Wednesday 24 June 2020

हर किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता


राजिन्दर गोयल और पदमाकर शिवालकर के नाम आपमें से किसी को याद हैं! अगर उत्तर हां में है तो फिर आपको ये भी पता होगा ये कितना कुछ एक सा साझा करते हैं। अलग अलग जगहों पर पैदा होने के बाद भी दोनों की नियति कितनी साझा थी। दोनों घरेलू क्रिकेट के उस्ताद खिलाड़ी थे।दोनों वामहस्त धीमी गति के ऑर्थोडॉक्स लेग स्पिनर। ये उन चार खिलाड़ियों में से थे जिन्हें बिना टेस्ट खेले बीसीसीआई के सी के नायडू लाइफ टाइम पुरस्कार से नवाजा गया। दो ऐसे खिलाड़ी जिन्हें बिना भारत की ओर से खेले गावस्कर की जीवनी 'आईडोल्स' में जगह मिली। अगर इन दो के साथ एक नाम राजिंदर सिंह हंस का और जोड़ दिया जाए तो ये तीनों मिलकर ऑर्थोडॉक्स लेफ्ट हैंड लेग स्पिनर्स की ऐसी त्रयी की निर्मिती करते हैं जिन्हें प्रभूत क्षमता और प्रतिभा होने के बाद भी भारत की ओर से खेलने का मौका नहीं मिला। तीनों की नियति एक थी। तीनों की त्रासदी एक थी। तीनों यूं ही बीत गए,रीत गए,जाया हो गए।
वे दुर्भाग्य से ऐसे समय में क्रिकेट खेले और खेल की उस विधा को चुना जिस समय में उस खेल की उस विधा का सुपर उस्ताद खेल के आसमान पर सूरज सा चमक रहा था और उस की चकाचौंध में वे खो गए। उस खेल के आसमान पर ये तीनों अपनी प्रतिभा के साथ बार बार पूर्णिमा के चाँद से उदित होते,अपनी कलाओं के साथ क्षय होते जाते और अमावस के अंधेरे में खो जाते। दरअसल वे घरेलू क्रिकेट की रात में तो पूरे चाँद की चमक बिखेरते पर जैसे ही अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के दिन में आने की कोशिश करते वे वहां पहले से मौजूद सुपर उस्ताद सूरज की रोशनी में गुम हो जाते। ये सुपर उस्ताद कोई और नहीं बल्कि बिशन सिंह बेदी था। ये भारतीय क्रिकेट में स्पिनर्स का स्वर्णिम युग था। उस समय बेदी, प्रसन्ना,चंद्रशेखर और वेंकट की चौकड़ी धमाल मचा रही थी जिसने इस त्रयी को कभी भी उबरने का मौका नहीं दिया।
इस त्रयी में से राजिंदर गोयल ने कल रविवार को 77 वर्ष की उम्र में रोहतक में इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कह दिया। वे पिछले कुछ दिनों से बीमार थे और कैंसर से पीड़ित थे।
उनका जन्म 20 सितंबर 1942 में हरियाणा के नरवाना में हुआ था। उनके नाम रणजी ट्रॉफी में सर्वाधिक 637 विकेट का रिकॉर्ड है जो उन्होंने 1958-59 से 1984-85 सीजन के मध्य 157 मैचों में पटियाला,पूर्वी पंजाब,दिल्ली और हरियाणा के लिए खेलते हुए लिए। उन्होंने अपने कैरियर में प्रथम श्रेणी मैचों में कुल मिलाकर 750 विकेट लिए। इस दौरान उन्होंने 59 बार किसी एक इनिंग में 5 या 5 से अधिक विकेट लिए और 18 बार किसी एक मैच में 10 या 10 से अधिक विकेट। उन्होंने प्रथम श्रेणी कैरियर की शुरुआत 1958 में सर्विसेज के विरुद्ध पटियाला से खेलते हुए 16 साल की उम्र में की। उनके 26 साल लंबे कैरियर की समाप्ति 43 साल की उम्र में 1985 में हरियाणा से मुम्बई के विरुद्ध खेलते हुए हुई।
दुर्भाग्य मानो उनके साए की तरह उनके साथ था। 26 साल के लंबे कैरियर में वे एक भी बार भी रणजी ट्रॉफी नहीं जीत पाए। हां उनके लिए यह एक सांत्वना की बात हो सकती है कि 1991 में जब कपिल देव के नेतृत्व में हरियाणा ने बॉम्बे को हराकर ट्रॉफी जीती तो उस समय गोयल हरियाणा की चयन समिति के चेयरमैन थे। 1974-75 में जब वेस्टइंडीज की टीम भारत के दौरे पर थी तो बैंगलोर में खेले जाने वाले टेस्ट मैच में अनुशासन के मसले पर बेदी को बाहर कर दिया गया। ये एक ऐसा अवसर था जब उनका भारतीय टीम में खेलना पक्का था। लेकिन तब टीम में प्रसन्ना के साथ दूसरे ऑफ स्पिनर वेंकट को अंतिम 11 में चुना गया और वे 12वें खिलाड़ी बनाए गए। बाद में जब भी इस बारे में उनसे पूछा गया उन्होंने यही कहा कि उस मैच में दो ऑफ स्पिनर की जगह दो लेग स्पिनर भी तो खेल सकते थे। शायद ये भी उनका दुर्भाग्य ही था।
बिला शक वे शानदार गेंदबाज थे। गेंद की फ्लाइट और लेंथ पर उनका गज़ब का नियंत्रण था। वे लगातार एक ही स्पॉट पर कितनी भी गेंद डाल सकते थे। वे किस दर्जे के गेंदबाज थे ये इस बात से जाना जा सकता है कि गावस्कर की आत्मकथा में पदमाकर और राजिंदर ही दो ऐसे क्रिकेटर हैं जिन्होंने भारत के लिए नहीं खेला। राजिंदर पर उन्होंने पूरा एक चैप्टर लिखा है और उसमें बताया कि घरेलू क्रिकेट में वे सबसे ज़्यादा जिस गेंदबाज को खेलने में असहज महसूस करते थे वे राजिंदर थे।
ये भी संयोग ही है कि उनका 36 साल पुराना रिकॉर्ड हरियाणा के कप्तान हर्षल पटेल ने इस सीजन में तोड़ा। हरियाणा के लिए एक रणजी सीजन में सबसे ज़्यादा विकेट लेने का रिकॉर्ड राजिंदर ने 1983-84 के सीजन में 48 विकेट लेकर बनाया था। हर्षल इस बार 8 मैचों में अब तक 51 विकेट ले चुके हैं। और संयोग ये भी कि उनकी भी राजिंदर की तरह ही अनदेखी की जा रही है।
राजिंदर अकेले ऐसे दुर्भाग्यशाली खिलाड़ी नहीं हैं। शिवालकर और हंस के साथ साथ अमोल मजूमदार, जलज सक्सेना,आशीष विंस्टन ज़ैदी,हरी गिडवानी जैसे तमाम ऐसे नाम हैं जो उन्हीं की तरह भारत के लिए नहीं खेल सके।
जो भी हो राजिंदर को गेंदबाजी करते देखना एक ट्रीट होता था। वे जिस सहज,सौम्य,सरल स्वभाव के थे और बेहद संतुष्ट रहते थे दरअसल वो बहुत कुछ उनके समय की देन थी जब खेल में भी सुकून था,सहजता थी और कलात्मकता थी। उनका खेल जीवन संतुष्टि से परिपूर्ण था लेकिन उनका जाना हमें हमेशा एक असंतुष्टि का अहसास कराता रहेगा और ये भी कि आप कर्म करते रहिए फल की इच्छा मत कीजिए। आखिर प्रारब्ध भी कोई चीज होती है। हर इच्छा पूरी हो ज़िन्दगी की ये ज़रूरी तो नहीं।
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सच में, हर किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता। विनम्र श्रद्धांजलि।

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