Tuesday, 14 April 2020

अकारज_5




उस दिन सुबह टेरेस पर चाय पीते हुए उसने कहा 'कितनी खूबसूरत नरम नरम सी सुबह है ये'मैं  बुदबुदाया था'हां बिल्कुल वैसी जैसी तुम्हारे हौले से स्पर्श से मन में होती है गुदगुदाहट।' सर्दियों में उस दोपहर छत पर लेटे हुए उसने कहा 'कितनी मीठी मीठी चमकीली सी है धूप।'मैने हौले से कहा 'हाँ जैसे तुम्हारे गले से फूटते  आलाप कीमिठास।' फिर उस शाम सड़क पर टहलते हुए मेरा हाथ पकड़कर उसने कहा था 'कुछ उदास सी है आज की ये शाम।' मैंने मन ही मन कहा था 'जैसे तुम्हारे बिना मन में कैसे हो सकता है भला उजास।' उस रात पूरे चाँद को देखकर वो चहकी थीं 'वाह कितनी झिलमिलाती है ये चांदनी रात।' मैंने कहा था 'हाँ जैसे मेरे कानों में घुलती तुम्हारी खनकती हँसी की मिठास।' और उस दिन वापस घर लौटते समय अचानक आई बारिश में भीगते हुए गुलाबी सी आवाज़ में सिर्फ इतना ही तो कहा था उसने 'उफ्फ ये बरसात भी ना'। बूंदों के साथ तुम्हें अठखेलियाँ करते देख तब मैं बुदबुदाया था 'ये बारिशें भी तो तुम्हारी शरारतों जैसी ही हैं ना।'
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और आज जब वो एक बार फिर बाहर से बारिश की बूंदों में भीग रही थी, मैं अंदर से यादों की बूंदों से गीला हो रहा था।


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अकारज 23

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