Tuesday, 4 August 2015

देह के पार जो दुनिया है




1.
एक अपारदर्शी समय में
जब  सबने अपने को छुपा रखा है कई कई तहों  के भीतर
तुम इतनी पारदर्शी हो
लगता ही नहीं कि तुम देह हो
देह के पार तुमने बसा रखी है एक दुनिया
जो तुम्हारी और सिर्फ तुम्हारी है
दिखाई देती है साफ़ साफ़।

2.

तुम्हारी देह पर सजे हैं जो भी आधे सच और आधे झूठ
उसका पूरा सच और झूठ दिखाई देता है उस पार
तुम्हारे कहे गए हाँ
जो भीतर ना थीं
और तुम्हारी ना
जो भीतर हाँ थे
सब लटके पड़े हैं तुम्हारी देह के उस पार
उल्टे चमगादड़ों की तरह
जो बाहर निकलने का रस्ता ढूंढने की कोशिश में
ध्वनि तरंगे की तरह
लौट लौट आते हैं बार बार
देह से टकरा कर
फिर फिर लटक जाते हैं उल्टे
उसी अंधेरी खोह में
जहां लटकते  आएं हैं सदियों से।

3.

ये जो तुम्हारी देह पर
उदास मुस्कान और बिखरी सी ख़ुशी टंगी हैं
ये भी आधा सच है
पूरा सच उस पार है
जहाँ दुखों का एक पूरा आकाश पसरा पड़ा है
भटकती आत्माओं की तरह दबे कुचले सपने हैं
अतृप्त इच्छाओं के उमड़ते घुमड़ते बादल हैं
 असहमतियों का लहराता अशांत समंदर है
और बग़ावत का ज्वालामुखी बस फटने को है
 देह ने बलात् रोक रखा है आने वाली उस प्रलय को
 जिससे बननी है एक नई सृष्टि

4.

आखिर कब तक देह का बाँध रहेगा
कब तक
तुम्हारा ये बेबस उधार सा
अपना जीवन
जीवन का अपना नहीं बनेगा।


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