एक ऐसे समय में जब हम अपने अपने घरों में कैद ,अपने अपने में सिमटे और अपने अपने में खोए लाखों लोगों की मृत्यु का शोक मना रहे हैं और आंख से निकलते खारे पानी से दुःख के एक समंदर को भर रहे हों तो ऐसे में दो और लोगों के चले जाने से इस दुख के समंदर का स्तर और कितना बढ़ेगा ये तो पता नहीं। पर ये तय है कि इनके जाने का दुःख इतना सघन तो है ही जो आंख से बहते पानी के खारेपन को कुछ और ज़्यादा गाढ़ा कर दे। और विश्वास मानिए दुख के समंदर का घनत्व इस खारेपन से कुछ और ज़्यादा बढ़ जाएगा कि उस समंदर में ऋषि कपूर और इरफान खान की स्मृतियां कभी डूबने नहीं पाएंगी।
दुनिया भर में लाखों लोगों की अकाल मृत्यु के बीच इन दो अज़ीम फनकारों का एक साथ इस फ़ानी दुनिया से रुखसत हो जाना एक अजीब सा दुर्योग है। ये ज़िन्दगी से एक साथ एक स्वप्न और एक हक़ीक़त के लोप हो जाने जैसा है। दो विपरीत ध्रुबों का एक साथ जाना। एक नामी गिरामी परिवार से। दूसरा एक अनजाने साधारण परिवार से। एक सुंदर सलोना। बहुत ही कोमल सा। नरम मुलायम सा। किसी खूबसूरत सपने सा। दूसरा उतना ही साधारण सा। एक आम आदमी से मिलता जुलता बल्कि आम आदमी ही। कुछ कठोर सा, रुक्ष सा। जीवन की कठोर वास्तविकताओं सा। एक चंचल,वाचाल और हँसमुख। तो दूसरा ठहरा और गंभीर। एक अपने अभिनय से दिल में प्रेम का दरिया बहाता और स्वप्नलोक की सैर कराता। दूसरा अपने अभिनय से दिमाग से होकर जीवन की कठिनाइयों की पगडण्डी बनाता और जीवन की हकीकतों से रूबरू कराता। एक अपने अभिनय से दिल को सहलाता,गुदगुदाता,मरहम लगाता। दूसरा अपने अपने अभिनय से आत्मा को छीलता,खुरचता और कुरेदता।
पर क्या ही कमाल है दोनों के बीच समानताओं की परछाइयां एक सी ही है। दोनों ही पर्दे पर अपने अभिनय में कितने सहज नज़र आते हैं। एक अपने खिलंदड़ स्वभाव के साथ 'प्लेबॉय' की सी इमेज के साथ और दूसरा अपनी गंभीर भाव भंगिमा के साथ कुछ कुछ 'एंग्री मैन' जैसी इमेज के साथ। दोनों एक ही बीमारी से घायल होते हैं,संघर्ष करते हैं और अन्ततः एक ही अस्पताल से संसार को अलविदा कहते हैं। दोनों ने ऐसे समय को अपने जाने के लिए चुना जब दुनिया चाहरदीवारों के बीच सिमटी है। मानो वे बिना किसी शोर शराबे के शांति से और अकेले विदा होना चाहते हों। लेकिन उनके बीच समानता का सबसे बड़ा बिंदु उनका व्यक्तित्व,उनका अभिनय और उनकी फिल्में हैं जिनसे जो भी होकर गुजरता थोड़ा सा मनुष्य होकर निकलता है। टूल्स और अहसास अलग हो सकते हैं पर नतीज़ा एक ही होता है। एक की फिल्मों से आदमी स्वप्नलोक की सैर कर प्रेम में भीगा होता तो दूसरे की फिल्मों से जीवन की वास्तविकताओं से जुझकर अनुभवसमृद्ध होकर निकलता। दोनों ही स्थितियों में व्यक्ति थोड़ा मनुष्य बनकर ही निकलता है। हाँ एक बात और। ऋषि 67 साल की अपेक्षाकृत भरी पूरी ज़िंदगी जी कर गए। पर इरफान। 54 साल की उम्र का प्लेटफॉर्म वो प्लेटफार्म कतई नहीं हो सकता कि उसपे उतर लिया जाय। यूं तो ऊपर वाले उस्ताद ने इरफान से प्लेटफॉर्म 51 पर भी कहा था 'ज़िन्दगी की ट्रेन से यहीं उतर जाओ जमूरे।' पर शागिर्द ने धीमे से इसरार किया 'गुरु अभी कहां'। तब उस्ताद मान गया था। पर इस बार नहीं माना।उस्ताद ने ज़िन्दगी ही पटरी से उतार दी।
ऋषि कपूर की 'बॉबी' सन 1973 में आई थी। लेकिन मैंने पर्दे पर उसे 1977-78 में देखा। ये ऋषि से पहला परिचय था। उस समय टीन ऐज में हुआ करते थे हम। ये वो समय था जब आपके मन में प्रेम की कोंपले फूटती हैं। बॉबी में ऋषि को देखकर हर टीनएजर खुद में ऋषि को ही महसूसता। उसी अहसास के साथ हमारी पीढ़ी के लोग बड़े हुए। प्रेम में डूबे। प्रेम से भीगे। और प्रेम करना सीखे। जीवन ऐसे ही बीतता है और बीतता रहा। और तब इलाहाबाद आना हुआ। 2001 में त्रिगमांशु धूलिया अपनी टीम के साथ इरफान को लेकर आए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 'हासिल' की शूटिंग हुई। मेरा इरफान से ये पहला परिचय था। वो एक बहुत ही साधारण लेकिन गंभीर सा नवयुवक था। उस समय खुद भी जीवन की कठोर भूमि से दो चार हो चुके थे। बहुत सी असफताओं के साथ बहुत से सपने बीत गए थे। मन से कुछ कुछ प्रेम भी रीत गया था। अब मन में प्रेम के साथ जीवन की कठोर हक़ीक़तें भी उसी अनुपात में बस गईं थी। यानी अब ऋषि के साथ साथ इरफान भी समा गया था। ज़िन्दगी अगले बीस साल ऐसे ही चलती रही।अचानक दोनों के जाने की खबर आई। तो लगा जैसे ज़िन्दगी से स्वप्न और हक़ीकत दोनों ही कहीं गुम हो गए और ज़िन्दगी बिना किसी रंग के बेरंग सी हो गई।
मैं जब कभी भी ये सोचता हूँ 'कि दुनिया से जाने वाले जाने चले जाते हैं कहाँ' तो लगता है ये कहीं भी तो नहीं जाते। यहीं तो रहते हैं। हमारे साथ। हमारी यादों में। हमारे दिलों में। हमारे अहसासों में। हमारी स्मृतियों के स्पेस को घेरे हुए। ऋषि और इरफान भी ऐसे ही हमारे साथ रहेंगे। हाँ उनके जिस्मानी आइडेंटिटी को ज़रूर विदाई देनी पड़ेगी। यही दस्तूर है। रवायत है। तो
अलविदा ऋषि !अलविदा इरफान!
विनम्र श्रद्धांजलि!
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