Monday 15 March 2021

सड़क पार का खेत



घर की एक बालकनी मुख्य सड़क की ओर है। ये सड़क शहर की दो मुख्य सड़कों को जोड़ने के लिए एक संपर्क मार्ग है। लेकिन अब इसने खुद मुख्य सड़क का रूप ले लिया है। काफी ज्यादा आवाजाही रहती है इस सड़क पर। सड़क के उस पार बालकनी के ठीक सामने एक 'खेत' है। 

खेत में अभी भी फसल उगाई जा रही है। साल में एक आध महीने को छोड़कर हरे रंग की अलग अलग छवियाँ उसमें बिखरी रहती हैं। हर सुबह बालकनी से उस हरियाली को निहारना किसी के लिए भी एक 'ट्रीट' हो सकता है। आप घंटों के हिसाब से उसे निहारते रह सकते हैं। विशेष तौर पर उस स्थिति में जब कंक्रीट का पूरा एक जंगल आपके चारों और उगा हो और चारों तरफ ऊंची ऊंची अट्टालिकाएं नज़र आती हों।

दरअसल  ये खेत कंक्रीट के रेगिस्तान में नखलिस्तान सरीखा है। बेचैनी के महासागर में सुकून का दरिया है। भागते दौड़ते हांफते शहर के बीच सुस्ताने वाली सराय है। अंधे विकास के कठोर पत्थरों से लड़ता प्रकृति का निहत्था योद्धा है। बस यही डर है कि ना जाने किस दिन अचानक ये योद्धा खेत खेत हो जाएगा। इस खेत को देखकर मैं हमेशा अचरज में पड़ जाता हूँ। अचरज कि ईंट-पत्थरों और रेत-सीमेंट की इस कठोर और निष्ठुर दुनिया के बीचों बीच ये कोमल नरम मुलायम छोटा सा खेत कैसे अभी तक अपना अस्तित्व बनाए हुए है।

पहले ऐसा नहीं था। उस समय ये अकेला खेत नहीं था। बताते हैं कि यहां कभी एक भरा पूरा गांव हुआ करता था। बस एक दिन शहर की नज़र पड़ी। नज़र क्या पड़ी गांव को तो जैसे उसकी नज़र ही लग गई। ये जो शहर हैं ना,पिछली आधी सदी से उनकी भूख बहुत ज़्यादा बढ़ गई है। उन्हें देखकर लगता है कि वे मानो सदियों से भूखे हैं। जो कुछ भी उनकी उनकी जद में आता है अपनी भूख मिटाने को गड़प करते जाते हैं। नदी,पहाड़,जंगल,बाग,  बगीचे,गांव सब कुछ। तभी तो शहर इतने बेडौल हो गए हैं। एक दो नहीं सारे ही शहर। कोई अपवाद हो तो हो। कैसी बनिए की सी तोंदें हैं इन शहरों की। इस शहर का भी यही हाल है। तमाम गांव की तरह ये शहर एक दिन इस गांव को भी गड़प गया। देखते ही देखते धूसर रंग तेज कृत्रिम रंगों में तब्दील हो जाता है, मिट्टी और ईंटों की कोमलता कंक्रीट की कठोरता में गुम हो जाती है,धैर्य अधीरता में परिवर्तित होती जाता है और सुकून अब बेचैनी का रूप धारण कर लेता है। एक गांव शहर में जो तब्दील हो जाता है।

पर ये 'एकला खेत' अजूबा है ना। अभी भी बना हुआ है वैसे का वैसा ही। वैसा ही सहज सरल कोमल सा जैसे पहले कभी बहुत सारे हुआ करते थे। पर आज एक दम अकेला। आज भी अपने दामन को हरे रंग से सजाए हुए। अब देखिए ना इस समय गेहूँ की फसल लहलहा रही है। मानो इस फसल पर सवार हो वसंत नृत्य करता सा अपनी उपस्थिति की घोषणा कर रहा हो। उधर ठंड धीरे धीरे अपने पांव पीछे खींच रही है। सूर्य अपना ताप हौले हौले बढ़ा रहा है। इस अतिरिक्त ऊष्मा से हरा रंग पिघलने लगा है। हल्का हल्का पीला रंग चढ़ने लगा है। खेत फगुनाया सा लगता है। जैसे कह रहा हो फागुन आ गया। होली के रंगों का सुरूर छाने लगा है। होली के बाद गेंहू की फसल की कच्ची कोमल काया पककर कंचन सी हो जाएगी। कंचन सी? ना ना कंचन ही हो जाएगी। उस किसान से तो पूछो एक बार। जिसने इसे पाल पोस कर इतना बड़ा किया। उसके घर में खुशियों का पीला रंग बिखर बिखर जाएगा जब ये फसल उसके बखारों में जाएगी। आखिर दुनिया में खाली पेट से ज़्यादा स्याह और भरे पेट से ज़्यादा सुनहरा रंग किस चीज का होता है।

 मैं जब भी चारों और से अट्टालिकाओं से घिरे, फसल से लहलहाते झूमते इस खेत को देखता हूँ तो वो गाता सा प्रतीत होता है। मधुर संगीत का रस कानों में घुलता सा महसूस होता है। मानो वो अकेला होकर भी पूरी निर्भयता के साथ,अपने सारे गमों को भुलाकर,अपने अस्तित्व को खत्म करने की शहर की साज़िशों को  चुनौती दे रहा हो और गा रहा हो 'एकला चलो रे,एकला चलो रे...'।

फसल कट जाने के बाद भी बाद भी कितने दिनों तक उसका रंग पीला ही रहता है। एक स्वर्णिम आभा उस पर पसरी नज़र आती है। खुशी चारों और फैली सी लगती है। लगता है खुशी का वो खुमार उस पर अब भी छाया है जो उसने किसान के बखारों को भरकर किसान के पूरे परिवार के चेहरों को दी है। 

अब जेठ का महीना आ गया है। पता ही ना चला। सूरज ने रौद्र रूप धारण कर लिया है। शायद किसी बात पर कुपित हो। क्रोध से उसका ताप बढ़ गया है। इस ताप से खेत की खुशी का पीला रंग पिघलने है। वो उघाड़े बदन जो है। फसल बखारों में है और वो निपट अकेला। खुशी का पीला रंग उदासी के धूसर रंग में गल रहा है। 

अब वो उदासी के साथ हैरान परेशान भी लगने लगा है। बहुत ही बेचैन सा। घबराया सा। आपने देखा होगा कि चींटियां हमेशा एक पंक्ति में चलती हैं। सबसे आगे चलने वाली रानी चींटी फेरोमेन्स नाम का दृव्य छोड़ती जाती जाती है और उसकी गंध पहचान कर बाकी चींटियां उसके पीछे चलती जाती हैं। पर कभी कभी कोई चींटी भटक जाती है। उस चींटी की छटपटाहट देखिए। वो लाइन को ढूंढने  को अपने साथियों से जुड़ने को किस कदर इधर से उधर भटकती है,उसकी घबराहट,उसकी बेचैनी किस तरह से आदमी को भी द्रवित कर देती है। इस माह खेत किसी भटकती चींटी सा दीखने लगता है। वही छटपटाहट, बेचैनी,घबराहट।

छटपटाहट से उसकी उदासी का रंग गहराता जाता है। बीते दिनों की याद में खेत भीतर ही भीतर गलता जाता है,गलता जाता है। धूसर रंग मटमैला होकर स्याह होने लगता है। उसका चेहरा क्या पूरा शरीर कुम्हला जाता है। अकेलापन शायद उसे खाए जा रहा है। अट्टालिकाओं के अट्टहास से उसका दुख घनीभूत होता जाता है। उसका शरीर अब स्याह हो चला है।

अषाढ़ लग गया है। खेत के इतने दुख से आसमान भी द्रवित होने लगता है। भावुक होकर आसमां के आंसू बारिश बनकर अविरल बहने लगते है। बूंदों की शीतलता से उसके दुखों का ताप कम होने लगता है। खेत की शुष्कता फिर से तरल होने होने लगती है, मुरझाई हिम्मत हरी होने लगती है। किसान भी खुशी के खुमार से बाहर आकर फिर से खेत के पास लौट आता है। अब वो चारा बोता है। इतना साथ पाकर खेत खुशी से हरा भरा होने लगता है। वो स्याह हरे रंग से रंग जाता है। खेत फिर अट्टालिकाओं के सामने सिर तानकर खड़ा सा प्रतीत होता है। 

अचानक 'मणिपुर की लौह महिला' शर्मिला चानू इरोम की याद आती है। उसका एकल संघर्ष याद आता है। बिल्कुल ऐसा ही तो इस खेत का संघर्ष है। निपट अकेला है। पर सीना ताने खड़ा है अट्टालिकाओं और उनके मालिकों के सामने। उनके हर अतिक्रमण का प्रतिरोध करते हुए ना केवल अपने अस्तित्व को बचाने का प्रयास कर रहा है बल्कि कंक्रीट होती दुनिया में थोड़ी सी कोमलता को भी बचाने की लगातार कोशिश कर रहा है। वो भी निपट अकेले। अपनी बालकनी से उसे निहारते हुए पता नहीं कितनी बार अट्टालिकाओं के बीच फसल के साथ लहराते इस खेत में इरोम की छवि नज़र आती है।

पता नहीं क्यों इधर कुछ दिनों से हरी भरी लहराती फसल के बावजूद उदास उदास सा है वो। उसके तमाम प्रयास, तमाम प्रतिरोध के बावजूद कुछ फसल उजाड़ दी गयी है। उसके सीने को सरिया,ईंटें,रेत,सीमेंट,बजरी से पाट दिया गया है। उस पर एक और अट्टालिका का निर्माण होने लगा है। वो कराह रहा है। उसके कराहने की,उसकी सिसकियां कानों को बेध बेध जाती हैं। बचपन की  एक कहानी याद आ रही है। उस डायन की जिसकी जान तोते में बसती थी। यहां  उसके उलट है। प्रकृति की जान खेती किसानी में बसती है। और इसका नियंत्रण विकास डायन को मिल गया है। वो जब चाहे खेत के किसी एक हिस्से को उससे अलगा देती है। प्रकृति कराहती रहती है। खेत सिसकता रहता है। आगे निकलने की अंधी दौड़ दौड़ती बहरी दुनिया और दुष्ट विकास डायन को कुछ सुनाई नहीं देता। प्रकृति ऐसे ही तिल तिल मरती जाती है।

एक दिन आएगा कि मैं सुबह उठूंगा,बालकनी में आऊंगा। पर ना खेत होगा,ना फसल होगी और ना आंखों का,मन का सुकून होगा। होगी तो बस एक बेचैनी होगी,छटपटाहट होगी। और कंक्रीट के जंगल का कुछ और विस्तार हो गया होगा।

उस खेत को निहारते हुए कई बार ऐसा लगता है कि उसके और आम आदमी के जीवन में कितनी समानता है। फिर क्यों वे उसके दुश्मन बन बैठे हैं। क्या कभी दोस्त बन कर साथ नहीं रह सकते।

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आज मैं बेचैन हूँ। उसकी उदासी देखी नहीं जा रही है। मैं बालकनी से भीतर कमरे में आ गया हूँ।

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