Saturday, 28 June 2014

फुटबॉल विश्व कप 2014_5

     

            ब्राज़ील में खेले जा रहे विश्व कप फुटबॉल का पहला दौर समाप्त हो चुका है और 16 टीमें नॉक आउट दौर में पहुंच गयी हैं। इसमें कोई शक नहीं अब जो खेल होगा उसका कोई जवाब नही होगा। पर अब तक जो बीता उसका भी जवाब नही।  इस पहले दौर में वो सब कुछ तो था ही जिसकी उम्मीद की जा रही थी। साथ ही वो सब भी हुआ जिसकी उम्मीद किसी ने नहीं की थी। कुछ अर्श से फर्श पर आ गिरे,कुछ ज़मीं से उड़ आसमां में तैरने लगें। कुछ की उम्मीदें किरिच किरिच छितरा  गयीं। कुछ के सपने हक़ीक़त बन फिज़ां में उड़ने लगे। चैम्पियन ज़मींदोज़ हो गए नामालूम हीरो बन गए। किसी की आँख से दुःख की अश्रुधारा बही तो किसी के मन में हर्ष हिलोरे मारने लगा। 
           क्या कुछ नहीं था इस पहले दौर में। पिछले चैम्पियन स्पेन का नीदरलैंड और चिली के हाथों हारना;इटली,पुर्तगाल,इंग्लैंड,स्पेन का पहले दौर में ही बाहर होना;मुलर और शकीरी का हैट्रिक लगाना;पेपे का मुलर को सिर से मारना;स्विट्ज़रलैंड के हैरिस सेफरोविच का अंतिम क्षणों में इक्वाडोर के विरुद्ध यादगार गोल करना;ऑस्ट्रेलिया के टिम काहिल का नीदरलैण्ड के खिलाफ लाजवाब गोल दागना;इंग्लैंड के वाइने रूनी द्वारा  वर्ल्ड  कप में पहला गोल करना ; मेस्सी का फ्री किक से ट्रेड मार्का बेह्तरीन गोल करना;क्लोसे का विश्व कप में 15वां गोल कर रोनाल्डो के रिकॉर्ड की बराबरी करना;वेन पर्सी का हेडर से अविस्मरणीय गोल करना;ग्रुप ड़ी में इंग्लैंड,इटली और उरुग्वे को पीछे छोड़ कोस्टारिका का टॉप पर रहना;नेमार का शानदार खेल;सुआरेज का इटली के चेलिनी को काटना और उन पर 9 मैचों का प्रतिबन्ध लगना;रैफरियों के गलत निर्णय;गोल लाइन टेक्नोलॉजी पर विवाद;गर्मी से परेशान खिलाड़ियों के लिए पहली बार वाटर ब्रेक होना और भी बहुत कुछ। 
            प्री क्वार्टर फाइनल  लिए जो 16 टीमें क्वालीफाई की हैं उनमे से केवल 6 यूरोप से हैं-नीदरलैंड ,जर्मनी ,फ्रांस ,बेल्जियम ,स्विट्जरलैंड और ग्रीस। जबकि दक्षिण अमेरिका से 6 में से 5 टीमें-ब्राज़ील ,अर्जेंटीना ,चिली ,कोलम्बिया और उरुग्वे ने  क्वालीफाई किया केवल इक्वाडोर को छोड़ कर। जबकि मध्य और उत्तरी अमेरिका की 4 में से 3 टीमों-यू.एस.ए.,मैक्सिको और कोस्टारिका ने क्वालीफाई किया हैं। अफ्रीका की भी दो टीमें अल्जीरिया तथा नाइजीरिया आगे बढीं हैं। सबसे ख़राब प्रदर्शन एशिया की टीमों का रहा है। एशिया जोन से  क्वालीफाई करने वाली टीमों का आगे बढ़ना तो  दूर क़ोई टीम एक मैच तक  नही जीत  सकी।
          इससे एक बात साफ़ है कि स्थानीय परिस्थितियों और मौसम का खेल पर और टीमों के प्रदर्शन पर खासा असर पड़ता है। यूरोप की टीमें जो कि ठंडे मौसम में खेलने की आदी हैं,गर्मी से परेशान हैं और इसका असर उनके खेल पर पडा है। ब्राज़ील में इन दिनों काफी गर्मी पड रही हैं। ये पहली बार हुआ कि खेल के दौरान वाटर ब्रेक करने का प्रावधान किया गया। 2010 में दक्षिण अफ्रीका में हुए विश्व  कप में भी यूरोप से 6 टीमें क्वालीफाई की थीं क्योंक़ि वहॉं का मौसम भी कमोबेश ऐसा ही था। जबकि 2006 के जर्मनी और १९९८ में फ्रांस में हुए विश्व कप में यूरोप की 10-10 टीमें क्वालीफाई की थीं। 
        सही है कि खिलाड़ियों पर स्थानीय परिस्थितियों का असर पड़ता है। आप टीमों के खेलने के ढंग से पता लगा सकते हैं कि किस महाद्वीप की टीम खेल रही है। हर महाद्वीप से आने वाली टीमों की अपनी खास शैली होती है जो उनकी सांस्कृतिक,भौगोलिक और सामाजार्थिक परिवेश से जन्म लेती है और उनके खेल की विशेषता बन जाती है। आप यूरोपीय टीमों को खेलते देखिए। उनके खेल में एक खास तरीके का अभिजात्य देखने को मिलेगा। उन्होंने पूरे विश्व पर राज किया। वे अपने को सर्वश्रेष्ठ समझते हैं। शारीरिक बनावट के अनुरूप उन्होंने फुटबॉल को ही नहीं सभी खेलों के कलात्मक स्वरुप को बदल कर पॉवर प्ले में बदल दिया। लम्बे तकड़े शॉट,शक्ति और गति उनके फुटबॉल का मूलमंत्र है। बॉल पर अधिकाधिक नियंत्रण उनके खेल की कुंजी है क्योंकि हर चीज  पर नियंत्रण रखना उनकी मानसिकता है जो उनके सर्वश्रेष्ठ होने की थ्योरी से पैदा होतीं है जिसके हिटलर और मुसोलिनी सबसे बड़े प्रतिनिधि हैं। किसी भी मैच को देखिए बॉल पर नियंत्रण का सबसे अधिक प्रतिशत यूरोपीय टीम का होता है भले ही मैच हारे हों। इसके ठीक विपरीत अफ़्रीकी टीमों को देखिए। ग़ज़ब का जुझारूपन उनके खेल में देखने को मिलेगा। आसानी से हार ना मानना,अंतिम समय तक संघर्ष करना और जीतने के लिए सारी ताकत झोंक देना उनका मूलमंत्र है। अफ़्रीकी देश विश्व के सबसे गऱीब देशों  में हैं। कठिन भौगोलिक परिस्थितियों और जटिल जातीय संरचना में जीते हैं। विश्व के सबसे कठिन गृहयुद्धों के बीच अपने अस्तित्व और अस्मिता को बचाए रखने के लिए उन्हें घोर संघर्ष करना पड़ता है। विपरीत से विपरीत स्थितियों में भी सर्वाइव करने और जीने की लालसा अफ़्रीकी फुटबॉलरों की शैली निर्मित करती हैं। केन्या और इथोपिया जैसे देशों ने मध्यम और लम्बी दूरी के जो महान धावक दिए हैं वे इसी जिजीविषा की उपज हैं। एशिया के देश मध्यम वर्ग जैसे हैं। ना बहुत अमीर ना बहुत ग़रीब। एक खास किस्म का आलस्य उनके स्वभाव में हैं जो शायद आर्द्र जलवायु की वज़ह से है और मध्य वर्ग की कृपणता भी मौजूद रहती है। तभी तो मैदान में छोटे छोटे पासों  खेलना और अपना सब कुछ झोंक कर जीतने के बजाए एक अभिजात्य आलस्य मैदान  पसरा दिखाइ देता हैं। दक्षिण और मध्य अमेरिका में समाजवाद की लम्बी परंपरा रही है-चे ग्वेरा  लेकर फिदेल कास्त्रो तक की। एक बड़ा तबका इस आंदोलन से जुङा हैं। एक बड़ा सर्वहारा वर्ग विद्यमान है। उनके भीतर एक आर्टिसनाशिप है,एक कलात्मकता है जिसे वे जीवन में ही नहीं बल्कि फुटबॉल के  मैंदान में भी उतार देते हैं और खेल को एक साकार कलाकृति का रूप दे देते हैं। विश्व के महानतम खिलाड़ी पेले ,माराडोना, रोनाल्डो, नेमार और मैसी  जैसे खिलाड़ी उसी क्षेत्र और वर्ग से आते हैं। दरअसल जब हम फुटबॉल देखते हैं तो हम केवल खेल ही नहीं  देखते बल्कि दो अलग अलग क्षेत्रों की संस्कृतियों ,जीवन प्रणाली और समाजार्थिक तथा भौगोलिक बुनावटों के बीच टकराहट भी देखते हैं। जब आप राउंड 16 के और आगे के मैच देखें तो इस बात को याद रखिए। यकीन मानिए मज़ा आएगा।























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