शहर में मची आपा-धापी से ऊब कर
बार-बार लौट जाता हूँ गाँव
खेत खलिहानों की हरियाली को निहारने
हल चलाने की कोशिश करने
रहट चलाने
झोंटा बुग्गी हाँकने
होल़े भुनकर खाने
कोल्हू मे बनते ताज़े गुड को चखने
छप्पर पड़े घर में दुबकने
छप्पर पड़े घर में दुबकने
बड़े से घेर में उछल कूद मचाने
घी-दूध की नदियो में मचलने
रागिनियाँ सुनने
सांग देखने
चौपाल पर बैठने
हुक्का गुडगुडाते बाबा से नसीहते सुनने
अखाड़ो में भाई बन्धुओ को जोर आजमाइश करते देखने
बच्चों के साथ कंचे और गुल्ली डंडा खेलने
कली पीती दादी माँ का दुलार पाने
चरखा कातती ताई-चाची से आशीर्वाद लेने
साँझी को सजाने
बरकुल्लों को होलिका पर अर्पण करने
यारों से मिलने
बचपन की यादों के कोलाज़ सजाने
बरकुल्लों को होलिका पर अर्पण करने
यारों से मिलने
बचपन की यादों के कोलाज़ सजाने
और भी ना जाने क्या क्या करने ,देखने,सुनने और गुनने
लौट आता हूँ मैं गाँव बार-बार
क्योंकि मैं भूल जाता हूँ
कि अब हो रहा है भारत निर्माण
और बदल रही है गाँव की तस्वीर
घरों की जगह ईंट सीमेंट से बने दड़बों ने ले ली है
गाँव बन गया है पॉश कालोनियों से घिरा टापू
जहाँ विकास की रोशनी पहुँचती है थोड़ी बहुत छनकर
मैकाले की फ़िल्टरेशन थ्योरी की तरह
पर और बहुत सारी ग़ैर ज़रूरी चीजे पहुँच जाती आसानी से
बिना किसी रोकटोक के भरपूर
पब्लिक स्कूल उग आये है कुकुरमुत्तों की तरह
जहाँ दुखहरन मास्टरजी नहीं ,पढ़ाती हैं टीचरजी
दारु के ठेके भी देर रात तक रहते हैं गुलज़ार
कुछ शोह्देनुम लोग भी दिखाई पड़ने लगे हैं गाँव में
चौपालों पर तैरने लगे हैं राजनीतिक षड़यंत्र
गलियों में कुत्तों के साथ साथ घूमने लगे है माफिया
और इन्ही लोगों के साथ-साथ चुपके से बाज़ार ने कर ली है घुसपैठ
फिर भी लौट लौट जाता हूँ गाँव
जैसे बाबा हर बार अपने बेटे के पास से लौट आते थे गाँव
जीवन की सांध्य बेला में पिताजी को भी नहीं रोक सकी शहर की
कोई सीमा
वैसे ही
जड़ों से उखड़ने के बाद शहर की भीड़ के बियावान में गुम
अपनी पहचान की तलाश में
अपनी जड़ो की और लौटता हूँ मैं भी
उन्हें सींचने और बनाने मजबूत
लौटता हूँ गाँव बार बार।
जहाँ विकास की रोशनी पहुँचती है थोड़ी बहुत छनकर
मैकाले की फ़िल्टरेशन थ्योरी की तरह
पर और बहुत सारी ग़ैर ज़रूरी चीजे पहुँच जाती आसानी से
बिना किसी रोकटोक के भरपूर
पब्लिक स्कूल उग आये है कुकुरमुत्तों की तरह
जहाँ दुखहरन मास्टरजी नहीं ,पढ़ाती हैं टीचरजी
दारु के ठेके भी देर रात तक रहते हैं गुलज़ार
कुछ शोह्देनुम लोग भी दिखाई पड़ने लगे हैं गाँव में
चौपालों पर तैरने लगे हैं राजनीतिक षड़यंत्र
गलियों में कुत्तों के साथ साथ घूमने लगे है माफिया
और इन्ही लोगों के साथ-साथ चुपके से बाज़ार ने कर ली है घुसपैठ
फिर भी लौट लौट जाता हूँ गाँव
जैसे बाबा हर बार अपने बेटे के पास से लौट आते थे गाँव
जीवन की सांध्य बेला में पिताजी को भी नहीं रोक सकी शहर की
कोई सीमा
वैसे ही
जड़ों से उखड़ने के बाद शहर की भीड़ के बियावान में गुम
अपनी पहचान की तलाश में
अपनी जड़ो की और लौटता हूँ मैं भी
उन्हें सींचने और बनाने मजबूत
लौटता हूँ गाँव बार बार।
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