Wednesday, 22 January 2025

शतरंज की बिसात पर भारत की बिसात


 वे बचपन के दिन हुआ करते थे जब हम भी चौसठ खानों की बिसात पर शह और मात के खेल के दीवाने होते थे। पर इससे पहले कि हम बिसात के मोहरों की चालों के उस्ताद हो पाते, उन चालों को सिखाने वाले उस्ताद पिता को सरकार ने किसी एक स्थान पर जमने ना दिया और उनका साथ ना मिलने के कारण हम शतरंज के खेल का उस्ताद बनते बनते रह गए। शौक था कि छूट गया और एक सपना कि टूट गया।

पने टूट जाते हैं,पर उनकी कसक बनी रहती है। बिसात पर प्यादों को लड़ाने का शौक भले ही छूट गया हो,भले ही चालों को चलने का हुनर ना सीख पाएं हों,पर उस खेल से मोहब्बत में हम पड़े रहे। हम उस खेल को खेलने वाले उस्ताद खिलाड़ियों से और खेल की गतिविधियों से बावस्ता रहे। उनकी खबरों को पढ़ पढ़कर अपने सपने को जीते रहे।

ये वो समय था जब विकटों के बीच दौड़ने वाला ग़िंदू टोरे (गेंद बल्ले) का खेल भारत के लोगों का धर्म नहीं बना था। हॉकी सही अर्थों में उस समय तक राष्ट्रीय खेल ही होता था और हॉकी स्टिक राष्ट्रीय उपकरण। उन दिनों हॉकी की स्टिक मैदान के भीतर खिलाड़ी के हाथों में सफेद बॉल से खेलने वाला एक खेल उपकरण होने से अलहदा भी बहुत कुछ हुआ करता थी। मसलन दादानुमा लड़कों के हाथों में उनके वर्चस्व को संभालने का हथियार भी होती और आम आदमी के घर पर अवांछित लोगों से निपटने और उनकी रक्षा का सबसे आजमाया और भरोसेमंद साथी भी हुआ करती।

न दिनों पत्रकारिता किसी मिशन सरीखी साख रखती और अखबारों की अपनी अच्छी खासी पैठ हुआ करती थी। उनके खेलपृष्ठों पर क्रिकेट की खबरें तब भी होतीं। पर उसमें रोहिन्टन बारिया कप,शीशमहल ट्रॉफी और मोइनुद्दौला कप जैसी प्रतियोगिताओं की खबरें भी अहमियत पातीं। फिर रणजी ट्रॉफी तो राष्ट्रीय प्रतियोगिता थी,तो उसकी खबरें तो विस्तार से होती ही थीं। लेकिन मार्के की बात ये है हर खेल की खबरें समान स्पेस पाती थीं। हर खेल की राष्ट्रीय और अखिल भारतीय प्रतियोगिताओं की खबरें इतना विस्तार जरूर पातीं कि हम हर खेल के उस्ताद खिलाड़ियों,खेलों की चैंपियन टीमों और विजेताओं को भली भांति जानते पहचानते। फिर वो खेल फुटबॉल हो,बास्केटबॉल हो,हॉकी हो,टेबल टेनिस या खो-खो,कबड्डी हो या फिर शतरंज का खेल हो। दरअसल ये अखबार,खेल पत्रिकाएं और रेडियो कमेंट्री ही थी कि खेलों से हम अपनी मोहब्बत को जिंदा रख पाए थे।


 ये उन्हीं दिनों की बात है जब शतरंज के खेल में मैनुअल आरोन सबसे बड़े खिलाड़ी हुआ करते थे। वे नौ बार राष्ट्रीय चैंपियन बने। वे साल दर साल चैंपियन बने जाते और हम आरोन के बड़े  फैन हुए जाते तो जनाब सैयद नासिर अली साहेब और राजा रविशेखर उनके सबसे बड़े प्रतिद्वंदी। फिर एक समय ऐसा आया कि आरोन की चालों में वो तासीर ना रह पाई और तब प्रवीण थिप्से और दिव्येंदु बरुआ का सितारा बलंद हुआ जाता था। लेकिन उनके राष्ट्रीय फलक पर प्रसिद्धि पाने के दो  चार साल बाद ही भारत में एक ऐसे खिलाड़ी का आगमन होना था जिसको भारतीय शतरंज की पहचान को अंतर्राष्ट्रीय फलक पर स्थापित करना था। इस शख़्स का नाम विश्वनाथन आनंद था।

ये अस्सी का दशक था जब तमिल भूमि का  बालक विश्वनाथन आनंद शतरंज की बिसात पर अपनी बहुत तेज चालों के कारण 'लाइटनिंग किड' के नाम से जाना जा रहा था और  सन 1984 में एशियाई जूनियर चैंपियन बन कर अपने भविष्य की झलक दिखा दी थी। 14 साल की उम्र में उन्होंने नौ बाजियों में नौ जीत के परफेक्ट स्कोर के साथ इंडियन नेशनल सब-जूनियर चैंपियनशिप जीत ली थी। 15 साल की उम्र में वे अंतरराष्ट्रीय मास्टर खिताब हासिल करने वाले सबसे कम उम्र के भारतीय बन गए थे। 1986 से 1988 तक उन्होंने लगातार तीन राष्ट्रीय चैंपियनशिप में जीत हासिल की। ​​17 साल की उम्र में आनंद ने 1987 में विश्व जूनियर चैंपियनशिप जीती तो वे विश्व शतरंज खिताब जीतने वाले पहले एशियाई बने। आनंद ने 1988 में अंतरराष्ट्रीय ग्रैंडमास्टर खिताब अर्जित किया। वे पहले भारतीय ग्रैंडमास्टर थे। ये किसी शतरंज खिलाड़ी द्वारा प्राप्त की जा सकने वाली सबसे बड़ी उपाधि होती है।


1975 में अमेरिकी बॉबी फिशर के पराभव के बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहले अनातोले कारपोव और फिर गैरी कास्परोव ने अगुआई में रूस का एकछत्र राज रहा था। इस वर्चस्व का अंत आनंद को ही करना था,ये बात 1991 में ही तय हो गई थी। उस साल उन्होंने कैंडिडेट्स टूर्नामेंट में पिछले कैंडिडेट्स के चार सेमीफाइनलिस्टों के साथ एक स्थान अर्जित किया और पहले गैर-रूसी विश्व चैंपियन बनने के प्रबल दावेदार बनकर उभरे।

अंततः सन 2000 में आनंद ने फ़िडे विश्व चैंपियनशिप जीती। उसके बाद 2007 में उन्होंने दूसरी बार विश्व खिताब जीता। इस बार उनका खिताब निर्विवाद था। उसके बाद तीन बार अपने इस खिताब की रक्षा की। वे कुल पांच बार विश्व चैंपियन रहे और भारत को शतरंज की बिसात पर स्थापित ही नहीं किया, बल्कि उनकी असाधारण सफलता ने भारत में शतरंज को अत्यधिक लोकप्रिय कर दिया और खिलाड़ियों की एक पूरी पीढ़ी तैयार हुई जिसने भारत को शतरंज के शिखर पर पहुंचाया। आज भारत में ग्रैंडमास्टर्स की एक पूरी फौज खड़ी है। आज भारत में कुल 85 ग्रैंडमास्टर्स हैं।

विश्वनाथन आनंद का इस खेल के लिए सबसे बड़ा योगदान ये है कि उन्होंने युवाओं को ना केवल विश्व चैंपियन बनने का सपना देखना सिखाया बल्कि विश्व चैंपियन बनने के लिए जरूरी आत्मविश्वास और सलाहियत भी दी।

ये साल 2013 था। वे चौथी बार अपने खिताब को   बचाने का प्रयास कर रहे थे। उन्हें चुनौती दे रहे थे नॉर्वे के मैगनस कार्लसन। नवंबर की नीम सर्द में चेन्नई के हयात रिजेंसी होटल में ये मुक़ाबला हो रहा था। जिस हॉल में ये मुक़ाबला चल रहा था उस हाल के शीशे के पार एक सात साल का बालक ये मुक़ाबला देख रहा था जिसने अभी अभी बिसात के मोहरों से दोस्ती की थी। विश्वनाथन आनंद ये मुक़ाबला हार गए और विश्व चैंपियन का खिताब भी। लेकिन ये हार इतनी निराशाजनक भी नहीं थी। क्योंकि उस हार ने भी एक भविष्य के एक चैंपियन को जन्म जो दे दिया था। 


शीशे की दीवार के पार जो सात साल का बच्चा था उसका नाम डी. गुकेश था। उस मुकाबले को देखते हुए उस बच्चे ने सोचा था कि उस सीट पर बैठना कितना शानदार होगा जिस पर आनन्द बैठे हैं। उस दिन उस बालक के मन में सपना जगा। उस सीट पर बैठने का और विश्व विजेता बनने का।

11 साल बाद सात साल का वो लड़का 18 साल हो चुका था। वो बचपन का सपना अब भी जी रहा था। हां अब उसके साकार होने का समय आ चुका था। साल 2024 का नवंबर दिसंबर के महीने। सिंगापुर के रिजॉर्ट वर्ल्ड सेंटोसा में डी. गुकेश नाम का वो लड़का विश्व चैंपियन चीन के डिंग लॉरेन को चुनौती दे रहा था। मुकाबला 14वीं बाज़ी तक चला और अंततः 14 वीं बाज़ी में डिंग को हराकर मुकाबला जीत लिया। एक जिया जा रहा सपना हकीकत में बदल गया था।

तरंज की बादशाहत एक बार फिर भारत लौट चुकी थी। विश्व को शतरंज का एक नया उस्ताद मिल चुका था। वो अब तक का सबसे कम उम्र का उस्ताद था। डी.गुकेश। उम्र 18 साल। 

विश्व खिताब के लिए सजी बिसात की पहली ही बाज़ी में जब डिंग ने जीत हासिल की तो लगा डिंग अपने खिताब की रक्षा कर ले जायेंगे। ये जीत डिंग को काले मोहरों से मिली थी। इस बाज़ी में उन्होंने फ्रांसीसी डिफेंस खेलकर सबको चौंका दिया था। दूसरी बाज़ी ड्रॉ हुई। तीसरी बाज़ी में गुकेश सफेद मोहरों से खेल रहे थे। क्वींस गैम्बिट डिक्लाइन्ड ओपनिंग के साथ गेम जीत कर मुकाबले में वापसी की। इसके बाद लगातार सात बाज़ी बराबरी पर छूटीं। 11वीं बाज़ी में गुकेश ने डिंग को एक बार फिर हरा दिया और मुकाबले में पहली बार बढ़त हासिल की। लेकिन डिंग लॉरेन ने अगली ही बाज़ी में इंग्लिश ओपनिंग के साथ खेलते हुए गुकेश को हरा दिया। 13वीं बाज़ी फिर बराबरी पर छूटी। और फिर आई आखिरी बाज़ी। गुकेश अपनी चालों को तीव्रता से चलने के लिए जाने जाते हैं और समय का दबाव उन पर नहीं रहता। इससे विपक्षी दबाव में आता है। डिंग लॉरेन के साथ यही हुआ। उनके पास समय बहुत कम बचा। इस दबाव में 56वीं चाल में वे एक बेजा गलती कर बैठे और फिर वापसी का कोई मौका गुकेश ने नहीं दिया। 


ब एक चौसठ खानों की बिसात का एक नए बादशाह की ताजपोशी हो चुकी थी। गुकेश डी की। विश्व का सबसे कम उम्र का चैंपियन। इसकी आंखों में आंसू थे। खुशी के। शहद से मीठे। एक इतिहास की निर्मिती हो चुकी थी। उसने प्रतिद्वंदी से हाथ मिलाया और फिर बैठ गया। वो एक बार फिर बिसात पर धीरे धीरे मोहरों को सेट करने लगा। वो अपने 18 साला जीवन के 'सबसे अविस्मरणीय और महान क्षण' को भरपूर जी लेना चाहता था। हमेशा के लिए स्मृतियों को क़ैद कर लेना चाहता था। निःसंदेह उसकी आंखों के पानी में वे सारे क्षण झिलमिला रहे होंगे जो इस सपने को पूरा करने की यात्रा के सबसे अहम पड़ाव रहे होंगे। वो इन्हें एक बार फिर से जी लेना चाहता था।

ये भारतीय शतरंज खेल के ही नहीं, बल्कि समूचे भारतीय खेल इतिहास के सबसे गौरवशाली क्षणों में से एक था। 11 साल बाद खिताब उसी शहर चेन्नई में लौट आया था जहां से गुकेश के मेंटर और गुरु विश्वनाथन आनंद ने गंवा दिया था। ये एक शिष्य की अपने गुरु को सबसे शानदार गुरुदक्षिणा थी। आखिर वे विश्वनाथन की वेस्टब्रिज आनन्द चेस अकादमी के प्रशिक्षु थे।

क गुरु के लिए इससे बढ़कर और क्या ही हो सकता है कि वो अपने शिष्य को अपने नक्शे कदम पर चलता देखे और अपने से आगे बढ़ता देखे। साल 2023 के सितंबर माह में गुकेश ने ही आनन्द के 37 साल के लंबे एकछत्र राज को खत्म  करके भारत का नंबर एक चेस प्लेयर बनने का गौरव हासिल किया था। आनंद ने इसे जुलाई 1986 में दिव्येंदु बरुआ से पाया था।

रअसल गुकेश की ये सफलता जितनी उसकी अपनी नैसर्गिक प्रतिभा और अपनी लगन,दृढ़ संकल्प और मेहनत की है,उतनी ही उसके माता पिता के प्रयासों और समर्थन की भी है,और उतनी ही भारत और विशेष रूप से चेन्नई के पिछले दस सालों में शतरंज के लिए बने वातावरण और खेल संस्कति की भी है जिसने भारत में शतरंज के खिलाड़ियों की फौज खड़ी कर दी है। ये यूं ही नहीं है कि भारत के 85 ग्रैंडमास्टर्स में से 31 केवल और केवल चेन्नई से हैं।

ये पिछले कुछ सालों में भारत में निर्मित चेस संस्कृति का ही सुफल है कि 2024 में बुडापेस्ट में आयोजित 45वें चेस ओलंपियाड में भारत ने महिला और पुरुष दोनों वर्गों में स्वर्ण पदक जीते और साथ ही चार वैयक्तिक स्वर्ण पदक भी। उसके बाद गुकेश विश्व चैंपियन बने और हरिका रैपिड शतरंज की दूसरी बार विश्व चैंपियन। ये इस विकसित चेस संस्कृति की ही देन है कि आज गुकेश के अलावा अर्जुन एरिगेसी,विदित गुजराती और प्रज्ञानंद जैसे विश्व चैंपियन बनने की सलाहियत रखने वाले युवा खिलाड़ी भारत में है।

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निःसंदेह शतरंज के इस खेल में भारत का भविष्य उज्जवल है।


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