उस रात टेरेस पर उसे बूंदों से अठखेलियाँ करते देख मैंने हौले से उससे पूछा 'तुमने प्रेम पत्र लिखे क्या?'
वो खिलखिला उठी। अंधेरी रात में उसके हास का उजाला फैल गया।
वो चहक कर बोली 'हाँ लिखे ना। उन दिनों हम प्रेम में दरिया-ए-चिनाब हुआ करते थे। सपनों से बूंद बूंद दरिया भरता रहता और दरिया समंदर-ए महबूब की और बहता रहता। और फिर.....'
'और फिर क्या'मैंने पूछा
उसके स्वर में एक हल्की उदासी घुल गयी। बोली 'फिर अनहोनी का जलजला आया। इश्क़ का दरिया ए चिनाब सूख कर धरती में समा गया और दरिया-ए-सरस्वती हो गया।'
फिर उसने धीमे से पूछा 'और तुमने'
एक डूबी आवाज़ कहीं गहरे भीतर से निकली 'हां हमने भी। जब हम प्रेम में आवारा बादल थे। बूंद बूंद धरती पर बरसते। प्रेम का हरा रंग गहराता जाता और बदले में बादल फिर फिर उष्मा से भर भर जाता।'
'हूँ! तो फिर ?'
'फिर क्या! हरी भरी धरती बंजर हो गयी। और..और बादल हवा हो गए।'
अब मौन से यादों का मौसम उग आया था।
एक मन दरिया बन कल कल बहने लगा। एक मन बादल बन बूंद बूंद बरसने लगा।
ये पानियों का मौसम था
और प्रेम बरस रहा था।
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