जीवन
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हर सुबह नए जोश से
उमगता सा सूरज मिलने आता
अपनी प्रियतमा धरती से
दिन भर अठखेलियां करता
ओढ़ा सुनहरी धूप की चुनरी
उष्मा से उसे भरता जाता
शाम ढले जब वो वापस जाता
तो चंदा चुपके से
मंद मंद मुस्काते आता
हास परिहास कर उससे
रुपहली चादर शीतल चांदनी से
दग्ध प्रेमिका को सहला जाता
दूर गगन में हॅसते गाते तारे भी आते
अपनी खिलखिलाहटों से
वे भी धरती को कुछ उमगा जाते
जब तब आवारा बादल भी तो आता
कर चन्दा सूरज को पीछे
भर प्यासी धरती को आगोश में
उसकी प्यास मिटा जाता
और
बावली धरती
इन सब से कुछ कुछ लेकर
अपनी औरस संतान की खातिर
खुद को हरा भरा करती जाती
पर बेगैरत संतान वो उसकी
कहाँ उसकी ममता का मान है धरती
पहुंचा अपनी ही माँ को रुग्णावस्था में
मृत्यु उसकी निश्चित करती
नहीं जानते पर वे
जिस दिन मृत्यु माँ की होगी
कैसे उठेगी उनकी खुद की अर्थी ।
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तो क्या मृत्यु ऐसे भी आती है ?
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