Wednesday, 21 April 2021

कुंभ मेला:हरिद्वार और प्रयाग



             कुम्भ मेला विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक मेला ही नहीं है बल्कि हिंदुओं की धार्मिक परम्पराओं का,उनकी धार्मिक आस्थाओं का और उनके धार्मिक विश्वासों का सबसे बड़ा शाहकार भी है। इतना ही नहीं ये उनकी इस जीवन के पार पारलौकिक दुनिया के बारे में विश्वासों और धारणाओं के अतिरेक का प्रमाण भी है। अगर ऐसा नहीं होता तो इतनी बड़ी संख्या में लोग तमाम असुविधाओं,परेशानियों,यहां तक की जीवन के जोखिम को उठाकर भी अपने इस जीवन के साथ साथ परलोक को भी साधने के लिए इसमें भाग लेने क्यों आते!

           दरअसल इस मेले में एक अजब सा आकर्षण है जिससे वशीभूत हो दुनिया के कोने कोने से लोग खिंचे चले आते है। वे भी जिनकी इसमें आस्था है और वे भी जिनकी कोई आस्था नहीं है। चार स्थानों पर लगने वाले ये कुम्भ मेले अपने उद्भव और अंतर्वस्तु में समान हैं। समुद्र मंथन से निकले अमृत कलश वाली कथा,अखाड़े,उनकी शोभा यात्राएं,पेशवाई,शाही स्नान,भजन कीर्तन,प्रवचन,लाखों श्रद्धालु, साधु संत और श्रद्धा व आस्था की बहती अबाध  धारा। इन चारों स्थानों के मेलों का तो पता नहीं पर क्या ही कमाल है कि प्रयाग और हरिद्वार के मेले एक जैसी अंतर्वस्तु और धार्मिक भावना से अनुस्यूत होने के बावजूद अपनी प्रकृति और चरित्र में कितने भिन्न हैं!

        हरिद्वार में मानव ने गंगा के प्राकृतिक बहाव को अवरुद्ध कर उस को बांधने का प्रयास किया। उसकी एक धारा को मोड़कर अपने अनुसार दिशा दी और उसके किनारों को ईंट,पत्थर और सीमेंट से बांधकर उसे नियंत्रित करने का प्रयास किया। नाम दिया 'हर की पैड़ी'। वहां गंगा का बहाव बहुत तीव्र है। उस वेग से जो ध्वनि वहां गूंजती है उससे सिहरन पैदा होती है। ऐसा लगता है मानो इस बंधन से गंगा  नाराज हैं, उद्विग्न हैं। इस बंधन से मुक्ति के लिए वेग से वहां से निकल जाना चाहती हैं। वहां पूरे वातावरण में एक अंतर्निहित गतिशीलता है। पूरा वातावरण ही गतिशील है। यहां सिर्फ गंगा ही गतिशील नहीं हैं बल्कि गंगा भक्त भी उतने ही गतिशील लगते हैं। यहां स्नानार्थी भी एक तरह की जल्दी में लगते हैं। कोई ठहराव नहीं है। उन्हें जल्द से जल्द स्नान पुण्य अर्जित कर शीघ्रातिशीघ्र वापस जाना है।

              इसके उलट प्रयाग में देखिए। वहां गंगा बिना किसी बंधन या रुकावट के अपने प्राकृतिक बहाव में हैं। वहां गंगा शांत चित्त लगती हैं,बेहद सुकून में,मंद मंद गति से अपनी मस्ती में बहती हुई। इसीलिए वहां के माहौल में गति नहीं है गतिहीनता की स्थिति है,एक ठहराव है। वहां गंगा भक्तों में भी कोई हड़बड़ी या जल्दबाजी नहीं दीखती। वे ठहर जाना चाहते है और ठहरते भी हैं। शायद यही कारण है कि एक माह के कल्पवास का प्रावधान केवल यहीं है। ये एक माह का कल्पवास इस ठहराव का सबसे बड़ा वक्तव्य है। प्रयाग में भक्त अपनी भागती दौड़ती ज़िन्दगी में भी यहां आकर ठहर जाते हैं।



            हरिद्वार में सारे निर्माण स्थायी हैं। पक्के घाट हैं। यहां भरपूर चकाचौंध है। यहां रंग बिरंगा प्रकाश है। ये रोशनी यहां अंधेरा खत्म करने से कहीं ज़्यादा सजावट के लिए है। कुल मिलाकर पूरा माहौल एक प्रकार की कृत्रिमता लिए हुए है। प्रगति का ,आधुनिकता का सूचक है और यहां के माहौल की अंतर्निहित गतिशीलता को और गति प्रदान करता है।

            इसके उलट आप प्रयाग को देखिए। यहां के मेला क्षेत्र का कोई भी निर्माण पक्का या स्थायी है ही नहीं। यहां तक कि मुख्य स्नान घाट संगम नोज भी हर बार अपना स्थान बदल लेता है। हरिद्वार में हर जगह ईंट और पत्थर हैं और उसकी कठोरता है तो प्रयाग में हर और रेत ही रेत है और उसकी कोमलता है,सहजता है सरलता है। यहां के घाटों पर रेत की बोरिया हैं और पुआल है। ये सब यहां की ठहराव के ही अनुरूप है और वातावरण को और अधिक गतिहीन करता है।

           दरअसल हरिद्वार और प्रयाग के कुम्भ का अंतर पश्चिम और पूरब का अंतर है,आधुनिकता और पररम्परा का अंतर है,शहरी और ग्रामीण संस्कृति का अंतर है। हरिद्वार में धार्मिकता अंतर्निहित होते हुए भी मनोरंजन और देशाटन की भावना प्रमुख है और प्रयाग में मनोरंजन और देशाटन की भावना अंतर्निहित होते हुए भी धार्मिक भावना प्रधान है।

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एक ही कथा से उद्भूत और एक जैसी अन्तर्वस्तु लिए दो जगह लगने वाला एक ही मेला भूगोल और इतिहास के चलते अपनी प्रकृति में कितने अलग लगने लगता है!


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