Sunday, 16 January 2022

अकारज 14

 

वो आज अपने घर जा रही थी।

मैंने विदा करते हुए हुए कहा- 'घर पहुंचकर फोन करना।'

उसका चेहरा प्रेम से प्रदीप्त हो उठा। उसने शोख नज़रों से देखा और बोली- 'ज़रूर, गर पहुंच सकी तो।'

मैंने प्रश्नवाचक नज़रों से उसकी ओर देखा।

उसने कहा-'जबसे तुम्हारे साथ हूँ,कहां कहीं जा पाती हूँ। सारी की सारी तो तुम्हारे पास रह जाती हूँ।'


अब

सारे शब्द अर्थहीन हो रहे थे।

ध्वनियां मौन में घुल रही थीं।

और जज़्बात थे कि मौन के सागर में ज्वार भाटे से मचले  जा रहे थे।

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समय भी जो हमारे साथ हो लेता है वो कहां हमसे विदा लेता है। 

फिर भी औपचारिकताऐं तो निभानी ही पड़ती है ना। 

अलविदा 2021 !


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