हारा थका दिन सांझ हुआ उनींदा हुआ जाता है।
कि वो रात के सीने पर सर रख कर सो जाता है।
रात किसी प्रेमिका सी चांद-तारों की मद्धम रोशनी में उसके जागने की प्रतीक्षा करती रहती है।
प्रतीक्षाएँ हैं कि बेचैनी का सबब हुई जाती हैं और अधूरी रहने को अभिशप्त।
ये जानते हुए भी कि एक का जीवन दूसरे की मृत्यु है,रात है कि खुद को प्रतीक्षा में गलती जाती है और सुब्ह में विलीन हुई जाती है।
वो खुश थी कि खत्म भी हुई तो क्या हुआ उसने दिन को नया जीवन तो दिया।
उधर सुब्ह हुआ दिन है कि रात को भूला जाता है।
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