Wednesday, 16 September 2015

जो ना हो सका



प्रेम 
आदमी के भीतर 

आग सा सुलगा
बादल सा बरसा

फूल सा खिला 
कांटे सा चुभा 

पवन सा चला 
नदी सा बहा

अमृत सा हुआ
विष सा बुझा

बचपन सा मुस्काया 
बुढ़ापे सा रोया 

समंदर सा गहराया
आसमान सा फैला

पक्षी सा उड़ा 
पतंग सा कटा 

विश्वास सा जमा
विश्वासघात सा फटा

सब हुआ किया
फिर भी क्या आदमी सा जिया।
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