उस दिन डूबते सूरज को देखते हुए उसने पूछा 'तुम्हें सूरज अच्छा लगता है ना?'
मैंने कहा 'हां,देखो ना,सूरज आदमी के जीवन का कितना सुंदर रूपक गढ़ता है। सुबह का सूरज बचपन सा मासूम,दोपहर का युवावस्था सा ओजस्वी और शाम का वृद्धावस्था सा निस्तेज।'
'और तुम्हें?' मैंने उससे पूछा
उसने एक बार फिर डूबते सूरज को देखा और बोली'लड़कियों का सूरज कहां लड़कों के सूरज सा होता है।'
'दो सूरज?' मैं अचकचाया
वो बोली 'लड़कियों के सूरज की दोपहर कहां होती है। वे दोपहर के सूरज होने से पहले ही नैहर से विदा जो कर दी जाती हैं ढलते सूरज सी। फिर कहां उसके जीवन में सूरज आता है। वे चांद हो जाती हैं। कुछ के हिस्से पूर्णिमा,कुछ के हिस्से अमावस।
पास ही कुछ चिड़िया एक सुर में चहचहाने लगीं। शायद वे उसकी बात की ताईद कर रही थीं।
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