Friday 19 June 2020

भारतीय सैन्य अकादमी देहरादून





भारतीय सैन्य अकादमी देहरादून दुनिया के श्रेष्ठ सैन्य प्रशिक्षण संस्थानों में एक है। यहां दूसरी बार जाना हुआ। जाहिर है ये भी सरकारी असाइनमेंट ही था। लेकिन इससे क्या फर्क़ पड़ता है। सच तो ये है कि इसमें प्रवेश करते ही भावनाओं का एक अतिरेक उत्पन्न होता है और वहां से विदा लेने के बाद भी एक लंबे समय तक उसका हैंगओवर बना रहता है।

द्रोण घाटी में बहती टोंस नदी के पूर्वी किनारे पर स्थित इस अकादमी के मुख्य द्वार से करीब 100 मीटर पूर्व में द्रोण द्वार है। उसके दोनों तरफ दो स्टैंड हैं और सामने ड्रिल स्क्वायर। और ड्रिल स्क्वायर के ठीक उत्तर में एक भव्य इमारत है जिसे अब चेटवुड हॉल के नाम से जाना जाता है। इस भवन की बनावट देखिए। मध्य भाग में एक शानदार हॉल है और इस हॉल के दोनों और लंबाई में फैले हुए दांए और बांए भवन है।

अब इस भवन को ड्रिल स्क्वायर के साथ मिलाकर देखिए। ये मिलकर एक खूबसूरत रूपक प्रस्तुत करते हैं। मानो ये भव्य भवन मातृभूमि है जिसने अपने दोनों ओर हाथ फैला रखे हो और सामने अपना आँचल फैलाया हो। वो हाथ फैला कर आह्वान कर रही हो कि हर वो जोशीला युवा जिसका हृदय देश प्रेम से भरा हो,जिसमें अदम्य साहस और जुनून हो और जो अपनी मातृभूमि के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग हंसते हंसते कर सकता हो,उसके आँचल की छांव में आ सकता है। वो उन सब को अपने गर्भ में धारण करेगी। उनको नए रूप में गढ़ेगी। उनको युद्ध विद्या में निष्णात करेगी। उनके मष्तिष्कों को युद्ध कौशल की सैद्धान्तिकी से लैस करेगी। और साल भर की प्रसव पीड़ा के बाद भविष्य में लिखी जाने वाली अद्भुत शौर्य और साहस की कहानियों को लिखने वाले योद्धाओं को जन्म देगी। जन्म लेने के साथ ही ये नवजात अपनी साज सज्जा के साथ उसके आँचल में आते हैं। ड्रिलकर उसके सम्मान में शीश नवाते हैं और अंतिम पग से सलाम कर उसकी रक्षा करने के उपक्रम में साहस और शौर्य की कहानियां लिखने सीमाओं की ओर प्रस्थान करने निकल पड़ते हैं।




पिछले साल इस पीओपी पर क्या हर्षोल्लास का माहौल था। स्टैंड्स भरे हुए थे। माता पिता से लेकर नातेदार सब शामिल थे जांबाजों के दीक्षांत समारोह में। लेकिन इस बार माहौल बहुत ही अलग था। एक अजब सी उदासी थी। स्टैंड्स खाली थे। माता पिता इस बार नहीं थे। पिपिंग सेरेमनी नहीं हुई। उदासी मास्क के रूप में चेहरे पर छाई थी। और दूरियों में बेबसी झांक रही थी।

की आवश्यकता होती है।क्यों युद्ध ज़रूरी होते हैं। क्यों आदमी नहीं समझ पाता उसकी योग्यता,बुद्धि और ताकत कितनी बेमानी है। प्रकृति के सामने कितना लाचार है आदमी। उसका एक ना दिखाई देने वाला अति सूक्ष्म वायरस भी उसे कितना असहाय बना देता है, बौना सिद्ध कर देता है। उसकी ताकत,उसकी बुद्धि सब असहाय,बेबस। फिर काहे की हाय तौबा। तोप तलवार,गोला बारूद सब बेकार। क्या ऐसा नहीं हो सकता जो संसाधन हम युद्धों की तैयारियों में लगाते हैं,वे प्रेम और शांति के लिए,करोड़ों लोगों की भूख और दुख दर्द को कम करने में लगा दें। और क्या ऐसा नहीं हो सकता कि श्रेष्ठ सैन्य अकादमियों को शांति प्रतिष्ठानों में बदल दें।
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फिलहाल तो इस अकादमी की दो यात्राओं के बाद दो अलग अलग अहसासों से भरा हूँ। पिछले साल गज़ब के हर्षोल्लास के शोर के नेपथ्य में मृत्यु का करुण संगीत कानों से होकर दिल में टीस उत्पन्न कर रहा है और इस बार उदासी और बेबसी के बादलों के पीछे एक बेहतर भविष्य की उम्मीद की किरण आंखों में चमक पैदा कर रही है।

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