना अंतिम मैच विश्व कप क्वालीफ़ायर में कुवैत के विरुद्ध खेल रहे हैं।


भारतीय टीम के लिए आज का मैच किसी जलसे से कम नहीं। उसके खिलाड़ी नई जर्सी पहने हुए हैं। ये क्लासिक ब्लू रंग की जर्सी है जिसमें फेडेड लायन स्ट्राइप्स बनी हैं। भारतीय फुटबॉल संघ और स्टारमैक्स एक्टिववियर ने खास इस मौके के लिए बनाया है। 


खिलाड़ियों से लेकर दर्शक तक एक ही भावना से ओतप्रोत हैं 'हमारी दहाड़ सुनो'(hear us roar)। मैच शुरू हो गया है। जैसी शुरुआत भारतीय चाहते थे, वैसी हुई नहीं। बॉल उनके हाथ लग ही नहीं रही है। लेकिन जैसे ही भारतीय खिलाड़ी गेंद को छू भर लेते हैं स्टेडियम गूंज उठता है। 12वें मिनट में भारतीय खिलाड़ी एक मूव बनाते हैं और कॉर्नर अर्जित करते हैं। अनवर अली बॉक्स से शानदार हैडर लगाते हैं, पर बॉल गोलपोस्ट से कुछ ऊपर से चली जाती है। अपने हीरो की शानदार विदाई का ये मैच का सबसे अच्छा अवसर था। पर मौका हाथ से फिसल जाता है।


अंततः मैच बिना गोल के अनिर्णीत समाप्त हो जाता है। जैसी विदाई सुनील छेत्री की होनी चाहिए, वैसी हो नहीं पाती। लेकिन इससे फर्क क्या पड़ता है। इससे उसकी महानता कम तो नहीं हुई जाती। उसका चमकदार कैरियर तो फीका नहीं हुआ जाता। कहां कुछ फर्क पड़ता है उसके साथी खिलाड़ियों पर और स्टेडियम में मौजूद 68 हज़ार दर्शकों पर।


 मैच खत्म हो गया है पर वे अभी भी डटे हैं।


सुनील अब मैदान के चारों और चक्कर लगा रहे हैं अपना आभार प्रकट करने के लिए और स्टेडियम 'छेत्री छेत्री' के गहरे शोर में डूब जाता है। उसके साथी दो कतार में खड़े उसका इंतजार कर रहे हैं। अब वे उसे गार्ड ऑफ ऑनर दे रहे हैं। सुनील के भीतर का बच्चा है कि किलक किलक जाता है। वे रोने लगते हैं। ये वो ही बालक है जिसे के लिए वे कहते हैं कि 'मेरे भीतर एक बच्चा है जो अभी और फुटबॉल खेलना चाहता है।' वो बच्चा मचल उठा है। अभी और फुटबॉल खेलना चाहता है। पर निर्णय लेने पड़ते हैं। वे खिलाड़ियों की दो पंक्तियों के बीच से आगे बढ़ते हैं। एक बार फिर हाथ जोड़ते हैं। और  फिर अदृश्य हो जाते हैं। एक सूरज दिन की यात्रा करके क्षितिज पार जा चुका है। एक सूरज अपना कैरियर पूरा कर मैदान की साइड लाइन के पार दर्शकों की भीड़ के बीच ओझल हो चुका है।  

 

फुटबॉल के एक युग का अवसान हो गया है।


वो सबकी आंखों से ओझल ज़रूर हो गया है लेकिन अपने पीछे एक ऐसी लीगेसी छोड़ गया जिसकी बराबरी कहां कोई कर पायेगा। एक ऐसी लीगेसी जिस पर वो खुद गर्व कर सकता है और हर भारतीय फुटबॉल का चाहने वाला भी।


2005 में पाकिस्तान के विरुद्ध 20 साल के युवा सुनील ने अपने अंतरराष्ट्रीय कैरियर की शुरुआत  की थी और अपना पहला गोल भी। उसके बाद उसने कहां पीछे मुड़कर देखा। अपने घोर अनुशासन, लगन और अभ्यास से  वो गोल मशीन बन जाता है। उसके पैर का जादू उसे मिले पास को गोल में तब्दील कर देता है। वो अपने कैरियर में कुल 94 अंतरराष्ट्रीय गोल करता है। ये केवल और केवल तीन खिलाड़ियों से कम है। रोनाल्डो,ईरान के अली देइ और मेस्सी से।


 1983 में  भारत क्रिकेट का विश्व कप जीत रहा होता है। क्रिकेट आशातीत रूप से लोकप्रियता हासिल कर रहा होता है और एक एलीट खेल से आम आदमी का खेल बन रहा होता है। हॉकी व फुटबॉल जैसे लोकप्रिय खेल नेपथ्य में चले जाते हैं। एक साल बाद 1984 में सिकंदराबाद में एक सैन्य अधिकारी के घर सुनील छेत्री का अवतरण होता है। उसे फुटबॉल की लीगेसी प्राप्त होती है। उसके पिता सेना की टीम के लिए फुटबॉल खेल रहे होते हैं और मां नेपाल की टीम के लिए। उस समय जब बच्चे क्रिकेट की ओर भाग रहे होते हैं,कान्वेंट में पढ़ने वाला ये बालक फुटबॉल को चुनता है और सफलता की नई परिभाषा गढ़ता है।


वो दार्जिलिंग में फुटबॉल का ककहरा सीखता है। मोहन बागान से 2002 में क्लब से कैरियर की शुरुआत करता है। और फिर जेसीटी फगवाड़ा होते हुए अंततः बंगलुरू एफसी से जुड़ जाता है। क्या ही कमाल है आरसीबी का विराट उसका सबसे अच्छा दोस्त होता है। दोनों अपने अपने फन  के उस्ताद खिलाड़ी। फिटनेस फ्रीक,बेहद लगनशील और बेहद अनुशासित भी।


बेंगलुरु जो क्रिकेट का गढ़ है,उसमें सुनील फुटबॉल का परचम लहराता है। जिस शहर में विराट कोहली का डंका बज रहा हो उसी शहर में वो खुद भी लोकप्रियता हासिल करता है। ये सुनील का ही कमाल है कि वो एक आमजन के खेल को एलीट क्लास में भी लोकप्रिय बना देता है।


पुराने समय की फुटबॉल के बाद जिस नई फुटबॉल के पहले स्टार बाइचुंग भूटिया होते हैं, उसके सुनील छेत्री सुपर स्टार बन जाते हैं। भले ही हमारे पास कोई मेस्सी,रोनाल्डो,बापे या हॉलैंड ना हो लेकिन आप गर्व कर सकते हैं कि आपके पास सुनील छेत्री है। हमारा रोनाल्डो भी सुनील है और मेस्सी भी। 


भले ही अब राष्ट्रीय टीम में ना दिखाई दो पर तुम हमारे 'सोनार सोनील' हो और हम 'तोमि हृद माजरे राखबो।'


लव यू सुनील। लव यू छेत्री।

हसबैंड ऑन ड्यूटी'




 दो महीने पहले खरीदी गई विपिन भाई की किताब 'हाउस हसबैंड ऑन ड्यूटी'आज पढ़ी जा सकी। अब दो बातें - एक लेखक के बारे में। दूसरी किताब के बारे में।


एक,लेखक उस समाज और  वर्ग से आता है जहां पितृसत्ता की जड़ें बहुत गहरी और मजबूत हैं। जहां एक ग्लास पानी स्वयं से लेकर पीना मर्द के लिए अपमानजनक होता है। जहां लड़कों के लिए 'लड़की की तरह रोता है' एक शर्मनाक वाक्य है और 'घर जवांई' शब्द एक गाली। ऐसे में एक लड़के के लिए अपनी नौकरी छोड़कर घर की जिम्मेदारी ओढ़ लेना और पत्नी को नौकरी करने देना कितनी बड़ी और साहस की बात उनके लिए रही होगी इसे समझा जा सकता है। विपिन धनकड़ ने ना केवल हाउस हसबैंड होना चुना बल्कि उससे उपजे अनुभव सबसे साझा किए। ये इतनी ख़ूबसूरत  बात है कि उनके इस जैस्चर पर कई स्त्री विमर्श फीके पड़ सकते हैं।


दो,जब किताब पढ़ेंगे तो एक बारगी को लगेगा कि अरे इतने साधारण से किस्से। लेकिन ये साधारणता ही इस पुस्तक की असाधारणता है। ये किस्से हमारी रोजमर्रा जिंदगी के वे खूबसूरत क्षण हैं जिन्हें हम अक्सर पकड़ नहीं पाते। महसूस नहीं कर पाते। जी नहीं पाते। जबकि होते सबके पास हैं। लेकिन विपिन ने उन लम्हों को भोगा, महसूस किया, जिया और फिर हूबहू कागजों पर उतार दिया। वे बढ़िया किस्सागो हैं। कहन की रोचक शैली है। साथ ही आसपास के घटित होने पर एक पत्रकार की सूक्ष्म दृष्टि भी।  यहां वे नाममात्र के हाउस हसबैंड नहीं होते बल्कि वास्तविक रूप से घर की सारी जिम्मेदारी उसी निष्ठा और ईमानदारी से निभाते हैं जितना कि एक स्त्री। ये सुंदर बात है कि वे उन जिम्मेदारियों को निभाते हुए  लगातार इस बात को महसूस करते हैं और अभिव्यक्त करते हैं कि एक स्त्री के लिए हाउसवाइफ का किरदार कितना कठिन और जिम्मेदारी का होता है और फिर भी वे उसे कितनी सहजता से निभाती जाती हैं। उनके सूक्ष्म से सूक्ष्मतर ब्यौरे उनकी बात को प्रामाणिक बनाते हैं।


एक साधारण गृहस्थ के साधारण जीवन के साधारण लेकिन रोचक किस्सों की एक उम्दा पुस्तक है 'हाउस हसबैंड ऑन ड्यूटी'।

ज़रूर पढ़ें।



विनम्र विद्रोही

 



आकाशवाणी में जिन बहुत ही प्रतिभाशाली युवाओं के साथ काम करने का अवसर मिला उसमें से एक है मेहेर वान राठौर। उनसे पहली मुलाकात आकाशवाणी इलाहाबाद में हुई जब वो युववाणी के प्रस्तुतकर्ता के रूप में आकाशवाणी से जुड़े। वे मितभाषी थे लेकिन उनका सहज,सरल और सौम्य व्यवहार किसी को भी अपनी और आकर्षित करता था। ये बात काबिलेगौर है कि मितभाषी होने के बाद भी उन्होंने रेडियो पर बोलने के कार्य का चयन किया।


 दरअसल वो बंदा ही ऐसा था जो लीक से हटकर और चुनौतीपूर्ण कार्य पसंद करता था। इलाहाबाद आने वाला लगभग हर छात्र सरकारी नौकरी हेतु प्रतियोगिताओं की तैयारी करता है। लेकिन मेहेर वान इलाहाबाद आए उन थोड़े से अपवादों में से एक थे जिनका लक्ष्य प्रशासनिक सेवाओं में चयनित होना नहीं था। उनका विज्ञान से लगाव ज़ाहिर था और शोध कार्य कर रहे थे। अगर मैं सही हूँ तो ये कार्य वे अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध कर रहे थे। एक अर्थ में वो स्वयं 'विनम्र विद्रोही' थे।


ये उन दिनों की बात है जब भारत में पहचान पत्र 'आधार कार्ड' की शुरुआत हुई ही थी । मेहेर वान ने उस समय पहचान पत्र पर एक बहुत ही शानदार शोधपरक पुस्तक लिखी थी जिसमें दुनिया के करीब करीब हर देश के पहचान पत्रों के साथ-साथ भारत की इस महत्वाकांक्षी योजना के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दी गयी थी। क्योंकि मेहेर वान की रुचि विज्ञान अनुसंधान और उसके प्रचार प्रसार में थी तो एक तरफ तो वो इलाहाबाद से आईआईटी खड़गपुर में नैनो टेक्नोलॉजी में रिसर्च करने गए और दूसरी ओर विज्ञान से संबंधित विषयों पर लेखन और अनुवाद करने लगे। उनके जो महत्वपूर्ण कार्य हैं उनमें आइंस्टीन के कुछ पत्रों का अनुवाद भी शामिल है। 


अभी हाल ही में उनकी सम्पादित,अनुदित और लिखित कई पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। इनमें एक है भारत के प्रख्यात गणितज्ञ श्रीनिवास राजानुजन की जीवनी 'विनम्र विद्रोही'। इसे उन्होंने भारती राठौर के साथ लिखा है।  इसे अभी पढ़कर खत्म किया है। कहना ना होगा ये एक महान व्यक्तित्व पर शानदार काम है।


इस किताब की दो खूबियां जरूर रेखांकित होनी 

चाहिए। 


एक, इसकी भाषा। बहुत ही सहज सरल लेकिन बहुत ही लालित्यपूर्ण और बिम्बात्मक। कितनी ही बात वे सूत्र रूप में कहते हैं। कितनी ही सूक्तियां आप इस पुस्तक से उदाहरण के तौर पर दे सकते हैं। मसलन वे अपनी बात शुरुआत ही करते हैं - 'विलक्षण रूप से प्रतिभावान होना एक प्रकार की त्रासदी है'। गणित के इस महानायक की बात करते करते उनकी भाषा बेहद काव्यात्मक हो जाती है। अक्सर लगता है कोई कविता पढ़ी जा रही है। रामानुजन जैसे असाधारण व्यक्तित्व और उसके जीवन को रेखांकित करने के लिए इसी तरह की समर्थ भाषा की दरकार होती है। निसंदेह ये एक मर्मस्पर्शी 'त्रासदी' है।


दो,इसमें केवल रामानुजन का जीवन,उनके संघर्ष,उनके जीवन की त्रासदी और उनकी उपलब्धियों का प्रामाणिक और शोधपरक लेखा जोखा है ही साथ ही उनका पूरा सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश है। इतिहास और भूगोल तो है ही। जब आप ये जीवनी पढ़ रहे होते हैं तो पाठक को लगता है कि वे एक दक्षिण भारतीय व्यक्तित्व से ही रूबरू हो रहे हैं। ये केवल रामानुजन के जीवन की घटनाओं का प्रामाणिक दस्तावेज ही नहीं बल्कि तत्कालीन समय और समाज का भी दस्तावेज है।


फिलहाल ये पुस्तक वैली ऑफ वर्ड्स पुरस्कार हेतु नॉन फिक्शन कैटेगरी में नामांकित हुई है। 

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लेखक द्वय को हिंदी में एक बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्तित्व पर एक महत्वपूर्ण किताब के लिए बहुत बधाई।



Tuesday, 11 June 2024

सुनील छेत्री



आज जब सुनील छेत्री का सन्यास लेने वाला वक्तव्य सुना तो अनायास ही जाने माने कथाकार सुभाष पंत सर याद आ गए। मैं उन्हें अपने साहित्यिकी कार्यक्रम के लिए बुलाना चाहता था। लेकिन वे कोई कोई बहाना कर स्टूडियो आना टाल रहे थे। कई महीने बाद भी जब वे आने के लिए तैयार नहीं हुए तो मैने उनसे पूछा 'क्या वे नाराज हैं।' तो उन्होंने कहा ऐसा नहीं है कि 'मैं नाराज हूं या नया कुछ नहीं लिख रहा। बल्कि मुझे लगता है कि मैं आकाशवाणी पर बहुत बोल चुका। अब नए युवा साहित्यकारों को मौका मिलना चाहिए।'


सुनील अपने वक्तव्य में कुछ ऐसा ही कह रहे थे। वे कह रहे थे कि ऐसा नहीं है कि 'मैं थक गया हूं या कुछ ऐसा वैसा सोच रहा हूं। बल्कि मैं चाहता कि युवा खिलाड़ियों को मौका मिले और उन्हें ग्रूम किया जाए।'


दरअसल उन पर भी उम्र फिदा है। 39 साल की उम्र में भी वे शानदार फुटबॉल खेल रहे हैं। लेकिन उन्हें भारतीय फुटबॉल की और उसके भविष्य की भी चिंता है। वे चाहते है अब युवा आगे आएं। असाधारण प्रतिभा का ये खिलाड़ी उच्च विचारों से भी भरा है।


जो भी हो तुम एक खिलाड़ी के रूप में मैदान से विदा हो सकते हो पर यकीन मानो तुम कहीं नहीं जा रहे हो। तुम्हारा एक ठिकाना तुम्हारे प्रशंसकों के दिलों में हमेशा बना रहेगा। 


दरअसल हमारे रोनाल्डो,हमारे मेसी,हमारे माराडोना या फिर हमारे पेले भी तुम हो और जरनैल सिंह ढिल्लो,पीके बैनर्जी,बलराम और आई एम विजयन के सच्चे वारिस भी।


हैप्पी रिटायरमेंट।

प्रतिभाएं

 

हम हैं कि उम्र के पीछे दौड़े जाते हैं। उसके नीचे दबे जाते हैं। और अंततः उसके सामने आत्मसमर्पण किए जाते हैं।



आखिर वे कैसे बिरले होते हैं उम्र जिनके पीछे चलती है उनकी चेरी बनकर। वे जो उम्र को धता बताते हैं। वे जिनके लिए उम्र महज एक नंबर है। 



हाल फिलहाल में हम इन्हें रोहन बोपन्ना और डी गुकेश के नाम से जानते हैं। रोहन बोपन्ना जो 43 वर्ष की उम्र में टेनिस जगत की सबसे बड़ी प्रतियोगिताएं जीतकर विश्व नंबर एक खिलाड़ी बन जाते हैं,तो डी गुकेश महज 17 साल की उम्र में दिग्गजों को मात देकर सबसे कम उम्र के फिडे कैंडिडेट्स प्रतियोगिता जीतने वाले और विश्व खिताब के लिए चुनौती देने वाले सबसे युवा खिलाड़ी बन जाते हैं। 


ये दो उम्र के विपरीत ध्रुबों पर बैठकर एक जैसा सम्मोहन रचते हैं और उम्र को अपनी प्रतिभा के मोहपाश में बांध कर उसको श्रीहीन कर देते हैं।

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प्रतिभा कहां उम्र की मोहताज होती है।

ऋषभ पंत की वापसी



ऋषभ पंत की वापसी

कोई कोई वाक़िअ असाधारण या अद्भुत ना होते हुए भी इतना खूबसूरत होता है कि वो हमेशा के लिए आपके दिल में जगह बना सकता है। और हो सकता है कि आप एक लंबे समय तक उसकी मोहब्बत में पड़े रह सकते हैं।


ऋषभ पंत की तीन छक्कों और चार चौकों वाली 51 रन की आज की पारी भले ही उनकी सर्वश्रेष्ठ पारी ना हो। पर एक इतने भयावह एक्सीडेंट के बाद ऋषभ को इस तरह से खेलते देखने से खूबसूरत वाक़िअ क्रिकेट मैदान पर और क्या हो सकता है।


ये वाक़िअ उतना ही सुंदर है जितनी सुंदर कैंसर से उबरने के बाद युवराज की वापसी थी। क्या ही संयोग है दोनों ही 'खब्बे' हैं।।


चाहे जीवन में वापसी हो या खेल के मैदान में। तुम दोनों जानते हो वापसी कैसे की जाती है।


दुआ और मोहब्बत पहुंचे तुम तक।

मेदवेदेव

 


फेडरर-राफा-नोल की बाद वाली पीढ़ी के खिलाड़ियों में डेनिल मेदवेदेव सबसे प्रतिभाशाली और सबसे शानदार खिलाड़ी हैं। मेदवेदेव इन तीनों की छाया से बाहर निकल पाते कि युवा ख़िलाड़ियों की एक नई खेप आ गई।  वे अपने से पुरानी और नई पीढ़ी के खिलाड़ियों के बीच सैंडविच बनकर रह गए है।


2022 के ऑस्ट्रेलियन ओपन के फाइनल में जीत के कगार पर थे। राफा के खिलाफ  पहले दो सेट जीत चुके थे पर 6-2,7-5,4-6,4-6,5-7   से हार गए। 2024 में एक बार फिर जीत के एकदम करीब पहुंच चुके थे। यानिक सिनर से दो सेट जीत चुके थे लेकिन 6-3,6-3,4-6,4-6,3-6 से हार गए। यहां इतिहास अपने को हूबहू दोहरा रहा था और दुर्भाग्य भी।


2019 से लेकर अब तक वे 06 ग्रैंड स्लैम फाइनल खेले हैं और 05 में हारे हैं और ऑस्ट्रेलियन ओपन के फाइनल में लगातार तीसरी हार।

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कुछ लोग दुर्भाग्य साथ लिखा कर आते हैं और डेनिल उनमें से एक हैं।


हार्ड लक मेदवेदेव।

राकेश ढौंडियाल

  पिछले शुक्रवार को राकेश ढौंढियाल सर आकाशवाणी के अपने लंबे शानदार करियर का समापन कर रहे थे। वे सेवानिवृत हो रहे थे।   कोई एक संस्था और उस...