Thursday, 19 December 2024

अकारज_22



से विरल होते गरम दिन रुचते। मैं सघन होती सर्द रातों में रमता। उसे चटकती धूप सुहाती। मुझे मद्धिम रोशनी। लेकिन इन तमाम असंगतियां के बीच एक संगति थी। दोनों को सर्द रातों की चांदनी रात में बैठे रहना खूब भाता।

दिसंबर की सघन होती एक रात में टहलते हुए उसने कहा 'ये सर्द रातें इस कदर ढीठ हो आती हैं कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेतीं।'

मैंने कहा 'नहीं, ये ढीठ कहां होती हैं। ये सर्द कोमल छुवन से 'राग' हो आती हैं और विलंबित में बजती रहती हैं जैसे गर्मियों में दिन।' 

से इस तरह के जवाब सुनने की आदत हो चली थी। वो हौले से मुस्कुराई और कहा 'रात का तो ठीक है,पर दिसंबर तो इतनी तेजी से भागता है कि हाथ ही नहीं आता।'

मैंने उसी लय में कहा 'ये समय भी तो राग हो आता है। शुरू में विलंबित में इस कदर मग्न होता है कि उसे खुद के बीत जाने का अहसास ही कहां हो पाता है और जब साल का अंत होने को आता है तो सम को लांघकर सीधे द्रुत में बीतने लगता है।'

सके चेहरे पर मुस्कान कुछ गहरी हुई और प्रेम के रंग से निखर आई। उसने कहा 'जानते हो तुम भी मेरे अस्तित्व में संगीत की तरह घुल मिल गए हो और राग की तरह बजते हो।'

मैंने उसकी आंखों में देखा। शरारत मचल कर होठों पर आ गई 'जानती हो, जीवन अब साठ पार हो चला है। जीवन राग भी द्रुत में सांसे लेने लगा है। द्रुत में अक्सर समय कम होता है और राग यकायक खत्म हो आता है। जीवन - समय सब राग की तरह तो होते हैं।'

अब मौन इस कदर सघन हो चला था कि सांसों की लय को सुना जा सकता था। दिल में उमड़ते घुमड़ते भाव कुछ विलंबित में और कुछ द्रुत में गाने लगे थे। और दो धड़कते दिल थे कि तबले की तरह उनकी संगत कर रहे थे।



Friday, 11 October 2024

स्मृति शेष पिता




 "चले गए थे वे अकेले

एक रहस्यमय जगत में

जहां से आज तक लौटकर नहीं आया कोई

वह शय्या अभी भी है

वह सिरहाना अभी भी है

मैं भी हूं तारों-भरे आकाश के नीचे

पृथ्वी के लोगों के बीच


चल रहीं हूं अकेली उन्हें याद करती हुई

जीवन के बीच जीवन ढूंढती हुई।"


असमिया कवयित्री मणिकुंतला भट्टाचार्य की कविता 'पिता' का अंश।

णिकुंतला की ये पीड़ा सिर्फ उनकी पीड़ा नहीं है, शायद पूर्ण हुए हर पिता के बच्चों की है। पिता का उनके सिर पर रखा हाथ दुनिया की सबसे बड़ी आश्वस्ति है। और उसका सिर से उठ जाना एक ऐसा अभाव जिसे कभी पूरा नहीं किया जा सकता।

किसी के जाने से जिंदगी रुकती नहीं है। पिता के जाने पर भी कहां रुकती है। चलती जाती है वो बिना रुके। हमें भी कहां रुकने देती है! लेकिन जिंदगी रुके भले ही ना, पर वो पहले जैसी रह भी कहां जाती है। बस होता इतना भर है कि पैरों तले धरती की मुलामियत थोड़ी कम हो जाती है और सिर के ऊपर का आसमान थोड़ा और दूर। धरती का हरा रंग थोड़ा कम हरा दीखने लगता है और आसमान का रंग थोड़ा कम नीला। सूरज का ताप कुछ और तीक्ष्ण हो जाता है और हवा की चुभन कुछ और नुकीली। सर्द रातें कुछ ज्यादा सर्द होती जाती हैं और गरम दिन कुछ और गरम। बारिशें हैं कि बेमानी हुई जाती हैं और आंसू खारे। बस जिंदगी है कि चलती जाती है। कुछ और भारी होती हुई। कुछ और उदास होती हुई। रुकती, ठिठकती, सहमी हुई सी। सिर पर से पिता के हाथ का उठ जाना जिंदगी का निष्कवच हो जाना जो होता है।

लेकिन किया भी जाए तो क्या किया जा सकता है। मानना ही पड़ता है कि ज़िंदगी की सबसे बड़ी और अंतिम सच्चाई ही ये है कि इसे एक दिन खत्म हो जाना ही है। ये धीमे धीमे समय में घुलती जाती है और फिर किसी एक दिन पूरी तरह घुल कर खत्म हो जाती है। और तब रह जाते हैं खत्म हुए जीवन के वे अवशेष जो दिल और दिमाग के गहरे भीतरी कोनों में दबे रह जाते हैं। स्मृतियां के रूप में। अब वे स्मृतियां ही सबसे बड़ी पूंजी होती हैं। होती हैं सबसे अनमोल धरोहर। सबसे मजबूत कवच। ये स्मृतियां ही शेष रह जाती हैं जिन्हें खुशबू सा हो ज़िंदगी को ताउम्र महकाना है। उन्हें अंधेरे समय का उजास बन जाना है। मुश्किल समय में उनका हल। उदास समय की मुस्कान बन जाना है। रुके समय की गति।

पिता को गए तीन साल होने को आए। इस बीच कोई एक दिन ऐसा नहीं बीता जिस दिन पिता की स्मृति ने बेचैन ना किया हो। इतना वक़्फा बीत जाने के बाद भी ऐसा लगता है जैसे उनका जाना बस कल की ही तो बात है। उनकी स्मृतियां उदासी का सबब भी बनती हैं और मुस्कान का भी। हंसाती हैं, तो रुलाती भी हैं। कभी गुदगुदाती हैं। कभी कसक पैदा करती हैं। 


पिता की स्मृति इकहरी नहीं है। ये कई कई परत वाली हैं। अलग अलग भावावेगों वाली। जटिल। अलग अलग समय में अलग अलग भावोद्वेग पैदा करती हुई आती हैं और तिरोहित हो जाती हैं।

पिता का व्यक्तित्व बहुत ही सुदर्शन था। लंबे। छछहरे बदन। रक्ताभ वर्ण। रुआबदार व्यक्तित्व।शुरुआती जीवन अभावों से बना था। इसलिए जो भी किया खुद के बूते। सेल्फमेड। खिलाड़ी। गुस्सैल इतने कि परिवार क्या गांव जवार भी सहमता। लेकिन सोच में पुरुषवादी। पूरी तरह पितृसत्ता वादी। 

वे ऐसे कैसे हुए। पता नहीं। हो सकता है ये जातीय संस्कार रहे हों या परिवेशगत संस्कार। मेरे बाबा और परबाबा ज़मीदार की रैयत रहे। उसकी जमीन जोतते और उसे लगान देते। ये तो 1956 का ज़मीदारी उन्मूलन कानून था कि ज़मीन उनकी अपनी हुई और वे स्वतंत्र किसान बने। क्या पता उस सामंतवादी व्यवस्था का हिस्सा होने के संस्कार रहे हों।

लेकिन ये उनके व्यक्तित्व का विरोधाभास था कि पुरुषवादी सोच के बावजूद बेटी को बेइंतहा प्यार करते। उसे अगर ज़्यादा भी नहीं तो कभी बेटे से कम भी नहीं समझा। एक समय पर वे दकियानूसी लगते तो किसी दूसरे समय पर बेहद प्रगतिशील।

जो भी हो,बचपन उनसे डरते बीता। ना जाने कितनी बार मार खाई। एक ऐसा बचपन जो हमेशा अपने पिता से छिपता फिरता। उनसे बचता फिरता। इतने डर के बावजूद उनका होना सबसे बड़ी आश्वस्ति थी। सबसे बड़ा संबल था। वे मां की तरह नहीं थे। हो भी नहीं सकते थे। मां किसी नदी की तरह। बात बात में प्यार छलकता। पिता किसी चट्टान की तरह। ऊपर से कठोर। अपने बच्चों के प्रति प्रेम को भीतर समेटे हुए लेकिन बाहर से निर्लिप्त, निस्पृह,कठोर,अनमने से।

बेहद ज़िद्दी थे। वे अपने मन में हर बात के लिए एक धारणा बना लेते। उनको लगता वही सही है जो उन्होंने सोचा है। बहुत बार उस समय तक डांट या मार खाते जब तक हम वो बात ना कह देते जो उन्होंने सोच रखी है। भले ही वो गलत हो। इससे उनका अहम तुष्ट होता। हम बहुत बार पहले ही वो बात कह देते जो उन्होंने सोच रखी होती थी। हालांकि वो बात सच नहीं होती थी। पर इससे हमारा जल्द बचाव हो जाता। 

वे बहुत अनुशासनप्रिय थे और बहुत नियमित भी। सुबह बहुत जल्द उठते और हमें भी कान पकड़कर बहुत सुबह उठा देते। इस सुबह का मतलब सुबह के चार बजे होता। गर्मियों में ही नहीं बल्कि सर्दियों में भी। हमें पढ़ने के लिए बैठा देते और खुद रेडियो पर गाने लगा देते और व्यायाम करते। सुबह उठना बहुत कष्टप्रद लगता। लेकिन धीरे धीरे गाने सुनने का चस्का लगा और सुबह उठना उस तरह से कष्टप्रद ना रह गया। उन्हें रेडियो सुनने का बड़ा शौक था। रेडियो कश्मीर से रात्रि आठ बजे प्रसारित होने वाला कार्यक्रम 'वादी की आवाज़' उनका बहुत ही पसन्दीदा कार्यक्रम था जिसके स्टॉक करेक्टर मुंशीजी और निक्की की नोक झोंक केवल उन्हें ही नहीं माँ और हमारे भी मन को गुदगुदाती।

वे सरकारी नौकरी में थे। लेकिन वे बिल्कुल भी महत्वाकांक्षी ना थे। वे ईमानदारी और स्वाभिमान से जीना चाहते। उनकी चाहतें बहुत ही साधारण। हम चाहते कि हमारा दाखिला कान्वेंट स्कूल में हो। पर वे कहते वहां पढ़ने का मतलब बच्चे ना अंग्रेजी ठीक से सीख पाएंगे और ना हिंदी। हालांकि हम जानते थे कि वे दो बच्चों को कान्वेंट में पढ़ाना अफोर्ड नहीं कर सकते थे।


न्होंने अपने बेटे से भी कोई बहुत बड़ी उम्मीद नहीं लगाई थी। वे सिर्फ इतना चाहते थे कि वो एक अच्छा खिलाड़ी बने और दबंगई करे। वे खुद भी एक अच्छे खिलाड़ी रहे और कालेज में रहते हुए दबंगई भी की। उस समय अपने इकलौते बेटे से ऐसी उम्मीद रखना वाकई चकित कर देने वाला था। इसके लिए उन्होंने अपने तईं खूब प्रयास किए। वे अपने साथ शाम को मैदान पर ले जाते और सुबह फिटनेस के लिए। 

लेकिन उनकी इस इच्छा को पूरा नहीं ही होना था। बेटे की खेलों में रुचि तो हुई। खेला भी खूब। पर उस स्तर पर ना पहुंच सका जहां वे उसे देख रहे थे। दबंगई तो बिल्कुल भी ना हुई। वे बेटे को अक्सर लड़ाई झगड़े के लिए प्रेरित करते। इस मायने में कि बेटा दब्बू ना बने। वे अक्सर कहते पिटो या पीटो, पर डरकर घर मत आओ। कितने पिता अपने इकलौते बेटे को इस तरह की छूट देने का साहस कर पाते होंगे। आज की तरह ना सोचें बल्कि आज से लगभग आधी सदी पहले के समय को रखकर देखे तो ये बात मुझे तो आज भी अचंभे से भर देती है।

नका हमारे दिलों में गजब का खौफ होता। इतना ज्यादा कि सही बात ही भूल जाते। कक्षा आठ की बात है। वार्षिक परीक्षा में गणित का पर्चा देकर घर आया था। उन्होंने कहा ये सब अभी हल करके दिखाओ। घबराहट में सारे सवाल गलत किए। बहुत मार पड़ी। जब परिणाम आए तो गणित के उस पर्चे में 50 में से 49 अंक आए थे। 

लेकिन ये जीवन की शायद आखिरी मार थी। पिता जी का दूसरी जगह स्थानांतरण हो गया। हम वहीं बने रहे और पिताजी आते जाते रहे। ये मेरे लिए सुकून की बात थी। उस समय नौवीं कक्षा में ही विषय चुनने होते थे। पिताजी ने कला वर्ग में दाखिला दिलाया ताकि खेलने के लिए अधिक समय मिल सके। ऐसा उस समय हो रहा था जब सबसे नकारा बच्चे कला वर्ग में दाखिला लिया करते थे। लेकिन उनकी अपने इकलौते बेटे से अपेक्षाएं सामान्य चलन से बहुत अलग थी।

हाई स्कूल की बोर्ड की परीक्षा उनके बगैर दीं। परीक्षा परिणाम को लेकर ना तो उन्हें बहुत उम्मीद थी और ना ही भरोसा। लेकिन जब उन्होंने परिणाम देखा तो वे हैरान थे। उनका बेटा डिस्टिकंशन से उत्तीर्ण हुआ था। छियत्तर प्रतिशत अंकों के साथ। उनके मूंह से निकला था 'ये तो हाथ से गया।' ये बेहद अप्रत्याशित प्रतिक्रिया थी। उन्हें ये अहसास हो गया था जो वे चाहते हैं वो कभी पूरा नहीं होगा। लेकिन उससे अधिक गर्व से भरा मैंने उन्हें अपनी जिंदगी में कभी नहीं देखा। उनकी उम्मीदें बदल गईं थी। उसके बाद उन्होंने पढ़ाई को लेकर ताजिंदगी कोई सवाल या संदेह नहीं किया।

लेकिन समय बदल जाता है। हमारे संबंध भी बदल रहे थे। हम अपनी नई भूमिकाओं के लिए तैयार हो रहे थे। मैं पढ़ने इलाहाबाद आ गया था। एक घटना से घबराकर पिताजी को एक पत्र लिखा था जिसमें अकेले रहने के डर को व्यक्त किया था। उस समय तक फोन अस्तित्व में नहीं आया था। पत्रों पर सवार हो भावनाएं,

ज्बात,विचार इत उत डोलते रहते। जवाब में उन्होंने जो पत्र लिखा था वो आज भी अंधेरे मन को रोशन कर देता है। वे बहुत सुंदर लिखते। सिर्फ हस्तलिपि सुंदर नहीं होती बल्कि उसका कंटेंट उससे भी सुंदर होता। वो पत्र भौतिक रूप में भले ही पास नहीं है। पर किसी रोशनी की तरह दिल में हमेशा बना रहता है। उनके लिखे का आशय था कोई भी सारी उम्र साथ नहीं होता। वे भी नहीं रहेंगे। हर किसी को अपना मार्ग स्वयं बनाना है। बल्कि इस बात के लिए भी खुद को तैयार करना होता है कि जो हाथ अब तक तुम्हे संभालते रहे हैं अब उन हाथों को भी संभालने की सलाहियत भी पैदा करनी है। 

भी नहीं सोचा था कि वो समय भी आएगा कि उन हाथों को संभालना होगा जिन हाथों ने बचपन से जवानी तक सहारा दिया था। पर समय सबसे बलवान होता है। होनी अपनी करके रहती है। समय से निर्दय,निष्ठुर और क्या होता है,किसी को पता हो तो बताए।

 वे सेवानिवृत हो गए थे। उन्होंने गांव में रहना चुना। लेकिन कुछ साल बाद उन्हें दिल का दौरा पड़ा। अब उन्हें हम नौकरी पर साथ ले आए थे। 

न्हें जीवन से बहुत प्यार था। वे जीना चाहते थे। लंबा बहुत लंबा। उन्हें ड्रिंक का शौक था। धूम्रपान का भी। लेकिन डॉक्टर ने सब मना कर दिया था। उन्होंने डॉक्टर की हर सलाह का अक्षरशः पालन किया। उन्होंने हद से ज्यादा संयमित जीवन जीना शुरू कर दिया था। 

बायपास सर्जरी के बाद वे 15 सालों तक अच्छे से रहे। बस इस बीच उन्होंने बहुत कुछ जिम्मेदारियों से मुक्त होना शुरू कर दिया था। जिम्मेदारियां अपने बेटे को हस्तांतरित करना शुरू कर दिया था। ये उन्होंने इतने सहज और सरलता से किया कि किसी को अहसास ही नहीं हुआ कि वे क्या कर रहे हैं। उन्होंने खुद को अपने बहु- बेटे के हवाले कर दिया था। ठीक वैसे ही जैसे कभी हम उनके हवाले हुआ करते थे।

नके स्वास्थ्य की सबसे बड़ी बाधा उनकी दृष्टि का धीमे धीमे क्षय होते जाना था। तमाम इलाज के बावजूद उनकी दृष्टि लगातार कमजोर होती जा रही थी। डॉक्टर कुछ नहीं कर पा रहे थे। क्षीण होती दृष्टि उनकी रोजमर्रा की गतिविधियों को लगातार सीमित कर रही थी। 

ये वो समय था जब कोरोना बीमारी मानवता पर कहर बनकर टूट पड़ी थी। उनकी आंखों की रोशनी लगातार कम होती जा रही थी। इस बीच एक और बीमारी ने उन्हें अपना शिकार बना लिया था। वे डिमेंशिया से प्रभावित होने लगे थे। वे चीजें भूलने लगे थे। वे मां को भी पहचानना भूल जाते थे। एक समय ऐसा आया जब वे सिर्फ और सिर्फ अपनी पुत्रवधु को पहचानते थे। उन्हें केवल उस पर भरोसा रहा गया था। मां को अक्सर पूछते 'ये कौन है'। अपने बेटे को अब वे एक अनजान साहब के तौर पर पहचानते। ये हृदय विदारक था।

 ई दुख आपके लिए ऐसे होते हैं जो बहुत सारे दुखों के समुच्चय से भी गहरे होते हैं। मन को गहरी टीस से भर देते हैं। वे आपकी आत्मा पर फफोलों की तरह उभर आते हैं जिनसे दुख रिसता रहता है। पिता को इस तरह से देखने से बड़ा दुख और क्या हो सकता था। लेकिन नियति अपना कार्य निस्पृह होकर करती रहती है। उसके लिए क्या दुख, क्या सुख।

ब वे शारीरिक रूप से भी बहुत कमजोर हो चले थे। वे किसी छोटे से बालक की तरह। उन्होंने पूरी तरह से खुद को हमें सौंप दिया था। वे बच्चों की तरह इसरार करते। उनकी देखभाल करते हुए हमें अपनी बेटियों का बचपन याद आने लगता। कई बार उनके हाथों को हम पकड़े बैठे रहते। उनके हाथ ऐसे लगते जैसे बचपन में बेटियों के हाथ। उतने ही कोमल, अशक्त। सोचते वृद्धावस्था और बाल्यावस्था में क्या फ़र्क होता है।

नके हाथों की कोमलता भले ही हमें बेटियों के बचपन का अहसास कराती,पर उन हाथों का ठंडापन हमें अव्यक्त भय से भर देता। बेटियों और पिता के हाथों की कोमलता का अहसास एक होते हुए भी हमे अंतर साफ नजर आता। बचपन के हाथों का अहसास जीवन का अहसास है। आगत का अहसास है। नवजीवन और नवसृजन का अहसास है। वृद्धावस्था के हाथों की कोमलता का अहसास जाने का अहसास है। जीवन की समाप्ति का अहसास है। बुझती लौ का अहसास है। कुछ छूटते जाने का अहसास है।

नके हाथों का कोमल स्पर्श हमें दो अलग अलग एहसासों से एक साथ भर देता। उनके हाथों की कोमलता हमारे अंतर्मन को तरलता से भर देती। वो प्यार के सोते सी फूट पड़ती। लेकिन उनके हाथों का ठंडापन भय से शुष्क कर देता। अथाह पीड़ा से भर देता।

क ऐसे व्यक्ति को जो हमारे लिए शक्ति का पर्याय  हो। जीवन का संबल हो। जिसकी छत्रछाया में खुद को महफूज़ समझते रहे हो, जो हमारे लिए साहस का पुंज रहा हो,उसे इस कदर अशक्त देखकर आत्मा चीत्कार ना कर उठे तो और क्या करे। जिन हाथों पर कभी झूला झूले हों, जिन हाथों से जीवन का संगीत सुना हो,उन हाथों से मृत्यु राग सुनते हुए मन दुख छालों से ना भर जाता तो और क्या होता।

ससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है जिन हाथों से मार खाने में कभी आप डरते हों आज उन हाथों से मार खाने की इच्छा जाग जाए। कैसे अशक्त हो गए होंगे वे हाथ।

ब पिता की हालत गंभीर होती जा रही थी। हम उन्हें रोज मृत्यु के थोड़ा और करीब जाते देख रहे थे। इससे भयावह अहसास और क्या हो सकता था। अंततः उन्हें अस्पताल में दाखिल करना पड़ा। डॉक्टर का हर आश्वासन उनकी आगत मृत्यु का पैगाम होता। हम उन्हें देहरादून से मेरठ ले आए। वे अक्सर कहा करते उन्हें उनकी जन्मभूमि ही ले जाया जाए। यहां तीन दिन बाद 11 अक्टूबर 2021 को एक जीवन की डोर टूट गई। नियति का एक जीवन चक्र पूर्ण हुआ। पिता पूर्ण हुए। एक आत्मा शरीर के बंधन से मुक्त हुई। शरीर अपनी माटी से जा मिला।

दुख दुख होता है। समय उनका सबसे बड़ा मलहम  होता है। दुख मिट जाते हैं। पर कोई कोई दुख जीवन में एक ऐसा अभाव भर देता है जिसे कभी भी,कोई भी कहां पूरा कर पाता है। पिता का जाना एक ऐसा ही दुख है।

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सच तो ये है कि पिता का जाना जीवन के एक हिस्से का अलग हो जाना है। जिंदगी के अमूल्य क्षणों में से कुछ का छूट जाना है। सपनों की एक शाख का सूख जाना है। खुशियों के एक हिस्से का अनंत में विलीन हो जाना है। 

दरअसल पिता का जाना आपकी आत्मा पर पड़ा दुख का ऐसा अमिट निशान है जिसे अब कभी नहीं जाना है।

Tuesday, 8 October 2024

दीपा करमाकर,एक लाजवाब जिमनास्ट




 पनी बात इलाहाबाद की एक स्टोरी से शुरू करता हूँ। वहां एक शख़्स हुआ करते थे डॉ यू के मिश्र। वे आबकारी विभाग में उच्चाधिकारी थे। लेकिन जिस वजह से मैं उनका उल्लेख कर रहा हूँ वो उनकी दूसरी पहचान के कारण कर रहा हूँ। दरअसल वे एक उम्दा जिम्नास्ट भी थे। वे थे तो बहुत छोटे कद के। लेकिन उनके सपने बहुत बड़े थे। उनके दो सपने थे। दो लक्ष्य थे। एक, स्वस्थ भारत का। दो,भारत को ओलंपिक में जिम्नास्टिक का पदक दिलाने का। 

ये उनका केवल सपना भर नहीं था,बल्कि इसे हकीकत में बदलने का उन्होंने हर संभव प्रयास किया। शुरुआत उन्होंने मिर्जापुर से की। वहां उन्होंने एक जिम की स्थापना की। लेकिन ये उनके सपने को पूरा  करने के लिए पर्याप्त ना था। तो 1989 में उन्होंने इलाहाबाद के बॉयज हाई स्कूल में एक जिम्नास्टिक अकादमी की स्थापना की। ये उनका अपना निजी प्रयास था। इसके लिए उन्होंने हर उस जगह से एयरबस व्यक्ति व संस्था से सहायता ली जहां से ये संभव थी। उन्होंने अपनी उस अकादमी में अच्छे से अच्छे जिम्नास्टिक उपकरण और कोच लाने का प्रयास किया। सफल भी हुए। उन्होंने रूस तक के कोच बुलाए। अनेक राष्ट्रीय और एक दो अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं का आयोजन भी कराया। जब हाई स्कूल वाला जिम्नेजियम छोटा पड़ने लगा,तो झलवा में एक बड़ा जिम्नेजियम भी बनाया। कुछ बेहतरीन परिणाम भी आए। भारत के सर्वश्रेठ पुरुष जिम्नास्ट में से एक आशीष कुमार उनकी अकादमी की ही देन है जिन्होंने भारत के लिए  पहला अंतरराष्ट्रीय जिम्नास्टिक पदक 2010 के कॉमनवेल्थ खेलों में जीता था। इसके अलावा मयंक श्रीवास्तव ,रोहित जायसवाल , दीपांशु,साहू और विवेक मिश्र जैसे कुछ बेहतरीन जिम्नास्ट उनकी अकादमी ने दिए। 

लेकिन व्यक्तिगत प्रयासों की सीमाएं, धन की कमी, वैयक्तिक महत्वाकांक्षा और सबसे ऊपर खेल और खेल संघों की राजनीति के चलते ये अकादमी एक समय के बाद अपनी चमक खोने लगी और ओलंपिक गोल्ड तो क्या कोई भी पदक लाने का सपना सपना बनकर रह गया। अब उस अकादमी की और डॉ मिश्रा की क्या  स्थिति है,नहीं पता। लेकिन उनका ये प्रयास भारत में खेलों के उठान और उसे गति देने का एक उम्दा व्यक्तिगत प्रयास था, भले ही उसके वांछित परिणाम ना रहे हों।

रअसल इस अकादमी की और डॉ मिश्रा की याद इसलिए आई कि देश की सबसे सफल और बेहतरीन जिम्नास्ट और डॉ यू के मिश्र के सपने के सबसे करीब से होकर लौटी जिम्नास्ट दीपा करमाकर ने 31 साल की उम्र में बीत सोमवार को सक्रिय स्पर्धात्मक जिम्नास्टिक को अलविदा कह दिया।

दीपा करमाकर डॉ मिश्र की अकादमी से कोई ताअल्लुक नहीं रखतीं हैं। लेकिन वे देश की एकमात्र महिला जिम्नास्ट हैं जिन्होंने 2016 के रियो ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व किया और डॉ मिश्र के सपने के करीब पहुंची।

बिला शक दीपा देश की सर्वश्रेष्ठ जिम्नास्ट हैं जिन्होंने अपने करियर में सत्तर से भी अधिक पदक जीते हैं जिसमें एशियन चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक भी शामिल है। ऐसा करने वाली वे पहली भारतीय जिम्नास्ट हैं। 

सफलताएं कही भी हो और कैसी भी हो कभी भी वांछित नहीं होती। लेकिन कुछ असफलताएं अवांछित होकर इतनी प्रभावशाली होती हैं कि वे व्यक्ति की कीर्ति को अमरत्व ना भी दें तो अविस्मरणीय अवश्य बना देती हैं। भारतीय खेल इतिहास में मिल्खा सिंह और पी टी उषा न्यूनतम अंतर से पदक ना पा पाने की वजह से जाने जाते हैं। दीपा करमाकर को भी कम से कम उस समय तक उनकी उस असफलता के लिए बहुत शिद्दत से याद किया जाएगा जब तक ओलंपिक में जिम्नास्टिक में कोई भारतीय जिम्नास्ट पदक नहीं जीत लेता। 2016 के रियो ओलंपिक में वे मात्र .15 अंक के अंतर से कांस्य पदक पाने से चूक गयी थीं। यहां वॉल्ट की व्यक्तिगत स्पर्धा में स्विट्ज़रलैंड की गुलिया स्टैन ग्रूबेर के  15.216 के मुकाबले दीपा ने  15.066 अंक प्राप्त किए और कांस्य पदक से चूककर चौथे स्थान पर रही थीं। इस स्पर्धा का स्वर्ण पदक विश्वविख्यात जिम्नास्ट सिमोन बाइल्स ने जीता था।



दीपा करमाकर को भारतीय खेल इतिहास में दो कारणों से याद रखा जाना चाहिए और रखा जाएगा। 

क, उन्होंने जिम्नास्टिक और विशेष तौर पर महिला स्पर्धा में भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। उन्होंने ग्लासगो में 2014 राष्ट्रमंडल खेलों में कांस्य पदक जीता तो इन खेलों में पदक जीतने वाली वे पहली भारतीय महिला जिमनास्ट बनीं। उन्होंने एशियाई चैंपियनशिप में भी कांस्य जीता तो वे पहली भारतीय जिम्नास्ट थीं। उसके बाद 2015 विश्व चैंपियनशिप में पाँचवाँ स्थान हासिल किया तो ऐसा करने वाली भी वे पहली भारतीय जिम्नास्ट बनीं। ओलंपिक में प्रतिस्पर्धा करने वाली पहली भारतीय महिला जिमनास्ट भी वे ही हैं और इस स्पर्धा के फाइनल में पहुंचने वाली भी। किसी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय जिमनास्ट भी वे ही बनीं, जब उन्होंने  2018 में तुर्की के मर्सिन में एफआईजी आर्टिस्टिक जिमनास्टिक्स वर्ल्ड चैलेंज कप की वॉल्ट स्पर्धा में पहला स्थान हासिल किया।

दो,उन्होंने ये उपलब्धियां तमाम प्रसिद्ध भारतीय एथलीटों की तरह विपरीत परिस्थितियों और कठिनाइयों के बीच से उनसे लड़ते,जूझते हुए प्राप्त कीं। उन्होंने 6 साल की उम्र में जिम्नास्टिक शुरू की। लेकिन उनका बेसिक पोस्चर ही जिम्नास्टिक के लिए ठीक नहीं था। उनके तलुए फ्लैट थे जो दौड़ने या एक्सरसाइज के उपयुक्त नहीं माने जाते। यहां तक कि सेना और पुलिस में भी फ्लैट पैरों वालों को भर्ती नहीं किया जाता। ये उनके सामने पहली बड़ी चुनौती थी। लेकिन उनके कोच विशेश्वर नंदी और सीमा नंदी ने उन पर अतिरिक्त काम किया और इस कमी से पार पाया। दूसरे, शुरुआत में खुद दीपा की जिम्नास्तिक में रुचि नहीं थी। वे अपनेनपीता की इच्छा के लिए इस खेल में आईं। लेकिन कहते हैं ना जब सफलता का स्वाद मूंह लग जाए तो भूख बढ़ती जाती है। दीपा के साथ भी ऐसा ही हुआ। जब 2008 में जलपाईगुड़ी में आयोजित जूनियर चैंपियनशिप में स्वर्ण जीता तो वे इसमें गहरी रुचि लेने लगीं। उसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा। तब से अब तक वे अपने करियर में कुल 77 पदक जीत चुकी हैं जिसमें 67 स्वर्ण पदक हैं।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनके जैसा प्रदर्शन करने के लिए वर्षों की कड़ी मेहनत और लगन की जरूरत होती है और साथ ही बहुत ही आधुनिक और उच्च स्तर की सुविधाओं की और आधारभूत ढांचे की भी। लेकिन उनके पास इसमें से कुछ भी नहीं था। उनके सामने अब सबसे बड़ी चुनौती ही बेहतरीन प्रशिक्षण और सुविधाओं की थीं। वे भारत के सुदूरवर्ती एक छोटे से शहर अगरतल्ला से थीं। उस समय तक देश में जिम्नास्टिक खेल की कोई समृद्ध परंपरा या इतिहास नहीं था और ना ही विश्व स्तरीय सुविधाएं उपलब्ध थीं। इसीलिए इलाहाबाद में डॉ मिश्र का काम इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण है जिसका जिक्र ऊपर किया गया है। वे जिस जिमनेजियम में अभ्यास करती थीं,वो बहुत ही बेसिक सुविधाओं वाला था। टिन शेड वाला। जहां मानसून के दौरान ना केवल बाढ़ के पानी की समस्या से जूझना होता बल्कि चूहों और कोकरोचों के प्रकोप का भी सामना करना होता। आप समझ सकते हैं किन परिस्थितियों में विश्व स्तरीय प्रदर्शन करने वाला एक जिमनास्ट तैयार हो रहा था। इसी वजह से दीपा की उपलब्धियां खास मानी जानी चाहिए।

क तीसरी वजह से भी उनकी उपलब्धि विशेष है और वो है उनकी प्रोदुनोव वाल्ट पर विशेषज्ञता। कठिनाई और खतरे के कारण इसे 'वाल्ट ऑफ डेथ' की संज्ञा दी जाती है। इसकी कठिनाई को इस बात से समझा जा सकता है कि अब तक विश्व भर में कुल पांच जिमनास्ट हैं जिन्होंने इसमें दक्षता हासिल की है और प्रोदुनोवा वाल्ट पर सफल लैंडिंग की है। और वे उन पांच में से एक हैं। रियो ओलंपिक के फाइनल में वे इसी वजह से पहुंच सकी थीं कि उन्होंने प्रोदुनोवा वाल्ट पर परफॉर्म करना चुना था। इसमें कठिनाई के अधिक अंक मिलते हैं। 

दीपा करमाकर की खेल यात्रा इस बात की पुष्टि करती है कि कोई भी शून्य से शिखर पर पहुंच सकता हैं बशर्ते व्यक्ति में दृढ़ संकल्प,कठिन परिश्रम और कभी भी हार ना मानने का जज़्बा हो। बहुत ही साधारण परिवार से आने और बहुत ही साधारण व बेसिक उपकरणों की उपलब्धता तथा शारीरिक दोष के बावजूद विश्व स्तरीय प्रदर्शन ये कहता है कि उनकी उपलब्धियां जितनी दिखती हैं उससे कहीं अधिक बड़ी और महत्वपूर्ण हैं। निसंदेह ये उपलब्धियां और उनका जीवन भविष्य के जिम्नास्टों के लिए प्रेरणादायी साबित होगा। भारतीय जिम्नास्टिक्स में उन्होंने बड़ा मुकाम हासिल किया है जिसे भर पाना कठिन होगा। 

दीपा के संघर्ष को,परिश्रम को और उपलब्धियों को सलाम।

Saturday, 5 October 2024

लघु पत्रिका अक्षत




ज के समय में अगर कोई व्यक्ति लघु पत्रिका निकालने की हिम्मत रखता है तो निसंदेह इसे उस व्यक्ति की वैचारिक प्रतिबद्धता और उसकी जिद ही समझा जाना चाहिए। कौशल पांडे सर प्रसार भारती से निदेशक राजभाषा पद से सेवानिवृत हैं और जाने माने बाल साहित्यकार हैं। उनकी अनेक बाल कविताएं,कहानियां और निबंध विभिन्न बोर्डों के पाठ्यक्रम में शामिल किए गए हैं। 

 न्होंने बरसों पहले एक लघु पत्रिका के प्रकाशन का सपना देखा था। उसे साकार भी किया। उन्होंने एक पत्रिका निकाली 'अक्षत'। लेकिन तीन अंकों के बाद अपरिहार्य कारणों से उसका प्रकाशन स्थगित करना पड़ा। उनका सपना स्थगित भले ही हो गया हो, लेकिन वो कभी भी मरा नहीं था। जैसे ही उस सपने को परिस्थितियों की उर्वर जमीन हासिल हुई, वो सपना सजीव हो हकीकत में तब्दील हो गया। लगभग चालीस साल बाद अक्षत पत्रिका का चौथा अंक प्रकाशित हुआ। 

ये एक बेहतरीन अंक बन पड़ा है। इसका मुखपृष्ठ ही बहुत आकर्षक है। अंक पत्रकारिता और संचार माध्यमों पर केंद्रित है। ये गागर में सागर जैसा है। 56 पृष्ठों में बहुत ही पठनीय सामग्री है। इसके लिए पांडे सर साधुवाद के पात्र हैं कि अपने स्वयं के संसाधनों से पत्रिका निकालने का संकल्प लिया और उसे पूर्ण किया। 

समें कृष्ण बिहारी,डा. भगवान प्रसाद उपाध्याय, कैलाश बाजपेयी,अनूप शुक्ल,डा. सुनील देवधर,डा. रमेशचन्द्र शुक्ल,अरुण प्रिय,डा. राकेश शुक्ल, हीरालाल नागर,डा. रंजना दीक्षित, अर्पणा पाण्डेय,चक्रधर शुक्ल,डा. हेमन्त कुमार, भोलानाथ,डा. राजेश कुमार पाठक,सुनील राही, मनमोहन सरल के महत्वपूर्ण आलेख है। साथ ही जयराम जय,निवेदिता झा और जयराम सिंह गौर की कविताएं भी शामिल हैं। इस अंक का मूल्य 50 रुपए है।

Friday, 4 October 2024

एक सेवानिवृति:कुछ नोट्स



(चित्र 2020 का आकाशवाणी देहरादून में आयोजित समन्वय समिति की बैठक के बाद मालदेवता का है)

1.

मुख पुस्तिका की इस भित्ति विशेष पर पिछले दस दिनों ने एक उत्सव चल रहा है। ये उत्सव जीवन के एक पड़ाव की समाप्ति का उत्सव है। नए जीवन में प्रवेश का उत्सव। महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों से मुक्ति का उत्सव भी और बहुत से चाहे अनचाहे बंधनों से मुक्ति का भी। ये जीवन की सांध्य बेला में प्रवेश करने का उत्सव है। एक अंत का उत्सव है एक आरंभ का उत्सव है। ये 33 सालों की राजकीय सेवा से निवृत होने का उत्सव है। इस उत्सव को हर उस व्यक्ति को देखना और महसूसना चाहिए जो किसी सेवा में है और उसे एक दिन सेवानिवृत होना है।

2.

सेवानिवृति के अंतिम वर्ष/माह/पखवाड़े/सप्ताह में कुछ उदासी,कुछ हताशा,कुछ निसंगता,कुछ बेचैनी,कुछ आशंका और कुछ राहत के साथ निवृति की सरकारी औपचारिकताओं में व्यस्त होते तो लोगों को अक्सर देखा जाता है, लेकिन अपनी सेवानिवृति को उत्सव में बदल देने का ये एक दुर्लभ अवसर है। ये काम कोई ऐसा अकुंठ व्यक्ति ही बदल सकता है जिसने अपने काम को पूरी निष्ठा, तन्मयता, ईमानदारी से लेकिन एक खास तरह के निसंग एटीट्यूड के साथ अंजाम दिया हो। तभी तो जिस सहजता, कर्तव्यनिष्ठा और लगनशीलता से अपनी जिम्मेदारी को पूरा किया, उसी भाव से उससे विदा भी ली जा सकती है।

3.

सुश्री मीनू खरे मैम 33 वर्षों की लंबी सेवा के बाद बीते 30 सितंबर को आकाशवाणी लखनऊ के उपनिदेशक कार्यक्रम के पद से सेवानिवृत हो रही थीं। अपने बहुत सारे नवाचारों और अपने इनोवेटिव कार्यक्रमों की तरह इस अवसर को भी वे अपनी तरह से रच रही थीं। उन्होंने सरकारी औपचारिक रवायत को एक उत्सव में जो तब्दील कर दिया था। ये वे ही कर सकती थीं। उन्होंने किया।

4.

छोटा कद पर एक प्रभावशाली व्यक्तित्व। बहुआयामी। शानदार अधिकारी। संवेदनशील लेखक। आला दर्जे की प्रोग्रामर। बेहतरीन कमेंटेटर। सुप्रसिद्ध लोक गायिका। इन सब से ऊपर एक बहुत ही ज़हीन शख़्सियत। एक व्यक्तित्व जो विज्ञान के विवेक,लोक गीत के हुलास, लेखन की संवेदनशीलता,रेडियो की प्रामाणिकता,कमेंटेटर की सजीवता और संगीत की रागात्मक से निर्मित होता है। ये कोई और नहीं,मीनू खरे मैम हैं।

5.

संस्थाएं और उनमें कार्य करने वाले व्यक्ति दोनों एक दूसरे को समृद्ध करते चलते हैं। ये एक दोतरफा प्रक्रिया है। यदि कोई संस्था एक व्यक्ति को पहचान देती है, तो वो व्यक्ति भी अपनी योग्यता,अपनी काबिलियत,अपनी मेहनत से उस संस्थान की गरिमा को,उसके महत्व को बनाए रखने में महत्वपूर्ण योगदान देता है। मीनू खरे मैम एक ऐसा ही व्यक्तित्व हैं जिन्हें जितनी रेडियो ने उन्हें बनाया,उससे कहीं अधिक उन्होंने अपने कंटेंट से,अपनी काबिलियत से उसे समृद्ध किया।

उन्होंने रेडियो के लिए शानदार कार्यक्रम किए। बदले में रेडियो ने तमाम पुरस्कारों से उस योग्यता को मान्यता दी।

एक रेडियो प्रोग्रामर के रूप में उनके खाते में शानदार उपलब्धियां हैं। उन्होंने अभी जल संरक्षण पर एक साल तक चलने वाला शानदार कार्यक्रम ' बूंदों की ना टूटे लड़ी ' किया। विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए बेहतरीन रेडियो कार्यक्रम किए। सुंदर बाल कार्यक्रम किए। महिला सशक्तिकरण पर कार्यक्रम किए। महत्वपूर्ण अवसरों पर कमेंट्री की तो खेल आयोजन कवर किए और कमेंट्री की।

रेडियो से इतर वे एक संवेदनशील लेखिका हैं और दो कविता संग्रह उनके हिस्से आते हैं। वे लोक संगीत की जानकार हैं और सिद्ध लोक गायिका हैं। उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी से पुरस्कृत हैं।

6.

इतनी बड़ी भूमिका भी उस व्यक्तित्व के लिए छोटी है। लेकिन ये इसलिए ज़रूरी है कि कल 30 सितंबर को उनका रेडियो का 33 साल लंबा सफर औपचारिक रूप से समाप्त हुआ। 

रेडियो में ब्रॉड़कास्टर के रूप में एक विराट पारी के शानदार समापन की हार्दिक बधाई और जीवन में एक नई पारी की उन्हें हार्दिक शुभकामनाएं।


 (चित्र 1994 का आकाशवाणी वाराणसी संगीत स्टूडियो)




Saturday, 21 September 2024

गति जमा फैशन फ्लो जो





 'हम उनकी नींद से हैरत में हैं,उनकी योग्यता के समक्ष विनत है और उनकी स्टाइल की गिरफ्त में हैं।' 

ऐसा अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन खेल की दुनिया की एक असाधारण प्रतिभा के बारे में कह रहे थे। उनके बारे में एक वाक्य में इससे बेहतर ढंग से नहीं कहा जा सकता।

दुनिया में कुछ ऐसी असाधारण खेल प्रतिभाएं हैं कि उनकी प्रतिभा की हदें मानवीय विश्वास की क्षमता को पार कर जाती हैं। लगने लगता है कि एक मानव के रूप में ऐसा कर पाना कहां संभव होता है। तब उसकी उसकी प्रतिभा के सामने या तो नतमस्तक हुआ जाता है या उस पर संदेह किया जाने लगता है या फिर दोनों ही।

हॉकी के जादूगर ध्यानचंद का स्टिक वर्क इतना शानदार था कि लोगों को संदेह होता था कि उनकी स्टिक में चुंबक लगी है। तभी वे इतनी शानदार ड्रिबलिंग को अंजाम दे पाते हैं कि गेंद उनकी स्टिक के ब्लेड से अलग ही नहीं होती। फिर उनकी स्टिक को तोड़ कर देखा जाता। पर ऐसे हर वाक्ये से उनकी विलक्षण प्रतिभा पर मुहर लगती जाती। खेलों की दुनिया के ऐसे प्रतिभावान वे इकलौते खिलाड़ी नहीं थे।

ये साल 1959 का 21 दिसंबर का दिन था। कैलिफोर्निया के लिटिल रॉक कस्बे में सिलाई का काम करने वाली एक महिला फ्लोरेंस ग्रिफ़िथ और इलेक्ट्रिशियन रॉबर्ट के 11 बच्चों में से सातवें नंबर के बच्चे के रूप में एक लड़की जन्म लेती है। इसे ही आगे चलकर एक महान एथलीट के रूप में जाना जाना था। 

वो लड़की अभी चार साल की ही हुई थी कि उसके माता पिता अलग हो जाते हैं और माता अपने बच्चों के साथ लिटिल रॉक छोड़कर कैलिफोर्निया के दक्षिणी हिस्से में बसे वॉट्स की सार्वजनिक आवास परियोजना में आ जाती है।

स लड़की को दौड़ने से प्रेम है और इस कदर प्रेम है कि वो बचपन में वो जैक रैबिट का पीछा करके दौड़ने के लिए खुद को तैयार करती हैं। वो केवल सात साल की उम्र में ही प्रतिस्पर्धात्मक रूप से दौड़ना शुरू कर देती है। उसके परिवार की संसाधनों की कमी और निर्धनता उसके लक्ष्य में बाधा नहीं ही बनने पाती। उसके उलट वो एक और प्रेम करने लगती है और प्रेम के द्वैत में जीने लगती है। उसका दूसरा प्रेम फैशन था। वो ना केवल दौड़ने के अपने पैशन को जीती है, बल्कि वो फैशन में भी कमाल की रुचि विकसित कर लेती है जिसे बाद में उसका ट्रेडमार्क बन जाना था। आगे के जीवन में उसकी एक प्रेम से दूसरे प्रेम में आवाजाही होती रहती है और धीमे धीमे समय की आंच में पकते प्रेम के दो रूप एकाकार हो जाते हैं।

ब वो प्राथमिक विद्यालय में थीं तो वह शुगर रे रॉबिन्सन संगठन में शामिल होती है और सप्ताहांत  ट्रैक मीट में भाग लेना शुरू कर देती है। जल्द ही अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करती है और 14 व 15 साल की उम्र में लगातार दो साल जेसी ओवेन्स नेशनल यूथ गेम्स में जीत हासिल करती है।


1978 में कैलिफ़ोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी में दाखिला लेती है, लेकिन 1979 में अपने परिवार की आर्थिक मदद करने के लिए पढ़ाई छोड़नी पड़ती है। 'पहले प्रेम' खेल का साथ भी उससे छूट जाता है। वो अब एक बैंक टेलर की नौकरी करने लगती है और 'दूसरे प्रेम' फैशन का हाथ पकड़ती है। पर भाग्य पलटा खाता है। उसकी प्रतिभा इसका निमित्त बनती है। कैलिफोर्निया विश्विद्यालय के उसके कोच बॉब केर्सी उसे  वित्तीय सहायता दिलाते हैं और वो फिर से विश्वविद्यालय में वापस आती है। वो अब ना केवल पढ़ाई बल्कि अपना पैशन भी जारी रख पाती है। वो अब ना केवल  1983 में मनोविज्ञान में स्नातक की डिग्री भी प्राप्त करती है बल्कि एक बेहतरीन धावक के रूप में अपनी प्रतिष्ठा भी प्राप्त करती है

सकी मेहनत रंग लाती है। 1984 के लॉस ऐंजिलिस ओलंपिक के लिए अमेरिका की एथलेटिक्स टीम में चुनी जाती है। लॉस एंजिल्स के ग्रीष्मकालीन ओलंपिक  खेलों में अपने गृहनगर में दौड़ते हुए 200 मीटर की दौड़ स्पर्धा में रजत पदक जीतती है। 

रिवार की आर्थिक स्थिति एक बार फिर  उसे खेल छोड़ने के लिए मजबूर करती है और वो 1984 के ओलंपिक के बाद दौड़ना छोड़कर फिर से बैंक की नौकरी करती है और ब्यूटीशियन के रूप में भी। 

मय बीतता जाता है। उसका दौड़ाने का जुनून एक बार फिर ज़ोर मारता है और 1987 में फिर से ट्रैक पर लौट आती है और फिर से प्रशिक्षण लेना शुरू करती है। इस बार उसका लक्ष्य दक्षिण कोरिया के सियोल में 1988 के ओलंपिक होता है। उसी साल वो सुप्रसिद्ध एथलीट जैकी जॉयनर कर्सी के भाई अल जॉयनर से शादी करती है जो स्वयं भी एक बेहतरीन एथलीट और कोच होता है और 1984 के ओलंपिक  खेलों में ट्रिपल जंप के लिए स्वर्ण पदक विजेता भी। अब वे बॉब केर्सी की जगह अपने पति अल जॉयनर से प्रशिक्षण प्राप्त करने लगती है।

र तब 16 जुलाई, 1988 को वो लड़की एक इतिहास रचती है। उस दिन इंडियानापोलिस में ओलंपिक के ट्रायल में 100 मीटर दौड़ में एक महिला के लिए सबसे तेज़ समय का विश्व रिकॉर्ड बनाती है। उसका समय 10.49 सेकंड था। उसने अपनी हमवतन एवलिन एशफ़ोर्ड के रिकॉर्ड को .27 सेकंड से पीछे छोड़ दिया था। एशफ़ोर्ड, जिसने 1984 में अपना रिकॉर्ड बनाया था, 1988 के ओलंपिक में 100 मीटर में ग्रिफ़िथ जॉयनर के बाद दूसरे स्थान पर रही। उस समय उस लड़की की उम्र 28 साल थी।

 वो यहीं नहीं रुकी। अब वो ओलंपिक में भाग लेने दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल आई। यहां उसने 10.54 सेकंड के समय के साथ 100 मीटर महिला स्पर्धा का स्वर्ण पदक जीता। और उसके बाद 200 मीटर स्पर्धा का 21.34 सेकंड का विश्व रिकॉर्ड के साथ स्वर्ण पदक जीता। उस ने उस ओलंपिक में 4×100 मीटर रिले में तीसरा स्वर्ण पदक जीता और 4×400 मीटर रिले में रजत पदक जीता। उसके 100 और 200 मीटर स्पर्धा के विश्व रिकॉर्ड बहुत सारे देशों के पुरुषों के रिकॉर्ड से बेहतर थे। कमालनये है कि ये दोनों रिकॉर्ड आज तक कायम हैं।

सा करने वाली उस असाधारण एथलीट का नाम फ्लोरेंस ग्रिफिथ जॉयनर था जिसे 'फ्लो जो' के नाम से भी जाना जाता है।

 ये कुछ ऐसा असाधारण और अविस्मरणीय था जिसे दुनिया सहज स्वीकार नहीं कर पा रही थी। उस ओलंपिक में पुरुषों की 100 मीटर स्पर्धा असाधारण गति का प्रदर्शन करते हुए कनाडा के बेन जॉनसन ने जीती थी। लेकिन वे डोप टेस्ट में फेल हो गए। इसलिए फ्लो जो का असाधारण करनामा भी संदेह के घेरे में आ गया। लोगों को लगा कि उनका ये प्रदर्शन भी स्वास्थ्यवर्धक दवाओं का परिणाम है। लेकिन उनके जितने भी परीक्षण हुए, उनमें से एक में भी वे फेल नहीं हुईं।

रअसल वे उम्र के उस पड़ाव पर ये कारनामा कर रहीं थीं जब बाकी एथलीट ट्रैक से विदा ले लेते हैं। विश्व रिकॉर्ड बनाते समय वे 28 साल की थीं। इसलिए उनके बारे में संदेह और अफवाहें ताउम्र उनके साथ रही। उनके पूरे करियर के दौरान उनसे इस बारे में पूछा जाता रहा और उन्होंने हमेशा इन अफवाहों का खंडन किया।

साल 1989 में एक पूर्व अमेरिकन एथलीट डेरेल रॉबिन्सन ने एक यूरोपीय पत्रिका को बताया कि ग्रिफ़िथ जॉयनर ने उसे ग्रोथ हॉरमोन खरीदने के लिए पैसे दिए थे। लेकिन वे कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाए। जबकि अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक समिति के चिकित्सा आयोग का कहना था कि 'आयोग ने 1988 ओलंपिक के दौरान ग्रिफिथ जॉयनर पर कठोर दवा परीक्षण किए थे और उनका परीक्षण हमेशा नकारात्मक आया था।'

ग्रिफ़िथ जॉयनर ने सियोल ओलंपिक के बाद ट्रैक से संन्यास ले लिया। 22 फरवरी 1989 को सियोल ओलंपिक खेलों के पांच महीने बाद  जब उन्होंने सन्यास लेने की घोषणा की तो एक बार फिर वे लोगों के संदेह के घेरे में आ गई कि उन्होंने सन्यास  कुछ दिन बाद लागू होने वाले  कठोर परीक्षण के कारण लिया है।

लोगों के संदेह का आलम ये था कि उन्होंने उनकी मृत्यु को भी संदेह की दृष्टि से देखा गया। उनकी मृत्यु केवल 38 वर्ष की उम्र में 1998 में सोते हुए हुई। लोगों को लगा ये मृत्यु अस्वाभाविक है ओर स्वास्थ्यवर्धक दवाओं के कारण हुई है। उनके शव का परीक्षण हुआ। कुछ भी संदेहास्पद नहीं निकला। दरअसल उनकी मृत्यु मिर्गी के दौरे के कारण हुई थी। इससे पहले भी उन्हें हवाई यात्रा के दौरान ऐसा दौरा पड़ चुका था। आईओसी मेडिकल आयोग के अध्यक्ष प्रिंस एलेक्जेंडर डी मेरोड को फ्लोरेंस ग्रिफिथ जॉयनर की मृत्यु के बाद उनके बारे में एक बयान जारी करना पड़ा। उन्होंने अपने बयान में कहा "हमने उन पर सभी संभव और कल्पनीय विश्लेषण किए। हमें कभी कुछ नहीं मिला। इसमें जरा सा भी संदेह नहीं होना चाहिए।"

साधारण योग्यता संदेह और अविश्वास का बायस होती ही है। फ्लो जो कोई अपवाद ना बन सकीं। उनकी प्रतिभा भी अविश्वसनीय थी क्योंकि वो असाधारण थी।



लेकिन वे दुनिया भर में केवल अपनी गति भर के लिए ही नहीं जानी गईं बल्कि इसलिए भी जानी गईं कि उन्होंने उस गति को फैशन का आवरण पहनाया। उन्होंने गति को फैशनेबुल बना दिया। 'फैशन' उनका दूसरा प्रेम था। वे अपनी दौड़ की ड्रेस तक खुद डिजायन करती थीं। वे गति के साथ अपनी स्टाइल,अपनी फैशन शैली के लिए भी जानी जाती थीं। वे अपने लंबे चमकीले नाखूनों और रंग बिरंगे एक पैर वाले ट्रैक सूट के लिए भी दर्शकों में बेहद लोकप्रिय हो चली थीं।

जुलाई 1988 में जब वे अमेरिकी टीम ट्रायल में विश्व रिकॉर्ड बना रही थीं उस दिन उस रेस में उन्होंने  बैंगनी रंग का एक पैर वाला बॉडी सूट पहना था और उसके ऊपर रंगीन बिकनी बॉटम। ये एक पैर वाली ड्रेस आगे चलकर एक फैशन स्टेटमेंट बन जानी थी।

सके बाद जब उन्होंने सियोल ओलंपिक में 200 मीटर का विश्व रिकॉर्ड तोड़ा तो वे लाल और सफ़ेद रंग का  लियोटार्ड पहने हुए थीं। उनकी कलाइयों पर सोने का कंगन और कान में सोने की बालियाँ पहनी हुई थीं। वे रेस खत्म होने पर घुटनों के बल ट्रैक पर बैठ गईं। दुनिया भर के कैमरे उन पर फोकस कर रहे थे। और दुनिया उनके उसके लंबे लाल, सफेद, नीले और सुनहरे रंग के नाखून देख रही थी। उन्होंने गति को भी एक स्टाइल स्टेटमेंट दे दिया था।

नकी असाधारण सफलता और फैशन ने उन्हें दुनिया भर में लोकप्रिय बना दिया। लेकिन उनकी असाधारण प्रतिभा केवल ट्रैक तक सीमित नहीं रही। अब उन्होंने ट्रैक से बाहर दूसरे क्षेत्रों में भी अपनी रचनात्मक यात्रा आरंभ की। उन्होंने कपड़ों की एक सीरीज विकसित की, नेल प्रोडक्ट बनाए, अभिनय में हाथ आजमाया और बच्चों की किताबें लिखीं। 

न्हें खूब एंडोर्समेंट मिले। अमेरिकी टेलीविजन पर अभिनय और कैमियो भी किए जिसमें सोप ओपेरा "सांता बारबरा" और सिटकॉम "227" शामिल हैं । एलजेएन टॉयज़ के साथ काम किया जिसने लंबे रंगे हुए नाखून और एक पैर वाला रनिंग सूट पहने उनके जैसी गुड़िया का निर्माण किया। साथ ही 1990 में एनबीए की टीम इंडियाना पेसर्स टीम की ड्रेस भी डिज़ाइन की। अपने पति के साथ मिलकर वंचित युवाओं की सहायता के लिए 1992 में फ्लोरेंस ग्रिफ़िथ जॉयनर यूथ फ़ाउंडेशन की स्थापना की। 1993 में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने उन्हें अमेरिकी कांग्रेस के टॉम मैकमिलन के साथ राष्ट्रपति की शारीरिक फिटनेस परिषद के सह-अध्यक्ष के पद पर नियुक्त किया।

 ट्रैक पर उनकी असाधारण उपलब्धियों ने ग्रिफ़िथ जॉयनर को ना केवल दुनिया भर में लोकप्रिय बना दिया बल्कि उनकी अनूठी शैली और ट्रैक रिकॉर्ड ने लड़कियों की एक पूरी पीढ़ी को प्रेरित किया।

 2024 के पेरिस ओलंपिक में जब उनकी हमवतन स्प्रिंटर शा'कैरी रिचर्डसन अपने हमेशा बदलते बालों के रंग से लेकर अपने अनगिनत टैटू, अपने छेदों और लंबे, चमकीले ऐक्रेलिक नाखूनों तक अपनी एक अलग स्टाइल गढ़ी तो 'फ्लो जो' याद आईं और समझ आया उनका प्रभाव नई पीढ़ी पर कितना गहरा है।

आज 21 सितंबर है। आज ही के दिन 1998 में केवल 38 वर्ष की उम्र में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया था।

आज के दिन उस महान एथलीट को याद करना तो बनता है।

Sunday, 8 September 2024

यूएस ओपन की नई चैंपियन

 





रंग खुद में अभिव्यक्ति का शक्तिशाली माध्यम हैं। उतने ही शक्तिशाली जितने उच्चरित शब्द हो सकते हैं या लिखित शब्द। हर रंग एक कहानी कहता है,एक अर्थ ध्वनित करता है और एक प्रभाव की निर्मिति करता है। रंग दृश्यों को पूरी तरह से बदल देते हैं। टेनिस प्रेमी जानते होंगे कि समय का थोड़ा सा अंतराल,भौगोलिक सीमाओं की दूरी और रंग मिलकर टेनिस की पूरी दुनिया ही बदल देते हैं।

जब जुलाई सितंबर में बदल जाता है, लंदन न्यूयार्क में आ मिलता है, शालीन सफेद रंग शोख चंचल चटक रंगों में तब्दील हो जाता है और एक परंपरागत समाज खुले और उन्मुक्त समाज में बदल जाता है, तो टेनिस का खेल अपनी काया,अपना स्वभाव ना बदले, ये कैसे हो सकता है।

विंबलडन से यूएस ओपन तक आते आते टेनिस का मानो कायाकल्प हो जाता है। बंधन से मुक्त हो निर्द्वंद सा लगने लगता है। एक गंभीर शालीन प्रौढ़ मानो उम्र को पीछे धकेलते हुए किसी चपल चंचल युवा सा हुआ जाता है। 

विंबलडन और यूएस ओपन देखना टेनिस देखने के दो अलहदा अहसास हैं। कोर्ट के भीतर टेनिस के संघर्ष का अहसास भले ही एक हो, लेकिन टेनिस को समग्रता में देखना एक अलग अहसास है। सफेद कपड़ों में देखना और रंगीन कपड़ों में देखना। हरी घास पर देखना और कृत्रिम नीली सतह पर देखना। यानी टेनिस की दो अलग दुनिया से होकर गुजरना है। 

बीते शनिवार यूएस ओपन का महिलाओं का फाइनल मैच खेला गया। इस सीजन की दो सबसे ज्यादा इन फॉर्म खिलाड़ी विश्व नंबर दो बेलारूस की अलीना सबालेंका और विश्व नंबर छ खिलाड़ी अमेरिका की जेसिका पेगुला आमने सामने थीं। 

दोनों पहली बार यूएस ओपन के फाइनल में खेल रही थीं और दोनों अपने दीर्घ प्रतीक्षित सपने को पा लेने की चाहत लिए फ्लशिंग मीडोज के आर्थर ऐश अरीना के सेंटर कोर्ट में आमने सामने थीं। फ़र्क बस इतना था कि सबालेंका अपने तीसरे ग्रैंड स्लैम खिताब के लिए खेल रही थीं और पेगुला पहले खिताब के लिए। 

यूएस ओपन की अब तक की यात्रा दोनों खिलाड़ियों के लिए निराशा से भर देने वाली थी। पैगुला इससे पहले छ बार क्वार्टर फाइनल में हारकर अपने सपने को पूरा करने से चूक गई थीं तो सबालेंका अपने सपने को पूरा करने के और भी करीब आकर चूक गई थीं। वे पिछली बार फाइनल हार गई थीं और उससे पहले के साल 2021 और 2022 के दो सत्रों में उनकी राह सेमीफाइनल में आकर रुक गई थी।

ये फाइनल इस अर्थ में साल 2023 की पुनरावृति था कि सबालेंका के सामने इस बार भी स्थानीय खिलाड़ी प्रतिद्वंदी के रूप में थी। पिछली बार कोको गफ ने उन्हें फाइनल में हरा दिया था। लेकिन उससे भी अधिक ये फाइनल तीन सप्ताह पूर्व के सिनसिनाती ओपन के फाइनल का पुनरावृति था। उस फाइनल में सबालेंका ने पेगुला को 6-3, 7-5 से हरा दिया था। 

नीली सतह पर पेगुला नीले और सफेद रंग की ड्रेस में कोर्ट पर आईं। कोर्ट की सतह के रंग से एकाकार होती हुईं वे इस बात की घोषणा कर रही थीं कि वे मेजबान हैं और स्वाभाविक है मेजबान हैं तो दर्शक उनके साथ होंगे ही। दूसरी ओर सबालेंका फ्यूशिया पर्पल रंग की ड्रेस में थीं। एक विशिष्ट और जीवंत रंग जो बैंगनी रंग की गहराई और गुलाबी रंग की चमक से मिलकर बनता है। रंग जो बोल्डनेस के लिए जाना जाता है। रंग जो भले ही कोर्ट की सतह से एकाकार ना हुआ जाता हो पर सबालेंका के स्वभाव और उनके खेल से जरूर एकाकार हुआ जाता था।

उनके बाईं बांह पर टाइगर का टैटू खुदा है। वे मैदान में टाइगर की तरह फुर्तीली और शक्तिशाली होती हैं। वे अक्सर खुद को टाइगर बताती भी हैं। वे सेरेना और विलियम्स के बाद सबसे पावरफुल खिलाड़ी हैं जो दो सौ किमी की रफ्तार से सर्विस कर सकती हैं और शक्तिशाली ग्राउंड स्ट्रोक्स लगाती हैं। फ्यूशिया रंग उनके खेल और व्याहार का मानो प्रतीक हो।

दूसरी ओर पेगुला बहुत ही संपन्न परिवार से आती हैं। उनके पिता अमेरिकी बेसबॉल और फुटबॉल लीग की दो टीम के मालिक हैं। सबालेंका और पेगुला दोनों का लक्ष्य एक था। मकसद एक था। लेकिन दोनों की मोटिवेशनल फोर्स और कारक अलग अलग थे। मुकाबला कड़ा होना था।

मुकाबला कड़ा ही हुआ। हालांकि सबालेंका ने पेगुला को 7-5,7-5 से सीधे सेटों में हराकर अपना पहला और कुल तीसरा ग्रैंड स्लैम जीता और पेगुला के पहले ग्रैंड स्लेम खिताब के इंतजार को कुछ और लंबा कर दिया।

ये मैच भले ही दो सेटों में खत्म हुआ हो। लेकिन ये एक संघर्षपूर्ण मैच था। यह मुकाबला एक घंटा 53 मिनट तक चला। पहले ही गेम में पेगुला ने सबालेंका की सर्विस ब्रेक की। लेकिन अगले गेम में पेगुला अपनी सर्विस नहीं बचा पाई। इसके बाद सबालेंका ने 5-2 की बढ़त ले ली। पर पेगुला ने ना केवल स्कोर 5-5 की बराबरी पर किया। इसके बाद सबालेंका ने दोनों गेम जीतकर पहला सेट 7-5 से जीत लिया। दूसरे सेट में भी 3-0 की बढ़त ले ली। यहां पर पेगुला ने फिर वापसी की और 5-4 के स्कोर पर सर्विस कर रही थीं। लगा कि पिछले साल का इतिहास तो नहीं दोहराया जाने वाला है। पिछले साल भी सबालेंका पहला सेट जीत गई थी और उसके बाद दोनों सेट हारकर खिताब गंवा दिया था। लेकिन इस बार सबालेंका मजबूत इरादों के साथ आई थीं। उन्होंने ना केवल अगले दो गेम जीते बल्कि फाइनल भी जीत लिया।

इस प्रकार एक बार फिर यूएस ओपन के महिला एकल में एक नई चैंपियन बनी। विलियम्स बहनों के बाद महिला टेनिस एकदम खुल गया है और कोई भी खिलाड़ी किसी खास दिन जीत सकती है। इस बात का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दस सालों में यूएस ओपन की ये नवीं महिला एकल चैंपियन है। केवल नाओमी ओसाका इसे दो बार 2018 और 2020 में जीत सकी हैं।

फिलहाल यूएस ओपन की नई चैंपियन अरीना सबालेंका को बहुत बधाई।

Thursday, 5 September 2024

अकारज_21







'मैं?'

'एक स्मृति!'

'अब भी स्मृति में शेष हूँ!'

'हाँ,दिल की किसी शिरा में घास के तिनके पर सुब्ह की शबनम की तरह!''

'शबनम की उम्र कहां होती है?'

'तरलता ज़िंदगी से कहां खत्म होती है!'

'ऐसा क्या?' 

'ज़िंदगी की दोपहर में व्यस्तताओं की ऊष्मा से मिटती थोड़े ही ना है। तरल हो स्मृति वाष्प हो जाती है बस। और यकीन मानो ज़िंदगी की सांझ की शीतलता में स्मृति संघनित हो फिर शबनम में ढल जाती है।'

वो ज़ोर से हंसी। मन चांदनी के से उजाले से भर उठा। कुछ बातें और ढेर सारी यादें हरसिंगार के फूलों सी बरस पड़ीं। दिल में प्यार मोगरे की सी खुश्बू सा फैल गया।

'चल झूठे'

'ओह, तुम्हें प्यार का नाम आज भी याद है!'

'शब्द ब्रह्मनाद जो होते हैं। दिल के ब्रह्मांड से कहां मिटते हैं।'

दो दिल थे कि धड़कनों के शोर में अब सिर्फ एक शब्द 'झूठे' से मचल मचल जा रहे थे।


Sunday, 1 September 2024

डूरंड कप प्रतियोगिता




कल शाम कोलकाता के साल्ट लेक स्टेडियम में फुटबॉल प्रतियोगिता का फाइनल मैच खेला जा रहा था। सत्रह बार की विजेता मोहन बागान की टीम और पहली बार फाइनल खेल रही नॉर्थ ईस्ट यूनाइटेड एफसी टीम आमने सामने थीं। ये एक शानदार संघर्षपूर्ण मैच था। 

ग्यारहवें मिनट में ही जेसन कमिंग्स द्वारा पेनाल्टी से किए गए गोल से मोहन बागान की टीम ने एक गोल की बढ़त ले ली। उसके बाद पहले हाफ के इंजरी टाइम में सहल अब्दुल समद द्वारा इस सीजन के पहले गोल की बदौलत उसकी ये बढ़त दोगुनी हो गई।

लेकिन दूसरा हॉफ  पहले हाफ का एकदम उलट था। पचपनवें मिनट में मोरक्कन खिलाड़ी अलादीन अजारी ने बागान की बढ़त को कम कर दिया। और फिर तीन मिनट बाद ही युनाइटेड के गुलेरमो ने अजारी के शानदार क्रॉस पर गोल कर स्कोर बराबर कर दिया। नियमित समय में दो- दो गोल की बराबरी पर रहने के कारण मैच का फैसला पेनाल्टी शूटआउट से हुआ। इसमें यूनाइटेड ने चार के मुकाबले तीन गोल से जीत हासिल की। भारतीय फुटबाल के अपेक्षाकृत एक नए और केवल दस साल पुराने फुटबॉल क्लब नॉर्थ ईस्ट यूनाइटेड का ये इस प्रतियोगिता का पहला खिताब था। 

ये प्रतियोगिता डूरंड कप के नाम से जानी जाती है। एक ऐसी प्रतियोगिता जो भारत की ही नहीं बल्कि एशिया की सबसे पुरानी और विश्व की तीसरी सबसे पुरानी खेली जा रही प्रतियोगिता है। आज भले ही उसकी वो पहले वाली धज ना रहीं,लेकिन एक ऐसा समय हुआ करता था जब वो देश की सबसे प्रीमियर फुटबॉल प्रतियोगिता हुआ करती थी। ऐसी प्रतियोगिता जिसका सिर्फ खिलाड़ियों को ही नहीं बल्कि फुटबॉल के चाहने वालों को भी साल भर इंतजार रहता। मोहन बागान,ईस्ट बंगाल, मो. स्पोर्टिंग,जेसीटी फगवाड़ा,बीएसएफ,डेम्पो क्लब जैसी टीमों के समर्थक अपनी टीमों को लेकर खिलाड़ियों से भी ज्यादा उत्साहित रहते।

एक ऐसी प्रतियोगिता जिसका 136 साल लंबा इतिहास है। जिसके साथ फुटबॉल खेल की समृद्ध परंपरा है। जिसने तीन अलग अलग शताब्दियों में फुटबॉल खेल को बनते भी देखा और इस खेल को बनाया भी और देश में फुटबॉल के स्वरूप निर्धारण में अहम भूमिका भी निभाई। भले ही आज इस प्रतियोगिता की पहले वाली चमक ना रह गई हो लेकिन ये प्रतियोगिता भारतीय फुटबॉल इतिहास का महत्वपूर्ण और अभिन्न हिस्सा है।

प्रतियोगिता जो उन्नीसवीं सदी के साल 1888 में अस्तित्व में आती है,समय के घात प्रतिघात सहती हुई बीसवीं सदी को पार करती है और इक्कीसवीं सदी के चौथाई समय तक का सफर तय करती है। इतने पर भी वो मरती नहीं है,खत्म नहीं होती। वो अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए लड़ती है,संघर्ष करती है और अंततः एक नए स्वरूप में, एक नए कलेवर में, नए समय के अनुरूप खुद को ढालती है, नई जिम्मेदारियों को उठाने के लिए तैयार खड़ी होती है। और ये सब इस बार के सफल आयोजन और इसकी फिर से बढ़ती लोकप्रियता ने हमें बताया।

ऐसा नहीं है कि इसका इतना लंबा सफर हमेशा निरापद रहा हो। नहीं, इसकी राह में तमाम अवरोध आए,ये थकी भी,हताश भी हुई,अनेकानेक बदलाव भी झेले,जगहें बदलीं,मंजिलें बदलीं और विराम भी लिए। अगर कुछ ना हुआ तो बस उस यात्रा का कारवां ना रुका।

एक ऐसी प्रतियोगिता जिसने भारतीय फुटबॉल को बनते देखा,विकसित होते और बढ़ते देखा। जो उसके उठान की भी साक्षी रही और पतन की भी। जो भारतीय फुटबॉल के आरंभिक काल से अब तक की यात्रा की सबसे विश्वसनीय साथी रही और उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चली। वो जिसने भारतीय खिलाड़ियों को नंगे पैरों और घुटनों से ऊपर धोती पहन कर फुटबॉल खेलते भी  देखा और वीएआर वाला समय भी। वो जिसने पैसे की कमी के चलते जूतों के बजाय खिलाड़ियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी नंगे पैर खेलते हुए भी देखा और खिलाड़ियों पर करोड़ों रुपयों की बोली लगने वाला आईएसएल लीग का समय भी देखा। वो जिसने नंगे पैर खेलते भारतीय टीम को ओलम्पिक में चौथा स्थान प्राप्त करते और पहले एशियाड में स्वर्ण पदक जीतते भी देखा और करोड़ों के बारे न्यारे होते हुए भी विश्व रैंकिंग में एक सौ पचासवें से भी नीचे के नंबर पर फिसलते हुए भी देखा।

भारत में फुटबॉल खेल का आगमन ब्रिटिश सेना के माध्यम से उन्नीसवीं सदी के उतरार्द्ध में हुआ। यूएस समय भारत में फुटबॉल के लोकप्रिय होने के दो कारक हुए। एक, बंगाली भद्रलोक के नागेंद्र प्रसाद ने 1885 में शोभा बाजार क्लब के स्थापना की जिसने कोलकाता में फुटबॉल को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस कारण से उन्हें भारतीय फुटबॉल का पितामह भी माना जाता है। दो, सन 1888 में ब्रिटिश भारत के विदेश सचिव हेनरी मोर्टिमर डूरंड ने शिमला के पास स्थित छावनी दागशाई में एक प्रतियोगिता शुरु कराई जिसे उनके नाम से डूरंड टूर्नामेंट के नाम से जाना गया। ये भारत की पहली आधिकारिक फुटबॉल प्रतियोगिता थी। ये डूरंड वही साहेब थे जिनके नाम से पाकिस्तान और अफगानिस्तान में मध्य विभाजक डूरंड रेखा है।

इस प्रतियोगिता का प्रारंभिक उद्देश्य सेना में  स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ाना था और ये खालिस ब्रिटिश भारतीय सेना के निमित्त थी। 1888 का इसका पहला फाइनल एक स्कॉटिश डर्बी था जिसमें स्कॉटलैंड की दो टीमें हाइलैंड लाइट इन्फेंट्री और रॉयल स्कॉट्स फ्यूजीलियर्स आमने सामने थीं। मैच स्कॉट्स ने इन्फेंट्री को 2-1 से हराकर जीता।

देश की आजादी से पहले तक ये प्रतियोगिता पूरी तरह से ब्रिटिश सेना के लिए बनी रही थी। बस इसमें बाद में सीमांत प्रांतीय रेजीमेंट जैसी कुछ अन्य सैनिक रेजीमेंटों को भी भाग लेने की अनुमति मिली।

ये प्रतियोगिता एक वार्षिक आयोजन था। आरंभ होने के बाद से इसका लगातार प्रतिवर्ष आयोजन होता रहा। लेकिन 1914 से 1919 तक पहले विश्व युद्ध के कारण और फिर 1939 में तथा 1941 से 1949 तक द्वितीय विश्व युद्ध  और भारत की आजादी और विभाजन जैसी स्थितियों के कारण इसका आयोजन स्थगित रहा। 1940 में जब ज्यादातर रेजीमेंट युद्ध मोर्चे पर भेजी जा चुकी थीं तो इसका आयोजन पहली बार शिमला से हटाकर दिल्ली में किया गया। ये पहला अवसर था जब बहुत सारी रेजीमेंटों की कमी के कारण सिविल टीमों को भी इसमें खेलने का अवसर मिला। और कमाल की बात है कि ब्लैक पैंथर्स के नाम से जाने जानी वाली टीम मोहम्मडन स्पोर्टिग ने ब्रिटिश वर्चस्व खत्म करते हुए इस प्रतियोगिता को जीत लिया। ये पहला अवसर था जब किसी गैर सैनिक और भारतीय टीम ने ये प्रतियोगिता जीती थी।

1940 का फाइनल मैच दिल्ली के इर्विन एम्फीथियेटर में खेला गया था जिसे बाद में मेजर ध्यानचंद स्टेडियम के नाम से जाना जाना था। इस मैच में मो.स्पोर्टिंग टीम ने हाफ़िज़ राशिद और साबू के गोलों के मदद से रॉयल वारविकशायर रेजीमेंट की टीम को 2-1 से हरा दिया। इसके बाद अगले नौ सालों तक इस प्रतियोगिता को स्थगित रहना था।

1950 में डूरंड फुटबॉल टूर्नामेंट सोसायटी का अधिकार भारतीय सेना को सौंप दिया गया, जिसके संरक्षण में इस प्रतियोगिता का आयोजन 2006 में उस समय तक होना था जब इसका आयोजन में ओसियन नाम के कला संगठन को सह आयोजक बनाया गया। ये पहला अवसर था कि सेना के अलावा एक सिविल संगठन भी इसके आयोजन में महत्वपूर्ण भिका निभा रहा था।

बीसवीं सदी का उतरार्द्ध का इस प्रतियोगिता का इतिहास बंगाल की दो टीमों मोहन बागान और ईस्ट बंगाल के वर्चस्व का इतिहास था। मोहन बागान ने 17 बार और ईस्ट बंगाल ने 16 बार इस प्रतियोगिता को जीता। मोहन बागान की टीम एकमात्र ऐसी टीम है जिसने दो बार जीत की हैट्रिक लगाई। पहली बार 1963/1964/1965 में और दूसरी बार 1984/1985/1986 में। बंगाल के इस वर्चस्व को आजादी के बाद के कुछ सालों में कुछ हद तक हैदराबाद की टीमों ने चुनौती दी। आजादी के बाद 1950 में आयोजित पहली प्रतियोगिता का खिताब हैदराबाद सिटी पुलिस ने मोहन बागान को 1-0 से हराकर जीता। उसने दूसरा खिताब 1954 में और तीसरा 1957 में जीता। दरअसल उस समय इस टीम के कोच भारतीय फुटबॉल के लेजेंड सैय्यद अब्दुल रहीम हुआ करते थे। दूसरी टीम जिसने इतिहास रचा वो मद्रास रेजिमेंटल सेंटर की थी। इसने 1955 में भारतीय वायुसेना  टीम को 3-2 से हराकर फाइनल जीता। आजादी के बाद ये प्रतियोगिता जीतने वाली पहली सेना की टीम थी।

लेकिन बंगाल के वर्चस्व को सबसे बड़ी और कड़ी चुनौती पंजाब से मिली। पंजाब की ये टीमें थीं जेसीटी फगवाड़ा और बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स। बीएसएफ ने सात बार और जेसीटी ने पांच बार ये प्रतियोगिता जीती।

1997 का खिताब एफसी कोचीन ने जीता। वो इस प्रतियोगिता को जीतने वाली पहली दक्षिण भारतीय टीम थी। 2000 से 2015 तक के समय में गोवा की कई टीमों सलगांवकर क्लब,चर्चिल ब्रदर्स,डेम्पो क्लब ने अपना वर्चस्व स्थापित किया। सलगांवकर ने 1999,2003 और 2014 में,डेम्पो ने 2006 में और चर्चिल ब्रदर्स ने 2007 2009 और 2011 में ये प्रतियोगिता जीती। 

ये कमाल है कि 1940 में पहली बार खिताब जीतने वाली टीम मो स्पोर्टिंग को अपने दूसरे खिताब्बको जीतने के लिए 73 साल का लंबा इंतजार करना पड़ा।  2013ए उसने अपना दूसरा खिताब जीता। ये दिल्ली में इस प्रतियोगिता का अंतिम आयोजन था। वहां इस प्रतियोगिता को लेकर कोई उत्साह और आकर्षण नहीं रह गया था। अतः 2014 में इसका आयोजन हुआ में कराया गया और निर्णय लिया गया कि हर साल अलग शहर में इसका आयोजन कराया जाएगा।

लेकिन इस समय तक ये प्रतियोगिता अपनी चमक अपना महत्व को चुकी थी। भारतीय फुटबॉल कलंदर में आईसीएल प्रमुखता पा चुकी थी। इसी कारण 2015,2017 और 2018 में इसे भारतीय फुटबॉल कलंदर में जगह ही नहीं मिली और प्रतियोगिता स्थगित रही। लेकिन भारतीय सशस्त्र सेना इसको लेकर गंभीर थी ।  इसलिए 2019 में सेना ने पश्चिम बंगाल सरकार के साथ मिलकर इसका आयोजन कोलकाता में किया। लेकिन 2020 में कोविद के कारण इसे पुनः स्थगित करना पड़ा। इसके बाद सेना और बंगाल सरकार ने संयुक्त रूप से 2025 तक कोलकाता में आयोजित करने का निर्णय किया। साथ ही इसको फिर से लोकप्रिय बनाने के लिए कुछ कदम उठाए । इसमें सबसे महत्वपूर्ण ये था कि इसमें आईएसएल की सभी टीमों का भाग लेना अनिवार्य कर दिया गया। इसके अलावा सेना की चार और आई लीग की पांच आमंत्रित टीमों का भाग लेना भी सुनिश्चित किया गया। 2022 के 131वें संस्करण में भारतीय फुटबॉल की सभी टीमों ने पहली बार इसमें भाग लिया और प्रतियोगिता की लोकप्रियता बहाल होने की दिशा में एक महावपूर्ण पहल हुई।



इस प्रतियोगिता की एक सुंदर और विशिष्ट बात ये है कि इसमें विजेता टीम को एक नहीं बल्कि तीन तीन ट्रॉफी दी जाती हैं। पहली  डूरंड ट्रॉफी जिसे 
'द मास्टरपीस' के नाम से भी जाना जाता है। दूसरी शिमला ट्रॉफी और तीसरी प्रेसिडेंट ट्रॉफी जो आजादी से पहले वायसराय ट्रॉफी होती थी।

उम्मीद की जानी चाहिए एक ऐतिहासिक प्रतियोगिता अपनी पुरानी चमक और महत्व का फिर से पा सकेगी और भारतीय फुटबॉल के विकास में अपनी भूमिका निभाती रहेगी।

दूसरा दिन:तमगे चार

 


समय कुछ ठहरा ठहरा सा प्रतीत होता है। मानो पिछले तीन सालों में कुछ ना बदला हो। ना पैरा खिलाड़ियों का हौंसला,ना उनकी योग्यता और ना उनका जज़्बा। वे पेरिस में उसी तरह पदक जीत रहे हैं जैसे टोक्यो में जीते थे। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि ये पूरब है या पश्चिम। ये टोक्यो है या पेरिस। वे सिर्फ लक्ष्य साधते हैं। वे चिड़िया की आंख देखते हैं और आंख है कि किसी जादू सी पदकों में बदल जाती है। वे ठीक वहां से शुरू कर रहे थे जहां टोक्यो में छोड़ा था।

पैरा खिलाड़ियों की ये दुनिया यूं तो कठिनाइयों और दुश्वारियों से बने अंधेरे की दुनिया है। लेकिन क्या ही कमाल है कि इन पैरा सितारों ने अपने होंसलो, अपने जज़्बे,अपने धैर्य,अपने साहस और अपने अनथक परिश्रम से इन अंधेरों को उजाले में तब्दील कर दिया है। इन उजालों में वे नायकों की तरह प्रदीप्त हो उठते हैं।

पेरिस पैरा ओलम्पिक 2024 में आज स्पर्धाओं का दूसरा दिन था। आज के चार नायक थे। जिन्होंने अपनी प्रतिभा के लट्ठ गाड़े और भारत को आज कुल चार पदक दिला दिए। तीन निशानेबाजी में और एक एथलेटिक्स में।




🔵पहला पदक आया निशानेबाजी से। 10 मीटर एयर राइफल (एसएच1) स्पर्धा में भारत की 37 वर्षीया मोना अग्रवाल ने 228.7 के स्कोर के साथ कांस्य पदक जीता।

मोना अग्रवाल की ये उपलब्धि इस मायने में महत्वपूर्ण है कि वे ना केवल दो बच्चों की मां हैं बल्कि कामकाजी महिला भी हैं और बैंक में काम करती हैं। राजस्थान के सीकर में जन्मी मोना को बहुत ही छोटी उम्र में पोलियो हो गया था और उन्हें व्हीलचेयर का सहारा लेना पड़ा। अपनी नानी की प्रेरणा से उन्होंने पहले पावर लिफ्टिंग और एथलेटिक्स में जैवलिन और शॉटपुट से खेल जीवन की शुरुआत की। लेकिन विवाह के बाद जयपुर आईं और यहां उन्होंने 2021 में पावरलिफ्टिंग की जगह शूटिंग की शुरुआत की।

मोना का अंतरराष्ट्रीय करियर 2023 में शुरु हुआ जब उनका चयन क्रोएशिया के ओसिजेक में होने वाले डब्ल्यूएसपीएस विश्व कप में हुआ। यहां उन्होंने कांस्य पदक जीता। उन्होंने 2023 में ही लीमा में आयोजित डब्ल्यूएसपीएस चैंपियनशिप में भी भारत का प्रतिनिधित्व किया। फिर नई दिल्ली में हुए डब्ल्यूएसपीएस विश्व कप 2024 में अवनी लखेरा को पीछे छोड़ते हुए  स्वर्ण पदक जीता।




🔵जिस स्पर्धा में मोना अग्रवाल ने भारत को पहला पदक दिलाया, उसी स्पर्धा में अवनी लखेरा ने शानदार प्रदर्शन करते हुए भारत को स्वर्ण पदक के रूप दूसरा पदक दिलाया वो भी विश्व रिकॉर्ड के साथ। उन्होंने 249.7 अंकों के साथ अपना ही टोक्यो पैरा ओलम्पिक में बनाया 249.6 अंकों का विश्व कीर्तिमान तोड़ दिया। उन्होंने टोक्यो ओलम्पिक में इसी स्पर्धा का स्वर्ण पदक जीता था। साथ ही उन्होंने वहां दूसरा पदक 50 मीटर एयर राइफल थ्री पोजीशन स्पर्धा में जीता था। ये कांस्य पदक था। अब वे शूटिंग में दो पैरा ओलम्पिक खेलों में स्वर्ण जीतने वाली पहली शूटर बन गई हैं।




🔵आज का तीसरा पदक जीता एथलीट प्रीति पाल ने। उन्होंने ये पदक जीता महिलाओं की 100 मीटर (टी-35) दौड़ स्पर्धा में। उन्होंने 14.21 सेकंड का समय लिया। ये उनका सर्वश्रेष्ठ व्यक्तिगत समय भी था। उन्होंने आज एक इतिहास रचा। ठीक वैसे ही, जैसे टोक्यो में नीरज ने रचा था। ये पैरालंपिक का भारत का ट्रैक स्पर्धा का पहला पदक है। हालांकि एथलेटिक्स में भारत पैरालंपिक खेलों में 17 पदक जीत चुका है। लेकिन वे सब फील्ड स्पर्धाओं में हैं।

इस स्पर्धा में चीन की जिया ने 13.35 सेकेंड के समय के साथ स्वर्ण और 13.74 सेकेंड के समय के साथ गुओ ने रजत पदक जीता।

इससे पूर्व प्रीति पाल ने इसी साल कोबे जापान में आयोजित विश्व पैरा एथलेटिक्स चैंपियनशिप में 200 मीटर (टी 35) में 30.49 सेकंड के समय के साथ कांस्य पदक जीता था। विश्व एथलेटिक्स में पदक जीतने वाली वे पहली भारतीय एथलीट थीं।




🔵आज का चौथा पदक आया निशानेबाजी में। मनीष नरवाल ने पुरुषों की 10 मीटर एयर पिस्टल (एसएच 1) स्पर्धा के फाइनल में रजत पदक हासिल करके पेरिस पैरालंपिक खेलों में भारत को निशानेबाजी में तीसरा और कुल मिलाकर चौथा पदक दिलाया। मनीष ने कुल 234.9 अंकों के साथ रजत पदक हासिल किया। उन्होंने स्वर्ण पदक विजेता कोरिया के जियांग डू जो को कड़ी टक्कर दी, जिन्होंने कुल 237.4 अंकों के साथ स्वर्ण पदक हासिल किया। यहां उल्लेखनीय है कि उन्होंने टोक्यो पैरा ओलम्पिक खेलों के स्वर्ण पदक विजेता विश्व रिकॉर्ड धारी चीन के यांग चाओ को पीछे छोड़ा।

मनीष नरवाल टोक्यो पैरा ओलम्पिक में  50 मीटर पिस्टल फोर पोजीशन (एस एच 1) मिश्रित स्पर्धा में स्वर्ण  पदक जीत चुके हैं। मनीष ने 2017 बैंकॉक विश्व कप में अपना अंतरराष्ट्रीय कैरियर शुरु किया और 10 मीटर एयर पिस्टल(एसएच1) स्पर्धा में जूनियर विश्व रिकॉर्ड के साथ स्वर्ण पदक जीता। मनीष ने 2022 एशियाई पैरा खेलों में कांस्य पदक भी हासिल किया।

दाहिने हाथ की विकलांगता के साथ जन्म लेने वाले मनीष बहुत ही साधारण पृष्ठभूमि से आते हैं। मेसी के दीवाने मनीष शुरू में फुटबॉलर बनना चाहते थे। लेकिन जल्द ही उन्हें लगा कि उनका प्यार फुटबॉल नहीं बल्कि शूटिंग है। ये बात साल 2016 की है जब वे एक स्थानीय शूटिंग रेंज में गए। फिर उन्होंने हाई परफॉरमेंस कोच जय प्रकाश नौटियाल और राष्ट्रीय कोच सुभाष राणा की देखरेख में अपनी प्रतिभा को निखारा और अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की। उनका कहना है अब 'शूटिंग ही उनकी जिंदगी' है।

यहां उल्लेखनीय है कि  निशानेबाजी के तीनों पदक एसएच 1 श्रेणी में आए। इस श्रेणी में इसमें वे शूटर शामिल होते हैं जिनकी भुजाओं या निचले शरीर में सीमित गति होती है। यानी इस श्रेणी में वे प्रतिभागी भाग लेते हैं जिनका निचला हिस्सा विकलांगता की श्रेणी में आता है लेकिन हाथ इतने मजबूत होते हैं कि राइफल या पिस्टल पकड़ने के लिए स्टैंड का सहारा नहीं लेना पड़ता है।

जबकि एथलेटिक्स में पदक जीतने वाली प्रीति पालटी 35 श्रेणी में भाल लेती हैं। टी-35 से टी-38 तक की श्रेणी में समन्वय संबंधी वे विकार आते हैं जिसमें एक खिलाड़ी अपने विभिन्न अंगों में सामंजस्य ठीक से नहीं बिठा पाता है जैसे सेरेब्रल पाल्सी की समस्या। इसके अंतर्गत हाइपरटोनिया,अटैक्सिया और एथेटोसिस जैसे विकार शामिल हैं।

भारत अब एक स्वर्ण,एक रजत और दो कांस्य पदक सहित कुल चार पदकों के साथ पदक तालिका में 13वें स्थान पर है। 

Saturday, 31 August 2024

अवनी लखेरा:द गोल्डन गर्ल

 



साल 2021 के ओलम्पिक खेलों को याद कीजिए। टोक्यो ओलम्पिक में भारतीय खिलाड़ी पदकों को हासिल करने में हांफ रहे थे। वे अपने पदकों की गिनती बमुश्किल सात तक ले जा पाए थे। लेकिन इसकी भरपाई की हमारे पैरा एथलीटों ने। टोक्यो ओलम्पिक के तुरंत बाद टोक्यो में ही पैरा ओलम्पिक खेल हुए। इन खेलों में भारत ने कुल 19 पदक जीते थे। 05 स्वर्ण,08 रजत और 06 कांस्य। ये हमारे पैरा खिलाड़ियों का असाधारण प्रदर्शन था।

इन्हीं पदक विजेताओं में एक थीं अवनी लखेरा। वे निशानेबाजी प्रतियोगिता में भाग ले रही थीं। उन्होंने 10 मीटर एयर राइफल में स्वर्ण पदक जीता था। वे पैरालंपिक खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला शूटर थीं। इसके अलावा उन्होंने 50 मीटर राइफल थ्री पोजीशन में कांस्य पदक भी जीता था।

2021 से 2024 तक तीन साल लंबा वक्त बीत चुका है। खेल टोक्यो से पेरिस तक की हजारों किलोमीटर लंबी यात्रा कर चुके हैं। इस बीच अगर कुछ नहीं बदला तो अवनी लखेरा का शूटिंग के प्रति जज़्बा नहीं बदला और ना उनका निशाना चूका। वे अभी भी उतनी ही एक्यूरेसी से निशाना साध रही हैं। उनका निशाना कितना अचूक है ये उन्होंने आज एक बार फिर सिद्ध किया। 

ये वही शूटिंग रेंज थी जहां कुछ दिन पहले मनु भाकर भारत के लिए इतिहास रच रही थीं। आज भी किरदार वही थे। बस उनका नाम बदला था। आज मनु की जगह अवनी लखेरा थीं। हां, उन्होंने गौरव का रंग बदला। तमगे का रंग बदला और अपनी काबिलियत,अपने निशाने और निशाने की एक्यूरेसी से उसे सुनहरे रंग में बदल दिया। उन्होंने एक बार फिर देश को गौरवान्वित किया। आज उन्होंने 10 मीटर एयर राइफल में स्वर्ण पदक जीता। अब वे शूटिंग में दो पैरा ओलम्पिक खेलों में स्वर्ण जीतने वाली पहली शूटर बन गई हैं।

आज 10 मीटर राइफल में 249.7 अंकों के साथ अपना ही टोक्यो पैरा ओलम्पिक में बनाया 249.6 अंकों का विश्व कीर्तिमान तोड़ दिया। यहां उल्लखनीय है कि इसी स्पर्धा में कांस्य पदक 228.7 अंकों के साथ भारत की मोना अग्रवाल ने जीता।

अवनी पैरा ओलम्पिक में एस एच वन कैटेगरी में भाग लेती हैं। इस श्रेणी में वे प्रतिभागी भाग लेते हैं जिनका निचला हिस्सा विकलांगता की श्रेणी में आता है लेकिन हाथ इतने मजबूत होते हैं कि राइफल या पिस्टल पकड़ने के लिए स्टैंड का सहारा नहीं लेना पड़ता है।

साल 2012 में अवनी के पिता धौलपुर में तैनात थे। उस समय वे 11 वर्ष की थीं। वे परिवार के साथ जयपुर से धौलपुर जाते वक्त कार दुर्घनता में उनका निचला हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया था। पर उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी अपना धैर्य नहीं खोया। उन्होंने ना केवल अपनी पढ़ाई जारी रखी बल्कि खेलों भी हाथ आजमाया। उन्होंने शुरुआत तीरंदाजी से की। लेकिन जल्द ही शूटिंग करने लगीं। वे खेलों के साथ साथ मेधावी छात्रा भी हैं और इस समय  कानून की पढ़ाई कर रही हैं।

अवनी को बहुत बधाई और मोना अग्रवाल को भी। भारत को पेरिस पैरा ओलम्पिक के 2024 के पहले दो पदक मुबारक।


Friday, 30 August 2024

साझे अतीत की तलाश का सफरनामा






यात्रा वृतांत हमेशा से बहुत रुचिकर लगते रहे हैं। वे अक्सर बहुत समृद्ध कर जाते हैं। रोचकता तो उनका अंतर्निहित गुण है ही। जिन जगहों को आपने ख़ुद नहीं देखा है,इन वृतांतों के माध्यम से देखा समझा जा सकता है। और भविष्य में उन जगहों पर अगर जाना हुआ तो वे मार्गदर्शक के रूप में काम में लाए जा सकते हैं।

दूसरे, जगहों को देखने समझने का हर व्यक्ति का अपना एक उद्देश्य होता है और अपना एक दृष्टिकोण भी। इस यात्रा वृतांतों से होकर जाते हुए चीजों और जगहों को अलग अलग कोनों से देख समझ कर ख़ुद को समृद्ध होते हुए पाया जा सकता है।

अभी अभी लेखक पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव का यात्रा वृतांत 'कच्छ कथा' पढ़कर समाप्त किया है। ये एक शानदार यात्रा वृतांत है। पूरा कच्छ और उसका लोक आंखों के सामने पसरा है। एक ऐसा वृतांत जो आपके भीतर उसे खुद अपनी आंखों से देखने की तीव्र उत्कंठा से भर देता है। ऐसा वृतांत जो कच्छ और वहां के जीवन को पूरी समग्रता से सामने उपस्थित करता है। फिर वो चाहे कच्छ का इतिहास हो,भूगोल हो,सामाजिक जीवन हो,अर्थव्यवस्था हो,राजनीति हो या फिर सांस्कृतिक जीवन।

वे कमाल के किस्सागो हैं। वे वहां की बातों को किस्सों में सुनाते हैं और वहां के किस्सों को कविता में बदल देते हैं। वे मैक्रो और माइक्रो दोनों स्तरों पर अपने देखे को बयां करते चलते हैं। कभी उनके विवरणों का फलक इतना विस्तारित होता है कि लगता है वे कच्छ की नहीं, बल्कि देश दुनिया की बात कर रहे हैं। और कभी किसी चीज के इतने सूक्ष्म ब्यौरे प्रस्तुत कर रहे होते हैं कि पढ़कर अचरज में डूबने लगते हैं। उनकी लेखनी में मानो कोई कैमरा लगा हो जो मौके के अनुसार जूम इन और जूम आउट होता रहता है।

वे एक साझा संस्कृति की तलाश में बार बार कच्छ जाते हैं । लगातार दस सालों तक। और इस कच्छ की साझा विरासत की तलाश में दस सालों तक कच्छ के भूगोल से होते हुए उसके इतिहास,पुरातात्विक अवशेषों,साहित्य,अर्थ,धर्म,समाज और संस्कृति से गुजरते हुए राजनीति तक जाते हैं। जिन चीजों से वे गुजरते हैं, उसे खुद आत्मसात ही नहीं करते बल्कि उसे पाठकों के सामने भी हुबहू रख देते हैं।

ये वृतांत उन्हीं के शब्दों में 'साझे अतीत की तलाश का सफरनामा' है। वे अपने यात्रा वृतांत के आरंभ में लिखते हैं  "...मुंद्रा और मांडवी के बीच मरद पीर के कई मंदिर और दरगाहें हैं। कहानी तक़रीबन सभी की एक जैसी है, जैसी हमें विक्रम ने रामदेव पीर के बारे में बताई थी या जो रण के मशहूर हाजी पीर के बारे में प्रसिद्ध है। ऐसी हर कहानी में एक लाचार बूढ़ी औरत होती है और उसकी गायें होती हैं। गायों को डकैत उठा ले जाते हैं और उसकी मालकिन फ़रियाद लेकर पीर के पास पहुंचती है। पीर घोड़े पर बैठकर जाते हैं और औरत की गायों को बचाने के चक्कर में शहीद हो जाते हैं। हाजी पीर की कहानी में औरत हिंदू है। रामदेव पीर की कहानी में औरत मुसलमान है। दोनों में ही गायों को लूटने वाले डकैत मुसलमान हैं। ऐसी कथाएं आपको समूचे कच्छ में सुनने को मिलेंगी।"

लेकिन इन दस सालों की यात्रा का हासिल क्या है। इन दस सालों में कच्छ के हजारों सालों के साझे अतीत का ये साझापन दरकने लगता है। इस दरार को वे खुद देखते हैं और महसूस करते हैं। वृतांत के अंतिम पृष्ठों पर वे लिखने को मजबूर हो जाते हैं - "कच्छ में दुख की कई परतें हैं। यहां के सिखों का सबसे ज़ाहिर दुख यह है कि उनके ऊपर किसी कलंक की तरह 'पर-प्रांती' की मुहर लगाई जा चुकी है। इनके दुख यहीं से निकलते हैं और यहीं जाकर पनाह पाते हैं। जो लोग ख़ुद को कच्छी मानते हैं और सिखों को बाहरी,ऐसा नहीं है कि उनके दुख काम हों। वे ख़ुद गुजरातियों की तुलना में देखकर दुखी होते हैं। फिर तीसरी परत कच्छी हिंदुओं और मुसलमानों के बीच रह रह कर उभारे जाने वाले उपजे दुख की है। ये तमाम दुख जिन जगहों पर पनाह पाते हैं,वहां अलगाव के खतरे और बढ़ जाते हैं।"

इस अर्थ में ये यात्रा वृतांत कच्छ के साझे अतीत का सफरनामा भर नहीं है बल्कि उससे आगे ये कच्छ के समसामयिक इतिहास, समाज और राजनीति का एक रूपक भी है और भविष्य का संकेत भी जो प्रकारांतर से पूरे देश काल और समाज को भी प्रतिविंबित करता है।

एक बेहतरीन यात्रा वृतांत जिसे यात्राओं में रुचि रखने वाले हर पाठक को अवश्य पढ़ना चाहिए।

राकेश ढौंडियाल

  पिछले शुक्रवार को राकेश ढौंढियाल सर आकाशवाणी के अपने लंबे शानदार करियर का समापन कर रहे थे। वे सेवानिवृत हो रहे थे।   कोई एक संस्था और उस...