Monday, 8 March 2021

6मार्च,1971 याद करते हुए

              


                     50 सालों का वक्फा एक आदमी के जीवन में बहुत बड़ा काल खंड होता है। एक नवजात बच्चा अधेड़ावस्था में पहुंच जाता है और एक युवा वृद्धावस्था में। तमाम गांव शहरों में तब्दील हो जाते हैं और कुछ शहर महानगरों में। देशों में कई कई निज़ाम बदल जाते हैं। कोई एक देश अनेकों आज़ाद पहचानों में बदल जाता है तो बांटे गए दो देश एक पहचान में तब्दील हो जाते हैं। 10 ग्राम सोने की कीमत या फिर सेंसेक्स दहाई और सैकड़ों से होते हुए 50 हज़ार के अंकों को पार कर जाता  है।

                  इतने समय में कोई एक खेल अपना पूरा चरित्र ही बदल लेता है। पांच दिन वाला खेल तीन घंटों के खेल में सिमट कर अपार लोकप्रियता प्राप्त कर लेता है और 'भद्रजनों के खेल' के रूप में जाने जाना वाला ये खेल आम लोगों के 'धर्म' में परिवर्तित हो जाता है। उस खेल की साफ शफ्फाक सफेद पोशाक घास और मिट्टी के दाग धब्बों से सजती हुई रंगीन पोशाक में बदल जाती है और इस खेल की महारथी टीम पिछड़ कर पिद्दी बन जाती हैं तथा पिद्दी टीम आगे बढ़कर अपनी कीर्ति का परचम लहराने लगती हैं। ये खेल इस कदर बदल जाता है कि पहले फटाफट क्रिकेट टेस्ट मैचों की तरह खेली जाती थी और बाद में टेस्ट मैच फटाफट क्रिकेट की तरह होने लग जाते हैं।

                  और इन सबके बीच अगर कुछ नहीं बदलता तो बस इस खेल के एक 'भद्र पुरुष' की अक्षुण्ण कीर्ति नहीं बदलती। उस की कीर्ति खेल जगत के आसमान में चमकते अनगिनत सितारों के बीच ध्रुव तारे की तरह अटल रहती है। अक्षय कीर्ति वाला ये सितारा 'लिटिल मास्टर' सुनील मनोहर गावस्कर है।

                      6 मार्च 1971 को  अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में पदार्पण करने वाले गावस्कर के अंतरराष्ट्रीय खेल जीवन के 50 वर्ष हो चुके हैं। इस बीच तमाम सितारे आए और गए,पर गावस्कर की जगह कोई नहीं ले पाया और ना ले सकता है।

                  बांस का कोई टुकड़ा उसमें कुछ छेद कर देने से भर से बांसुरी नहीं बन जाता बल्कि ये बांसुरी तब बनता है जब ये टुकड़ा सुर साधकों के होठों का स्पर्श पाता है और जब उनकी साँसें लयबद्ध गति से उन छिद्रों से होती हुई संगीत बनकर निकलती है। ऐसे ही गेंद बल्ले का कोई खेल क्रिकेट का खेल यूं ही नहीं बन जाता। ये गेंद और बल्ला एक खेल बनता है उसके असाधारण साधकों के उसे साधने से। सुनील गावस्कर उन खिलाड़ियों में शुमार है जिन्होंने क्रिकेट को क्रिकेट बनाया और उसे बलंदी पर पहुँचाया।

                         1971 में अजीत वाडेकर के नेतृत्व में जो टीम वेस्टइंडीज के दौरे पर गई थी उसमें एक 21 साल का नवयुवक भी शामिल था जिसे अभी अपना पहला टेस्ट मैच खेलने था। ये सुनील गावस्कर थे। अंगुली की चोट के कारण वो पहला टेस्ट मैच नहीं खेल पाए। लेकिन पोर्ट  ऑफ स्पेन में खेले गए दूसरे मैच से उन्होंने अपने अंतरराष्ट्रीय जीवन की शुरुआत की। अपने उस पहले मैच में उन्होंने 65 और 67 रन बनाए। अगला और सीरीज का तीसरा मैच जार्जटाउन गुयाना में हुआ जिसमें उन्होंने अपना पहला शतक जमाया। उस मैच में उन्होंने 116 और 64 रन बनाए।  ब्रिजटाउन बारबोडास में खेले गए चौथे मैच  में 01 और नॉट आउट 117 रन और अंतिम मैच में एक बार फिर वे त्रिनिदाद वापस आये। यहाँ पर उन्होंने पहली पारी में 124 और दूसरी पारी में 220 रन बनाए। ऐसा करने वाले वे डग वाल्टर्स के बाद दूसरे खिलाड़ी थे। इस तरह से गावस्कर और दिलीप सरदेसाई के शानदार प्रदर्शन के बल पर वेस्टइंडीज जैसी टीम को उसकी धरती पर भारत पहली बार हरा सका। इस सीरीज में चार शतकों की सहायता से उन्होंने 154.80 की औसत से 774 रन बनाए। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर उस समय तक नहीं देखा जब 1987 में पाकिस्तान के विरुद्ध आखरी टेस्ट मैच नहीं खेल लिया।

                       अपने 16 साल के लंबे कॅरियर के दौरान वे रिकॉर्ड दर रिकॉर्ड बनाते चले गए। उन्होंने कुल 125 टेस्ट मैच खेले जिसमें  उन्होंने 34 शतकों और 45 अर्धशतकों की सहायता से 51.12 की औसत से 10122 रन बनाए। उन्होंने 108 एकदिवसीय मैच भी खेले जिसमें उन्होंने  01 शतक और 27 अर्द्ध शतकों की सहायता से 35.13 औसत से 3092 रन बनाए। टेस्ट मैच में डॉन ब्रेडमैन के 29 शतकों के रिकॉर्ड को तोड़कर 34 शतकों का रिकॉर्ड बनाया जो लगभग 20 वर्षों तक अजेय रहा जब तक कि सचिन ने उनका ये रिकॉर्ड तोड़ नहीं दिया। वे टेस्ट क्रिकेट में 10 हज़ार रन बनाने वाले पहले खिलाड़ी थे।

            लेकिन उनकी महानता उनके आंकड़ों या उनके रिकार्ड्स से नहीं बनती, भारतीय क्रिकेट को और क्रिकेट खेल को उनके योगदान से बनती है। जिस समय गावस्कर अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिदृश्य पर आए उस समय तक कोई भी भारतीय खिलाड़ी वैयक्तिक रूप से विश्व स्तर पर अपनी पहचान बना पाया था,ना कोई बड़ी छाप छोड़ पाया था। और ना ही टीम के रूप में भारत की कोई साख थी। 1971 के वेस्टइंडीज दौरे तक भारत ने उस समय तक खेले 117 मैचों में से कुल 16 जीते थे और विदेशी धरती पर खेले 47 मैच से केवल 3 जीते थे। लेकिन गावस्कर ने अपनी पहली सीरीज में ही शानदार खेल दिखाया और अपनी पहचान स्थापित की। वो भी दुनिया के सबसे कठिन और मारक आक्रमण के सामने। वे जल्द ही दुनिया के सर्वश्रेष्ठ ओपनिंग बल्लेबाज़ और दुनिया के महानतम बल्लेबाजों में शुमार हो गए। वे विश्व पटल पर वैयक्तिक रूप से पहले स्थापित भारतीय खिलाड़ी थे। उनकी तुलना डॉन ब्रेडमैन से की जाने लगी। इसने भारतीय क्रिकेट को एक नई पहचान दी। उन्होंने भारतीय खिलाड़ियों में एक ज़ज्बा और आत्मविश्वास भरा। वे भारतीयों के लिए एक उम्मीद बनकर ,एक हीरो बनकर और एक प्रेरणास्रोत बनकर उभरे थे। उन्होंने बताया कि भारतीय खिलाड़ियों में प्रतिभा और योग्यता की कमी नहीं है और आने वाला समय भारत का होगा।

          वे क्रिकेट की शास्त्रीयता के सबसे आदर्श नमूना थे। वे स्वयं में क्लासिक क्रिकेट की किताब थे जिन्हें देखकर क्रिकेट के हर स्ट्रोक को सीखा जा सकता था। वे ड्राइव और कट के मास्टर थे। उनके स्ट्रेट और कवर ड्राइव्स बला के खूबसूरत होते थे। वे शानदार कट किया करते। वे लेट कट भी इतनी ही  खूबसूरती से खेलते। जब गेंद विकेटकीपर के हाथों में जाने को होती तो वे गेंद को कट कर  बाउंड्री की राह दिखा देते। उनकी टेक्नीक एकदम परफेक्ट थी। अपने सिर को निशाना बनाकर फेंकी गई बाउंसर को इतने सीधे बल्ले से खेलते कि वो गेंद उनके पैरों के पास गिरकर डेड हो जाती और क्लोज इन फील्डर को भी उसे उठाने के लिए पिच पर आना पड़ता। उनका खुद का मानना था कि उनकी टेक्नीक इतनी परफेक्ट थी कि वेस्टइंडीज के सबसे खूँखार आक्रमण के सामने भी उन्हें हेलमेट जैसे सुरक्षा कवच की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। 

            दरअसल वे जादूगर थे। ऐसे जादूगर जो काठ के बल्ले में जान फूंक देते और उसे सजीव बना देते। उनके हाथों में आकर बल्ला वैसे बात करता जैसे कोई कठपुतली उसके खेल दिखाने वाले के हाथों  में सजीव हो जाती और बतियाती,बोलती सी लगती। उनके हाथों में आकर बल्ला 'डांस मास्टर' सरीखा हो जाता जिसके इशारों पर गेंद नाचने लगती।

                    काठ का कोई बल्ला यूं ही क्रिकेट का बल्ला नहीं बनता,वो बनता है जब साधक बल्लेबाज़ अपनी कलात्मकता और टेक्नीक से गेंद और बल्ले के मिलन की एक लयात्मक घटा की निर्मिति करते हैं और फिर उस से होने वाली कभी रनों की फुहार,तो कभी रनों की रिमझिम बरसात खेल के चाहने वालों को सराबोर कर उनको अनिवर्चनीय आनंद की अनुभूति से भर देती हैं। गावस्कर बल्ले के ऐसे ही असाधारण साधक थे जिन्होंने अपने बल्ले से गेंद की लय को साधकर क्रिकेट प्रेमियों को अनिर्वचनीय आनंद की अनुभूति कराई।

                 उन्हें सचिन की तरह भगवान का दर्जा भले ही ना मिला हो पर वे क्रिकेट की दुनिया के सार्वकालिक महान बल्लेबाज में से एक और बिला शक सर्वश्रेष्ठ आरंभिक बल्लेबाज़ थे। शास्त्रीयता में वे क्रिकेट के भीमसेन जोशी या कुमार गंधर्व या पं जसराज ठहरते हैं। वे उनकी रचनाओं की तरह ही अपने क्लासिक स्ट्रोकों से अपने खेल का कोमल,सुदर्शन और लयबद्ध संसार रचते जिसे  देखकर देखने वालों को संगीत सा आनंद मिलता। उनके खेल में रक्षण और आक्रमण का कमाल का मिश्रण था। उनके खेल को देखकर लगता मानो उनमें तुलसी और कबीर की आत्मा एक साथ समा गई हो। गेंदबाज की बेहतरीन गेंदों को सम्मान देने के लिए वे अपने डिफेंस में तुलसी की विनयपत्रिका की रचनावली की तरह विनत हो जाते और खेल व खिलाड़ी की लय तथा समरसता को तोड़ने वाली गेंदों को सबक सिखाने के लिए उनके आक्रामक स्ट्रोक्स कबीर की वाणी से हो जाते। पर दोनों ही दशा में तुलसी और कबीर की रचनाओं की गेयता की तरह उनके खेल की लय कभी नहीं टूटती।

                 त्रिनिदाद और टोबेगो दरअसल कैलिप्सो संगीत का देश है। कैलिप्सो एफ्रो कैरेबियन लोक गीत संगीत है जिसका मूल स्वर उपहास और व्यंग्य का है। क्या ही कमाल है कि गावस्कर वेस्टइंडीज में अपने शानदार क्लासिक खेल से कैलिप्सो की मूल भावना के अनुरूप खेल के मास्टर्स को चेतावनी देते हैं कि इस खेल की श्रेष्ठता अब किसी की बपौती नहीं रहने वाली है। ये वेस्टइंडीज से ज़्यादा शायद इंग्लैंड के लिए थी जिसे आगामी गर्मियों में हराकर भारत को एक ऐतिहासिक जीत जो

 हासिल करनी थी। उनके क्लासिक खेल के प्रभाव को इस रूप में भी देखा जा सकता है कि अपने खेल से वे कैलिप्सो रचने की प्रेरणा बनते हैं और लार्ड रेलातोर उनके खेल से प्रभावित होकर 'गावस्कर कैलिप्सो' रचते हैं जिसका भावार्थ  है-

'ये गावस्कर था

 सच्चा मास्टर

 एक दीवार के सदृश

 हम गावस्कर को बिल्कुल भी आउट नहीं कर सके

 हां बिल्कुल भी

 तुम जानते हो 

 वेस्टइंडीज गावस्कर को आउट नहीं कर सका 

 बिल्कुल भी'

                दरअसल यही गावस्कर की महानता है। उनके खेल से उनके विपक्षी भी उतने ही प्रभावित हुआ करते हैं जितने उनके प्रशंसक। महान खिलाड़ी वही होता है जो अपने विपक्षी की योग्यता के अनुरूप अपने खेल के स्तर को ऊंचा कर ले। गावस्कर ने सबसे शानदार प्रदर्शन वेस्टइंडीज के विरुद्ध ही किया जो उस समय की सबसे मजबूत और शानदार टीम मानी जाती थी। उन्होंने 34 में से 13 शतक वेस्टइंडीज के खिलाफ ही लगाए। 

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निसन्देह गावस्कर लिविंग लीजेंड हैं। उनकी कीर्ति 50 साल तो क्या आने वाले सैकड़ों 50 सालों तक यूं ही अक्षुण्ण रहने वाली है।

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