उम्मीद का चाँद
------------------
जब जब मैंने चाहा
कोई एक हो
सावन बन बरस
भिगा दे तन मन
वो रूठा मानसून बन गया
जब जब चाहा
कोई एक हो
बन धूप
ठिठुरन से राहत दे
वो शीत लहर बन गया
जब जब मैंने चाहा
कोई एक हो
छाया बन
ताप से राहत दे
वो लू सा चलने लगा
पर हर नाउम्मीदी के चरम पर
एक वो आता है
कि बिन मौसम बरसात सा बरस
मिटा देता अभाव के हर सूखेपन को
कि सूरज बन टँक जाता मन के आकाश पर
उष्मा सा फ़ैल
हर लेता निराशा की ठिठुरन
कि समीर सा बहने लगता
और सुखा जाता दुःख के हर स्वेद कण को
वो जानता है
कि नाउम्मीदी में उम्मीद का चाँद बन जाने से बेहतर
कहीं कुछ नहीं होता।
---------------------------
आ बैठे चल चर्च के पीछे
No comments:
Post a Comment