भारतीय संस्कृति मूलतः उत्सवधर्मी है। इसमें उत्सवों का विशेष महत्व है। वर्ष भर यहां अलग अलग अवसरों पर इतने उत्सव और मेलों का आयोजन होता है कि शायद ही दुनिया के किसी कोने में होता हो। और कुंभ मेले का आयोजन इसका सबसे बड़ा प्रमाण।
कुम्भ मेला विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक मेला ही नहीं है, बल्कि हिंदुओं की धार्मिक परम्पराओं का,उनकी धार्मिक आस्थाओं का और उनके धार्मिक विश्वासों का सबसे बड़ा शाहकार भी है। इतना ही नहीं ये उनकी इस जीवन के पार पारलौकिक दुनिया के बारे में विश्वासों और धारणाओं के अतिरेक का प्रमाण भी है। अगर ऐसा नहीं होता तो इतनी बड़ी संख्या में लोग तमाम असुविधाओं,परेशानियों,यहां तक की जीवन के जोखिम को उठाकर भी अपने इस जीवन के साथ साथ परलोक को भी साधने के लिए इसमें भाग लेने क्यों आते। दरअसल इस मेले में एक अजब सा आकर्षण है जिससे वशीभूत हो दुनिया के कोने कोने से लोग खिंचे चले आते है। वे भी जिनकी इसमें आस्था है और वे भी जिनकी कोई आस्था नहीं है।
जीवन के प्रति अपने नज़रिए,रीति रिवाज़ों,परम्पराओं और मान्यताओं के कारण हम भारतीय पूरे संसार में यूं ही नहीं अनोखे समझे जाते हैं,अद्भुत समझे जाते हैं। गज़ब का जीवट और धैर्य होता है हम में। हम कई बार अतिवाद के ऊपरी छोर पर पहुँच कर पागलपन की चौहद्दी लांघते से लगते हैं। जीवन के सुख दुःख को इतनी समदृष्टि से देखते हैं कि दुखों का भी खुशियों की तरह उत्सव मनाते हैं। पूर्णिमा की उजली रात की तरह अमावस्या की स्याह रात का भी महा उत्सव रचते हैं। और कुम्भ मेला इसका प्रतिरूप है। इस मेले में भारतीय जनमानस के धार्मिक सांस्कृतिक जीवन भर को ही नहीं जाना जा सकता है बल्कि उसके मानस (pshyche) को भी समझा जा सकता है।
चार स्थानों पर लगने वाले ये कुम्भ मेले अपने उद्भव और अंतर्वस्तु में समान हैं। समुद्र मंथन से निकले अमृत कलश वाली कथा,अखाड़े,उनकी शोभा यात्राएं,पेशवाई,शाही स्नान,भजन कीर्तन,प्रवचन,लाखों श्रद्धालु, साधु संत और श्रद्धा व आस्था की बहती अबाध धारा। इन चारों स्थानों नासिक, उज्जैन,हरिद्वार और प्रयाग के मेले एक जैसी अंतर्वस्तु और धार्मिक भावना से अनुस्यूत होने के बावजूद अपनी प्रकृति और चरित्र में बहुत भिन्न हैं! और निसंदेह प्रयागराज में लगने वाला कुम्भ मेला बाकी सब मेलों से से अलग, अनोखा और महत्वपूर्ण है। गंगा यमुना और अदृश्य सरस्वती नदियों के पवित्र संगम पर आयोजित होने के कारण इसके विशिष्ट धार्मिक महत्व के कारण ही नहीं, बल्कि अपने पूरे स्वरूप के कारण भी।
प्रयागराज का कुम्भ मेला माघ मास में आयोजित होता है। यूं तो संगम तट पर हर साल माघ मेला आयोजित होता है और कुम्भ मेले को इस माघ मेले के वृहत और विस्तारित रूप देखा समझा जा सकता है। माघ मास में प्रयागराज की इस पावन भूमि पर कल्पवास का विधान है। कल्पवास का विधान प्रयागराज की विशिष्टता है। यहां कल्पवासी पूरे एक माह संगम की रेती पर शुचिता और संयम के साथ रहकर अपनी आत्मा को निर्मल और पवित्र करने का उपक्रम करते हैं। दरअसल ये कल्पवास का विधान केवल लोगों के मन की अधीरता को ही नहीं थामता है, वरन मेले की गतिशीलता को भी एक ठहराव प्रदान करता है। मेले के बाहरी भौतिक कलेवर के भीतर वैराग्य की एक अंतर्धारा मेले में प्रवाहित करता है। यही प्रयागराज के कुम्भ मेले की विशिष्टता बन जाती है। प्रयाग में भक्त अपनी भागती दौड़ती ज़िन्दगी में भी यहां आकर ठहर जाते हैं। ये एक माह का कल्पवास इस ठहराव का सबसे बड़ा वक्तव्य बन जाता है।
मेले की बाहरी गतिशीलता और शोर के भीतर जो ठहराव,निश्चिंतता और शांति की निर्मिति प्रयागराज के कुम्भ मेले में होती है,वो केवल कल्पवास के विधान भर से नहीं होती,बल्कि इसका भूगोल और प्रकृति भी रचती है। यहां गंगा बिना किसी बंधन या रुकावट के अपने प्राकृतिक बहाव में हैं। गंगा मां पहाड़ों से उतर कर यहां तक आते आते शांत चित्त हो जाती हैं,बेहद सुकून में,मंद मंद गति से अपनी मस्ती में बहती हुई। इसीलिए वहां के माहौल में गति नहीं है। गतिहीनता की स्थिति है,एक ठहराव है। वहां गंगा भक्तों में भी कोई हड़बड़ी या जल्दबाजी नहीं दीखती। वे ठहर जाना चाहते है और ठहरते भी हैं। शायद यही कारण है कि एक माह के कल्पवास का प्रावधान केवल यहीं है।
एक और बात, यहां के मेला क्षेत्र का कोई भी निर्माण पक्का या स्थायी है ही नहीं।(हालांकि इस बार कुछ पक्के घाटों का निर्माण किया गया है) यहां तक कि मुख्य स्नान घाट संगम नोज भी हर बार अपना स्थान बदल लेता है। चारों तरफ रेत ही रेत है और घाटों पर रेत की बोरियां हैं,पुआल है। ये सब यहां के ठहराव के ही अनुरूप है और वातावरण को और अधिक गतिहीन करते हैं। और ये सब मिलकर इस मेले को कहीं अधिक कोमल और पवित्र स्वरूप प्रदान करता है। अधिक सहज और सरल बनाते हैं,स्नानार्थियों के अनुभव को और आनंददायक बनाते हैं।
इस मेले का मूल स्वर अभी भी काफी हद तक ग्रामीण है। अभी भी परंपराओं का निर्वहन होता है। प्रयागराज के कुम्भ मेले में मनोरंजन और देशाटन की भावना अंतर्निहित होते हुए भी धार्मिक भावना प्रधान है।
इसकी तुलना में हरिद्वार के कुम्भ मेले को देखिए। हरिद्वार में मानव ने गंगा के प्राकृतिक बहाव को अवरुद्ध कर उस को बांधने का प्रयास किया। उसकी एक धारा को मोड़कर अपने अनुसार दिशा दी और उसके किनारों को ईंट,पत्थर और सीमेंट से बांधकर उसे नियंत्रित करने का प्रयास किया। नाम दिया 'हर की पैड़ी'। वहां गंगा का बहाव बहुत तीव्र है। उस वेग से जो ध्वनि वहां गूंजती है उससे बाज वक्त एक सिहरन सी पैदा होती है। ऐसा लगता है मानो इस बंधन से गंगा मां नाराज हैं, उद्विग्न हैं। इस बंधन से मुक्ति के लिए वेग से वहां से निकल जाना चाहती हैं। वहां पूरे वातावरण में एक अंतर्निहित गतिशीलता है। पूरा वातावरण ही गतिशील है। यहां सिर्फ गंगा ही गतिशील नहीं हैं बल्कि गंगा भक्त भी उतने ही गतिशील लगते हैं। यहां स्नानार्थी भी एक तरह की जल्दी में लगते हैं। कोई ठहराव नहीं है। उन्हें जल्द से जल्द स्नान पुण्य अर्जित कर शीघ्रातिशीघ्र वापस जाना है।
हरिद्वार में सारे निर्माण स्थायी हैं। पक्के घाट हैं। यहां भरपूर चकाचौंध है। यहां रंग बिरंगा प्रकाश है। ये रोशनी यहां अंधेरा खत्म करने से कहीं ज़्यादा सजावट के लिए है। कुल मिलाकर पूरा माहौल एक प्रकार की कृत्रिमता लिए हुए है। प्रगति का,आधुनिकता का सूचक है और यहां के माहौल की अंतर्निहित गतिशीलता को और गति प्रदान करता है। हरिद्वार में हर जगह ईंट और पत्थर हैं और उसकी कठोरता है।
एक ही कथा से उद्भूत और एक जैसी अन्तर्वस्तु लिए दो जगह लगने वाला एक ही मेला भूगोल और इतिहास के चलते अपनी प्रकृति में कितने अलग लगने लगते हैं।
यहां यूं तो पूरे कुम्भ में और विशेष रूप से विशिष्ट तिथियों पर आयोजित शाही स्नान के अवसर पर स्नानार्थियों का अपार जनसमूह स्वयं संगम का प्रतिरूप रचता है। परेड ग्राउंड और संगम क्षेत्र के मध्य बांध पर खड़े होकर इस दृश्य को देखना अपने आप में अनोखा अनुभव है। शहर में दक्षिण और पच्छिम दिशाओं से आने वाले यात्रियों के लिए परेड क्षेत्र से होकर आने वाला काली मार्ग संगम क्षेत्र में प्रवेश का मुख्य मार्ग होता है तो दूसरी और उत्तर से शहर में प्रवेश करने वाले यात्रियों के लिए दारागंज से होकर बाँध के नीचे वाला समानांतर मार्ग है जो बाँध के ठीक नीचे काली सड़क से मिलता है। दोनों तरफ से अनवरत जन प्रवाह आता है। जो मिलकर जनसैलाब का रूप धारण करता है। चारों तरफ नरमुंड ही नरमुंड चमकते हैं। ये बिलकुल गंगा यमुना के संगम सा दृश्य प्रस्तुत करता सा प्रतीत होता है। उत्तर दिशा से दारागंज से आता जनप्रवाह मानो गंगा हो जिसमें दक्षिण दिशा से परेड होकर काली मार्ग से आता यमुना जैसा अपेक्षाकृत बड़ा जनप्रवाह बाँध के नीचे दारागंज से आने वाले जनप्रवाह में मिलकर एक विशाल जनप्रवाह का निर्माण करता है।
दरअसल प्रयागराज का कुम्भ मेला एक ऐसा कैनवास है जिस पर ऐसे ही अनगिनत अद्भुत, अनोखे और आनंददायक अनुभवों,दृश्यों और फ्रेमों से भारतीय समाज के धार्मिक जीवन और उसकी उत्सवधर्मिता का चित्र अंकित होता है।
लेकिन दुख इस बात का है कि इसके मूल स्वरूप के साथ छेड़छाड़ की जा रही है। पूरे मेले पर व्यावसायिकता हावी हो रही है। चकाचौंध बढ़ रही है। मनोरंजन तत्व हावी हो रहा है और धार्मिकता विमुख। सादगी और सरलता का स्थान चालक दमक और क्लिष्टता ले रही है। संख्या बल पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है।
शायद प्रशासन की प्राथमिकताएं गलत दिशा में जा रही हैं। हर स्थान और आयोजन की एक सीमा होती है। उस सीमा का अतिक्रमण होने पर कितना भी प्रयास क्यों ना किया जाए,अव्यवस्था उत्पन्न होती ही है। प्रयागराज के कुम्भ मेले में बिना प्रचार प्रसार के ही करोड़ों लोग अपनी आस्था के वशीभूत स्वयं आते हैं। ये संख्या कम नहीं है। लेकिन प्रशासन का लक्ष्य अधिकाधिक संख्या बल है। अब मेला क्षेत्र दोगुने से भी अधिक कर दिया गया है। विशिष्ट तिथियों पर बहुसंख्या को संगम नोज आने ही नहीं दिया जाता बल्कि बहुत दूर पर स्नान कराकर वापस भेज दिया जाता है। संगम तक आने के लिये मीलों पैदल चलना पड़ता है। होना ये चाहिए कि संख्याबल बढ़ाने के बजाए जो लोग आ रहे हैं उन्हें संगम क्षेत्र में आने का अवसर मिले और इस क्रम में उन्हें कम से कम असुविधा हो। इस क्षेत्र में मूलभूत सुविधाओं का विस्तार होना चाहिए।
लेकिन आम जनता इन असुविधाओं की आदी होती है। इन परेशानियों से दो चार होना उसकी नियति है। उसके लिए उसकी धार्मिक मान्यताओं के निर्वहन में ये असुविधाएं तो कुछ भी नहीं,असुविधाओं का पहाड़ भी सामने हो तो उसे भी लांघने का हौसला और जूनून रखती हैं।
और आम जनता का जूनून और उसकी मेले में सहर्ष भागीदारी से ही कुम्भ मेला एक अद्भुत अहसास बनता है। इसी से तो पता चलता है कि कुम्भ मेला भारतीयों की धार्मिक आस्था और विश्वास का,उनके हर्ष, उल्लास,उनकी सामूहिकता,विश्व बंधुत्व की भावना का शाहाकार ही नहीं है बल्कि उनकी अतिवादिता का,जो पागलपन की सीमा को छू छू जाती है, का भी उदाहरण है। ये कुम्भ मेला एक ऐसा बयान है जो उस भारतीय मानसिकता को निदर्शित करता है जिसमें वे देश का अवाम दुःख और अभावों के इस कदर आदी हो जाता है कि सुख के अभाव में दुखों का भी उत्सव गान करता हैं और पूर्णिमा की उजली रात की तरह अमावस की स्याह रात का भी उत्सव राग बुनता है।
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