हर शहर का एक साहित्यिक आभामंडल होता है। उस आभामंडल में तमाम सितारे होते हैं जो आंखों को चकाचौंध से भर देते हैं। लेकिन जब आप उस चकाचौंध को पार कर कुछ गहरे जाते हैं तो कुछ मद्धिम शीतल प्रकाश लिए ऐसे सितारे होते हैं जो आत्मा को दीप्त कर देते है। विस्मय से भर देते हैं। प्रेम और करुणा से सराबोर कर देते हैं
देहरादून की अदबी जमात के प्रमुख सितारों की चकाचोंध के पार भी दो ऐसे ही सितारों का एक युग्म है जिसका प्रकाश आंखों को नहीं बल्कि दिल को प्रकाशमान करता है। ये युग्म अवधेश और हरजीत का है।
देहरादूनी अदबी जमात की हंसी के बीच किसी बच्चे की किलकारी गर आपको सुनाई दे तो आप समझ जाइए ये हरजीत है। उस जमात से कोई संगीत की उदास सी धुन सुनाई दे तो समझ लीजिए ये हरजीत है। उस जमात की सदा में कोई सदा दोस्त की सी लगे तो समझो वो हरजीत है।
कोई भी शास्त्रीय गायन तानपुरे के बिना कहां पूरा होता है। कितना ही सिद्धहस्त गायक क्यों ना हो। तानपुरा गायक को वे अवकाश देता है जो उसकी लय को बनाए रखने के लिए सबसे जरूरी होते हैं। वो गैप्स को,अंतरालों को भरता है। वो बिना लाइमलाइट में आए महत्वपूर्ण काम करता है। दरअसल हरजीत देहरादून के साहित्यिक जमात के संगीत का तानपुरा है।
हरजीत की कहानी आपको विस्मित भी करती है और करुणा से भर देती है। पेशे से बढ़ईगिरी करने वाला ये शायर बहुमुखी प्रतिभा का धनी था। अभावों के बीच भी वो उम्दा शेर कहता,खूबसूरत कैलीग्राफी करता, बेहतरीन कोलाज बनाता,कमाल की फोटोग्राफी करता। वो शास्त्रीय संगीता का दीवाना था और फक्कड़ यायावर। जितना अधिक भटकाव उसके स्वभाव में था, उसकी शायरी उतनी ही सधी हुई थी।
हम जानते हैं भारतीय किस कदर उत्सवधर्मी होते हैं। अभावों से उपजा दुख इस कदर उनकी रगों में बहता है कि वे दुखों को भी सेलिब्रेट करने लग जाते हैं। क्या वजह है कि उजली पूर्णिमा के साथ अंधेरी अमावस्या का भी उसी उत्साह से उत्सव मनाते हैं। हरजीत भी ऐसा ही था। दुनियादारी के पेचोखम से नावाफ़िक वो अपने अभावों का सुखों की तरह ही उत्सव मनाता। टूटी छत से चिड़िया को घर के अंदर आते देख वो कहता है-
"आई चिड़िया तो मैंने जाना/
मेरे कमरे में आसमान भी था"।
इससे ज़्यादा आशा और उम्मीदों से भरा हरजीत के अलावा कौन हो सकता था।
उसके भीतर एक बच्चे सा साफ शफ्फाक मन वास करता। तभी तो वो कठोर काष्ठ को सजीव खिलौनों का रूप दे देता। वो कहता-
"गेंद, गोली,गुलेल के दिन थे/
दिन अगर थे तो खेल के दिन थे"।
वो प्रेम से भरा रहता। जब वो प्रेम से उमगता तो कहता-
"हम तुझे इतना प्यार करते हैं/
हम तेरी फ़िक्र ही नहीं करते"
उसे साथ पसंद था। दोस्ती पसंद थी। जिसको उसकी दोस्ती नसीब हुई वो कितने खुशकिस्मत थे। वो एक जगह लिखता है-
"आप हमसे मिलें तो ज़मी पर मिलें
ये तकल्लुफ़ की दुनिया मचानों की है"
एक ऐसा ही दोस्त है नवीन कुमार नैथानी। वो युग्म में एक तीसरा आयाम जोड़ता है। वो अवधेश और हरजीत के साथ मिलकर दोस्ती की त्रयी बनाता है। कभी उससे मिलिए और हरजीत का ज़िक्र भर कर दीजिए। उसकी आंखों में हर्ष और विषाद एक साथ उतर आते हैं। वो किस्सों पर किस्से कहे जाता है। वो बताता है हरजीत विचारधाराओं के पचड़े में कभी नहीं पड़ा। एक बार जब उसकी ग़ज़लों को वाम सिद्ध किया जाने लगा तो उसने अपनी वही रचनाएं धर्मयुग में छपवाकर उसका प्रतिवाद किया।
अगर हरजीत की दोस्ती के चलते उसके दोस्त खुशनसीब थे तो हरजीत भी कम खुशनसीब कहां था। उसे ऐसे दोस्त मिले जो उसके जाने के बाद भी उसे हमेशा दिल में बसाए हैं। उनकी एक दोस्त हैं तेजी ग्रोवर। उन्होंने हरजीत के सारे दोस्तों को,उसके चाहने वालों को एकत्रित किया। फिर उन सबसे हरजीत की यादों को, उसके लिखे को बटोर कर एक किताब की शक्ल दे दी। नाम है 'मुझसे फिर मिल'।
दरअसल ये हरजीत को उसके चाहने वालों से,नए पाठकों से और दुनिया जहान से मिलवाने का सच्चा सा उपक्रम है। उसकी यादों को जिलाए रखने का एक बेहद संजीदा प्रयास है।
इसमें हरजीत के दो पूर्व प्रकाशित संग्रह 'ये पेड़ हरे हैं' और 'एक पुल' के अलावा एक अप्रकाशित संग्रह 'खेल' और तमाम अप्रकाशित गज़लें शामिल की गई। इसके अलावा उनके कई दोस्तों व अन्य लोगों के हरजीत के बारे आत्मीय उद्गार हैं और दो आलेख भी।
इनमें से एक शानदार संस्मरणात्मक आलेख सुप्रसिद्द चित्रकार लेखक जगजीत निशात का है 'हरजीत और उसका 'हरजीत' बनना'। इसमें निशात हरजीत को हरजीत बनाने के प्रक्रिया की पड़ताल ही नहीं करते बल्कि देहरादून के उसके समकालीन सांस्कृतिक माहौल को भी बखूबी उद्घाटित करते चलते हैं।
एक और संस्मरणात्मक आलेख ज्ञान प्रकाश विवेक का है। ये आलेख बहुत ही मार्मिक बन पड़ा है। वे लिखते हैं- 'हरजीत से मिलना किसी बहुत अच्छे मौसम से मिलने जैसा था.वह खुद किसी पेड़ जैसा था-किसी दरख़्त जैसा..... एक ऐसा दरख़्त,जिसके पत्तों पर आसमान आराम कर रहा हो,जिसकी शाखों में ज़िंदगी के संघर्ष जुड़े हों और जड़ों में कई जोड़ी पांव हों जो उसमें आवारगी और घुमक्कड़ी का अहसास पैदा करते हों.... उसमें बेचैनियों की खुशबू थी,जज़्बात की तरलता थी। उसे अपने सबसे विकट समय में भी मुस्कुराते देखना चकित करता था"।
वो अपने समय का बेहतरीन ग़ज़लकार था जो बेहद संवेदनशील और संवेगों से भरा था और ग़ज़ल के क्षेत्र में नया मुहावरा गढ़ रहा था। ज्ञान प्रकाश आगे लिखते हैं "हिंदी ग़ज़ल के कूड़े में अपनी अलग पहचान कराने वाला संवेदनशील,मैच्योर और समझदार ग़ज़लकार था।"
हरजीत का प्रकृति से अद्भुत जुड़ाव था। उसके पहले ही संग्रह का नाम 'ये हरे पेड़ हैं' है। वो लिखता है-
"कश्तियाँ डूब भी जाएं तो मरने वालों में
होश जब तक रहे साहिल का गुमाँ रहता है
ये हरे पेड़ हैं इनको ना जलाओ लोगों
इनके जलाने से बहुत रोज़ धुंआ रहता है"
एक जगह वो लिखता है-
"हरी ज़मीन पे तूने इमारतें बो दी
मिलेगी ताज़ा हवा पत्थरों में कहाँ"
या फिर
"ज़िंदा चेहरे भी बदल जाते हैं तस्वीरों में
पेड़ मरते हैं तो ढल जाते हैं शहतीरों में"
और फिर ऐसे हरे पेड़ के शैदाई को प्रकाशन संस्थान संभावना प्रकाशन की इससे खूबसूरत श्रद्धांजलि और क्या हो सकती है कि इस किताब को छापने में उसने पेड़ों को नष्ट नहीं किया। किताब को गन्ने की खोई से बने कागज़ पर छापा।
अब देहरादून में महसूस होने वाला सबसे बड़ा मलाल और कमी उस महबूब शायर से ना मिल पाना है। लेकिन आप उसे यहां महसूस कर सकते हैं। यहां के साहित्यिक माहौल में वो एक अहसास सा उपस्थित रहता है।
और ये भी कि मेरे तईं देहरादून की तमाम पहचानों में एक बड़ी पहचान हरजीत भी है। उसको जानने के बाद जब भी देहरादून जाएंगे उसकी याद तो आएगी ही और होठों बरबस गुनगुना उठेंगे कि-
"ढूंढते फिरते हैं हम उस शख़्स का पता
जिससे हों इस शहर के माहौल की बातें बहुत।"
और
और हरजीत आपके कानों में आकर चुपके से कहेगा -
"सोचता हूँ कहां गए वो दोनों
मेरी साइकिल वो मेरा देहरादून"
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