उस दिन किशोर प्रेमी युगल को देखते हुए उसने कहा 'आजकल का प्रेम भी कोई प्रेम होता है! आज प्रेम,कल ब्रेकअप। प्रेम तो हमारे ज़माने में होता था।'
मैंने उसकी ओर शरारत भरी दृष्टि से देखा और पूछा 'तुम्हारा ज़माना!'
उसने भी शरारतन कहा 'हाँ, तुम्हारे बैलगाड़ी वाले समय के बाद साइकिल वाला ज़माना।'
मेरे ओंठ मुस्कुराहट से फैल गए। मैंने फिर पूछा 'और कैसा था वो तुम्हारा साइकल वाला ज़माना!'
'हमारा ज़माना आज के मल्टीप्लेक्स,मोबाइल,ओटीटी,बाइक वाला फटाफट इंस्टा ज़माना थोड़े ही ना था। वो तो रेडियो वाला 'हौले हौले चलो रे बालमा' वाला ज़माना था।' कहते कहते उसकी आवाज़ अतीत में धंस गईं और आंखें यादों से चमक उठीं।
उसकी बात को आगे बढ़ाते हुए मैं खुद अतीत में गहरे उतर आया था। मैंने कहा 'यानि तुम्हारे समय का प्रेम धीमे धीमे सींझते हुए परिपक्व होता था। जैसे गांवों में हारे पर धीमी धीमी आंच में पकती दाल या औटता हुआ दूध।'
उसने उत्साह से भरते हुए कहा 'और क्या ! तब प्रेम खतो-किताबत से धीमे धीमे परवान चढ़ता था। क्या समय हुआ करता था वो भी। क्या प्रेम पत्र लिखे जाते थे उन दिनों। दरअसल वो समय ही 'प्रेम पत्रों' का समय था।'
फिर उसने बाल सुलभ उत्सुकता से पूछा 'तुम्हें याद है तुमने अपने पहले पत्र में क्या लिखा था?'
अब यादें अतीत के गलियारे तय करने लगीं। और फिर यादों ने उन शब्दों को अतीत की भूलभुलैया से ढूंढ निकाला। मैंने कहा 'हां वो एक लाइन की पाती थी- 'लिखे जो खत तुझे'
उसने खिलखिलाकर कहा 'और उसके बाद तुम तीन दिन कॉलेज नहीं आए थे।'
मैंने ठहाका लगाया 'तुम्हारी याददाश्त कमाल है।'
'और तुम्हें वो वाली चिठ्ठी भी याद है ना जो तुमने घर जाते हुए लिखी थी।' उसने फिर पूछा।
यादें एक बार फिर छटपटाईं और स्थिर हो गईं। मैंने मुस्कुराते हुए कहा 'वो भी वन लाइनर ही था कि 'तुम भी खत लिखना'।'
अब शरारत उसकी आँखों से उतर कर उसके ओंठों पर ठहर गई। उसने शोखी से पूछा - 'तो खत आया क्या!' इसमें सवाल कम उत्तर अधिक था।
मैंने कहा 'हां उसमें बस इतना ही लिखा था- 'इन दिनों यहां बादल खूब बरस रहे हैं। और आंखें भी।'
वो फिर अतीत में डूब गई। एक बार प्रेम फिर आंखों से बरसने लगा। वो प्रेम की नमी से गल चुकी थी। 'तो तुमने जवाब भेजा!' उसने तरल हुई रेशम सी आवाज़ में पूछा।
मैंने यादों के हवाले से कहा 'केवल एक शब्द लिखा था '....तुम्हारा'
वो जवाब सुन खिलखिला उठी कि पास के खिले फूलों का रंग कुछ और गहरा हो उठा। पत्तियां कुछ और हरी हो गईं। चिड़िया कुछ और चहक उठीं। घास के तिनको पर ठहरी ओस की बूंदें उसकी ऊष्मा से सुध बुध खोकर अपना अस्तित्व ही खो बैठी। सूरज कुछ और तेजस्वी हो उठा और सुबह कुछ और जवान।
उसके स्वर में बरसों से ठहरी जिज्ञासा मुखर हो आई - 'ये तुम्हारे 'प्रेम पत्र' वन लाइनर क्यूं होते थे।'
'उन दिनों मौन अधिक वाचाल जो होता था।अनलिखा ही सब कह जो देता था।' मैंने हँसते हुए कहा।
°°°°°°
अब पूछने को कुछ बाकी रहा भी हो तो पूछा ना गया। शब्दों ने मौन जो धारण कर लिया था।
मौन के बीच एक धड़कता दिल 'पाती' हुआ जाता था, दूसरा 'कलम'। कलम से शब्द शब्द प्रेम पाती पर रिसता जाता।
उधर मौन था कि 'कलम' से लिखी जा रही इस 'प्रेम पाती' को बांच रहा था।
और
और यादों की आंख से निकले आंसू थे कि अतीत की पीठ को भिगो भिगो जाते थे।
No comments:
Post a Comment