Monday, 21 June 2021

महान एथलीट:मिल्खा सिंह

 



एथलेटिक्स में तीन तरह की स्पर्द्धाएं होती हैं दौड़ फेंक और कूद। फेंक और कूद में एक एक करके परफॉर्मेंस करता है और श्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाला विजेता होता है।  लेकिन दौड़ में प्रतिस्पर्धी एक साथ प्रतिभाग करते हैं और इसीलिये दौड़ एथलेटिक्स की सबसे रोमांचकारी प्रतिस्पर्धा होती है। 

और दौड़ों में यूं तो 100 मीटर दौड़ को 'दौड़ों की रानी'कहा जाता है पर सबसे खूबसूरत दौड़ 400 मीटर की ही होती है। दरअसल इसमें स्प्रिंट रेसों की गति और लंबी रेसों की लय दोनों एक साथ होती हैं। आज एथलेटिक्स की इस सबसे खूबसूरत रेस का भारत का सबसे बड़ा साधक 91 वर्षीय मिल्खा सिंह जीवन की रेस को समाप्त कर अनंत की यात्रा को निकल पड़ा।

हर व्यक्ति का जीवन विडंबनाओं से भरा होता है। मिल्खा सिंह इसका अपवाद कैसे हो सकते थे। भारतीय एथलेटिक्स के दो सबसे बड़े सितारे पुरुषों में मिल्खा सिंह और महिलाओं में पी टी उषा हैं। और ये दोनों ही अपनी उपलब्धि के लिए नहीं बल्कि उस उपलब्धि को पाने से चूक जाने के लिए जाने जाते हैं। 1960 के रोम ओलंपिक से पहले वे प्रसिद्ध हो चुके थे और 1958 में कार्डिफ राष्ट्रमंडल खेलों में उस समय के विश्व रिकॉर्ड धारी दक्षिण अफ्रीका के मैल्कम स्पेंस को हराकर स्वर्ण पदक जीत चुके थे। वे संभावित पदक विजेता थे। पर होनी को जो मंजूर हो। रोम ओलंपिक में उस रेस में पहले चार धावकों लेविस,कॉफमैन,स्पेन्स और मिल्खा सिंह ने 45.9 सेकंड के ओलंपिक रिकॉर्ड तोड़ दिया। लेविस और कॉफमैन ने 44.9 सेकंड का समय लिया। पर फोटो फिनिश में कॉफमैन को दूसरा स्थान मिला,स्पेन्स को 45.5 के साथ कांस्य पदक मिला और मिल्खा 45.73 के समय के साथ चौथे स्थान पर रह गए। ये राष्ट्रीय रिकॉर्ड था जिसे अगले 40 वर्षों तक बने रहना था। इसे 1998 में परमजीत सिंह ने तोड़ा। वे सेकंड के सौवें हिस्से से इतिहास बनाने से चूक गए। शायद ये नियति थी। वे आगे इस चूक के लिए याद किये गये और मिथक सरीखे हो गए। ठीक वैसे ही जैसे 1984 के लॉस एंजिलिस ओलंपिक में 400 मीटर बाधा दौड़ में राष्ट्रमंडल रिकॉर्ड तोड़ कर भी सेकंड के सौवें हिस्से से कांस्य पदक चूक गईं थी और इस चूक से ही आगे जानी गयीं और प्रसिद्धी पाई।
विडम्बनाएं और भी थीं। उनका जीवन विडंबनाओं और विरोधाभासों भरा था। वे 1929 में पाकिस्तान के शहर मुज़्ज़फरगढ़ के गोविंदपुरा में जन्में थे। 1947 में विभाजन के समय उन्हें पाकिस्तान छोड़ना पड़ा। इस दौरान उनके परिवार के सदस्यों को मार डाला गया।
जीवन की एक दौड़ ने उनसे उनका घर परिवार और देस छीना और एक दौड़ ने उन्हें प्रसिद्धि की बलन्दी पर पहुंचाया। कमाल ये कि वे जीवन से निराश होकर डकैत बनना चाहते थे पर सेना में भर्ती हो गए।
वे पाकिस्तान से भागे थे। कटु स्मृतियां उनके जेहन में थीं। 1960 में रोम ओलंपिक से पहले पाकिस्तान में दौड़ने का निमंत्रण मिला। वहां के लोग चाहते थे उनका मुकाबला उस समय के एशिया के सबसे मशहूर स्प्रिंट धावक पाकिस्तान के अब्दुल ख़ालिक़ से पाकिस्तान में हो। ख़ालिक़ को वे टोक्यो एशियाई खेलों में हरा चुके थे। वे नहीं जाना चाहते थे। नेहरू के कहने पर गए। एक बार फिर पाकिस्तान की धरती पर अब्दुल ख़ालिक़ को हराया। इस रेस में मिल्खा ने अब्दुल ख़ालिक़ को 10 कदमों से पीछे छोड़ा। रेस देख रहे पाकिस्तान के जनरल याकूब खां ने कहा 'तुम दौड़ते नहीं उड़ते हो।' मिल्खा को 'उड़न सिख'की उपाधि मिली उसी धरती पर जहां वो सब कुछ खो कर गया था।
उन्होंने 1958 के टोक्यो एशियाई खेलों में दो स्वर्ण पदक जीते। उसके बाद उसी साल कार्डिफ राष्ट्रमंडल खेलों में 400 मीटर के तत्कालीन विश्व रिकॉर्ड होल्डर को हराकर स्वर्ण पदक जीता। इन खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाले वे पहले भारतीय एथलीट थे।
उन्हें रोम ओलंपिक में पदक चूक जाने का ताउम्र मलाल रहा। दरअसल ये पदक चूक जाना केवल एक पदक का चूक जाना भर नहीं था,बल्कि आने वाले समय भारत के एथलीटों के लिए एक 'रोल मॉडल' का बनने से चूक जाना था,वो चूक सैकड़ों पदकों का चूक जाना था। उनकी उम्मीद अधूरी रही कि कोई भारतीय ओलंपिक में पदक जीत सके।
ज़िंदगी ऐसी ही होती है। वे विरोधभासों और विडंबनाओं से बनी ज़िन्दगी थे। वे एक अधूरे ख्वाब और एक चूक से बनी अमरत्व प्राप्त शोहरत थे और अदम्य इच्छा शक्ति,कड़ी मेहनत और एक सैनिक के अनुशासन से बने महान एथलीट थे।
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एक नेक दिल इंसान को जिसने 'बैटल ऑफ टाइगर हिल' में शहीद हवलदार बिक्रम सिंह के सात वर्षीय बेटे को गोद लिया,अश्रुपूरित अंतिम सलाम।

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