Sunday 1 September 2024

डूरंड कप प्रतियोगिता




कल शाम कोलकाता के साल्ट लेक स्टेडियम में फुटबॉल प्रतियोगिता का फाइनल मैच खेला जा रहा था। सत्रह बार की विजेता मोहन बागान की टीम और पहली बार फाइनल खेल रही नॉर्थ ईस्ट यूनाइटेड एफसी टीम आमने सामने थीं। ये एक शानदार संघर्षपूर्ण मैच था। 

ग्यारहवें मिनट में ही जेसन कमिंग्स द्वारा पेनाल्टी से किए गए गोल से मोहन बागान की टीम ने एक गोल की बढ़त ले ली। उसके बाद पहले हाफ के इंजरी टाइम में सहल अब्दुल समद द्वारा इस सीजन के पहले गोल की बदौलत उसकी ये बढ़त दोगुनी हो गई।

लेकिन दूसरा हॉफ  पहले हाफ का एकदम उलट था। पचपनवें मिनट में मोरक्कन खिलाड़ी अलादीन अजारी ने बागान की बढ़त को कम कर दिया। और फिर तीन मिनट बाद ही युनाइटेड के गुलेरमो ने अजारी के शानदार क्रॉस पर गोल कर स्कोर बराबर कर दिया। नियमित समय में दो- दो गोल की बराबरी पर रहने के कारण मैच का फैसला पेनाल्टी शूटआउट से हुआ। इसमें यूनाइटेड ने चार के मुकाबले तीन गोल से जीत हासिल की। भारतीय फुटबाल के अपेक्षाकृत एक नए और केवल दस साल पुराने फुटबॉल क्लब नॉर्थ ईस्ट यूनाइटेड का ये इस प्रतियोगिता का पहला खिताब था। 

ये प्रतियोगिता डूरंड कप के नाम से जानी जाती है। एक ऐसी प्रतियोगिता जो भारत की ही नहीं बल्कि एशिया की सबसे पुरानी और विश्व की तीसरी सबसे पुरानी खेली जा रही प्रतियोगिता है। आज भले ही उसकी वो पहले वाली धज ना रहीं,लेकिन एक ऐसा समय हुआ करता था जब वो देश की सबसे प्रीमियर फुटबॉल प्रतियोगिता हुआ करती थी। ऐसी प्रतियोगिता जिसका सिर्फ खिलाड़ियों को ही नहीं बल्कि फुटबॉल के चाहने वालों को भी साल भर इंतजार रहता। मोहन बागान,ईस्ट बंगाल, मो. स्पोर्टिंग,जेसीटी फगवाड़ा,बीएसएफ,डेम्पो क्लब जैसी टीमों के समर्थक अपनी टीमों को लेकर खिलाड़ियों से भी ज्यादा उत्साहित रहते।

एक ऐसी प्रतियोगिता जिसका 136 साल लंबा इतिहास है। जिसके साथ फुटबॉल खेल की समृद्ध परंपरा है। जिसने तीन अलग अलग शताब्दियों में फुटबॉल खेल को बनते भी देखा और इस खेल को बनाया भी और देश में फुटबॉल के स्वरूप निर्धारण में अहम भूमिका भी निभाई। भले ही आज इस प्रतियोगिता की पहले वाली चमक ना रह गई हो लेकिन ये प्रतियोगिता भारतीय फुटबॉल इतिहास का महत्वपूर्ण और अभिन्न हिस्सा है।

प्रतियोगिता जो उन्नीसवीं सदी के साल 1888 में अस्तित्व में आती है,समय के घात प्रतिघात सहती हुई बीसवीं सदी को पार करती है और इक्कीसवीं सदी के चौथाई समय तक का सफर तय करती है। इतने पर भी वो मरती नहीं है,खत्म नहीं होती। वो अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए लड़ती है,संघर्ष करती है और अंततः एक नए स्वरूप में, एक नए कलेवर में, नए समय के अनुरूप खुद को ढालती है, नई जिम्मेदारियों को उठाने के लिए तैयार खड़ी होती है। और ये सब इस बार के सफल आयोजन और इसकी फिर से बढ़ती लोकप्रियता ने हमें बताया।

ऐसा नहीं है कि इसका इतना लंबा सफर हमेशा निरापद रहा हो। नहीं, इसकी राह में तमाम अवरोध आए,ये थकी भी,हताश भी हुई,अनेकानेक बदलाव भी झेले,जगहें बदलीं,मंजिलें बदलीं और विराम भी लिए। अगर कुछ ना हुआ तो बस उस यात्रा का कारवां ना रुका।

एक ऐसी प्रतियोगिता जिसने भारतीय फुटबॉल को बनते देखा,विकसित होते और बढ़ते देखा। जो उसके उठान की भी साक्षी रही और पतन की भी। जो भारतीय फुटबॉल के आरंभिक काल से अब तक की यात्रा की सबसे विश्वसनीय साथी रही और उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चली। वो जिसने भारतीय खिलाड़ियों को नंगे पैरों और घुटनों से ऊपर धोती पहन कर फुटबॉल खेलते भी  देखा और वीएआर वाला समय भी। वो जिसने पैसे की कमी के चलते जूतों के बजाय खिलाड़ियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी नंगे पैर खेलते हुए भी देखा और खिलाड़ियों पर करोड़ों रुपयों की बोली लगने वाला आईएसएल लीग का समय भी देखा। वो जिसने नंगे पैर खेलते भारतीय टीम को ओलम्पिक में चौथा स्थान प्राप्त करते और पहले एशियाड में स्वर्ण पदक जीतते भी देखा और करोड़ों के बारे न्यारे होते हुए भी विश्व रैंकिंग में एक सौ पचासवें से भी नीचे के नंबर पर फिसलते हुए भी देखा।

भारत में फुटबॉल खेल का आगमन ब्रिटिश सेना के माध्यम से उन्नीसवीं सदी के उतरार्द्ध में हुआ। यूएस समय भारत में फुटबॉल के लोकप्रिय होने के दो कारक हुए। एक, बंगाली भद्रलोक के नागेंद्र प्रसाद ने 1885 में शोभा बाजार क्लब के स्थापना की जिसने कोलकाता में फुटबॉल को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस कारण से उन्हें भारतीय फुटबॉल का पितामह भी माना जाता है। दो, सन 1888 में ब्रिटिश भारत के विदेश सचिव हेनरी मोर्टिमर डूरंड ने शिमला के पास स्थित छावनी दागशाई में एक प्रतियोगिता शुरु कराई जिसे उनके नाम से डूरंड टूर्नामेंट के नाम से जाना गया। ये भारत की पहली आधिकारिक फुटबॉल प्रतियोगिता थी। ये डूरंड वही साहेब थे जिनके नाम से पाकिस्तान और अफगानिस्तान में मध्य विभाजक डूरंड रेखा है।

इस प्रतियोगिता का प्रारंभिक उद्देश्य सेना में  स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ाना था और ये खालिस ब्रिटिश भारतीय सेना के निमित्त थी। 1888 का इसका पहला फाइनल एक स्कॉटिश डर्बी था जिसमें स्कॉटलैंड की दो टीमें हाइलैंड लाइट इन्फेंट्री और रॉयल स्कॉट्स फ्यूजीलियर्स आमने सामने थीं। मैच स्कॉट्स ने इन्फेंट्री को 2-1 से हराकर जीता।

देश की आजादी से पहले तक ये प्रतियोगिता पूरी तरह से ब्रिटिश सेना के लिए बनी रही थी। बस इसमें बाद में सीमांत प्रांतीय रेजीमेंट जैसी कुछ अन्य सैनिक रेजीमेंटों को भी भाग लेने की अनुमति मिली।

ये प्रतियोगिता एक वार्षिक आयोजन था। आरंभ होने के बाद से इसका लगातार प्रतिवर्ष आयोजन होता रहा। लेकिन 1914 से 1919 तक पहले विश्व युद्ध के कारण और फिर 1939 में तथा 1941 से 1949 तक द्वितीय विश्व युद्ध  और भारत की आजादी और विभाजन जैसी स्थितियों के कारण इसका आयोजन स्थगित रहा। 1940 में जब ज्यादातर रेजीमेंट युद्ध मोर्चे पर भेजी जा चुकी थीं तो इसका आयोजन पहली बार शिमला से हटाकर दिल्ली में किया गया। ये पहला अवसर था जब बहुत सारी रेजीमेंटों की कमी के कारण सिविल टीमों को भी इसमें खेलने का अवसर मिला। और कमाल की बात है कि ब्लैक पैंथर्स के नाम से जाने जानी वाली टीम मोहम्मडन स्पोर्टिग ने ब्रिटिश वर्चस्व खत्म करते हुए इस प्रतियोगिता को जीत लिया। ये पहला अवसर था जब किसी गैर सैनिक और भारतीय टीम ने ये प्रतियोगिता जीती थी।

1940 का फाइनल मैच दिल्ली के इर्विन एम्फीथियेटर में खेला गया था जिसे बाद में मेजर ध्यानचंद स्टेडियम के नाम से जाना जाना था। इस मैच में मो.स्पोर्टिंग टीम ने हाफ़िज़ राशिद और साबू के गोलों के मदद से रॉयल वारविकशायर रेजीमेंट की टीम को 2-1 से हरा दिया। इसके बाद अगले नौ सालों तक इस प्रतियोगिता को स्थगित रहना था।

1950 में डूरंड फुटबॉल टूर्नामेंट सोसायटी का अधिकार भारतीय सेना को सौंप दिया गया, जिसके संरक्षण में इस प्रतियोगिता का आयोजन 2006 में उस समय तक होना था जब इसका आयोजन में ओसियन नाम के कला संगठन को सह आयोजक बनाया गया। ये पहला अवसर था कि सेना के अलावा एक सिविल संगठन भी इसके आयोजन में महत्वपूर्ण भिका निभा रहा था।

बीसवीं सदी का उतरार्द्ध का इस प्रतियोगिता का इतिहास बंगाल की दो टीमों मोहन बागान और ईस्ट बंगाल के वर्चस्व का इतिहास था। मोहन बागान ने 17 बार और ईस्ट बंगाल ने 16 बार इस प्रतियोगिता को जीता। मोहन बागान की टीम एकमात्र ऐसी टीम है जिसने दो बार जीत की हैट्रिक लगाई। पहली बार 1963/1964/1965 में और दूसरी बार 1984/1985/1986 में। बंगाल के इस वर्चस्व को आजादी के बाद के कुछ सालों में कुछ हद तक हैदराबाद की टीमों ने चुनौती दी। आजादी के बाद 1950 में आयोजित पहली प्रतियोगिता का खिताब हैदराबाद सिटी पुलिस ने मोहन बागान को 1-0 से हराकर जीता। उसने दूसरा खिताब 1954 में और तीसरा 1957 में जीता। दरअसल उस समय इस टीम के कोच भारतीय फुटबॉल के लेजेंड सैय्यद अब्दुल रहीम हुआ करते थे। दूसरी टीम जिसने इतिहास रचा वो मद्रास रेजिमेंटल सेंटर की थी। इसने 1955 में भारतीय वायुसेना  टीम को 3-2 से हराकर फाइनल जीता। आजादी के बाद ये प्रतियोगिता जीतने वाली पहली सेना की टीम थी।

लेकिन बंगाल के वर्चस्व को सबसे बड़ी और कड़ी चुनौती पंजाब से मिली। पंजाब की ये टीमें थीं जेसीटी फगवाड़ा और बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स। बीएसएफ ने सात बार और जेसीटी ने पांच बार ये प्रतियोगिता जीती।

1997 का खिताब एफसी कोचीन ने जीता। वो इस प्रतियोगिता को जीतने वाली पहली दक्षिण भारतीय टीम थी। 2000 से 2015 तक के समय में गोवा की कई टीमों सलगांवकर क्लब,चर्चिल ब्रदर्स,डेम्पो क्लब ने अपना वर्चस्व स्थापित किया। सलगांवकर ने 1999,2003 और 2014 में,डेम्पो ने 2006 में और चर्चिल ब्रदर्स ने 2007 2009 और 2011 में ये प्रतियोगिता जीती। 

ये कमाल है कि 1940 में पहली बार खिताब जीतने वाली टीम मो स्पोर्टिंग को अपने दूसरे खिताब्बको जीतने के लिए 73 साल का लंबा इंतजार करना पड़ा।  2013ए उसने अपना दूसरा खिताब जीता। ये दिल्ली में इस प्रतियोगिता का अंतिम आयोजन था। वहां इस प्रतियोगिता को लेकर कोई उत्साह और आकर्षण नहीं रह गया था। अतः 2014 में इसका आयोजन हुआ में कराया गया और निर्णय लिया गया कि हर साल अलग शहर में इसका आयोजन कराया जाएगा।

लेकिन इस समय तक ये प्रतियोगिता अपनी चमक अपना महत्व को चुकी थी। भारतीय फुटबॉल कलंदर में आईसीएल प्रमुखता पा चुकी थी। इसी कारण 2015,2017 और 2018 में इसे भारतीय फुटबॉल कलंदर में जगह ही नहीं मिली और प्रतियोगिता स्थगित रही। लेकिन भारतीय सशस्त्र सेना इसको लेकर गंभीर थी ।  इसलिए 2019 में सेना ने पश्चिम बंगाल सरकार के साथ मिलकर इसका आयोजन कोलकाता में किया। लेकिन 2020 में कोविद के कारण इसे पुनः स्थगित करना पड़ा। इसके बाद सेना और बंगाल सरकार ने संयुक्त रूप से 2025 तक कोलकाता में आयोजित करने का निर्णय किया। साथ ही इसको फिर से लोकप्रिय बनाने के लिए कुछ कदम उठाए । इसमें सबसे महत्वपूर्ण ये था कि इसमें आईएसएल की सभी टीमों का भाग लेना अनिवार्य कर दिया गया। इसके अलावा सेना की चार और आई लीग की पांच आमंत्रित टीमों का भाग लेना भी सुनिश्चित किया गया। 2022 के 131वें संस्करण में भारतीय फुटबॉल की सभी टीमों ने पहली बार इसमें भाग लिया और प्रतियोगिता की लोकप्रियता बहाल होने की दिशा में एक महावपूर्ण पहल हुई।



इस प्रतियोगिता की एक सुंदर और विशिष्ट बात ये है कि इसमें विजेता टीम को एक नहीं बल्कि तीन तीन ट्रॉफी दी जाती हैं। पहली  डूरंड ट्रॉफी जिसे 
'द मास्टरपीस' के नाम से भी जाना जाता है। दूसरी शिमला ट्रॉफी और तीसरी प्रेसिडेंट ट्रॉफी जो आजादी से पहले वायसराय ट्रॉफी होती थी।

उम्मीद की जानी चाहिए एक ऐतिहासिक प्रतियोगिता अपनी पुरानी चमक और महत्व का फिर से पा सकेगी और भारतीय फुटबॉल के विकास में अपनी भूमिका निभाती रहेगी।

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