Tuesday, 25 August 2020
बहुत दूर,इतना पास क्यों होता है
Thursday, 20 August 2020
सुरेश रैना
सुरेश रैना लीजेंड नहीं थे। बावजूद इसके वे अपने होने भर से मन मष्तिष्क पर उपस्थिति दर्ज़ कराते थे और छाए रहते थे। इसके लिए उन्हें किसी लीजेंड की तरह परफॉर्मेंस की ज़रूरत नहीं थी। दरअसल श्रेष्ठ क्षेत्ररक्षक ऐसे ही होते हैं। वे रॉबिन सिंह,मो.कैफ और युवराज की परंपरा के खिलाड़ी ठहरते हैं। गेंद और बल्ले के परफॉर्मेंस तो उनकी पहले से उपस्थिति के रंग को गाढ़ा भर करते थे।
उनमें कमाल का विरोधाभास था। वे शतक से टेस्ट क्रिकेट का आगाज़ करते हैं और शून्य से समापन। वे 11 बार 'मैन ऑफ द मैच'बनते हैं,पर अनचीन्हे रह जाते हैं। वे भारी शरीर के होने के बावज़ूद गज़ब के फुर्तीले और शानदार क्षेत्ररक्षक थे। अपनी कोमल सी मुस्कुराहट के साथ बहुत ही सौम्य नज़र आते थे, लेकिन बेहद आक्रामक बल्लेबाज़ थे। और और वे छोटे से शहर से निकलते हैं और दुनिया के दिलों पर राज करते हैं
मैदान में आंखें उन्हें खोजेंगी,पर वो नहीं होंगे। पर यही विधि का विधान है।
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गुड बाय रैना।
Monday, 17 August 2020
अस्सी के दशक के क्रिकेट प्रेमियों का हीरो
क्रिकेट खिलाड़ी और उत्तरप्रदेश सरकार में मंत्री चेतन चौहान का कल गुड़गांव के एक अस्पताल में निधन हो गया। वे 73 वर्ष के थे और कोरोना से संक्रमित थे। धोनी और रैना की अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से सन्यास की घोषणा से एक दिन पहले ही क्रिकेट जगत में जो हलचल मची थी उसे मानो चेतन चौहान की मृत्यु से फैली उदासी की चादर ने ढक कर शांत कर दिया हो। निसन्देह उनकी मृत्यु हृदय विदारक है।
सितंबर 1969 में न्यूज़ीलैंड के विरुद्ध अपना टेस्ट कॅरियर शुरू करके 2017 में उत्तर प्रदेश सरकार में दोबारा मंत्री बनने की इस यात्रा में चेतन चौहान ने कई किरदार निबाहे। वे राजनेता थे,खेल प्रशासक थे,चयनकर्ता थे और टीम मैनेजर भी थे। बावज़ूद इन सब के सब से ऊपर उनकी पहचान एक क्रिकेटर की और एक ओपनर बल्लेबाज़ की थी। दरअसल ये उनका क्रिकेटर ही था जिसने बाकी क्षेत्रों में उनकी पहचान बनाने की बुनियाद रखी।
चेतन चौहान ने कुल 40 टेस्ट मैच खेले। देखने में ये आंकड़ा बहुत बड़ा नहीं लगता। लेकिन जिस समय वे खेल रहे थे जब क्रिकेट सीजन मात्र 6 महीने का होता और कुछ ही टेस्ट मैच या सीरीज सीजन भर में होतीं, ये आंकड़ा एक ठीक ठाक वजन वाला है। 40 टेस्ट मैचों का चेतन चौहान का ये खेल सफर कहीं से भी चकाचौंध या ग्लैमर भरा नहीं लगता। जिसने अपने कॅरियर के 40 मैचों में एक भी शतक ना बनाया हो उसके बारे में क्या कहा जा सकता है! इतना घटना विहीन और लो प्रोफाइल वाला कॅरियर कुछ कहने सुनने का स्पेस देता है भला!
लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता। कई बार घटना विहीन जीवन ही बताता है कि ऐसे जीवन के निर्माण में भी कितनी घटनाओं का योगदान होता है। वो जीवन भी कितनी संघर्षपूर्ण स्थितियों से निर्मित होता है। जैसे कभी कभी मौन सबसे ज़्यादा मुखर होता है। और कभी कभी लो प्रोफाइल भी इतना ऊंचा होता है कि आप उसकी ऊंचाई का अंदाजा भी नहीं लगा सकते। दरअसल चौहान के खेल और खेल में उनके योगदान को उन परिस्थितियों के संदर्भ में देखना चाहिए जिसमें वे खेल रहे थे।
चेतन चौहान का खेल कॅरियर पुणे से शुरू हुआ 1966-67 के सीजन में जब उनका चयन रोहिंटन बेरिया कप के लिए पुणे विश्वविद्यालय की टीम में हुआ और उसी वर्ष विज्जी ट्रॉफी के लिए पश्चिम क्षेत्र की टीम वे चुने गए। ये दोनों ही अंतर विश्विद्यालयी प्रतियोगिता थीं और उस समय उनकी बहुत प्रतिष्ठा थी क्योंकि इन्हें राष्ट्रीय टीम का प्रवेश द्वार माना जाता था। गावस्कर,बेदी जैसे तमाम बड़े खिलाड़ी यहीं से भारतीय टीम में शामिल हुए थे। 1967 के सीजन में इन दोनों प्रतियोगिताओं में और विशेष रूप से विज्जी ट्रॉफी में शानदार प्रदर्शन के कारण 1968 में महाराष्ट्र की रणजी टीम में शामिल कर लिया गया। चौहान ने विज्जी ट्रॉफी में उस साल उत्तर क्षेत्र के खिलाफ 103 और फाइनल में दक्षिण क्षेत्र के विरुद्ध 88 और 63 रन बनाए थे। दक्षिण क्षेत्र के खिलाफ मैच में उनके ओपनर पार्टनर गावस्कर थे जिनके साथ उन्हें आगे चलकर एक दशक तक 40 टेस्ट मैचों में ओपनिंग करनी थी। 1968 में उनका चयन रणजी के साथ साथ दिलीप ट्रॉफी के लिए पश्चिम क्षेत्र की टीम में भी हो गया। इसके फाइनल में दक्षिण क्षेत्र की टीम के विरुद्ध 103 रन बनाए। यहां उल्लेखनीय है ये रन उन्होंने 5 टेस्ट गेंदबाजों के विरुद्ध बनाए थे। फलतः उनका चयन भारतीय टेस्ट टीम में हो गया और अपना पहला टेस्ट 25 सितंबर 1969 को बॉम्बे में न्यूजीलैंड के खिलाफ खेला। लेकिन वे कुछ खास नहीं कर पाए और दो टेस्ट मैच के बाद उन्हें टीम से बाहर कर दिया गया। उसी सीजन में इन्हें एक बार फिर ऑस्ट्रेलिया के विरुद्ध खेलने के लिए टीम में चुना गया। वे इस बार भी अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाए और एक बार टीम से निकाले गए तो अगले तीन साल टीम में वापसी नहीं कर पाए। लेकिन घरेलू क्रिकेट में धूम मचाते रहे। 1972-73 में रणजी में सर्वाधिक रन बनाने में दूसरे नंबर पर थे। इस कारण एक बार फिर वापसी की इंग्लैंड के विरुद्ध। इस बार भी असफल रहे और इस बार अगले 5 सालों के लिए राष्ट्रीय टीम से बनवास मिला। इस बीच 1975 में वे दिल्ली चले आये और दिल्ली की टीम से खेलने लगे। घरेलू क्रिकेट में उनका अच्छा प्रदर्शन जारी रहा। 1976-77और 1977-78 के सीजन में शानदार प्रदर्शन के कारण 1977-78 के ऑस्ट्रेलिया दौरे पर उन्हें फिर से भारतीय टीम में जगह मिली। 1977-78 से 1981 तक का कालखंड उनके खेल जीवन का सबसे सफल समय था। उन्होंने अपना आखिरी टेस्ट मैच भी न्यूज़ीलैंड के विरुद्ध 1981 में खेला। इस प्रकार उन्होंने 40 टेस्ट मैचों में 16 अर्धशतकों की मदद से 31.7 की औसत से 2084 रन बनाए।जबकि प्रथम श्रेणी के 179 मैचों में 40.22 की औसत से 11143 रन बनाए।
अगर ये आंकड़े देखें तो आपको बहुत औसत लगेंगे। लेकिन दोस्तों अक्सर आंकड़े बहुत भ्रामक होते हैं। वे अक्सर सही तस्वीर प्रस्तुत नहीं करते। दरअसल उनके खेल जीवन के रोमांच और रोमांस को वे लोग ही समझ और महसूस कर सकते हैं जिन्होंने टीवी के आने से पहले रेडियो कमेंट्री से क्रिकेट के रोमांच का आनंद लिया है।
वे एक इंडिजुअल के रूप में भले ही साधारण लगें लेकिन वे एक सफल और शानदार जोड़ीदार थे। वे दुनिया के महानतम ओपनर बल्लेबाजों में से एक गावस्कर के सबसे बड़े जोड़ीदार थे और दोनों मिलकर सहवाग और गंभीर से पहले भारत की सबसे सफल ओपनिंग जोड़ी बनाते थे। इस जोड़ी ने 59 पारियों में 3010 बनाए जो एक रिकॉर्ड था और जिसे बाद में सहवाग गंभीर की जोड़ी ने तोड़ा। उन्होंने ये रन 53.75 की औसत से बनाए जिसमें 10 शतकीय साझेदारियां थीं। ये बात बताती है कि चौहान की और उनके खेल की क्या अहमियत थी। वे विकेट का एक सिरे थामे रहते और गेंद की चमक खत्म करते रहते और गावस्कर के लिए एक बड़े स्कोर का रास्ता बनाते। उनकी सबसे बड़ी साझेदारी 1979 में इंग्लैंड में ओवल पर 213 रन की थी जिसमें चौहान ने 80 रन बनाए। इस मैच में गावस्कर ने 221 रन बनाए थे।
इससे भी महत्वपूर्ण बात ये है कि उस समय भारतीय टीम दोयम दर्जे की टीम मानी जाती थी। और चौहान ने इंग्लैंड,वेस्ट इंडीज और ऑस्ट्रेलिया जैसी सर्वश्रेठ टीमों के खिलाफ ये प्रदर्शन किया था। ये प्रदर्शन इसलिए भी याद किया जाना चाहिए कि ये दौर क्रिकेट के सबसे खौफ़नाक बॉलिंग अटैक का था और चौहान का प्रदर्शन इसी अटैक के विरुद्ध किया गया था। इसमें अटैक में शामिल हैं सरफराज,रिचर्ड हेडली,थॉमसन,लिली,एंडी रॉबर्ट्स,होल्डर,बाथम। ये वो समय था जब बल्लेबाजों के लिए रक्षा उपकरणों का चलन शुरू नहीं हुआ था। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि चौहान का साधारण सा प्रोफाइल भी कितने रोमांच और संघर्ष से भरा है।
इसमें कोई शक नहीं कि चौहान किसी बड़ी प्रतिभा के धनी नहीं थे। उनके पास सीमित स्ट्रोक्स थे। उनके खेल की सीमाएं थीं। लेकिन वे विकेट पर टिकना जानते थे। वे विकेट पर समय बिताना जानते थे। उन्होंने पहला टेस्ट रन बनाने में 25 मिनट का समय लिया था। वे अपनी सीमाएं जानते थे। लेकिन वे कभी भी अपना विकेट गंवाते नहीं थे। उसे बॉलर को मेहनत करते लेना पड़ता था,उसे कमाना पड़ता था।
उनका खेल इस बात का प्रमाण है कि सीमित प्रतिभा को अपनी कड़ी मेहनत,संघर्ष और दृढ़ संकल्प से तराशा जा सकता है और उसे चमकीले नगीने में बदला जा सकता है। दरअसल वे अस्सी के दशक के उन क्रिकेट प्रेमियों के हीरो थे जिन्होंने उनकी बैटिंग का लुत्फ अपने ट्रांजिस्टर और रेडियो सेट पर जसदेव सिंह,सुशील दोषी, मुरली मनोहर मंजुल, स्कन्द गुप्त जैसे कमेंटेटरों के आंखों देखे हाल के साथ एक्सपर्ट चंदू सरवटे के कमेंट्स के माध्यम से उठाया था।
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विनम्र श्रद्धांजलि चेतन जी। आप हमेशा हमारे दिलों में रहोगे।
पसंद और नापसंद के बीच झूलता क्रिकेट हीरो
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Monday, 10 August 2020
देहरादून प्रवास डायरी 04
किसी की ज़िंदगी में तीस साल का वक़्फ़ा बहुत होता है. एक तिहाई या उससे थोड़ी ज़्यादा ही ज़िन्दगी. लेकिन एक शहर के लिए इतना वक़्फ़ा क्या होता है? शायद कुछ भी तो नहीं!
लेकिन समय है कि बहुत तेज़ दौड़ रहा है और आदमियों के साथ ये शहर भी दौड़े चले जा रहे हैं.
यूं तो किसी भी जगह को कुछ समय बाद दोबारा देखोगे तो कुछ बदली-बदली-सी ही लगेगी. पर इसमें सारा दोष जगह या समय का नहीं बल्कि आपकी स्मृति का भी होता है जो इस क़दर स्थिर होती है कि ज़रा-सी टस से मस नहीं होती. और समय है कि भागा-भागा जाता है, रुकने का नाम नहीं लेता. और जगहें तो समय के साथ ही क़दमताल करती है. वे ठहरी हुई स्मृति से बहुत आगे जा चुकी होती हैं. सवाल बस इतना है कि आगे जाने की कोई सीमा या गति भी होती है या नहीं.
कोई शहर तीस सालों में इस क़दर बदल जाएगा, इसका ज़रा भी गुमान न था.
एक शहर देहरादून था. एक शहर देहरादून है. उफ्फ़ क्या हाल हो गया है?
समय एकदम याद नहीं है. अगर स्मृति पर ज़्यादा ज़ोर डाला जाए तो एकदम सही समय भी बताया जा सकता है. फिर भी इतना तय है यह पिछली शताब्दी के अंतिम दशक का पहला या दूसरा साल ही था. वे गर्मियों के दिन थे. तब इस शहर को पहली बार देखा था. दिल आ गया था. लगा था कि शहर हो तो ऐसा. कितना भाग्यशाली लगा था ये शहर. इस शहर पे प्यार तो आया था मगर ईर्ष्या भी हुई थी यहां के लोगों से. तब यही लगा था इस शहर में रहने वाले कितने क़िस्मत वाले होंगे.
तब इस शहर को देखकर यही लगा था उफ्फ़ ये शहर! ये शहर है या कोई सुकोमल, कमनीय, ख़ूबसूरत, अलसाया-सा राजकुमार… हाँ, कुछ ऐसा ही तो लगा था. यह पहली नज़र में प्यार हो जाने वाला मसला था. एक ऐसा शहर जिसे मौसम की मार से बचाने के लिए चारों ओर पहाड़ियों ने दुशाला ओढ़ा रखा है. गहरी हरी घनी हरियाली ने सूर्य देवता के कोप से बचाने के लिए उसके सिर पर छावा कर दिया हो. और वो पहाड़ों की रानी मसूरी उसके शीश पर मुकुट सी शोभायमान थी. और रात में उसकी जलती-बुझती बिजलियां उस मुकुट में चमकती मणियों से कम कुछ भी प्रतीत हो सकती थीं भला. चारो ओर फैले बासमती के धानी रंग के खेतों के वस्त्र उस राजकुमार पर कितने फबते थे. और-और वे सरस, रसीली लीची और गदराए आम के पेड़ उसके वसन पर टंके सितारे से ही तो होते थे. बासमती की वो महक उसकी जठराग्नि दीप्त करती और आम और लीची को मादक गंध उसकी क्षुधा को शांत. वो राजपुर वाली सड़क तो उसके गले में पड़ा खूबसूरत हार ही था न. और हाँ, याद आया वो रिस्पना उसकी कमर पर लटकी करधनी ही थी न. और वे एलीट संस्थाएं मसलन भारतीय सैन्य अकादमी, फ़ॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट, डील, सर्वे कार्यालय! उसके सीने पर शान से लहराते तमगे ही तो थे.
ऐसे रूप पर आदमी तो क्या देवता का दिल भी न डोल जाए तो क्या हो. आख़िर इंद्र देव उस पर यूं ही मेहरबां थोड़े ही हुए होंगे कि सूर्य ने शरारतन जब भी इस राजकुमार को परेशान करने की नीयत से ज़रा-सा ताप बढ़ाया नहीं कि इंद्र की आंखों से दुःख की बूंदें बह निकलती और तब तक बहती रहती जब तक सूर्य के ताप से राजकुमार को राहत न मिल जाती.
हो सकता है दोस्तो, मैं उस राजकुमार की डिटेलिंग में कुछ भूल रहा हूँ. आख़िर उसकी ख़ूबसूरती को परखने के लिए दो दिन का वक़्फ़ा ज़्यादा थोड़े ही होता है. अगर आपको कुछ याद हो या याद आए तो आप उसमें जोड़ लेना.
ये आपकी ख़ुशक़िस्मती होती है कि आपकी इच्छाएं पूर्ण होती हैं. लेकिन इच्छाओं के पूर्ण होने की समय के साथ एक संगति भी होनी चाहिए. समय बीत जाने पर इच्छाओं का पूर्ण होना इच्छाओं के अपूर्ण रह जाने से होने वाले दुःख से भी ज़्यादा मारक साबित होता है या हो सकता है.
इच्छा पूरी हुई. मन की मुराद गले आ लगी. यज्ञ भूमि से देवभूमि में वास करने का मौका मिला. तो दून घाटी आ लगे. इस बार घूमने थोड़े ही आए थे. अब तो हम ख़ुद को उनमें गिन रहे थे, जिनको हमने पिछली बार ख़ुशनसीब माना था.
दिल उस ख़ूबसूरत राजकुमार को लंबे अरसे बाद देखने को बेताब हो चला था.
ये क्या! शहर में घुसते ही दिल धक-धक करते-करते हौंकने लगा था. ढलती साँझ के वक़्त हल्की बूंदाबांदी में रेंगते ट्रैफिक शहर की उदासी को घनीभूत करके रात को कुछ ज़्यादा गाढ़ा बनाने की भूमिका तैयार करता लग रहा था. अनहोनी की आशंका मन में जन्मने लगी थी, जिसे सच साबित होना था.
सोचा तो ये था इन बीते तीस सालों में ये सुकोमल-सा राजकुमार कुछ और गबरू नौजवान हो गया होगा. लेकिन ये क्या! ये तो ज़िम्मेदारियों के बोझ से दबा जवानी में ही बुढ़ाते, हांफते, गिरते-पड़ते आम आदमी-सा दिखाई देने लगा था. ये उम्मीदों का एन्टी-क्लाईमेक्स था.
चारों ओर कुकुरमुत्तों की तरह बेतरतीब सी उगी कॉलोनियां ने उसके पेट के आयतन को असीमित रूप से बढ़ा दिया है कि अब पैदल चाल तो क्या ऑटो इंची टेप से नाप पाना दुष्कर हो चला है. अब वे धानी धान के खेत वाले वसन उसके इस सुरसा के मुख की तरह बढ़े शरीर को ढक पाने में कहां समर्थ हैं. वे तो अब उसके शरीर पर चिथड़े से ही लगते हैं. हरियाली सिरे से ग़ायब है. अब लीची और आम के साथ-साथ बाक़ी पेड़ भी कहाँ बचे? तभी वो अब गंजा दीखने लगा है. अब शायद उसे ‘बाल्ड इज़ ब्यूटीफुल’ की सूक्ति से तसल्ली मिल जाती रही होगी. चारों तरफ फैला अतिक्रमण उसके चेहरे पर बेतरतीब खिचड़ी दाढ़ी-सा आंखों को चुभता है. आम और लीची की वो मीठी ख़ुशबू अब नालियों और नालों ने सोख ली है. जगह-जगह भरा पानी कील मुहांसे के अवशेष गड्ढे से नज़र आते हैं. और वे एलीट संस्थाएं अब तमगों की जगह टाट पर रेशमी पैबंद सी लगती हैं.
ऐसा नहीं कि उसके रंग-रूप को बचाने की कोशिश न की गई हो. बार-बार हुई है. लेकिन जब जब कोशिश होती वो उसके चेहरे पर किसी थर्ड ग्रेड सैलून में हुए फूहड़ मेकओवर से ज़्यादा कुछ नहीं होता. रूप बदलने के लिए एकाध बार प्लास्टिक सर्जरी की कोशिश भी हुई पर उससे बेहतर होने के बजाय और कुरूप होकर बाहर निकाला.
उफ्फ़ राजकुमार का ये हाल कर डाला उसके दरबारियों ने. वह भी इतने कम समय में. यकीन ही नहीं होता. हक़ीक़त और इतनी अविश्वसनीय. कमाल है न!
अब आप जब भी उस ख़ूबसूरत राजकुमार को देखने आएंगे तो उसकी जगह आपको संसाधनों के अभाव और बेशुमार ज़िम्मेदारियों के बोझ के मारे लाचार अधेड़ से मुठभेड़ होगी.
तो दिल थाम कर आइए. कलेजा हाथ में लेकर आइए. हां, आप इससे कभी पहले नहीं मिले तब कैसे भी चलेगा.
लेकिन कमाल है कि वो ज़िंदा है. उसमें एक दिल धड़कता है. वो अब भी वैसे ही धक-धक करता है जैसे कभी पहले करता था. जानते हैं क्यूं. क्योंकि इसमें अभी भी लिक्खाड़ रहते हैं, कवि और शायर रहते हैं, कलाकार रहते हैं, और बहुत सारे मानुस भी रहते हैं. वे अब भी इसमें विश्वास करते हैं और इससे प्यार करते हैं. वे उसमें जान फूंकते हैं. वे उसकी प्राण वायु हैं. उसकी धड़कन हैं.
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आज भी यकीन होता है शहर शरीर से कितना भी जर्जर हो जाए, आत्मा तो ज़िंदादिल बनी रहेगी.
#देहरादून_प्रवास_डायरी_04
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