भारत ने क्रिकेट का भगवान दिया , हॉकी का जादूगर दिया ,शतरंज बिलियर्ड्स स्नूकर शूटिंग बैडमिंटन टेनिस जैसे खेलो के विश्व चैम्पियन दिए। लेकिन फुटबॉल में एक विश्व स्तरीय खिलाड़ी नहीं पैदा कर सका। सचिन, कपिल, गावस्कर जैसे नाम बच्चे बच्चे की जुबान पर हैं,विश्वनाथन,अमृतराज बंधु,सानिया,पेस, महेश,रोंजन सोढ़ी,जसपाल राणा,प्रकाश पदुकोने,सैय्यद मोदी,गोपीचंद ,साइना,राज्यवर्धन सिंह ,ध्यानचंद,अजीतपाल सिंह,मो.शाहिद,धनराज,गीत सेठी,माइकल फरेरा,पंकज आडवाणी तमाम चैम्पियन खिलाड़ी हैं जिनकी विश्व स्तर पर पहचान है। पर क्या आप किसी ऐसे फुटबॉल खिलाड़ी का नाम ले सकते हैं? शायद नहीं। चुन्नी गोस्वामी,पी. के. बनर्जी,साबिर अली या बाइचुंग भूटिया जैसे कुछ नाम हैं जिनका आप उल्लेख कर सकते हैं। पर विश्व स्तर पर इनकी क्या जगह बनती है आप खुद समझ सकते हैं।
फुटबॉल विश्व के हर देश देश में खेला जाता है। इस विश्व कप फाइनल्स के लिए क्वालीफाइंग दौर में 200 से भी अधिक देशों की टीमों ने भाग लिया। ये एक ऐसा खेल है जो सबसे सस्ते खेलों में शुमार है। लेकिन क्या विरोधाभास है कि भारत जैसे विकासशील और कम संसाधनों वाले देश में महँगे खेलों में तो भगवान,जादूगर और चैम्पियन पैदा किये पर फुटबॉल में एक भी ऐसा खिलाड़ी नहीं दिया जिसकी विश्व स्तर पर कोई पहचान बन सकी हो। विरोधाभास ये भी है कि देश में फुटबॉल लोकप्रिय खूब है। इस समय फुटबॉल विश्व कप की धूम है। इसका जबरदस्त क्रेज़ है।लोग इसको लेकर उत्साहित हैं। मीडिया में भी खूब कवरेज है। दैनिक अखबारों के पृष्ठ फुटबॉल की खबरों से भरे पड़े हैं। टी वी चैनल भी स्पेशल कार्यक्रम कर रहे हैं।ब्राज़ील से लेकर जर्मनी,इटली,अर्जेंटीना और स्पेन तक के दीवानगी की हद तक प्रशंसक हैं। रात रात भर जाग कर मैच देखते हैं। पर कोई फुटबॉल खेलना नहीं चाहता।
आज भारत की फुटबॉल टीम की विश्व रैंकिंग अफगानिस्तान से भी नीचे है।1950 के आसपास जरूर ऐसा समय था जब फुटबॉल में भारत की विश्व स्तर पर कुछ पहचान थी ये समय है 1948 से 1964 तक का। 1948 का लन्दन ओलिंपिक। पहली बड़ी प्रतियोगिता थी जिसमें भारत ने भाग लिया। यहाँ उनका मुकाबला फ्रांस से था। वे 1-2 से मैच हारे जरूर । पर दर्शकों का दिल जीत लिया। ज्यादातर खिलाडी नंगे पैरों से खेल रहे थे। पर शानदार खेल दिखाया। यदि उन्होंने दो पेनाल्टी को गोल में तब्दील कर दिया होता तो कहानी कुछ और होती। इसी समय सैयद अब्दुल रहीम भारतीय फ़ुटबाल परिदृश्य पर उभरते हैं। कोच के रूप में उन्होंने भारतीय फुटबॉल को नई ऊँचाई तक पहुँचाया। 1951 में पहले एशियाई खेल नई दिल्ली में आयोजित किये गए। यहाँ टीम ने स्वर्ण पदक जीता। क्वार्टर फाइनल में इंडोनेशिया को 3-0 से और सेमी फाइनल में अफगानिस्तान को 3-0 से हराया। फाइनल में ईरान को 1-0 हराकर स्वर्ण पदक जीता। मेवालाल साहू जीत के नायक रहे। उन्होंने सर्वाधिक 4 गोल दागे। लईक, वेंकटेश ,अब्दुल लतीफ़ और मन्ना टीम के अन्य सितारे थे। इसके बाद भारतीय फुटबाल की एक नई गाथा लिखी जानी थी। सन 1956 मोंट्रियाल ओलिंपिक। पहला मैच - हंगरी से वॉक ओवर मिला। दूसरा मैच क्वार्टर फाइनल। मेजबान ऑस्ट्रेलिया को 4-2 से हराया। नेविल डीसूजा मैच के हीरो - हैट ट्रिक बनाने वाले पहले एशियन बने और इस तरह ओलिंपिक फुटबॉल के सेमी फाइनल में पहुँचने वाली पहली एशियाई टीम बनी। सेमी फाइनल यूगोस्लाविया से। पहला हाफ गॉल रहित। दूसरा हाफ - 55वें मिनट में नेविल डिसूजा ने भारत को बढ़त दिलाई। पर इस बढ़त को कायम न रख सके। अंततः 4-1 से हारे। प्ले ऑफ मैच में बुल्गारिया से 3-0 से हारे और चौथा स्थान प्राप्त किया। 1951 के बाद 1962 के जकार्ता एशियाई खेलों में भारतीय खिलाडियों ने शानदार खेल दिखाया और पुनः स्वर्ण पदक जीता। हाँलाकि लीग स्टेज में साउथ कोरिया से 0-2 से हारे पर थाईलैंड को 4-1 से और जापान को 2-0 से हरा कर सेमी फाइनल में प्रवेश किया जहाँ साउथ विएतनाम को 3-2 से हराया। फाइनल में साउथ कोरिया को 2-1 से हरा कर न केवल स्वर्ण पदक जीता बल्कि लीग में हार का बदला भी ले लिया। इसके बाद साल 1964 तीसरा ए.एफ.सी.एशियन कप इस्रायल में आयोजित हुआ। यहाँ रजत पदक जीता। चुन्नी गोस्वामी, इन्दर सिंह और सुकुमार जैसे खिलाड़ी इस टीम के सदस्य थे। यहीं से भारतीय फुटबॉल के पतन की कहानी शुरू होती है जो सितम्बर 2012 में चरम पर पहुँच गयी जब भारत फीफा रैंकिंग में 169वें स्थान पर आ गया।
इस हालत के जिम्मेदार लोग कौन हैं, इसकी शिनाख्त होना जरूरी है।
आज भारत की फुटबॉल टीम की विश्व रैंकिंग अफगानिस्तान से भी नीचे है।1950 के आसपास जरूर ऐसा समय था जब फुटबॉल में भारत की विश्व स्तर पर कुछ पहचान थी ये समय है 1948 से 1964 तक का। 1948 का लन्दन ओलिंपिक। पहली बड़ी प्रतियोगिता थी जिसमें भारत ने भाग लिया। यहाँ उनका मुकाबला फ्रांस से था। वे 1-2 से मैच हारे जरूर । पर दर्शकों का दिल जीत लिया। ज्यादातर खिलाडी नंगे पैरों से खेल रहे थे। पर शानदार खेल दिखाया। यदि उन्होंने दो पेनाल्टी को गोल में तब्दील कर दिया होता तो कहानी कुछ और होती। इसी समय सैयद अब्दुल रहीम भारतीय फ़ुटबाल परिदृश्य पर उभरते हैं। कोच के रूप में उन्होंने भारतीय फुटबॉल को नई ऊँचाई तक पहुँचाया। 1951 में पहले एशियाई खेल नई दिल्ली में आयोजित किये गए। यहाँ टीम ने स्वर्ण पदक जीता। क्वार्टर फाइनल में इंडोनेशिया को 3-0 से और सेमी फाइनल में अफगानिस्तान को 3-0 से हराया। फाइनल में ईरान को 1-0 हराकर स्वर्ण पदक जीता। मेवालाल साहू जीत के नायक रहे। उन्होंने सर्वाधिक 4 गोल दागे। लईक, वेंकटेश ,अब्दुल लतीफ़ और मन्ना टीम के अन्य सितारे थे। इसके बाद भारतीय फुटबाल की एक नई गाथा लिखी जानी थी। सन 1956 मोंट्रियाल ओलिंपिक। पहला मैच - हंगरी से वॉक ओवर मिला। दूसरा मैच क्वार्टर फाइनल। मेजबान ऑस्ट्रेलिया को 4-2 से हराया। नेविल डीसूजा मैच के हीरो - हैट ट्रिक बनाने वाले पहले एशियन बने और इस तरह ओलिंपिक फुटबॉल के सेमी फाइनल में पहुँचने वाली पहली एशियाई टीम बनी। सेमी फाइनल यूगोस्लाविया से। पहला हाफ गॉल रहित। दूसरा हाफ - 55वें मिनट में नेविल डिसूजा ने भारत को बढ़त दिलाई। पर इस बढ़त को कायम न रख सके। अंततः 4-1 से हारे। प्ले ऑफ मैच में बुल्गारिया से 3-0 से हारे और चौथा स्थान प्राप्त किया। 1951 के बाद 1962 के जकार्ता एशियाई खेलों में भारतीय खिलाडियों ने शानदार खेल दिखाया और पुनः स्वर्ण पदक जीता। हाँलाकि लीग स्टेज में साउथ कोरिया से 0-2 से हारे पर थाईलैंड को 4-1 से और जापान को 2-0 से हरा कर सेमी फाइनल में प्रवेश किया जहाँ साउथ विएतनाम को 3-2 से हराया। फाइनल में साउथ कोरिया को 2-1 से हरा कर न केवल स्वर्ण पदक जीता बल्कि लीग में हार का बदला भी ले लिया। इसके बाद साल 1964 तीसरा ए.एफ.सी.एशियन कप इस्रायल में आयोजित हुआ। यहाँ रजत पदक जीता। चुन्नी गोस्वामी, इन्दर सिंह और सुकुमार जैसे खिलाड़ी इस टीम के सदस्य थे। यहीं से भारतीय फुटबॉल के पतन की कहानी शुरू होती है जो सितम्बर 2012 में चरम पर पहुँच गयी जब भारत फीफा रैंकिंग में 169वें स्थान पर आ गया।
इस हालत के जिम्मेदार लोग कौन हैं, इसकी शिनाख्त होना जरूरी है।
Mera Hindi itni achchhi nehi hain. Lekin aap ke saral lekh padne mein koi dikkat nehi hua. Main aapke lekh se pure sahamat hun.
ReplyDeletethanx sir !
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